197. संध्या एवं ब्रह्म प्राप्ति 09

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अथ ब्रह्मयज्ञः (वैदिक संध्योपासना)

ओ३म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।। (यजु ३६/३) (गायत्री मन्त्र का शब्दार्थ एवं भावार्थ तथा पद्यानुवाद पूर्व लिख आए हैं वहीं देख लें।)
अथाचमनमन्त्रः
ओ३म् शन्नो देवीरभिष्टय ऽ आपो भवन्तु पीतये।
शंयोरभि स्रवन्तु नः।।
 (यजु. ३६/१२)
शब्दार्थ :- शम – कल्याणकारी नः – हमारे लिए देवीः – सबका प्रकाशक अभिष्टये – मनोवांछित सुख के लिए आपः – सर्वव्यापक ईश्वर भवन्तु – होवे पीतये – मोक्षसुख के लिए शंयोः – सुख की अभिस्रवन्तु – वर्षा करे नः – हमारे लिए।
इस मन्त्र में मानव जीवन लक्ष्य को अभिष्टी तथा पीती शब्दों द्वारा भोग और अपवर्ग रूप में अभिव्यक्त किया गया है।
अथेन्द्रियस्पर्शमन्त्राः
ओं वाक् वाक्।। ओं प्राणः प्राणः।। ओं चक्षुश्चक्षुः।। ओं श्रोत्रं श्रोत्रम्।। ओं नाभिः।। ओं हृदयम्।। ओं कण्ठः।। ओं शिरः।। ओं बाहुभ्यां यशोबलम्।। ओं करतलकरकरपृष्ठे।।

इस मन्त्र में मानव में षोडस कला विकास का रहस्य छुपा है तथा उन्नति की चार विधाएं निहित हैं। प्रथम है वाक्, प्राण, चक्षु और श्रोत्र इन सप्त ऋषियों के माध्यम से ब्रह्म डाल ब्रह्म निकाल अवधारणा, द्वितीय नाभि से आरम्भ कर सिर तक पंच कोष उत्थान, तीसरा बाहुभ्याम् यशोबलम् के माध्यम से विद्या-अविद्या को ज्ञान कर्म उपासना के सन्दर्भ में समझ व्यवहार रूप में क्रियान्वयन तथा चौथा है करतल एवं करपृष्ठ के रूप में दशों इन्द्रियों का अथर्वण सिद्ध करना।
साधना रूप में वाक् वाक् के मुख्य रूप से चार चरण हैं- परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी। परा स्थल आत्म परमात्म परस्पर मिले हुए हैं। बुद्धि में अर्थ धरातल उतरती वाक् पश्यन्ती है। मन में भाव रूप वाक् का प्रकटन मध्यमा है। मुख गुह्वर में विभिन्न स्थल स्थूल रूप से शब्द प्रकटन वैखरी है। परा क्रम से वैखरी तक वाक् अविकृत रहे यही वाक्-वाक् साधना को अभीष्ट है। अर्थात् मनसा वाचा कर्मणा एकरूपता वाक् वाक् साधना सिद्धि चरण है।
प्राण के मुख्य पांच प्रकार हैं – १. प्राण : भीतर से बाहर, २. अपान : बाहर से भीतर, ३. समान : नाभिस्थ होकर सर्वत्र शरीर में रस पहुंचाता, ४. व्यान : सब शरीर में चेष्टा आदि कर्म, ५. उदान : जिससे कण्ठस्थ अन्नपान खेंचा जाता एवं बल पराक्रम होता।
चक्षुः चक्षुः साधनाओं के रूप में तीनों अनादि तत्त्व ईश्वर-जीव-प्रकृति के यथार्थ स्वरूप के दर्शन याने ज्ञान प्राप्त कर लेना उद्देश्य है।
यजुर्वेद में आया है श्रोत्र का सम्बन्ध दिशाओं से है। श्रोत्रं श्रोत्रम् साधना द्वारा ईश्वर के अस्तित्व को प्राची (सामने), दक्षिणा (दायीं ओर), प्रतीची (पीछे), उदीची (बायीं ओर), ध्रुवा (नीचे), ऊर्ध्वा (ऊपर) याने समस्त दिशाओं में अनुभव करना है।
नाभि, हृदय, कण्ठ और सिर ये शरीर के स्थिर अंग हैं, जबकि हाथ और पैर शरीर के चालन अंग हैं। हमारा अस्तित्व कोशों की दृष्टि से पांच भागों में विभक्त है। १. अन्नमय, २. प्राणमय, ३. मनोमय ४. विज्ञानमय, ५. आनन्दमय कोश। सुषुम्णा नाड़ी (रीढ़ में) नाभि अन्नमय कोश का केन्द्र है। हृदय प्राणमय कोश का, कण्ठ मनोमय कोश का तथा सिर में भ्रूमध्य विज्ञानमय एवं तालु आनन्दमय कोश का केन्द्र है। (पाठक कृपया मुक्ति के विशेष साधन प्रकरण में पृष्ठ ४ पर इन कोशों से सम्बन्धित विवरण पढ़ लेवें।)
भुजाओं में यश और बल की बात से जो आध्यात्मिक अर्थ चिन्तन से सामने आया है उसके अनुसार यहां विद्या-अविद्या के रूप में शुद्ध ज्ञान, शुद्ध कर्म, शुद्धोपासना का प्रकरण प्रतीत होता है। यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के १४ वें मन्त्र में विद्या और अविद्या के स्वरूप को साथ-साथ जानते अविद्या द्वारा मृत्यु को तर जाने और विद्या द्वारा अमृत का भोग करने की बात आयी है। इस मन्त्र की सत्यार्थ प्रकाश ९ वें समुल्लास में व्याख्या करते महर्षि दयानन्द ने कर्म और उपासना को अविद्या में गिना है जबकि ज्ञान को विद्या माना है। यश प्रतीक है कर्म का और बल प्रतीक है उपासना का उपलक्षण से ज्ञान का भी ग्रहण हो जाएगा।
कर तल और कर पृष्ठ के माध्यम से इन्द्रियों का अथर्वण साधने की बात परिलक्षित होती है। दोनों हाथों में क्रमशः पांच-पांच याने कुल दस ऊंगलियां हैं जो पांच ज्ञानेद्रियों तथा पांच कर्मेंन्द्रियों के प्रतीक हैं। त्वचा रंग की दृष्टि से देखा जाए तो किसी भी व्यक्ति का करतल उसके करपृष्ठ की अपेक्षा उजला हुआ करता है और करपृष्ठ करतल की अपेक्षा स्याह (कम उजला) हुआ करता है। हाथों में ऊंगलियों की संरचना इस तरह से ईश्वर ने की है कि इसके करतल वाले भाग से ही हम कर्म कर सकते हैं, करपृष्ठवाले भाग से नहीं। जब हमारा विवेक का स्तर बना रहता है हम अपने इन्द्रियों का सदुपयोग ही करते हैं अर्थात् उन्हें धर्मपथ पर ही प्रयत्नपूर्वक चलाते तथा अधर्म से हटाते हैं। यही इन्द्रियों का अथर्वण है। थर्व याने स्थिति-विचलन या कम्पन और अथर्व याने स्थिर। अर्थात् विवेकज्ञान द्वारा इन्द्रियों को धर्माचरण में ही लगाना और उन्हें अधर्माचरण से बचाए रखना ही इन्द्रियों का अथर्वण है।
अथेश्वरप्रार्थनापूर्वकमार्जनमन्त्राः
ओं भूः पुनातु शिरसि।। ओं भुवः पुनातु नेत्रयोः।।
ओं स्वः पुनातु कण्ठे।। ओं महः पुनातु हृदये।।
ओं जनः पुनातु नाभ्याम्।। ओं तपः पुनातु पादयोः।।
ओं सत्यं पुनातु पुनश्शिरसि।। ओं खं ब्रह्म पुनातु सर्वत्र।।
अथ प्राणायाममन्त्राः
ओं भूः। ओं भुवः। ओं स्वः। ओं महः। ओं जनः। ओं तपः। ओं सत्यम्।
 (तैत्ति० प्रपा० १०/अनु० २७)
साधना आरोह एवं अवरोह रूप में द्विचक्रीय होती है। जहां प्राणायाम मन्त्रों में सबसे स्थूल भू लोक से आरम्भ करके सत्यम् लोक में सूक्ष्मतम परमात्मा तक का आरोहण है वहीं मार्जनमन्त्रों में समाधिस्थ होकर परमात्मा से युजित होकर अस्तित्व में पवित्रता अवतरण की प्रक्रिया क्रमशः सिर से पैर तक की दी गई है।
ईश्वर के भी भूः आदि नाम हैं। ईश्वर भूः अर्थात् हमारे प्राणों के भी प्राण हैं, जीवन के आधार हैं। स्वयं दुःखों से रहित स्वभक्तों के दुःखहर्ता होने से ईश्वर को भुवः कहते हैं। आनन्दस्वरूप, आनन्ददाता ईश्वर का नाम स्वः है। सबसे बड़े पूज्य एवं महान् होने से ईश्वर को महः कहते हैं। सकल जगदुत्पादक ईश्वर जनः हैं। दुष्टों के दण्डदाता एवं ज्ञानस्वरूप ईश्वर तपः हैं। अविनाशी होने से ईश्वर को सत्यम् कहते हैं।
प्राणायाम को नित्य करने से भीतर की अशुद्धियों का क्रमशः क्षय होता जाता है तथा समाधि को उत्पन्न करनेवाली विवेकख्याति प्राप्त होने तक व्यक्ति ज्ञान के क्षेत्र में उन्नति करता है। भौतिकवादी जीवन में आकण्ठ डूबा भूलोक का निवासी मानव जब इस जीवनशैली में दोष देख अध्यात्म क्षेत्र में प्रवेश किया चाहता है तभी भुवः स्तर याने अन्तःकरण के अधर्म का शमन एवं इन्द्रियों के दोषों के दमन द्वारा जीवन में होनेवाले समस्त दोषों को दूर करता अपने आन्तरिक क्लेशोत्पादक संस्कारों से तटस्थ होने की विद्या को प्राप्त करता है। अपने भीतर की अविद्या को दूर कर विद्या को स्थापित करता है। तभी वह स्व नामक क्षेत्र में प्रवेश कर पाता है। स्व-क्षेत्र स्थैर्य, सुख, शान्ति, समृद्धि, सन्तुष्टि, निर्भीकता एवं पवित्रता का क्षेत्र है। इस स्तर से महः स्तर में ऊपर उठता व्यक्ति अपनी आत्म ज्योति में महान परमात्मा की दिव्य ज्योति को समेट लेता है। साधना क्षेत्र में और ऊपर उठता साधक जनः स्तर में मनोमय कोष में मन एवं कर्मेन्द्रियों पर पूर्ण अधिकार प्राप्त करता है। इसी आरोह क्रम में अगले स्तर जनः लोक में प्रवेश पाते साधक विज्ञानमय कोष को साध लेता है। ऋतम्भर प्रज्ञावान तथा शृतम्भर मेधावान वह योगी प्रसंख्यान ज्ञान को प्राप्त हो चित्त में संचित जन्म-जन्मान्तरों के वासनाओं को ईश्वर की सहाय से समाधिस्थ हो दग्धबीज अवस्था तक पहुचाता है। इस तरह से आरोह क्रम में साधक सत्यलोक के तृतीय धाम में ईश्वर, जीव एवं प्रकृति इन तीनों पदार्थों को यथार्थ रूप में जान जाता है। सतत विवेक वैराग्य और अभ्यास द्वारा साधक प्राथमकल्पिक, मधुभूमिक, प्रज्ञाज्योति एवं अतिक्रान्तभावनीय भूमियों कों क्रमशः आरोह क्रम में प्राप्त होता है।
मार्जन मन्त्र में सिर से आरम्भ करके एकेक अंग में ईश्वर के एकेक नाम को पिरोते पवित्रता कामना की गई है। सिर में आनन्दमय कोश, नेत्रों के बीच भ्रूमध्य में विज्ञानमय कोश, कण्ठ में मनोमय कोश, हृदय में प्राणमय कोश, नाभि में अन्नमय कोश के पवित्रीकरण की संकल्पना है। हमारे अस्तित्व के मुख्यतः दो भाग हैं एक व्यक्त दूसरा अव्यक्त। पंच कोश हमारे व्यक्त अस्तित्व का भाग हैं जबकि तीनों अनादि पदार्थ (ईश्वर, जीव, प्रकृति) अव्यक्त हैं। भूः पुनातु शिरसि से आरम्भ करके जनः पुनातु नाभ्याम् तक पंच कोशों की दृष्टि से व्यक्त अस्तित्व का पृथक्-पृथक् पवित्रता भावना उपरान्त तपः पुनातु पादयोः के माध्यम से समग्र व्यक्त अस्तित्व की एक-साथ पवित्रता भावना की गयी है। अगले मन्त्र ‘‘सत्यं पुनातु पुनः शिरसि’’ द्वारा हमारे अव्यक्त अस्तित्व में पवित्रता भावना तथा अन्तिम ‘‘खं ब्रह्म पुनातु सर्वत्र’’ मन्त्र द्वारा व्यक्त एवं अव्यक्त दोनों ही प्रकार के अस्तित्वों में सर्वत्र पवित्रता भावना की गई है।
वैदिक संध्या के माध्यम से हम स्वयं का संस्कार प्रतिदिन प्रातः एवं सायं दोनों दिवस एवं रात्रि के सन्धिकाल में कर सकते हैं। संस्कार के तीन चरण हैं- १. दोषमार्जनम्, २. हीनांगपूर्ति, ३. अतिशयाधान। वैदिक संध्या में तीन सूक्त हैं- १. अघमर्षण, २. मनसापरिक्रमा तथा ३. उपस्थान सूक्त। अघमर्षण सूक्त के माध्यम से दोषमार्जनम् मनसा परिक्रमा सूक्त के माध्यम से हीनांगपूर्ति तथा उपस्थान सूक्त के माध्यम से अतिशयाधान किया जाता है।
सर्वप्रथम है अघमर्षण सूक्त। अघ पाप को कहते हैं। इस सूक्त में तीन मन्त्र हैं। पर तीनों में से किसी भी मन्त्र में पाप की या उसके समाप्ति की किसी भी प्रकार की प्रत्यक्ष रूप से चर्चा नहीं आई है। इन तीनों मन्त्रों में ईश्वर द्वारा सृष्टि रचना का वर्णन है।
अथाघमर्षणमन्त्राः
ओ३म् ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसो ऽ ध्यजायत।
ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः।। १।।

ऋतम् = वेद ज्ञान च = और सत्यम् = कार्य जगत् अभीद्धात् = ईश्वर के ज्ञानमय तपसः = सामर्थ्य से अध्यजायत = उत्पन्न हुआ। ततः ईश्वर के उसी ज्ञानमय अनन्त सामर्थ्य से रात्री = प्रलयरूपी रात्रि अजायत = उत्पन्न हुई। ततः = उसी ईश्वर से समुद्रः = पृथ्वी पर स्थित समुद्र अर्णवः = आकाश में स्थित जल उत्पन्न हुआ।
समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो ऽ अजायत।
अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी।। २।।

समुद्रत् = पृथ्वी पर स्थित समुद्र अर्णवात् = आकाश में स्थित जल की उत्पत्ति के अधि = पश्चात् संवत्सरः = क्षण, मुहूर्त, प्रहर आदि काल अजायत = उत्पन्न हुआ। अहोरात्राणि = दिन-रात विदधत् = रचे हैं विश्वस्य = सब संसार को मिषतः = सहज स्वभाव से वशी = वश में करनेवाले (ईश्वर) ने।
सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्।
दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः।। ३।।

(ऋ.म. १०/सू. १९०/मं. १-३)
सूर्याचन्द्रमसौ = सूर्य चन्द्रमा आदि लोकों को धाता = धारण करनेवाले ईश्वर ने यथापूर्वम् = पूर्वकल्प के समान दिवम् = द्युलोक को च = और पृथिवीम् = पृथ्वी लोक को च = और अन्तरिक्षम् = अन्तरिक्ष लोक को अथो = और स्वः = आकाश में स्थित सब लोक-लोकान्तरों को अकल्पयत् = रचा है।
अघमर्षण या दोषमार्जनम् की दृष्टि से इन मन्त्रों के आध्यात्मिक अर्थ को समझना होगा। जैसी सृष्टि रचना ईश्वर बाहरी जगत् में करते हैं ‘‘यत् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे’’ कहावत के अनुसार हमारे भीतर भी करते हैं। तीनों मन्त्रों में से समुद्र, अर्णव, संवत्सर और अहोरात्राणि इन चार शब्दों का विशिष्ट अर्थ हमें अघमर्षण या दोषमार्जन की प्रक्रिया स्पष्ट कर दे सकता है।
हमारे व्यक्त अस्तित्व के दो भाग हैं एक भूमय स्थूल शरीर दूसरा भुवःमय सूक्ष्म शरीर। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार हमारा तन लगभग शत ट्रिलियन कोषिकाओं का महासमुद्र है। हर कोषिका में जीन स्तर पर इस जन्म से जुड़े संस्कार अंकित रहते हैं जिस के समुच्चय को मन्त्र में समुद्र कहा गया है। जबकि हमारे भुवःमय अस्तित्व में चित्त में जन्मजन्मान्तर के संस्कारों का समुच्चय है जिसे मन्त्र में अर्णव नाम से कहा गया है। हमारे चित्त में रागज, द्वेषज, मोहज कर्माशय है जो अविद्या को उत्पन्न करता है। अविद्या पर आरूढ होकर किए गए कर्म ही संसार में हमारे बन्धन का कारण बनते हैं। साधना-स्वाध्याय द्वारा विवेक जागृत करके राग-द्वेष-मोह के प्रति तटस्थता वृत्ति अपना कर ईश्वर कृपा से साधक दोषमुक्त हो कर्र्म बन्धनों को शिथिल कर सकता है।
संवत्सर वर्ष को तथा अहोरात्राणि दिन और रात को कहते हैं। पृथ्वी जब सूर्य के चारों ओर एक चक्र पूर्ण करती है तो एक वर्ष होता है। जैसे बाहरी सृष्टि में वर्ष में दो अयन, छः ऋतुएं, बारह मास, प्रत्येक मास में दो पक्ष आदि होते हैं और हर ऋतु में अलग अलग प्रकार की स्थिति होती है, अलग-अलग प्रकार का सुख हमें मिलता है उसी प्रकार हमारी भीतरी संरचना में चित्त ईश्वर ने त्रिगुणात्मक बनाया है। तीनों गुणों में से कभी कोई गुण दबा रहता तो कोई उभरा रहता है इससे चित्त की क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध ये पांच अवस्थाएं बनती है। इन अलग-अलग अवस्थाओं में जीव अलग-अलग लक्षणों से युक्त अपने को देखता है। इसी को संवत्सर कह सकते हैं। (चित्त की पांचों अवस्थाओं का विस्तृत विवरण पृष्ठ २ पर देखें) प्रथम तीन अवस्थाएं योगविहीन संसारी व्यक्ति की होती हैं जबकि एकाग्र एवं निरुद्ध अवस्था को योग कहते हैं।
पृथ्वी जब अपने कीली पर घूमती हुई एक चक्र पूरा करती है तो एक दिनरात होते हैं। हमारे जीवन के भी दो पहलू हैं। जब हमारे अन्तःकरण पर अविद्या हावी रहती है तभी हम अशुद्ध ज्ञान, अशुद्ध कर्म, अशुद्ध उपासना से अपने को संलिप्त पाते हैं, उसे रात्रि तथा विवेक को प्राप्त होकर शुद्ध ज्ञान, शुद्ध कर्म, शुद्ध उपासना युक्त जब हम होते हैं उस स्थिति को दिवस की उपमा दे सकते हैं।
इस प्रकार रजोगुण एवं तमोगुणयुक्त कर्मों से मन को रोक चित्त की क्षिप्त एवं मूढ अवस्थाओं से ऊपर उठना तथा शुभ कर्मों में भी पुत्रैषणा, वित्तैषणा, लोकैषणा का त्याग कर निष्कामता लाते हुए शुद्ध सत्त्व गुणयुक्त होने से समस्त पापों या अघों का नाश तथा चित्त की एकाग्र और निरुद्ध अवस्थाओं को प्राप्त कर योग में प्रवेश सम्भव है।
अथाचमन-मन्त्रः
ओं शन्नो देवीरभिष्टय ऽ आपो भवन्तु पीतये।
शंयोरभि स्रवन्तु नः।। 
(यजु. ३६/१२) (इस मन्त्र का अर्र्थ पूर्व में लिख आए हैं पाठक कृपया वहीं देख लेवें।)
अघमर्षण के बाद अगला सूक्त है मनसा परिक्रमा सूक्त जो संस्कार के द्वितीय चरण हीनांगपूर्ति से सम्बन्ध रखता है। हमारे जीवन की सबसे बड़ी कमी यह है कि हम ईश्वर के अस्तित्व को व्यवहार काल में भुला देते हैं। इस सूक्त में दिए मन्त्रों के द्वारा यह कमी दूर की जाती है।
अथ मनसापरिक्रमा-मन्त्रः
ओ३म्। प्राची दिगग्निरधिपतिरसितो रक्षितादित्या इषवः। तेभ्यो नमो ऽ धिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः।। १।।

प्राची = सामने की (पूर्व) दिक् = दिशा का अग्निः = ज्ञानस्वरूप (ईश्वर) अधिपतिः = स्वामी है असितः = बन्धन रहित रक्षिता = रक्षा करनेवाला है। आदित्याः = प्राण, सूर्य की किरणें इषवः = बाण के समान हैं।
तेभ्यः = उनके लिए नमः = नमस्कार हो (अर्थात् यथायोग्य उपयोग करें) अधिपतिभ्यः = अधिपति (ईश्वर) के गुणों के लिए नमः = नमस्कार हो रक्षितृभ्यः = रक्षा करनेवाले (ईश्वर के गुण और उसके रचे पदार्थों) के लिए नमः = नमस्कार हो इषुभ्यः = बाणों के लिए नमः = नमस्कार हो एभ्यः = इन के लिए अस्तु = होवे यः = जो व्यक्ति अस्मान् = हमसे द्वेष्टि = द्वेष करता है यम् = जिससे वयम् = हम द्विष्मः = द्वेष करते हैं तम् = उस द्वेष को वः = आप के जम्भे = न्यायरूपी जबड़े में दध्मः = (रखकर) नष्ट करते हैं।
दक्षिणा दिगिन्द्रो ऽ धिपतिस्तिरश्चिराजी रक्षिता पितर इषवः। तेभ्यो नमो ऽ धिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः।। २।।
दक्षिणा = दक्षिण (दाईं) दिक् = दिशा का इन्द्रः = परमैश्वर्ययुक्त (ईश्वर) अधिपतिः = स्वामी है। तिरश्चीराजी = कीट पतंग आदि रक्षिता = रक्षा करनेवाले हैं पितरः = ज्ञानी लोग इषवः = बाण के समान हैं।
प्रतीची दिग्वरुणो ऽ धिपतिः पृदाकू रक्षितान्नमिषवः। तेभ्यो नमो ऽ धिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः।। ३।।
प्रतीची = पीछे की (पश्चिम) दिक् = दिशा का वरुणः = सर्वोत्तम (ईश्वर) अधिपतिः = स्वामी है। पृदाकू = अजगर आदि विषधर प्राणी रक्षिता = रक्षा करनेवाले हैं अन्नम् = अन्न आदि भोग्य पदार्थ इषवः = बाण के समान हैं।
उदीची दिक् सोमो ऽ धिपतिः स्वजो रक्षिताशनिरिषवः। तेभ्यो नमो ऽ धिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः।। ४।।
उदीची = बाईं (उत्तर) दिक् = दिशा का सोमः = शान्ति प्रदाता (ईश्वर) अधिपतिः = स्वामी है। स्वजः = अजन्मा रक्षिता = रक्षा करनेवाला है अशनिः = विद्युत् इषवः = बाण के समान हैं।
ध्रुवा दिग् विष्णुरधिपतिः कल्माषग्रीवो रक्षिता वीरुध इषवः। तेभ्यो नमो ऽ धिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः।। ५।।
ध्रुवा = नीचे की दिक् = दिशा का विष्णुः = सर्वव्यापक (ईश्वर) अधिपतिः = स्वामी है। कल्माषग्रीवः = वृक्ष आदि रक्षिता = रक्षा करनेवाले हैं वीरुध = लता बेल आदि इषवः = बाण के समान हैं।
ऊर्ध्वा दिग्बृहस्पतिरधिपतिः श्वित्रो रक्षिता वर्षमिषवः। तेभ्यो नमो ऽ धिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः।। ६।। (अथर्व.कां. ३/सू. २७/मं. १-६)
ऊर्ध्वा = ऊपर की दिक् = दिशा का बृहस्पतिः = वेदशास्त्र तथा ब्रह्माण्ड का पति (ईश्वर) अधिपतिः = स्वामी है। श्वित्रः = शुद्ध स्वरूप रक्षिता = रक्षा करनेवाला है वर्षम् = वर्षा के बिन्दु इषवः = बाण के समान हैं।
अथोपस्थान-मन्त्राः
ओ३म् उद्वयं तमसस्परि स्वः पश्यन्त ऽ उत्तरम्।
देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम्।। १।।
 (यजु.अ.३५ मं.१४)
उत् = श्रद्धावान होकर वयम् = हम लोग तमसः = अन्धकार से परि = पृथक् (रहित) स्वः = आनन्दस्वरूप (ईश्वर को) पश्यन्तः = देखते हुए उत्तरम् = प्रलय के बाद भी वर्तमान (रहनेवाले) देवं देवत्रा = देवों का भी देव सूर्यम् = जड़ और चेतन के आधार को अगन्म = प्राप्त करें ज्योतिः = स्वप्रकाशस्वरूप को उत्तमम् = सर्वोत्कृष्ट को।
उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः।
दृशे विश्वाय सूर्यम्।। २।।
 (यजु.३३/मं.३१)
उत् = अच्छी प्रकार से उ = निश्चय से त्यम् = उस परमात्मा को जातवेदसम् = उत्पन्न सम्पूर्ण जगत् को जाननेवाले को देवम् = देवों के भी देव को वहन्ति = जनाते हैं। केतवः = जगत् के नियामक गुण एवं वेदमन्त्र दृशे = देखनेके लिए (विद्याप्राप्ति) विश्वाय = विश्व को (सम्पूर्ण) सूयम् = जड़ और चेतन के आधार ईश्वर को।
चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः।
आप्रा द्यावापृथिवी ऽ अन्तरिक्ष ँ् सूर्य ऽ आत्मा जगतस्तस्थुषश्च स्वाहा ।। ३।।
 (यजु.अ. ७ मं. ४२)
चित्रम् = अद्भुतस्वरूप देवानाम् = विद्वानों के हृदय में उदगात् = अच्छी प्रकार प्रकट होता है (हुआ है)। अनीकम् = काम क्रोधादि के नाश के लिए सर्वोत्तम बल है। चक्षुः = सम्पूर्ण लोकों तथा विद्याओं को जानने व प्रकाश करनेवाला है। मित्रस्य = राग-द्वेष रहित का, वरुणस्य = श्रेष्ठ गुण कर्म स्वभाव वाले मनुष्य का, अग्नेः = भौतिक अग्नि का आप्रा = सब ओर से धारण करके रक्षा करता है। द्यावापृथिवी = द्युलोक और पृथ्वीलोक को अन्तरिक्षम् = अन्तरिक्ष लोक को सूर्यः = सबका प्रकाशक आत्मा = आधार (व्यापक) है, जगतः = चेतन जगत का (में) तस्थुषः = जड़ जगत् (में) च = और स्वाहा = मैं यह सत्य कहता हूं।
तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शत ँ् शृणुयाम शरदः शतं प्र ब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्।। ४।। (यजु.अ.३६/मं.२४)
तत् = उस ब्रह्म को चक्षुः = सब का द्रष्टा देवहितम् = विद्वानों और धर्मात्माओं का हितकारी पुरस्तात् = सृष्टि से पूर्व (था) शुक्रम् = शुद्ध स्वरूप (अब) है, उच्चरत् = प्रलय पश्चात भी रहता है। पश्येम = हम देखें (ईश्वर को) शरदः शतम् = सौ वर्ष तक जीवेम = हम जीवें शरदः शतम् = सौ वर्ष तक शृणुयाम = हम सुनें (ईश्वर को) शरदः शतम् = सौ वर्ष तक प्रब्रवाम = उपदेश करें (ब्रह्म का) शरदः शतम् = सौ वर्ष तक अदीनाः = दीनता और पराधीनता से रहित = स्वतन्त्र स्याम = रहें शरदः शतम् = सौ वर्ष तक भूयश्च = अधिक भी शरदः शतात् = सौ वर्ष से (अधिक भी जीते हुए ईश्वर को देखें, सुनें, सुनावे)
अथ गुरुमन्त्रः
ओ३म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।। 
(यजु.३६/३) इस मन्त्र का अर्थ पूर्व लिख आए हैं पाठक कृपया वहीं देखें।
अथ समर्पणम्
हे ईश्वर दयानिधे! भवत्कृपयानेन जपोपासनादिकर्मणा धर्मार्थकाममोक्षाणां सद्यः सिद्धिर्भवेन्नः।।

हे ईश्वर आप करुणा के सागर हैं। हमने आप ही की सहाय से अत्यन्त श्रद्धावान् होकर आपकी उपासना वेदमन्त्रों के माध्यम से की है। हमें इसी जीवन में जीवन के चारों पुरुषार्थ के फलों धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को प्राप्त कराइए।
अथ नमस्कार-मन्त्रः
ओ३म्। नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शङ्कराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च।। 
(यजु. १६/४१)
ओं शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।
नमः = नमस्कार हो शम्भवाय = सुखस्वरूप ईश्वर के लिए च = और मयोभवाय = सब सुखों के देनेवाले के लिए नमः = नमस्कार होवे शङ्कराय = धर्मयुक्त कर्मों को करनेवाले के लिए मयस्कराय = धर्मयुक्त कमर्ों में नियुक्त करनेवाले के लिए च = और नमः = नमस्कार हो शिवाय = अत्यन्त मंगलस्वरूप ईश्वर के लिए च = और शिवतराय = मोक्षसुख प्रदाता के लिए च = और।

संध्या-भावार्थ चिन्तन
(ओ३म्) यह आप का मुख्य नाम है। इस नाम के साथ आप के सब नाम लग जाते हैं। (भूः) आप प्राणों के भी प्राण हैं। (भुवः) आप सब दुःखों से रहित और सकल दुःख छुडाने हारे हैं। (स्वः) आप स्वयं सुख स्वरूप और अपने उपासकों को सब सुखों के देने हारे हैं। (सवितुः) हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता ! सूर्यादी प्रकाशकों के भी प्रकाशक ! समग्र ऐश्वर्यों के दाता ! (देवस्य) आपके अत्यन्त कामना करने योग्य (वरेण्यम्) अति श्रेष्ठ, ग्रहण करने योग्य, सर्वत्र विजयी कराने हारे (भर्गः) क्लेश नाशक, परम पवित्र शुद्ध स्वरूप तेज का (धीमहि) हम ध्यान करते हैं, धारण करते हैं। (यः) हे परमपिता परमात्मा आप ! (नः) हमारी (धियः) बुद्धियों को (प्रचोदयात्) उत्तम गुणकर्म स्वभाव में प्ररित कीजिए; दुष्ट गुणकर्म स्वभाव से छुड़ाइए।
हे प्रभो ! इस जीवन को चलाने हेतु जिन-जिन भौतिक सुख-साधनों की मुझे अपेक्षा है, आप की कृपा से मैं सहजता से प्राप्त कर सकूं तथा इन्हें त्यागपूर्वक भोगते हुए आप की प्राप्ति के लिए, मोक्षानन्द के लिए भी विशेष पुरुषार्थ कर सकूं। आप सब ओर से हम पर सुखों की वर्षा कीजिए।
सन्ध्या के इस दिव्य लक्ष्य को हम सब मिलकर प्राप्त कर सकें इसलिए हमारा शरीर स्वस्थ हो, इन्द्रियां सुदृढ़ हों। हमारे मन-बुद्धि-अन्तःकरण एवं इन्द्रियों में आप निर्मलता प्रदान करें जिससे हम इन्हें धर्ममार्ग में सदा चलाते रहें, अधर्म से हटाते रहें।
हे प्राणाधार प्राणप्रिय प्रभो..! आप भूः प्राणों के भी प्राण भुवः सकलदुःख हर्ता, स्वः आनन्दस्वरूप, महः सबसे बड़े पूज्य तथा महान, जनः सकल जगदुत्पादक, तपः दुष्टों के दण्डदाता एवं ज्ञानस्वरूप तथा सत्यम् अविनाशी हैं।
हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता आप ने हम जीवों को कर्मफल भुगाने तथा मोक्षानन्द देने हेतु इतने विशाल ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करके दान में दिया है। बदले में हम से कभी कुछ नहीं चाहा, कभी कुछ नहीं लिया। आप महान् हैं, आप की सृष्टिरचना महान् है, आप के दण्ड-विधान भी महान् हैं। पाप कर्मों को करके उनके दुःखरूप फलों से हम नहीं बच सकते अतः हमारे अन्तःकरण को आप निर्मल बना दीजिए जिससे सारे पाप कर्मों को हम शीघ्र ही छोड़ सकें।
हे सर्वव्यापक सर्वान्तर्यामिन् ! हम आप के अन्दर डूबे हुए हैं। आप हमारे दाएं-बाएं, आगे-पीछे, ऊपर-नीचे, भीतर-बाहर सर्वत्र विद्यमान हैं तथा हमें देख-सुन-जान रहे हैं। आप के ही अग्नि, इन्द्र, वरुण, सोम, विष्णु, बृहस्पति आदि अनेक नाम हैं। अपनी सृष्टि रचना के द्वारा तथा अपने पवित्र गुण-कर्म-स्वभावों के द्वारा निरन्तर हमारी रक्षा कर रहे हैं। आप के रक्षक गुणों को हम बार-बार नमन करते हैं। जो प्राणी हमसे अज्ञानवशात् अथवा जिससे हम स्वार्थादि के कारण द्वेष करते हैं, हमारी उन समस्त दुर्भावनाओं को आप के पवित्रतम तेज में जलाकर भस्म कर देते हैं, जिससे परस्पर हम कभी द्वेष न करें किन्तु सदा प्रेमपूर्वक मित्रभाव से वर्तें।
हे सच्चिदानन्द-अनन्त-स्वरूप ! हम आप की उपासना करते हैं। हे नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव ! हम आप को अपने हृदय मन्दिर में आवाहन करते हैं। हे अद्वितीय-अनुपम-जगदादिकारण ! आप हमारे हृदय में आओ। हे अज-निराकार-सर्वशक्तिमान्-न्यायकारिन् ! अपने दिव्य अस्तित्व का हमें यथावत् भान कराओ। हे जगदीश-सर्वजगदुत्पादकाधार ! अपने पावन संस्पर्श से हमारे अन्दर सुसंस्कारों को उत्पन्न करके उन्हें प्रवृद्ध तथा पुष्ट कराओ। हे सनातन-सर्वमंगलमय-सर्वस्वामिन् ! आप की कृपा से हम भी धार्मिक, न्यायप्रिय, पुरुषार्थी, परोपकारी, विनम्र, सहनशील, माता-पिता तथा गुरुजनों के आज्ञाकारी एवं राष्ट्रभक्त बन सकें। हे अविद्यान्धकार निर्मूलक-विद्यार्क प्रकाशक ! आप की कृपा से सभी प्रकार के स्वार्थ एवं संकीर्णताओं से हम ऊँचे उठ सकें। हे दुर्गुणनाशक-सद्गुणप्रापक-सर्वबलदायक ! हम अपने अन्दर छिपे काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, निन्दा, चुगली, अहंकार, आलस्य, प्रमाद आदि सभी दोषों से आप की कृपा से छुटकारा पा सकें। हे धर्मसुशिक्षक-पुरुषार्थप्रापक ! दुर्गुणों के परित्याग एवं सद्गुणों को धारण करते हुए आप की कृपा से हम सौ वर्ष तक तथा उसके बाद भी स्वस्थतापूर्वक जी सकें, आप को देख सकें, आप के विषय में सुन सकें, औरों को भी बता सकें तथा जब तक जीएं स्वतन्त्र, अदीन रहें।
इसीलिए प्रतिदिन प्रातः सायं पवित्र गायत्री आदि वेद मन्त्रों से हम आपकी स्तुति-प्रार्थना-उपासना करते हैं। हमें आधिदैविक-आधिभौतिक-आध्यात्मिक दुःखों से शीघ्र ही छुड़ा कर धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष को इसी जन्म में प्राप्त कराइए।
आप सुखस्वरूप हैं, आपको हम नमन करते हैं। आप कल्याणकारी हैं, आपको हम नमन करते हैं। आप मोक्षानन्द प्रदाता हैं, आप को बारंबार हम नमन करते हैं।
ओ३म् शान्तिः शान्तिः शान्तिः।

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