121. साधना पथ्यक्रम 01

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साधना से मुक्ति

योगश्चित्तवृत्ति निरोधः। (योग १.२)

       मनुष्य रजोगुण, तमोगुणयुक्त कर्मों से मन को रोक, शुद्ध सत्वगुणयुक्त कर्मों से भी मन को रोक, शुद्ध सत्वगुणयुक्त हो पश्चात् उसका निरोध कर, एकाग्र अर्थात् एक परमात्मा और धर्मयुक्त कर्म इनके अग्रभाग में चित्त का ठहरा रखना निरुद्ध अर्थात् सब ओर से मन की वृत्ति को रोकना। (स.प्र.नौवां समुल्लास) महर्षि दयानन्द सरस्वती

       जब उपासना करना चाहे तब एकान्त शुद्ध देश में जाकर, आसन लगा, प्राणायाम कर बाह्य विषयों से इन्द्रियों को रोक, मन को नाभिप्रदेश में वा हृदय, कण्ठ, नेत्र, शिखा अथवा पीठ के मध्य हाड़ में किसी स्थान पर स्थिर कर अपने आत्मा और परमात्मा का विवेचन करके परमात्मा में मग्न होकर संयमी होवे। (स.प्र.सातवां समुल्लास) महर्षि दयानन्द सरस्वती

मुक्ति के विशेष साधन

सुखमूल धर्म धारें, दुःखमूल अधर्म त्यागें।

विवेक वैराग्य अभ्यास

प्रथम साधन विवेक :

१. सत्यासत्य, धर्माधर्म, कर्त्तव्याकर्त्तव्य निश्चय।

२. शरीर अर्थात् जीव पंचकोशों का विवेचन : अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय।

१) अन्नमय कोश : त्वचा से अस्थिपर्यन्त पृथ्वीमय। (अन्न, रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य।)

२) प्राणमय कोश : १. प्राण : भीतर से बाहर, २. अपान : बाहर से भीतर, ३. समान : नाभिस्थ होकर सर्वत्र शरीर में रस पहुंचाता, ४. व्यान : सब शरीर में चेष्टा आदि कर्म, ५. उदान : जिससे कण्ठस्थ अन्नपान खेंचा जाता एवं बल पराक्रम होता।

३) मनोमय कोश : मन, अहंकार, वाक्, पाद, पाणि, पायु, उपस्थ।

४) विज्ञानमय कोश : बुद्धि, चित्त, श्रोत्र, नेत्र, घ्राण, रसना, त्वचा।

५) आनन्दमय कोश : प्रीति-प्रसन्नता, न्यूनानन्द, अधिकानन्द, आनन्द, आधार कारणरूप प्रकृति।

३. अवस्थाएं : १) जागृत, २) स्वप्न, ३) सुषुप्ति, ४) तुरीय।

४. शरीर : १) स्थूल : जो दीखता है।

२) सूक्ष्म : ५ प्राण, ५ ज्ञानेन्द्रिय, ५ सूक्ष्मभूत, मन, बुद्धि। इनके दो रूप १) भौतिक २) अभौतिक।

३) कारण : सुषुप्ति गाढ निद्रा, प्रकृतिरूप सर्वत्र विभु, सबके लिए एक।

दूसरा साधन वैराग्य : सत्य का ग्रहण असत्य का परित्याग।

तीसरा साधन षट्क सम्पत्ति : शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा, समाधान।

१) शम : आत्मा और अन्तःकरण को अधर्माचरण से हटाकर धर्माचरण में प्रवृत्ति।

२) दम : इन्द्रियों और शरीर को व्यभिचारादि दुष्कर्मों से हटाकर जितेन्द्रियत्वादि शुभ कर्मों में प्रवृत्ति।

३) उपरति : दुष्ट कर्म करनेवाले पुरुषों से दूरी।

४) तितिक्षा : द्वन्द्वों को सहते मुक्ति साधनों में लगे रहना।

५) श्रद्धा : वेदादि सत् शास्त्र, पूर्ण आप्त विद्वानों तथा सत्योपदेष्टा महाशयों पर विश्वास।

६) समाधान : चित्त की एकाग्रता।

चौथा साधन मुमुक्षुत्व : मुक्ति और उसके साधनों में अत्यन्त लगाव जैसे भूखे प्यासे को अन्न-जल की चाह हो वेसे।

चार साधनों के पश्चात् चार अनुबन्ध अधिकारी, सम्बन्ध, विषयी, प्रयोजन।

१) अधिकारी : उपरोक्त चारों साधनों से युक्त पुरुष मोक्ष का अधिकारी है।

२) सम्बन्ध : ब्रह्म प्राप्ति रूप मुक्ति प्रतिपाद्य तथा वेदादि शास्त्र पतिपादक को यथावत समझ अन्वित करना।

३) विषयी : सभी शास्त्रों का प्रतिपादन विषय ब्रह्म और उसकी प्राप्तिरूप विषयवाले पुरुष का नाम विषयी।

४) प्रयोजन : समस्त दुःखों से निवृत्ति और परमानन्द की प्राप्ति रूप मुक्तिसुख होना।

श्रवण, मनन, निदिध्यासन, साक्षात्कार

सत्त्व रज तम

१) सत्वगुण : शान्त प्रकृति, पवित्रता, विद्या, विचार।

२) रजोगुण : ईर्ष्या, द्वेष, काम, अभिमान, विक्षेप आदि दोष।

३) तमोगुण : क्रोध, मलिनता, आलस्य, प्रमाद आदि।

मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा।

विशेष : नित्यप्रति न्यून से न्यून दो घण्टा पर्यन्त मुमुक्षु ध्यान अवश्य करे जिससे भीतर के मनादि पदार्थ साक्षात् हों। (सत्यार्थ प्रकाश नवम् समुल्लास से साभार संक्षेप)महर्षि दयानन्द सरस्वती

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