(1) सप्त प्रकृति
1) सूक्ष्म,
2) कम्प,
3) सत,
4) बिन्दु,
5) निकट,
6) पदार्थ तत्त्वम्,
7) देव काव्यम्।
शरीर में आत्मा का स्थान कहां है? शत शत संस्कृति प्रश्न है यह? उत्तर जितना सरल है उससे अधिक कठिन है। क्या विज्ञान के पास इस प्रश्न का उत्तर है? विज्ञान की इस विषय में खोजबीन की हम खोजबीन हम करें-
एल.ई.जे.ब्रौवेर (Brouwer) ने 1924 में एक सिद्धान्त दिया है जिसका नाम है- Intuitionism उस सिद्धान्त का सार है ”मध्यपार का अस्वीकार नियम“ (Rejection of the law of the excluded middle) इस सिद्धान्त का आधार तथ्य है वक्तव्य के नकार का अस्वीकार उसका स्वीकार है। यह सिद्धान्त गणित दर्शन का है। पर एक ब्रह्म सूत्र में इसका सटीक प्रयोग किया गया है। ”इक्षतेनाशब्दम्“ में ईक्षण नहीं होने से अशब्द हो जाते हैं का सीधा अर्थ है ईक्षण सीमा में ही शब्द होते हैं। आंख को किससे देख के बताओगे कि यह आंख है? आत्मा को अरे किससे अहसास कर बताओगे कि यह आत्मा है? आत्मा की ईक्षण सीमा क्या आत्मा हो सकती है? क्या यहां ईक्षण से शब्द सिद्ध हो सकता है? सहस्र संस्कृति प्रश्न है यह? उत्तर प्रतीक्षा चाहता है।
प्रश्न कहां उठते हैं? उत्तर कहां मिलते हैं? मूल गतिआधार क्या है? वर्तमान विज्ञान का उत्तर है मस्तिष्क में। क्या मस्तिष्क में आत्मा है? यदि है तो कहां आइए ढूंढ़े।
मस्तिष्क संरचना इन भागों से बनी है। (1) (Frontal), (2) (Temporal), (3) (Retina), (4) (Parital), (5) (Occipital), (6) (Spinal Cord), (7) (Visual Cortex), (8)अणुमस्तिष्क (Cerebellum), (9) (Corpus callosum), (10) (Thalamus), (11) (Hypothalamus upper brain stem), (12) (Hypo Campus), (13) (Cpons recticular formation), (14) (Medulla recticular formation)।
हर कोषिका मरती जीती है.. मस्तिष्क तथा हृदय कोषिकाएं मूलतः निर्मित होने पर मरती मरती हैं जीती नहीं स्थाई उम्राधार हैं मस्तिष्क कोषिकाएं या हृदय कोषिकाएं। हृदय क्षेत्र क्या आत्मा का शब्द ढूंढा जा सकता है? कोटि जीवन क्रमों का प्रष्न है यह? स्व-स्वास्थीकरण प्रक्रिया से मानव ने कुछ पक्षियों, पषुओं में वह केन्द्र ढूंढा जा चुका है जहां से अजस्र रक्तधार की मूल उत्पत्ति होती है। पषु पक्षियों में यह रीढ़ की हड्डी में मूलाधार तथा उससे ऊपर के स्थानों में रहता है। मनुष्य के स्व स्वास्थ्य का आधार है यह केन्द्र। मनुष्य में यह ढूंढा नहीं जा सका है। यह केन्द्र भौतिकी अनाहत केन्द्र है।
कोषिकाओं की ताउम्र जीने की संकल्पनानुसार मानव की आत्मा या तो हृदय में होनी चाहिए या मस्तिष्क में। मस्तिष्क में होने की खोज जो ऊपर दी जा चुकी है (कृपया शीघ्र प्रकाष्य ‘एकी चिकित्सा’ पढ़े ) निरर्थ ठहर चुकी है अतः इसे हृदय में ही होना चााहिए। कुछ सरल से अतिआत्म साधना तर्क इस प्रकार हैं-
1.आह्लाद की उछागता का अहसास बिन्दु है अनाहत। गद्गद् अवस्था का अहसास हृदय में होता है। 2.काम का परम आह्लाद परितृप्ति सुख हृदय के करीब अनाहत केन्द्र पर ही अहसासित होता है। 3.अनाहत केन्द्र, स्व-स्वास्थ्य संस्थान से युजित है। स्व-स्वास्थ्य संस्थान सकारात्मकता से जुड़ा है.. इस अवस्था अनाहत केन्द्र हृदय स्थानीय पर सर्वाधिक गहन आह्लाद होता है। 4.आत्मा-परमात्मा का मिलन स्थल ‘अक्षर ब्रह्म’ स्थल है। ‘षब्द ब्रह्म’ शरीर में अपरा स्थल उद्भूत होता है। सारी शब्दमाला का आधार अक्षर है ‘अ’। ‘अ’ का उद्गम स्थल अनाहत केन्द्र हृदय में ही हैै। चिकित्सा विज्ञान जब ‘वाक्’ केन्द्र मस्तिष्क में आत्मा ढूंढ रहा था तो वह दिषा सही थी पर गति अधूरी थी। ”अपरा, परा, पष्यन्ती, मध्यमा, वैखरी, अभिव्यक्ता अव्यक्ता“ वाक् स्तरों में वह मस्तिष्क केन्द्र पष्यन्ती- मध्यमा स्तर की बात है। 5.‘प्राणवायु’- ‘ओष’ जीवन का सषक्ततम आधार है। जीवन की सबसे महान घटना ‘पहली सांस’ है। पहली सांस ओष संयुक्ति फेफड़ों में होती है.. और पहली भ्रूण रक्त कोषिका जिसमें सर्वाधिक ओष पिपासा तथा ग्रहण क्षमता होती है अनाहत केन्द्र के निकटतम ही ओषजन से ओष ले रक्तिम होती है। अतः आत्मा को इसके लिकटतम ही होना चााहिए। 6.प्राण, अपान, समान, व्यान, उदान में उदान वायु आत्म प्रिय तथा समस्त वायुओं का आधार होती है। उदान वायु का प्रथम ग्रहण एवं अन्त्य निष्कासन फेफड़ों से ही होता है। अतः आत्मा को फेफड़ों में ही होना चाहिए। 7.हिचकी तथा छींक वे विक्षेप हैं जो सीधे स्व-स्वास्थ्य संस्थान से जुड़े हैं। छींक में शरीर की सर्वाधिक व्यवस्थाएं कार्य करती हैं। छींक का उद्गमस्थल हृदय के निकट ही है अतः आत्मा को हृदय के निकट ही होना चााहिए। 8.गुरुत्व रक्त अभिसंचरण नियम से शरीर के हर अंग का समुचित पोषण हृदय से ही होता है.. हृदय को सर्वाधिक सशक्त रखने के लिए आत्मा का इसके निकट स्थानी होना जरूरी है। 9.हृदय बदस्तूर चलता रहता है सतत कर्मषील है, सम कर्मशील है। कर्म आत्मा का सहज गुण है अतः आत्मा का स्थान यहीं होना चााहिए। 10.सहजतः भी बच्चों का हाथ ”तुम कहां हो?“ पूछने पर हृदय पर ही जाता है। 11.”द्वि-मस्तिष्कों“ का युजन स्थल इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है कि वह स्थल निकाल देने पर मानव का स्व जैवत्व संतुलन- निर्णय क्षमता अति कम हो जाती है। यह केन्द्र मस्तिष्क से भी अधिक महत्वपूर्ण है। 12.अति तीव्र दर्द की अनुभूति मस्तिष्क को नहीं हृदय को काटती है। अतः हृदय ही आत्मा का स्थल हो सकता है। 13.प्रज्ञा ढ़ांचा है मस्तिष्क का.. तरंगायित स्वरूप जिसकी कोषिकाएं अमर हैं जीवन भर। ऋतमय होती है प्रज्ञा, शृतमय होती है मेधा। प्रकृति नियम युक्त है प्रज्ञा, नैतिक नियम युक्त है मेधा। मेधा की स्थिति गहन अर्थ है अतः आत्मा का स्थान मेधा के निकट होना चाहिए, हृदय में होना चाहिए। 14.साधना में स्थान आत्मा का होना चाहिए। ‘मस्तिष्क स्थानीय’, ‘न स्थानीय’ तथा ‘हृदय स्थानीय’ होती हैं साधनाएं। मस्तिष्क स्थानीय साधनाएं तनाव पैदा करती हैं, न स्थानीय साधनाएं तनाव मुक्ति पैदा करती हैं तथा हृदय स्थानीय साधनाएं आनन्द आह्लाद पैदा करती हैं। स्पष्ट है आत्मा का स्थान हृदय अन्तस् में ही होना चाहिए। 15.सदियां प्रवहणित भारतीय धर्म वेद, उपनिषद, दर्षन, गीता आदि में गुहा हृदय मेधा में ही आत्मा का अस्तित्व परमात्मा मिलन स्थल माना सिद्ध किया गया है। इस प्रकार वर्तमान तथ्यों के आधार पर, वैज्ञानिकता के आधार पर, धर्म के आधार पर, साधनाओं के आधार पर, अति आह्लाद अति दर्द के आधार पर आत्मा का अस्तित्व हृत प्रदेष में ही सिद्ध होता है।
”गतित गतिदाता“
त्रि सत्याधार का सत्याधार क्या है? लट्टू या फिरकनी या डोलती फिरकनी या उलटता लट्टू (एक विषेष खिलौना जो चलते-चलते उलटा चलने लगता है) बस इसी तरह का कुछ जिसे कहते हैं क्वार्क। क्वार्क भी छः प्रकार के सोचे गए हैं.. इसमें प्रकम्पन है आधे, शून्य, एक दो चक्र के प्रकम्पन। मानना है कि अर्ध प्रकम्पनों की अनिष्चिता से यह विष्व पदार्थ बना है तथा शून्य से एक दो चक्र प्रकम्पन से सन्तुलन असन्तुलन व्यवस्था बनी है.. यह भौतिक विज्ञानी खोज है। इलेक्ट्रॉन के साथ एक और तत्व है एनीइलेक्ट्रॉन तथा इलेक्ट्रॉन आधा चक्र प्रकम्पित है। यहां तक वैज्ञानिकों की पहंुच है। चिकित्सा विज्ञान को अभी यह खोजना है कि आधा स्पिन में त्रुटि हो जाने पर शून्य स्पिन में त्रुटि हो जाने पर तथा एक दो स्पिन में त्रुटि हो जाने पर क्या शारीरिक विकृतियां होती हैं? चिकित्सा विज्ञान को अभी कई-कई और नोबल पुरस्कार मिलने हैं? इन क्वार्क से भी सूक्ष्म तथ्य है शक्ति जो ये क्वार्क वहन करते हैं और इस शक्ति की प्रतिक्रिया जिससे फोटान निकलते है और फोटान प्रक्रिया जो माण्डूक्य प्लुत कूद-कूद कर चलती है और इस सबसे रहस्यपूर्ण है उस फोटान की कूद के मध्य का अज्ञेय अन्तराल.. जहां हर कूद का पुर्नजन्म होता है। चिकित्सा के क्षेत्र में इस क्षेत्र का बौद्धिक औजार प्रणीत सत्य है सरल या वैदिक शब्द एजति-एजति- ”गतित गतिदाता“ यह गतियों की गति है.. शरीर में यह विष्व की भौतिकीय गतियों में तीव्रतम गति है। यही ‘गतित’ मोक्ष में अव्याहत गति प्राप्त होता है। एजति-एजति का गतित है आत्मा जो समस्त बीमारियों कैंसर से लेकर स्थूल फोड़े तक की जड़ है। कैंसर से फोडे़ तक तो मात्र लक्षण हैं छोटे-बड़े जो आत्म विकृति से आरंभ होते हैं पंच कोष स्वरूप हैं।
जीन तो बड़ी स्थूल अवस्था है। क्लोन प्रतिरूप तो बड़ी बकवास सी बात है। सम्पूर्ण दृष्टि का इनमें अभाव है। सारी भौतिक खोजें तो छोटे-छोटे से कंकड़ हैं छोटी-छोटी सी लहरें है – एजति-एजति की। और एजति-एजति है सत्य ”तदेजति तन्नेजति“ (यजुर्वेद) का जो सत्य है जीवन मृत्यु का।
मानना अन्धा करता है आदमी को। मानने का अन्धापन ”मेरा“ में भर देता है ”मैं“। अन्धा आदमी भटकता है, सुखों के – दुःखों के भी जंगलांे में। ”मेरा“ में ”मैं“ भरने का एक उदाहरण -एक बालिका उतारती है चप्पल। एक बूढ़ी दादी खंूदती है, चप्पल। रोती है बालिका-”खंूदी गई मेरी चप्पल“। ”मेरी चप्पल“ में ”मैं“ था भरा। बात है हंसी की, पर हर जिन्दगी की। चप्पल है धन, चप्पल है यश, चप्पल है बीबी-बच्चे। ”मैं“ भरा हैं जिनमें। खूंदने पर रोती हैं बालिका, रोते हैं बच्चे। आदमी नहीं बच्चा, आदमी बड़ा है। बच्चा है हटकर आदमी से, आदमी से मत हटो। बड़े हो तुम….बड़े ही रहो।।12।।
व्यापकता एक अखिल सत्य है। संकीर्णता एक क्षुद्र असत्य है। व्यापकता की एक महत्वपूर्ण कड़ि है आत्मा। आत्मा का प्रयोग में आनेवाला रूप है ”मैं“। यह विशुद्ध ”मैं“ न हिन्दू है, न मुसलमान, न सिक्ख है, न बौद्ध है, न जैन। ये सब तो आवरण हैं, जो हम इस ‘मैं’ को पहना देते हैं। आवरण या चोला अस्थाई है। अस्थाई चोला धारण कर उसे स्थाई समझकर उससे बन्ध जाना, अपने आप को अपने आप सा न जानना है। सम्प्रदायों ने धर्म की भयानक दुर्गति की है। इसलिए तो धर्म इन चोलों से परे की बात कहता है। धर्म कहता है मैं की तुलना में सर्वत्र जग देखो। ”सुख या दुःख में आत्मा की उपमा से जो सर्वत्र देखता है, वही योगी है।“ योग की यह परिभाषा गीता देती है। ”सुख दुःख में आत्मा की उपमा से सर्वत्र देखना योग है।“ 46 परिभाषा से स्पष्ट है कि प्राणिमात्र से समभाव, मैत्री रखना ही उच्चतम ब्रह्म सोपान से जुड़ने का तरिका है। इस सर्वत्र सम के पथ से भटक जानेवाले पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकते हैं। छोटे-छोटे झण्डों तले गिरजे, मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे बना लेना सर्वत्र सम से भटकना है। धर्म की अपेक्षा निम्नावस्था पर ही रह जाना है।
धर्म की एक परिभाषा है- ”उस होने में ही जीना, जो मैं हूं उससे जरा भी च्युत न होना ही धर्म है।“ 101 यही तो अध्यात्म है.. याने आत्म में। और मानव का आत्म में होना उसे एक दिव्य वितान दे देता है.. जहां सिर्फ होना ही होना रहता है.. अस्तित्व का यथार्थ रूप यही होना ही तो है.. इसके अतिरिक्त हर अवस्था में मानव झूठे न होना से जुड़ा रहता है। इस होने के ही तो सारे चेहरे फैले हैं दुनिया में इन चेहरों को होना समझना ही संसार है इन चेहरों में होना पहचानना ही अध्यात्म है।
”मैं केवल उसे ही पा सकता हूं जिसे मैंने किसी गहरे अर्थ में सदा से पाया हुआ है। मैं केवल उसका ही मालिक हो सकता हूं जिसका मैं जाने न जाने अभी भी मालिक हूं। मुत्यु जिसे मुझसेे नहीं छीन सकेगी वही केवल मेरा है। रुग्ण हो जाएगा सब कुछ, दीन हो जाएगा सब कुछ, नष्ट हो जाएगा सब कुछ फिर भी जो नहीं विलीन होगा, वही मेरा है“
”अस्तीत्येव“
जीवात्मा परमात्मा (तदेजति एजति तन्नैजति एजति) दोनों में तत्व भाव ऐसा ही है प्राप्तव्य है (यह सूक्ष्मतम बुद्धि प्रयोग तथ्य है) अस्ति इति एव- अस्तीत्येव है। ऐसा ही प्राप्त हुए का तत्व भाव गहनतम अणोरअणीयानं महतो महीयान है।
अध्यात्म तथा विज्ञान का अन्त्य मृत्यु पार जीवन की योग साधनाओं की श्रेष्ठतम गहनतम सूक्ष्मतम उपलब्धि का सत्य है.. भूतत्व है.. अध्यात्म तत्व है अस्तीत्येव.. मेरी जीवन डायरियों की गहन साधनाओं अध्यात्म कविताओं का सार है अस्ति इति एव अस्तीत्येव।
”एक घड़ी ऐसी आती है, कि जैसे जैस हम भीतर जाते हैं बाहर और भीतर का फासला गिरता चला जाता है। एक घड़ी आती है कि न कुछ बाहर रह जाता है न कुछ भीतर। एक ही रह जाता है जो बाहर भी है और भीतर भी।“ शुरुआत इस घड़ी की कही से भी हो सकती है। अनंत स्थानों से हो सकती है पर अंत इसका अंदर- बाहर का अंतर समाप्त होने में ही है.. पर अनंत.. अनंत तरीके से फासले कम करने का यह साधन कितना सुलभ है..। अनंत से कभी कभी यह एकदम शुरु होता है फिर अनंत कम होने लगता है बहुत अधिक रह जाता है.. अधिक कई रह जाता है.. कई कुछ रह जाता है.. कुछ इने गिने .. इने गिने.. इने गिने रह जाता है.. एक.. और एक केन्द्र फैल जाता है.. सर्वत्र.. कि.. मैं हूं“। नाजूक पलकों तुम्हारा अहसान मंद हंू मैं, तुम्हें बंद करता हंू सारी सृष्टि में फैल जाता हंू।
यह प्रथम चरण है अनुभूति का एक बार अंदर जाकर सारी सृष्टि तक अगर फैल जाता है आदमी तो- नाजूक पलकों तुम्हारा अहसान मंद हूं मैं, तुम्हें खोलता हंू सारी सृष्टि में फैल जाता हंू मैं।
पलक खोलना पलक बंद करना जहां एक ही अखिल सत्य को जन्म देने लगे.. वही आदमी होता हैं ”एक“।
महामणी है यह ”मैं“। इसे ही तलाशता आदमी इतना भटकता है। लेकिन जब इसे पा लेता है आदमी तब उसे लगता है कि.. यह ”महामणी मैं“ एक अद्भुत पारस है..जो सारे के सारे जग को मैं कर देता है।
”ईश्वर से पहले था, मैं हूं । तत्व केवल एक है और वह तत्व ‘मैं’ हूं। सारा विश्व मेरा संकल्प मात्र है। विश्व मेरा शरीर है, वायु और पृथ्वी मेरे वó और जूतियां। आकाश का अर्ध मण्डल मेरा प्याला है और उसमें झलकती आभा मेरी शराब है“ 114 कितनी व्यापक कितनी विशाल है अनुभूति एक साधक की जिसे स्वर देने का प्रयास किया गया है। आकाश के प्याले मेें भरा सोम पीने वाला अस्तित्व कितना महान दिव्य है!
यह पावन अनुभूति.. असीम में समीम मानव द्वारा आखिल व्यापक की सान्त अभिव्यक्ति कोई आज की बात नहीं है यह तो सृष्टि के आदि तब से वर्तमान अब तक वही है.. विशाल संसार के हर कोने में वही है.. और यही इसकी सत्यता का प्रमाण है। चरम विकास चरम प्रगति की अवस्था है.. उत्तरोत्तर सीढ़ियों की अंतिम सीढ़ी है यह जो कि मंझिल है।
”मैं खनिज के रूप में मरा और एक पौधा बन गया मैं पौधे के रूप में मरा और पशु के रूप में उठ खड़ा हुआ। मैं पशु के रूप में मरा और मनुष्य बन गया मैं क्यों डरुं? मैं मृत्यु से कम कब हुआ? फिर भी एक बार फिर मैं मनुष्य के रूप में मरुंगा कि देवदूतों के साथ रहूं।
किन्तु देवदूतों की स्थिति से भी आगे जाऊंगा, क्योंकि ईश्वर के सिवाय सब समाप्त हो जाते हैं। जब मैं देवदूत का रूप छोड़ूंगा तो ऐसा कुछ बन जाऊंगा जो अकल्पनीय है।
मैं अनास्तित्व में खो जाऊंगा क्योंकि अनास्तित्व कह रहा है कि हम उस परम में ही लौटते हैं।“
जलालुद्दीन रूमी द्वारा अनुभूत यह विकास गाथा अमर विकास गाथा है.. अनास्तित्व में खो जाना, अकल्पनीय हो जाना, परम में लौट जाना ही सच्ची अस्तित्व सार्थकता है।
मानव सारे गाथों का जन्म दाता है.. अतः अमाप है.. यह अमाप मानव भी जब अपने आप से पार चले जाता है और अपने आप को अनंत देखता है तब अनुभूति जन्म लेती है.. अमाप के परम पार को भला किस माप से मापा जाएगा..? ये अध्यात्म.. ये आत्म में.. ‘है’.. और बस केवल ‘है’। इस ‘है’ का कोई प्रश्न नहीं.. इस ‘है’ का कोई उत्तर नहीं है.. यह तो बस ‘है’।
सर्वोत्तम सत्य जगती का ” मैं है“ है। ”मेरा होना“ स्वयं सिद्ध सत्य है। मैं लिखता हूं अतः मैं हूं, तुम पढ़ते हो अतः तुम में यही ”मैं हूं“। इस मैं हूं का व्यापक फैलाव ही अध्यात्म है। मेरे होने का क्षण तब से अब तक सर्वाधिक महत्व पूर्ण क्षण है।
”फिर भी क्षण का महत्व मानव इतिहास में सदा रहेगा जब उसने (मानव) ने पहली बार तूफानों और भकम्प से कम्पायमान इस पृथ्वी पर अपनी अबोध आंखे खोली और अपने आप को ब्रह्म के विराट स्वर में सह गुंजित पाया
अहं !! दिशाओं ने घोषित किया होगा।
अहं !!! बिजली ने गड़गड़ा कर ललकारा होगा और शिशु मानव ने अपनी भौतिक लघुता का अवलोकन करके विनय पूर्वक मन ही मन कहां होगा- ”अहं अस्ति“। 115 ”अहं अस्ति“ ही वह सत्य है जो आज भी वही है मानव के लिए जो कल था.. कल भी यह वही रहेगा जो आज है, सृष्टि का अपरिवर्तनीय, स्वयंसिद्ध सर्वाधिक प्रत्यक्ष सत्य है….. ”मैं हूं“।
लाली तेरे लाल की जित देखू तित लाल। लाली देखने मैं गई में भी हो गई लाल।। यह लालिया होने की ही लालिमा है.. स्थायित्व की लालिमा है.. शाश्वतता की लालिमा है।
स्वयंता की अनुभूति सबसे बड़ी है। सारी की सारी परिभाषाएं इस स्वयंता में छोटी पड़ जाति हैं… सृष्टि के आदि से आज तक की गढ़ी गई परिभाषाओं को अध्यात्म अनुभूतियों ने ही लघु किया है। एक बार मानव इस अध्यात्म में डूबे तो वह… विशालतम हो जाएगा सहजत उसे अपने आपकी इस पूर्णता का अहसास होगा कि कह उठेगा वह- यहोबा, खुदा, ब्रह्म, बुद्ध, भगवान। इस ‘आप्त मैं’ की ही लघु संज्ञाएं हैं।।
इस अनुभूति का भी भला कोई माप है? जहां परमात्मा इंच हो जाता है। इसका पैमाना बस यह स्वयं ही है।
आदमी डूबता चला जाता है गहराई में। एक गहरी सीमा पर उसे ‘मैं’ मिलता है फिर ‘मैं’ में गुम जाता है कहीं और आदमी को ‘हैं’ मिलता है फिर ‘है’ से भी गहरा डूब जाने पर आदमी को मिलता है “ —– ” । “ —– ” यह अनाम है असंज्ञित है पर फिर भी है.. और “ —– ” ही अनुभूति है। इसे कई ऋषि मुनि महात्माओं ने छुआ है पर कोई भी बतला न सका है।
एक घूंट ‘मैं’ पी लेता है जब आदमी तो अवश, बरबस, सहजतः सारी दुनियां की मुहब्बत में डूब जाता है वह। दुनियां तो छोटा सा घनिष्ठ परिवार हो जाता है उसके लिए। जिस अनुभूति के एक घूंट में डूब जाता है आदमी इसकी माप कौन कर सकता है? कौन सा पैमाना उसे नापेगा? यह अनुभूति केवल ‘हैं’ और होने को नापने का पैमाना कोई नहीं है। असल में हर पैमाना इस है को नापता नहीं इसकी और इंगन करता है।
पदार्थ संघीभूत शक्ति है। मानव संघीभूत चैतन्यता हैं । ”संघीभूत शक्ति“ पदार्थ की पदार्थ नहीं जानता है। संघीभूत चैतन्यता मानव की मानव जान सकता है। पदार्थ की संघीभूत शक्ति को जानना विज्ञान है। संघीभूत चैतन्यता को जानना अध्यात्म है। विज्ञान मानव की उन क्रियाओं का परिणाम है जो मानव भौंतिक शक्ति के अन्वेषण के लिए करता है। मानव की समस्त क्रियाएं इंगन हैं.. उसके स्वयं की ओर। समस्त क्रियाओं का उद्गम स्थल एक केन्द्रक है। इस केन्द्रक की एक संज्ञा हैं आत्मा। इस केन्द्रक तक केन्द्रीभूत होना ही अध्यात्म हैं।
मानव के पास अध्यात्मिक होने के अतिरिक्त और कोई विकल्प ही नहीं है। मानव ही नहीं सृष्टि के प्राणीभर के पास एक ही विकल्प हैं केन्द्रक तक केन्द्रीभूत होना। हर प्राणी स्व-केन्द्रीत होने का प्रयास करता है। इस स्व-केन्द्रक के पथ में कई अस्थाई पड़ाव हैं इन पड़ावों पर कोई बहुत अधिक देर तक रुक जाता है, तो कोई बहुत कम देर तक रुकता है“ अंतर यही है कि कोई स्थाई को अस्थाई जानता है कोई नहीं जानता है या कम कम जानता है। ”स्वकेन्द्रक“ एक सहज प्रवृत्ति है जो हर सांस लेने छोड़ने वाले प्राणी के साथ जुड़ी है।
अंदर की ओर हमें चलना ही है। स्वकेन्द्रण पथ पर आना ही है। स्वकेन्द्रण ही सर्व सत्य है। ”जागते रहो अंदर में, खड़े रहो अंदर में, और चलते रहों अंदर में“ जिस मानव की हर क्रिया अंदर मे ही होने लगती है.. वह बाह्य क्रियाओं के प्रति तटस्थ हो जाता है। बाह्य क्रियाओं के प्रति तटस्थ होकर का तात्पर्य जड़ होकर कदापि नहीं है। बाह्य से तटस्थ होने पर भी वह चैतन्यता, जागरुकता एवं गति की साक्षात प्रतिमा होता है। ”गति की साक्षात प्रतिमा“ की अध्यात्मिक व्याख्या आवश्यक है।
इस केन्द्रक को जानते ही मानव ”सर्व केन्द्रक“ तक जा पहंुचता हैं । ”वह प्रकट होते ही साथ अनंत तक फैला हैं“ सर्व केन्द्रक के फैलाव में फैलना ही अध्यात्म है। ”इस को देखने के लिये जरा गर्दन झुकानी पड़ती है।“ केन्द्रक यह संघीभूत चैतन्यता का आधार है। यह केन्द्रक निश्चित है। पर एक स्वच्छ पर्व सा है। ”दिल के आइने में है तस्वीरे यार। जब जरा गर्दन झुकाई देख ली।।
परिशुद्ध स्वकेन्द्रण अवस्था में हर मानव समान होता है। अध्यात्म वही है जो मानव मानव को समता के एक उच्च स्तर पर स्थापित कर देता है। ”संसार के महानतम पुरुष या महानतम नारी निन्यानवे प्रतिशत तुम्हारे समकक्ष है“ इस सूक्ति में बड़ा गहन अर्थ निहित है.. यह जो एक प्रतिशित की दूरी है यह दूरी भी केन्द्रक में केन्द्रित होने की दूरी है.. यदि मानव स्व-केन्द्रक में केन्द्रित हो जाए तो वह शत प्रतिशित महानतम पुरुषों या नारियों के समकक्ष होता है। ”जीवन के लक्ष्य साधन में सिद्ध, पुरातन, पुण्यवान महात्माओं के भीतर जो शक्ति-सामर्थ्य विद्यमान थी तुम्हारे भीतर भी वही शक्ति सामर्थ्य विद्यमान है।“ हर पल की समझदारी मानव की प्रगति को तीव्र करती है। स्व केन्द्रक के पथ की बाधा है.. दासता, रूढ़ियां, रस्में और अपने आप से अपने आप का भटक जाना। मानव इस भटकाव से वापस लौट आओ“ आत्मन सभी प्रकार के दासत्व, पराधीनता और आत्म विस्मृति के मोह ग्रास में अपना उद्धार करके अन्तर्निहित सुप्त शक्ति को जागृत कर डालो.. आज जो दुःसाध्य या असम्भव सा जान पड़ता है वही निरंतर साधना और अभ्यास के द्वारा सुसाध्य और सम्भव हो जाएगा परन्तु इसके लिए चाहिए विराट उद्योग, अंनत आसीम धैर्य्य, अदम्य, अनन्त असीम उत्साह उद्यम और अध्यवसाय“।
अध्यात्म… याने कि ”आत्मा में“ अनुभव शून्य के अत्यंत निकट है। आत्मा शून्य – अस्तित्व सीमा रेखा प्रदर्शित करती चैतन्यता है। ”आत्मा में“ की पूर्वावस्था है ‘ध्यान’ याने कि बस एक में लीन। ”एकालीन“ अर्थ रूप में जब सिकुड़ जाता है तब स्वरूप शून्य सा प्रतीत होता है और यही है ‘समाधि’। ”ध्यान जब अर्थ मात्र रह जाए और स्वरूप शून्य सा प्रतीत हो, उसे समाधि कहते हैं“ 98 ”शून्य सा“ की सत्यतम अनुभूति शून्य अस्तित्व की सीमा रेखा पर ही हो सकती है। यही अध्यात्म की एक बौद्धिक विवेचना है।
”ध्यान से आलोकित मानव उस अखिल को अंतस गहन में स्थित देखता है जिसमें विश्व एक नीड़ के समान लघु है।“
नीड़ से भी लघु भी हो जाता है यह विश्व जब मानव अनुभूति के स्पन्दनों से स्पंदित होता है.. शाश्वत गति को छूता है।
”आदमी अगर प्रमाणित रूप से कुछ जान सकता है तो सिर्फ आदमी को। और अगर आदमी को जान जान ले तो आदमी इतनी बड़ी इकाई है कि आदमी को जितना जानता चला जाए उतनी नई नई दिशांए आदमी के भीतर से खुलती हैं। और उन दिशाओं से वहां तक की भी यात्रा कर सकता है जहां हमें नहीं दिखाई पड़ता कि आदमी जुड़ा हुआ है“ स्वकेन्द्रण से हर दिशि सत्यों का विकास होता है। आदमी स्वयं को बूझकर सब बूझ लेता है। स्वकेन्द्रण की लघुतम इकाई समस्त सत्यों के सत्य महत्तम को धारण किए हुए है। सत्यों के सत्य महत्तम को छूना ही तो अध्यात्म है। इस अध्यात्म को एक क्षण भर जीना जीवन को अक्षण कर देता है। अक्षण जीवन वह जीवन है जहां मानव समयजित हो जाता है। ‘समयजित’ क्षणों की आपेक्षिकता से परे होता है। समयजित ही नहीं वह देशजीत भी होता है। वह समस्त आयामों से बड़ा हो जाता है स्वयं का आयाम पाकर। स्वयं का एक आयाम इतना अधिक सर्वतो मुख है कि बाकी हर आयाम इसमें ही सिमट कर मिट जाता है।
आत्मा ही सर्व सत्य है, इस आत्मा तक पहंुचना ही इसके आनंद का पान करना है। आत्मा यह लबालब आनंद भरी है। ”आत्मा में आत्मा सा“ ही स्व-केन्द्रण है, अध्यात्म है। आत्मा में आत्मा सा ही नहीं बल्कि आत्मा में आत्मा ही स्वकेन्द्रण है। स्वकेन्द्रण होने पर शरीर आत्मा की अभेदता ज्ञात होती है। आत्मा ने शरीर को आच्छन्न किया हुआ है.. आत्माच्छादित ये शरीर आत्मा की तुलना में समाप्त हो जाता है। आत्मा बरसा रही है अपनी पूर्णता। इस पूर्णता से आप्लावित हो हमें अध्यात्मिक होना है। ”मेरी आत्मा धर्ममेघ है। मेरे लिए और मेरे जैसे सब चातकों के लिए स्वाति नक्षत्र की बूंद यही है। इसमें वृष्टि की, बरस जाने की उत्सुकता उमड़ रही है। मनुष्य अपने स्वरूप को भूला हुआ है। प्रत्येक आत्मा राम है, कृष्ण है, बुद्ध है, दयानन्द है।“ 75 इतना ही नहीं हर आत्मा ईसा है मुहम्मद है, नानक है, महावीर है। कितनी शोचनीय अवस्था हो गई है आज अध्यात्म की.. कि पैगम्बर आत्मा आज दागी जा रही है। इस आत्मा पर राम, कृष्ण का नाम दाग उसे हिन्दू, ईसा का नाम दाग ईसाई, हजरत मुहम्मद का नाम दाग मुसलमान आदि बना दिया जाता है। जानवरों के झुण्डों पर अपने अपने चरवाहे के दाग होते हैं जो तपते लोहे से दागे जाते हैं। उफ! ये कर्म बंद होने चाहिएं.. बाईबिल, कुरान, वेद, ग्रंथ साहब, पिट्टक आदि को दागने वाले तपते लोहे के विकृत पीड़ादायक रूपों में मानवता को और पीड़ादायक बनने से रोकना होगा। इनके द्वारा दागित लोगों के दाग मिटाने होगेें। इन सम्प्रदायों को अध्यात्म के स्तर तक व्यापक करना ही होगा।
हम विश्व में अपना तथा सबका मूल्याकंन करते हैं। अपना मूल्यांकन एक स्थिति है, सबका मूल्याकंन दूसरी स्थिति है, और ब्रह्म का मूल्याकंन तीसरी स्थिति है। ये तीन स्थितियां पाना याने कि मूल्याकंन का सतह मात्र तक रह जाना है। अध्यात्म पथ हमें अपने आपका, जग का, एवं ब्रह्म का गहन मूल्याकंन करना सिखाता है। ”संसार के तुम्हारे सगे सम्बन्धी व शत्रु मित्रों की तुम्हारी मान्यता तो सरफेस वैल्यूएशन है। उनके प्रत्यक्ष मूल्य को देखो वे वही हैं जैसे तुमने अब तक विश्वास करके रखे थे। किन्तु अब यदि तुम गहराई से देखो तो तुम्हे उनके साथ अपनी एकता का पता चलेगा।“ सब के साथ एकता की पहचान है। अपनी पहचान जान लेने पर आदमी सबका हो जाता है। सबका हो जाने पर खुद का कहां रह जाता है? सबके सब में खुद हो जाना या खुद में सबके सब हो जाना ही अध्यात्म है।
अध्यात्म पुरुष खुद को दुनियां में अंश अंश बांट देता है। सहजतः दुनियां में इत उत सर्वत्र बंट कर वह मिटता नहीं वरन व्यापक ही होता है। खुद को बांटकर पूरी की पूरी दुनियां में मिटा नहीं हूं वरन दुनियां हो गया हूं मैं।
दुनियां हो जाना ही अध्यात्म है। दुनियां हो जाना ही प्राणी होना है। मानव का चरम विकास यही तो है। इस चरम विकास के लिए अमर स्रोत है वह मानव के भीतर है।
मानव बाहर दूर दूर तक भटकता है वह ढूढ़ने के लिए जो उसके भीतर है। बाहर उसे कुछ भी नहीं मिलता है भटकने के सिवाय। ”हजारों तरह के देवाताओं का पूजना धर्म नहीं, पीर, पैगम्बरों के पास óियों को भेजना धर्म नहीं, लम्बे लम्बे तिलक लगाना भी धर्म नहीं, गोमुखी में हाथ डालकर भगवान को बहकाना भी धर्म नहीं, धर्म शिवाले में नहीं, धर्म गंगा में नहीं मंदिर में नहीं, धर्म-पुस्तकों में नहीं हृदय के भीतर है।“
परोक्ष अपरोक्ष रूप मे आदमी ”अध्यात्म“ की ही चाहना करता है। यह अलग बात है कि इस चाहना में वह छोटी छोटी अन्य ”चाहनाओं“ पर रुक जाता है। अन्य चाहनाओं पर रुक जाना एक तरह से आदमी का गुम जाना है। गुमा हुआ है हर आदमी जिसकी तलाश में। वह महामणि अरे यह ‘मैं’ ही तो है।
इस ‘मैं’ की महामणि को पाने के लिए आदमी को ”चाहनाओं“ के छोटे छोटे बंधनों को क्रमशः तोड़ना होगा। क्रमशः भीतर की ओर लय होना होगा।
”बुद्धि की बुद्धि आत्मा“
कोषिका झिल्ली पार उससे परे यह असंतुलन कायम रखने का प्रयास करता इस असंतुलन प्रभावित होता संतुलन का प्रयोगकर्ता कौन है? इस प्रयोगकर्ता के मध्य विज्ञान के लिए पहाड़वत बाधाएं है कि विज्ञान बुद्धि औजार का प्रयोग नहीं करता जो सूक्ष्मतम औजार है और यह उस औजार का क्षेत्र है इलेक्ट्रानिक माइक्रोस्कोप तथा अल्ट्रा माइक्रोस्कोपिक तकनीक (अल्ट्रा वायलेट किरण उपयोग युक्त) जहां तक विज्ञान पहुंचा है बुद्धि के अध्यात्म सूक्ष्मतम औजार से उसें औजार बड़े मोटे औजार हैं।
मैं जानता हंू कि विज्ञान जब झिल्ली की भित्ती या आयन आवेष के आवेष का विष्लेषण करेगा तो उसे क्या मिलेगा? उसकी अंतिम स्थूल सीमा क्या है? तभी तो मैं कहता हूं वेद अद्भूत विज्ञान ग्रंथ है। विज्ञान सार ग्रंथ है। इनमें बुद्धि के औजार के सर्वोत्तम व्यवहारिक प्रयोग एवं निष्कर्ष साथ-साथ है। संसार आत्म की सीमा रेखा का तत्व है बुद्धि। इससे परे का तत्व है बुद्धि की बुद्धि आत्मा। ब्रह्म ज्ञान केा प्रणाम। मेरे सम्पूर्ण प्रणाम।
”भान“ एक इंगन है.. ऐसे कई कई आभास हैं जो मैं की और प्रषित करते हैं। ‘मैं’ में डूबकर भी मानव अडूबा ही रहता है.. उसे इसे डूबने का सही सही आंकन नहीं होता है। किसी ने भी देवताओं के विषय में और जिसे मैं सर्वव्यापक प्रकृति कहता हूं सम्पूर्ण निश्चय प्राप्त नहीं किया है और न कोई इसे प्राप्त ही कर सकेगा। इतना ही नहीं यदि मनुष्य को कभी सत्य का प्रकाश मिल भी जाए तो भी उसे यह ज्ञान न होगा कि उसे प्रकाश मिल गया है क्योंकि प्रतीति समस्त वस्तुओं को आवृत किए हुए है।“
अध्यात्मिक ईकाई क्या है? किसी भी एक पदार्थ को लिया जाए.. उसके दो भाग किए.. एक को छोड़ दिया जाए दूसरे के फिर दो भाग किए.. ऐसे ही हर भाग के भाग करते चले गए.. अंतिम अवस्था तक। अंतिम अवस्था क्या होगी? कठोपनिषद का अणोरअणीयान यही है जो अंतिम अवस्था दर्शाता है। अंतिम अवस्था वह है जिसमें यदि सूक्ष्मतम कण का और भाग किया जाए तो वह शून्य हो जाएगा याने कि शून्य और अस्तित्व की सीमा रेखा प्रदिर्शित करता वह कण होगा। इस शाश्वत इकाई तक विज्ञान नहीं पहुंचा है.. इस इकाई से पूरा का पूरा विश्व आपूर्त है न्यूट्रान, इलेक्ट्रान, प्रोटान ही नहीं उनके मध्य का अवकाश भी इसी इकाई से आपूर्त है यह इकाई ही शाश्वत एक है, अखंडनीय एक है सिर्फ एक है.. शून्य जिसके निकटतम है और दूसरा एक भी इसके निकटतम है.. यह दूसरे एक का इसके निकटतम होना एक दूसरी परिभाषा की और इंगन करता है.. यह दूसरी परिभाषा है वेद का एक मंत्र चरण ”वह प्रगट होते ही फैला हुआ है।“ यही कठोपनिषद का महतो महीयान है। एक के निकट दूसरा दूसरे के निकट तीसरा चहंु दिशि यह सर्वत्रीय परम विकास ही अनंत है।
अध्यात्म ही है ये तो आदि तब से लेकर आज तक का वही है अपरिवर्तनीय हैं.. बाकी सब कुछ तो जाने कितनी करवटें बदल चुके हैं। विज्ञान तब से अब तक नई नई परिभाषाओं के आवरण ओढ़ने पर भी अंतिम परिभाषा में ढल नहीं पाया हैं न ढल पाएगा, राजनीति, सम्प्रदाय, धर्म, सभी कुछ देश, काल, समय, की काल्पनिक मान्यताओं द्वारा बुरी तरह परिवर्तित हुए। यदि सृष्टि के प्रारंभ से आज तक मानव अमृत पुत्र में कोई भी तत्व अमर है तो वह तत्व उसका ”मैं हूं“ है ”अंह अस्ति“ है। और इसमें डूब जाना ही अध्यात्म है। जो वही का वही है और यही का यही है। यह अध्यात्म आने वाले कल में वही का वही और यही का यही ही रहेगा।
”स्वयं का स्वयं में अस्तित्व“
स्वस्ति है स्व अस्ति या स्वयं का स्वयं में अस्तित्व। मानव है स्व स्वरूप और सु अस्ति है मानव की सु श्रेष्ठ में अस्ति अर्थात शुभ अस्ति या ब्रह्म अस्ति या अहं ब्रह्मास्मि। स्वस्ति का पूर्व चरण है स्वस्थ अर्थात स्व-स्थ। स्वयं की स्व में स्थिति। स्वस्थ मानव को ‘तन’ का भान ही नहीं होता है। वह सहज स्व आह्लादित होता है। इससे पूर्व अवस्था है अस्वस्थ। अर्थात स्व स्थिति नहीं अर्थात तनस्थ- शरीरस्थ अर्थात दर्दस्थ। और दर्दस्थ से अगली स्थिति है मृत्युस्थ या देहस्थ या देहास्मि। हर व्यक्ति को मृत्युस्थ की क्षणिक अनुभूति हो चुकी है। यह कोई काल्पनिक सत्य नहीं है। ”हाय मैं मर गया“ दर्दस्थ की अन्त्य अतिकम अवस्था है। दर्दस्थ की इसी अवस्था का अन्त्य में परिवर्तन होता है तथा मानव अहं देहास्मि हो जाता है। ‘अहं देहास्मि’ वैज्ञानिक मानते हैं कि डिम्बाणु और शुक्राणु के सह भिदन से एक कोषिका का निर्माण होता है। महिला के 24 जोड़े क्ष क्रोसमोस और मनुष्य के 24 जो क्ष – य क्रोसमोस में से द्वि जोड़ों के समूह से सह भिदन कोषिका का विकास प्रारम्भ होता है। एक द्वि चतुः विभाजन बढ़ता चला जाता है। इस एक कोष में अनुवांशिकता होती है। इसका आधार जीन होता है। विज्ञान मानता है कि जीन मानव का केन्द्रक है (परमाणु के केन्द्रकवत)। एक जीन का आयतन 10-17 धन सेमी है। एक परमाणु का आयतन 10-23 है। जीव मंे दस लाख परमाणु हैं। हम कह आए हैं जीन बड़ी स्थूल चीज है। परमाणु भी स्थूल चीज है। शक्ति कण भी स्थूल है। क्वार्क, एण्टी इलेक्टॉन भी स्थूल है। सूक्ष्मतम से सूक्ष्मतम है तदेजति एजति इससे सूक्ष्म है तन्नेजति तदेजति। धर्म विज्ञान से ज्यादा निश्चयात्मक बुद्धि रखता है। अहं देहास्मि अतिसूक्ष्म धारणा है।
अध्यात्म शब्द में दो शब्द है ‘अधि’ और ‘आत्म’.. अधि + आत्म का सीधा सादा शाब्दिक अर्थ हैं आत्म में। अंतस् बाह्य की समस्त क्रियाएं शमित हो जाती हैं जब.. तब अस्तित्वीय चैतन्यता क्रियाओं के उद्गम स्थल मे लवलीन हो जाती हैं.. यही ”आत्मा में“ का अभिप्रेत अर्थ है। ”आत्मा में“ याने कि ”मैं-में“। यह ”मैं“ समस्त बाह्य उपाधियों का मूल धारक है। मैं इन्जीनियर हूं, मैं डॉक्टर हूं, मैं वकील हूं, मैं कवि हूं, मैं लेखक हूं से प्रारंभ करके मैं बाप हूं, बेटा हूं, भाई हूं.. आदि आदि सब ‘मैं’ का बाह्य होना है। इन उपाधियों में बंध जाना अध्यात्म से भटकाव है। मैं हिन्दू हूं.. मैं मुसलमान हूं.. आदि आदि भी उतना ही असत्य है जितना मैं दुकानदार हूं आदि है। मैं ब्रह्म हूं.. भी सत्य के निकट नहीं है ..। निकट सत्य है ”मैं हूं“ और निकटतम सत्य है.. ”हूं“। ”होना“ ही यथार्थ ”मैं-में“ या अध्यात्म है।
(2) सप्त आत्म
1) सूक्ष्मतर,
2) सुकम्प-कम्पनदा,
3) सत्-चित्,
4) चिद्-बिन्दु,
5) ब्रह्म निकटतम,
6) तत्त्वं सुपदार्थम्,
7) ब्रह्मस्थ।
द्वार चाहे अलग रहते हैं पर साधक पंहुचते सब उसी मंझिल पर हैं.. पर उस तक पंहुचने का पथ… वक्र पथ नहीं है.. कोई वक्र पथ उस तक नहीं पहंुचा सकता.. वक्र पथ तो कहीं पहुंचा ही नहीं सकता… घुमाव में पहुंचना कहां होता है? पुनरावृत्ति होती है। यदि कोई सरल रेखा की अध्यात्म परिभाषा दे.. तो वह यही है.. कि वह रेखा जो समस्त घेरों को काटती है और स्वयं घेरा नहीं है। गणितीय सरल रेखा सबसे बड़ा वृत है.. अध्यात्म सरल रेखा असमाप्तीय है। इसके ओर.. छोर है..। ओर पर बिन्दु है तो छोर पर अनंत फैलाव है..।
”महावीर जहां पहुंचते हैं, वहीं मुहम्मद पहुंच जाते हैं, जहां बुद्ध पहंुचते हैं वहीं कृष्ण पहंुच जाते हैं। जहां लाओत्से पहुंचते हैं, वहीं क्राइस्ट पहंुच जाते हैं। नहीं मालूम आपको किस जगह से द्वार मिलेगा। आप पहुंचने की फिक्र करना, द्वार की जिद् मत करना कि इसी दरवाजे से प्रवेश करुगां“
पहंुचना वहीं है बेशक। द्वार का आग्रह नहीं हैं बेशक। लेकिन सरल रेखा है आवश्यक। कोई भी अध्यात्म सरल रेखा पर चले बिना उस तक नहीं पहंुच सकता। सरल रेखा एक नहीं है.. कई कई है पर अनंत एक है.. यह व्यवहार भाषा द्वारा पथ प्रदर्शित करने का प्रयास है।
ब्रह्म वह सर्व ऊर्जा है जिसमें समस्त ऊर्जाएं निसृत हुई हैं। इस सर्व ऊर्जा से अल्पुर्जा का जुड़ जाना ही अध्यात्म अनुभूति है..। और उस अवस्था में ंसार की बाकी सब वस्तुएं ही नहीं मानव जन्म.. मरण से भी परे हो जाता है। मरण तटस्थता एक चिह्न है अध्यात्म पहुंच का..।
”मानव परम दिव्य कलाकार ही अभिनव कृति है। मानव की विचारणा शक्ति कितनी उदात्त है। सामर्थ्यों की अनन्त क्षमतायुक्त, परिधानों एवं कर्मों में कितना अभिव्यक्त एवं सराहनीय है। उद्योग में स्वर्ग दूतों सा सहज, उत्तमता एवं सर्वोच्च सौंदर्य की प्रतिमूर्ति का साक्षात रूप यह मानव जीवों का सिरमौर है।“ इतना ऊंचा .. इतना विशुद्ध, इतना दिव्य मानव जब मूर्तियों, पत्थरों, मजारों के आगे सिर पटक पटक कर रोता है, उनमेें भीख मांगता हैं उनके पांवो में गिड़गिड़ाता हैं तो मानवता अपनें इस बेटे के घोर पतन पर आंसू बहाती है। अरे इन्सान उठ अपनें अदंर धंसे इन अंधेरों के टुकड़ों को अपने शौर्य के प्रकाश से विनष्ट कर दे। तू गिड़गिड़ाने के लिए पेैदा नहीं हुआ है, सिर झुकाने के लिए पैदा नहीं हुआ है, तेरी राह मे दिव्यता की राह है.. तेरा अन्तस् तो आनन्द का सागर है.. उठ इस आनन्द के सागर से सरोबार जो लोग हैं उनकी श्रेणी तक उठ.. आह्लादित तू दिव्यता के गीत गा.. गुनगुना विह्नलता में! अपनी क्षमताओं का विकास कर! पूर्ण विकास कर! अरे मानव ये सौदा बड़ा सस्ता है। नन्हें नन्हें सुख बांट कर जग में… ढेर ढेर सारे प्यार बटोर ले!
सम्प्रदाय, धर्म.. दर्शन, अध्यात्म ये उत्तरोत्तर सीढ़ियां हैं। सम्प्रदाय सीमित धर्म है, धर्म सीमित दर्शन है, दर्शन सीमित अध्यात्म है। सम्प्रदाय रंगीन कांच के चश्मे से तथ्यों को देखना है, धर्म कमजोर दृष्टि से देखते हुए तथ्यों को जीना है, अध्यात्म परिमार्जित सत्य जीने पर प्राप्त उपलब्धि है। सम्प्रदाय आवेग हैं, धर्म भोलापन है, दर्शन परिष्कृति है, अध्यात्म अनुभूति है। घुटने के बल बैठ कर खड़े लोगों की महानता से प्रभावित होना साम्प्रदायिकता है, स्वयं खड़ा होना धर्म है, चलना दर्शन है, मजिल से मंजिल में सफर करना अध्यात्म है।
जो कोई भी मठाधीश है.. धर्म बेचने का खोटा धंधा करता है वह अंधा है.. धर्म भी भला कोई बेचने की चीज है? धर्म को बेचना सबसे बड़ा पाप है। धर्म खरीदना उससे भी बड़ा पाप है। इस भयावह अंधेपन का इलाज ही अध्यात्म है। अध्यात्म आंख मिल जाने पर न तो मानव धर्म बेचता है, न खरीदता है.. वह तो बस शाश्वत जीता है.. अपना अध्यात्म लुटाता है।
अध्यात्म कोई अस्थाई अवस्था नहीं है.. वरन यह तो स्थाई अवस्था है। अपने आप में मानव का चले जाना अध्यात्म नहीं है। अपने आप में मानव कई बार चला जाता है पर यह अस्थाई दौर है। इस अस्थाई दौर को स्थाई बना लेना अध्यात्म है। जब मानव सहजतः सदा अपने आप में रहता है तो ही वह ”आत्म में“ कहलाता है। ”जब चित्त की विक्षिप्त और एकाग्र भूमि सर्वथा निरुद्ध भूमि में बदल दी जाए, जब यह बिना किसी साधन के निरुद्ध रहने लगे तब ऐसी अवस्था में जो पुरुष का अपने स्वरूप में स्थित हो जाना है वही ”स्वरूप स्थिति“ है। स्वरूप स्थिति वाले की पुनः इतर (व्युत्थान) स्थिति कहना पूरी पूरी भूल है, क्योंकि स्वरूप स्थिति स्वाभाविक स्थिति है, वह बदल नहीं सकती, और जब तक वह स्वाभाविक नहीं तब तक वह स्वरूप स्थिति नहीं कहला सकती।“ स्वरूप स्थिति ही अध्यात्म है.. इस स्थिति में क्योंकि कर्ता केवल ऋत कर्म करता है एवं उसके समस्त कर्म प्राणियों के कल्याणार्थ होते हैं अतः उसे किए गए कर्मों की प्रतीति भी नहीं होती.. वह सहजतः ऋत होता है, सहजतः कल्याणमय होता है।
सर्वतोमुख मानव भावमुख होकर रहता है। ”भाव मुख“ स्व का परम विकास है। स्व-विकास द्वारा स्व का नष्टीकरण है। स्व के नष्टीकरण के साथ ही साथ ‘पर-स्व’ की प्राप्ति ही ”भाव मुख“ है। आदमी जो घेरों मे सीमित हो जाता है वह ‘अभाव मुख’ हो जाता है। अभाव मुख अर्पूणता का द्योतक है। ‘अभाव मुख’ हजार हजार आंखो वाला, हजार हजार पावों वाला, हजार हजार हाथों वाला पर केवल अपने लिए ही होता है। एक आदमी हजार पावों से एक दिशा में दौड़ कर, एक चीज पर हजार हाथों से झपटेगा, हजार आंखों हजार चीजे देखेगा, उनकी लालसा करेगा.. उसकी बड़ी दयनीय अवस्था होगी। आज सामान्य मानव की यही अवस्था है उसकी इच्छाओं के सबल हाथ उसके बस में नहीं, कामनाओं के सशक्त पांव उसके बस में नहीं.. लालसा की आंखे उसके वश में नहीं परिमाणामतः वह उद्विग्न है; अभाव मुख है। भाव मुख शब्द का अर्थ हैं कि ‘क्षुद्र अहं’ का लोप करके सभी अवस्थाओं में ‘विराट अहं’ अर्थात् इश्वरेच्छा के साथ मन को एकीभूत करते हुए लोक कल्याण साधन करना।“
दो तरह के ही व्यक्ति पाए जाते हैं दुनिया में.. एक योगी दूसरा भोगी। ज्ञान भी दो ही है.. एक बाह्य दूसरा आंतसिक। दुनियां का निर्माण दो से ही हुआ है.. एक ”मैं“ दूसरा ”मैं से भिन्न“। तीसरे परम तत्त्व के विषय में हम इसी सीमा तक आश्वस्त हैं कि ”वह हैं“.. वह क्या है? यही तो अध्यात्म अनुभूति है.. जो केवल इंगित की जा सकती है, अभिव्यक्त नहीं। योगी और भोगी में एक ही क्रिया का लक्ष्य बदल जाना ही अन्तर पैदा कर देता है। ”आपने से भिन्न वस्तु का अभिमान तथा भिन्न वस्तु का ज्ञान एवं अपने से भिन्न का ध्यान हमें भोगी बनाता है। और जो अपने से भिन्न नहीं जिसमें कही भी भेद नहीं उस नित्य प्राप्त का अभिमान तथा उसी का ज्ञान और निरन्तर ध्यान हमें योगी बनाता हैं।“ 72 इस योग में परिपक्व होने पर ”आत्म में“ की अवस्था हैं जिसे अध्यात्म संज्ञा दी गई है।
”आत्म शक्ति का उद्बोधन ही प्रकृत मनुष्यत्व है“ मनुष्य होना याने कि अध्यात्म जीना। ‘आत्म चेतना’ सर्व चेतना के वृक्ष का बीज है। आत्म-चेतना के इस बीज को मानव यदि सर्व-नेह, सर्व प्रेम के जल खाद से अंकुरित कर ले ‘स्व’ के मानस की धरती पर तो वह मानव ही ”सर्व चैतन्यता“ के वृक्ष की तरह फैल जाता है.. और इस वृक्ष की सुखद छांव का उपयोग कई घेरे घिरे लोग करते हैं। मानव आज अपनी प्रकृत प्रकृति से ही भटक गया है.. यहां तक कि परिवार से भी संकुचित हो गया है। व्यापकता और संकुचन में थोड़ा सा भेद है। व्यापकता ”मेरा नहीं“ द्वारा घेरे तोड़ने का नाम है.. तो संकुचन ”मेरा ही“ द्वारा घेरे तोड़ने का नाम है। व्यापकता मानव को उन्मुक्ति तक ले जाती है.. पर संकुचन मानव को ”लघु बंधन मे कस देता है। व्यापकता परमार्थ है, संकुचन स्वार्थ है। ”मैं हूं.. तुम हो.. सब हैं.., मैं रहूं.. तुम रहो… सब रहे“ यह व्यापकता है। ”मैं हूं.. मै रहूं“ यह संकुचन है। व्यापकता आत्म शक्ति का उद्बोधन है। संकुचन अनात्म शक्ति का प्रदर्शन है।
भूल जा भूल जा भूल जा, सब कुछ भूल जा तू। फिर याद आयेगा खुद कोे खुद तू!
सब कुछ को भूल जाना पड़ेगा खुद को खुद याद आने के लिए। ”व्यापक स्वयं“ से बड़ा कोई देवता नहीं है इस व्यापक स्वयं को जगा करके तो देखो। तरशे हुए पत्थरों को भगवान समझने लगते हैं लोग तुम स्वयं को तरश करके तो देखो। भूल जा एषणाओं के त्रय को.. भूल जा वित्तेषणा को, भूल जा पुत्रेषणा को, भूल जा यशेषणा को.. तभी तरश जाएगा तू.. आत्म चेतना की गहराई में डूब जाएगा .. कह उठेगा-
खूब, खूब, खूब डूबा स्वयं की गहराई स्वयं मैने न पाई।
डूब तो इन्सान रे.. इस स्वयं में। बढ़ तो अध्यात्म की ओर.. आप्तता मिल जाएगी तुम्हें। सार्थकता को तू सम्पूर्णता से जिएगा।
अस्तित्वता चैतन्यता सार्थकता इतनी लघु सत्यता स्वयं को ढंूढता ब्रह्म गया पा।
समुद्र में विलीन हो जाती है उर्मि जैसे आप्त पुरुष भी विश्व प्रेम की तंत्री को धारण करते हुए सर्वत्र फैल जाता है बह जाता है।
जीवात्मा एक उन्मुक्त पंछी है.. मोक्ष एक आकाश है आनंद का जो इसे अठखेलियां करने के लिए मिला हैं यह आकाश ही इसका घर है, इसका भोजन है, इसका पानी है.. यही आनंदकाश इसके लिए सभी कुछ है।
मानव रे तू ”स्वाहा“ हो जा! चारों और इत् उत् सर्वत्र एक अग्नि जल रही है! इस हर सम्प्रदायी धर्म में सतत् जलने वाली अग्नि का नाम है प्रेम! अपने आप सा सबसे प्रेम! इस दिव्य प्रेम की चादर ओढ़ ले रे मानव! बाकी सब छोटे छोटे चोले उतार फेंक! इस दिव्य प्रेम को अपना स्व अपना आत्म समर्पित कर दे अरे मानव.. बिखर बिखर जा सबका आत्मीय बन इस दुनियां में। तू अकेला बस सबका अपना हो जा, उतना ही अपना हो जा जितना तू खुद का अपना है। फिर आनंद की एक धारा चारों और बह जाएगी! मानव रे घेरे तोड़ दे!!
मेरा एक भयानक घेरा है। ”यह नहीं मेरा“ का महापाठ तू जानता है रे इसे जी ले। इदं न मम अपने जीवन में सार्थक कर ले। मम की सब क्षुद्र सीमाएं उठ.. उठ तोड़ दे! ये छोटे छोटे घेरे तो पिंजरे हैं इनकी तीलियां केवल तेरी कल्पना है अपने ज्ञान के पंख पसार.. इन तीलियों की विचारणा की तर्कश्य चोंच से परे तो करके देख.. ये सब हट जाएंगी.. मानव रे मन्दिर, मसजिद, गुरुद्वारे, गिरजे के छोटे छोटे पिंजरों में तू उड़ न सकेगा.. इनका विकास कर इन्हे मानवता गृह बना कि विश्व एक नीड़ हो सके.. तू .. तू उन्मुक्त दिव्य आकाश में उड़ सके।
घेरों को घेर दे रे मानव! तू मनुष्य बन.. आदमी बन.. इन्सान बन! सर्व व्यापक उस परमात्मा से तू अर्चना कर..
”हे दृढ़ बनाने वाले ब्रह्म! मुझे ऐसा दृढ़ बना कि विश्व के सारे के सारे प्राणी मुझे मित्रता से देखें! मैं भी सबको मित्रता से देखूं। (हम इतने दृढ़ हो आपस में) कि सब एक दूसरे को मित्र की ही दृष्टि से देखे!“
विश्व मैत्री का अध्यात्म स्वप्न यथार्थ करने के लिए हमें ये छोटे छोटे घर त्यागने होगें। ”जय व्यक्ति“ से ‘जय गृह’.. ‘जय गृह’ से ‘जय नगर’ से ‘जय-प्रांत’ से ‘जय जगत’ से ‘जय विश्व’ से ‘जय ब्रह्माण्ड’ को सार्थकता देनी होगी- अपनी प्रसुप्त क्षमता के अनन्तीय स्वरूप को यथार्थतः अनन्त करना होगा! अगाओ, ओऽम्, अल्लाह, गॉड, यहोबा, ताओ, अहुरमज्द, ओंकार का आत्मा, मेधा, प्रज्ञा, पंचैक, इन्द्रियों की इन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेंन्द्रियों में क्रमषः अधिकाधिक उतरते जाना साधना है।
आदमी जब आदमी में रहता है उस समय ”ऋत प्रज्ञित“ अवस्था में उसके लिए एक सूत्र का प्रयोग होता है और सूत्र है- शून्य = अनंतता। बड़ा मोटा सा अर्थ है इसका कि आदमी शून्य होते ही अनन्त हो जाता है.. अहसास तो हर पल आदमी के साथ रहता है यह अहसास उसके आस्तित्व का प्रतीक है.. जब अपने यथार्थ अहं तक आदमी पहुंचता है तो वह शून्य के निकटतम होता है.. अहसास उस समय शून्य की अपेक्षा से होता है अतः आदमी शून्य विभाजित होता है.. अतः शून्य समय में अनंत होता है। उस स्थिति में वह शाश्वत गति से चलायमान रहता है.. शाश्वत गति अगतित गति इस अर्थ में है कि शून्य समय में आदमी पुनः अपनी स्थिति पर आ जाता है.. हर रेखा एक वृत है.. सरल रेखा भी सबसे बड़ा वृत है.. अतः शून्य समय में अनंत गति युक्त अहसास स्थिर रहते हुए भी गतित रहता है।
ऋषि अनुभूति उपरोक्त सत्य की कितनी सशक्त भाषा में अभिव्यक्त है।
”वह चलता है और नहीं भी चलता है। वह दूर है और समीप भी है वह सबके अतंर्गत है वही इस सबके बाहर भी है। 1
अनंत गति केवल एक दिशा में नहीं होती वरन सभी दिशाओं में व्याप्त होती है। चलना न चलना दूर से दूर समीप से समीप सबके अंदर एवं सबके बाहर एक साथ होने की अवस्था एक ही स्थिति में सम्भव है वह स्थिति है शाश्वत गति की स्थिति। शाश्वत गति की ही स्थिति में पूर्ण का पूर्ण पदार्थ मात्र शक्ति में परिवर्तित हो जाता हैं… यही स्थिति अगतित गति की है।
केवल अध्यात्म ही संज्ञा नहीं है इस परम अनुभूति की। स्वतंत्रता एवं स्वाधीनता भी इसी की संज्ञाएं हैं। स्व + तंत्रता.. याने कि स्व की तंत्रता… वह जीवन जो स्व के लिए, स्व के द्वारा, स्व का हो स्वतंत्र जीवन है। स्व की आधीनता स्वीकार कर लेने पर मानव पूर्ण हो जाता है, उसका हर कर्म व्यापक हो जाता है, ऋत हो जाता है। स्व ही तो ‘आत्म’ है। आत्माधीनता एवं आत्मतन्त्रता आत्मानुभूति के बाद के चरण हैं। स्वतन्त्रता और स्वाधीनता को छोटे छोटे राजनैतिक घेरों से उन्मुक्त करके सही अर्थों में अध्यात्म के निकट आना ही होगा।
भटकाव नहीं ठरहाव है अध्यात्म अनुभूति, परम ठहराव.. केवल ठहराव.. निरपेक्ष ठहराव। उसके विषय में कहा गया है कि- ”वह एक है वह एक ही है“। सिर्फ एक में ही ठहराव हो सकता है… दूसरे तीसरे में नहीं। दूसरा तीसरा.. चौथा.. भटकाव की स्थितियां हैं। एक ही ठहराव की स्थिति है ”वह दूसरा नहीं, तीसरा नहीं, चौथा नहीं, पांचवा नहीं, छठा नहीं, सातवां, आठवां, नाैंवा नहीं दसवा भी नहीं.. वह तो एक ही है..“ समस्त भटकावों से वापस एक पर आ मानव ठहर जाता है.. शांतात्मा हो जाता है।
अनुभूति है क्या? अपने आप के स्वरूप में स्थित होना। संसार क्या है? अपने आप के अतिरिक्त किसी स्वरूप में स्थित होना या समझना। दूसरे के स्वरूप की स्थिति से हम अपने आपको जब जानते हैं। तो हम अस्तित्व शाली हैं.. अन्यों के पदार्थांे के संबंधों को जानने से ही हम ज्ञानसम्पन्न हैं। अन्यों के प्रेमों में हम प्रेम संपन्न हैं। पर यह सब संसार है, अनुभूति नहीं। ”पुरुष को अस्तित्व शाली नहीं कहां जा सकता क्योंकि वह स्वयं अस्तित्व स्वरूप है। आत्मा को ज्ञान संपन्न नहीं कहा जा सकता क्योंकि आत्मा स्वयं ज्ञान स्वरूप है उसे प्रेम संपन्न नहीं कहां जा सकता क्योंकि वह प्रेम स्वरूप है। आत्मा को आस्तित्व शाली, ज्ञान युक्त अथवा प्रेममय करना सर्वथा भूल है। प्रेम ज्ञान और अस्तित्व पुरुष के गुण नहीं वे तो उसका स्वरूप हैं“
बाह्य जितना कुछ है उससे छूटकर ही मानव स्वयं को छू सकता है और जब मानव स्वयं को छूता है तो विराट हो जाता है.. विराट मानव के सम्मुख यह जग.. परम लघु हो जाता है। ”जब (जहां) संसार की समस्त वस्तुएं बिलकुल तुच्छ हो जाती हैं तब पुरुष विश्व व्यक्ति विराट के रूप में प्रकाशित हो जाता है तब यह सारा विश्व सिन्धु में एक स्व प्रतीत होने लगता है और अपनी इस क्षुद्रता के कारण.. इस शून्यता के कारण न जाने कहां विलीन हो जाता है।“
”मनुष्य एक अमर्याद वर्तुल है जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है लेकिन जिसका केन्द्र एक स्थान में निश्चित है और परमेश्वर एक ऐसा अमर्याद वर्तुल है जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है परन्तु जिसका केन्द्र सर्वत्र है“ 106 एक केन्द्रीय का सर्व केन्द्रिय हो जाना ही अध्यात्म है, अनुभूति है, मानव जीवन का लक्ष्य है। लघुतम का महत्तम हो जाना एवं पलांश में.. ही अनुभूति है। ”यदि मनुष्य अपनी क्षुद्र ससीम चैतन्यमय सत्ता का अतिक्रमण कर असीम अद्वितीय चैतन्यमय सत्ता के साथ तादात्म लाभ कर सके, तो वह ईश्वर स्वरूप बन सकता है और संपूर्ण विश्व पर अपना अधिकार चला सकता है। सत्य स्वरूप अद्वितीय विश्व चैतन्य के साथ मानव के सीमाबद्ध चैतन्य का अभेदत्व लाभ ही जीवन लक्ष्य है।“
”सतत एक है तरंगित तरंगदाता“
अद्भुत तथ्य प्रकृति नहीं है अद्भुत तथ्य परमात्मा भी नहीं है अद्भुत तथ्य है जीवात्मा। प्रकृति तथा परमात्मा जीवात्मावत् जन्म मरण प्राप्त नहीं करते, कर्म नहीं करते, कर्मफल नहीं पाते, स्वंतत्रता का उपयोग नहीं करते, सीमाएं नहीं बदलते। प्रकृति सत है ऋत आबद्ध है नियमबद्ध व्यक्त अव्यक्त होती है ब्रह्म शृत आबद्ध है नियमबद्ध है अव्यक्त है सर्वज्ञादि है सच्चिदानंद है। जीवात्मा सत् निर्मित एकदेशी चित है आनंद शृत ऋत कमोबेश होने में स्वतन्त्र है तथा होता है। अद्भुत है.. ऋत प्रकृति असंतुलन है जीवात्मा। शृत ब्रह्म असंतुलन है जीवात्मा। द्वि असंतुलन व्यवस्था है जीवात्मा। द्विज नाम इस अर्थ भी सार्थक है जीवात्मा का। द्विज द्वि से जन्म, द्विज दो बार जन्म, दो जन्म के कारण दो बार जन्म दो बार जन्म से बार बार जन्म, बार बार जन्म से बार बार मरण, बार बार मरण से बार बार नवीनीकरण क्षणिकवाद, द्वैतवाद, त्रैतवाद, अद्वैतवाद, चिन्तकों का आधार भूत सत्य यही है। इस बारम्बार में सतत एक है आत्मा। त्रि शरीरी संकल्प शरीर, सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर। स्थूल विवरण आण्विक संरचना, किण्व संरचना, कोषिका संरचनादि से स्पष्ट है। सूक्ष्म शरीर ”तदेजति एजति“ स्वरूप है ”तरंगित तरंगदाता“ यह असंतुलन आधार है। गुरुत्व नियम विरुद्ध, प्रकाश नियम विरुद्ध, विद्युत नियम विरुद्ध, प्राकृतिक नियम विरुद्ध एक जैव असंतुलन व्यवस्था है लेकिन सातयवी पारदर्शी असंतुलन व्यवस्था है और उससे सूक्ष्म है तदेजति वह तरंगित अल्पज्ञता बाध्य, सर्वज्ञता की ओर गतित संकल्प शरीराधार तरंगित है न जन्म, न मृत्यु, अबाध्य होने को प्रयासरत। बाध्यता है कमेन्द्रियता (इन्द्रियों में कमी) या दुःख अबाध्यता की ओर गति है उत्तमेंन्द्रियता या सुख।
रूपैः सप्तभिरेव तु बध्नात्यात्मानमात्मना प्रकृतिः।
सैव च पुरुषार्थं प्रति विमोचयत्येक रूपेण।। (सांख्य)
प्रकृति से फिर पुरुषार्थ- पुरुष परम प्रयोजन = अव्याहत गति आह्लादमयी हेतु एकरूपेण विमुक्ति होती है।
”अगतित सर्वगतिदाता“
सहस्रशीर्ष, सहस्राक्ष, सहास्रपात इस विज्ञान को पुरुष सम्मत पुरुष सम्पूर्ण आधारित होना करना होगा। सहस्रशीर्ष सहस्राक्ष, सहस्रपात बाह्य अक्ष-र न मम दृष्टि से सहस्रशीर्ष सहस्राक्ष, सहस्रपात- अ-क्षर मम दृष्टि से विचारना होगा तब मृत्यु रहस्य कि मृत्यु है ही नहीं सुलझ जाएगा।
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्।
स भूमि ँ् सर्वत स्पृत्वाऽत्यतिष्ठद्दषाङ्गुलम्।। (यजु. 31/1)
”सहस्रों षिरों के षिरयुक्त.. सहस्रों चक्षुओं (इन्द्रियों) के चक्षु युक्त.. सहस्रों पगों के पग युक्त… ऐसा इन्हें घेरता सब ओर से पांच स्थूल भूत, पांच सूक्ष्मभूत अवयवी पुरुष.. इन सबसे पृथक स्थित (एजति-एजति) कम्पनषील कम्पन दाता है।“ यह जीवात्मा के सन्दर्भ का तथ्य है जो वेद में कहा गया है। सहस्रों व्यवस्थाओं की सावयवी एक व्यवस्था है षिर, सहस्रों आंखों की सावययी एक व्यवस्था है आंख (उसी प्रकार कान, नाक, वाक्, त्वक्).. सहस्रों चालन सन्तुलन व्यवस्थाओं की एक सावयवी व्यवस्था है पग (हाथों समेत), इन व्यवस्थाओं की पंाच स्थूल भूत पांच सूक्ष्म भूतमयी एक सावयवी व्यवस्था है.. जिससे हटकर सार तत्व है यह चैतन्य।
पुरुषऽएवेद ँ् सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम्।
उतामृतत्वस्येषानो यदन्नेनाति रोहति।। (यजु. 31/2)
जो उत्पन्न, उत्पत्ति योग्य, उत्पन्न होने वाला, मम ग्रहण व्यवस्था से अति वृद्धि प्राप्त करता उस तथा इस प्रत्यक्ष परोक्ष रूप जगत को अमृत का कारण, सर्व सहज नियन्ता पुरुष ही रचता है। ”एजति-एजति“ सार है फोटान से भी सूक्ष्म से फोटान से शक्ति से क्वार्क से अणु-परमाणु से, जीन से कोषिका से विभिन्न प्रणालियों से बंधे इस सावयव का जो एक है। वह मृत्यु नहीं मरता।
”आग्रतः जातं यज्ञं पुरुषः“ को बर्हिषि प्रऔक्षन तेन अयजन्ततम् करते हैं तथा अन्तऋर्षि प्रऔक्षन तेन अयजन्ततम करते हैं। पूर्व उत्पन्न सम्यक ज्ञातव्य पुरुष को विद्वान, साध्या ऋषि अन्तर् में प्र-औक्षन सूक्ष्मतम सूक्ष्मतम स्वरूप एजति एजति तदेजति तन्नैजति सींचते है- अयजन्ततम करते हैं तथा बर्हिषि भी (बाह्य साधनों से) सूक्ष्मतम स्वरूप सींचते है अयजन्तम करते हैं।
अन्तर्प्रऔक्षन- एजति एजति- तदेजति तन्नेजति सूत्रस्य सूत्र यह ज्ञान साध्या (साधना निष्णान्त-आत्म के आत्म पहंुचे) समझ सकते हैं। तथा बहिः प्रऔक्षन श्रम तप ऋत से एकाग्र वैज्ञानिक ज्ञान- अज्ञान अज्ञान-ज्ञान क्रम बढ़ते निष्चय अनिष्चय के समुंदर में डूबते बढ़ते रहते हैं इसी सत्य की ओर। साध्य साधन से छोटा नहीं होता वैज्ञानिक भूलते हैं तथा साधन से साध्य ढूंढते हैं इस ढूंढ में नोबल पुरस्कारों की लंबी शंृखला है पर सच्चा काम वे कर गये है जिनें नोबल पुरस्कार मिल ही नहीं सकता है।
”अहं देहास्मि“
रथ है शरीर, रथी है आत्मा। रथ पहिया है मानव, गलत है विज्ञान, रथ पहिए की बीमारी ठीक हो जाने से क्या बीमारी मानव को ठीक हो जाएगी? फ्ल्यू का दवा (न मम) इलाज कराने वाले को बार बार जल्दी-जल्दी फ्ल्यू होता है, फ्ल्यू का मम इलाज करने वाले को जल्दी-जल्दी फ्ल्यू नहीं होता। और फ्ल्यू का एकी इलाज करने वाले को फ्ल्यू कभी नहीं होता। रथ से रथी तक है मानव। ”अहं देहास्मि“, ”अहं ब्रह्मास्मि“ एक महत शरीर परिवर्तन सत्य है। इस सत्य के मध्य है कहीं पुनर्जन्म सत्य। ”मै हूं देह में“ ”मैं हूं ब्रह्म में“ मै हूं देह देह मध्य में, मैं हूं देह ब्रह्म मध्य में। पर इस सफर का नियन्ता मैं हूं, दूसरे की हाथ की नियमबद्ध डोर बंधा। दूसरे के हाथ की डोर है ऋत, शृत। नियन्ता है ब्रह्म।
व्यतिरेकस्तद्भावाभावित्वान्न तूपलब्धिवत् (वेदान्त-3/3/54) देह तथा आत्मा में व्यतिरेक- अलगाव- भेद है। देह तथा आत्मा में तद्भाव (यही हूं मैं) का अभाव है। इन्द्रिय से ज्ञान उपलब्धि है। शरीर से आत्मभान है। पूरा शरीर आत्मा की जैव शक्ति के कारण जड़ संतुलन से उच्च जैव संतुलन है। जिसका लक्षण जड़ शक्ति असंतुलन है। उच्च जैव संतुलन में विचलन से जड़ शरीर शक्ति असंतुलन संतुलन की ओर बढ़ता है, यही मृत्यु की ओर बढ़ना है। एक अवस्था शरीर शक्ति असंतुलन सीमा से बाहर असंतुलित हो जाता है। तब जैव शक्ति संतुलन (सूक्ष्म शरीर) और जैव शक्ति सूक्ष्म शरीर ब्रह्म नियमानुरूप (वासांसि जीर्णानि) छोड देती है और नव शरीर धारण करती है यह पुनर्जन्म है। तब ‘मै’ हकीकत राय हो जाता है, ‘मैं’ हरिश्चन्द्र हो जाता है। ”अहं देहास्मि“ होता है।
”अहं ब्रह्मास्मि“
अक्षर इसे सटीक दर्शाता है। ‘अ’ जैव शक्ति है, क्षर परिवर्तनशील (असंतुलन-संतुलन) अवस्था है। अक्ष- इससे संबंध साधन है। तथा र इसमें रमण है। यहां देकार्त, लाक दर्शन समन्वय हेगल संवाद है। मैं सोचता हूं- नहीं सोचता हूं- अर्थात मैं हूं – ‘अ’। मन बदलते चित्रोंवाला आइना है- ‘क्षर’। बाह्य चित्र इन्द्रिय माध्यम से बदलना है- (अक्ष)। बदलने में सम्पूर्ण अहसास है- ‘र’। यह अहं देहास्मि क्रम है। अक्षर अहं ब्रह्मास्मि क्रम भी है। क्षर है परिवर्तनशील तन – अक्ष है इससे हट भीतर की ओर गमन। अक्षर है देवभाज- देव को समर्पित भाव- जैवशक्ति दैदिप्यमान तन सहित परिशुद्ध आत्म। और ‘अ’ है वह देव जिसे समर्पित है आत्म- और स्वीकार है अगर देव का तो है अहं ब्रह्मास्मि। यह है स्वस्ति-स्वस्ति। स्वस्ति- सु अस्ति।
आत्मा से परे है अति-आत्म। साधना द्वि चक्रिय है। प्रथम चक्र में अति-आत्म या अगाओ तक क्रमषः उगना होता है। द्वितीय चक्र में अति-आत्म या अगाओ को क्रमषः उतरना होता है।
(3) सप्त अति-आत्म
1) सूक्ष्मतम-महानतम,
2) अकंप सर्वगतिदा,
3) सत्-चित-आनन्द,
4) चिद्-बिन्दु-आनन्द,
5) दूरतम-निकटतम,
6) सर्वत्र सम,
7) खं ब्रह्म।
आत्मा, परमात्मा वे अनुभूति के आगार हैं जिनमें ऊर्जा ही ऊर्जा भरी है.. यह ऊर्जा का दिव्य संज्ञा से विभूषित है पर केवल दिव्य नहीं यह जाने क्या क्या है। इस ऊर्जा का सामान्यतः अनास्तित्व पर यथार्थतः आस्तित्व हर स्थल सम वितरित है। विक्षेपों में हम इस क्षेप को भूल बैठे हैं। गरीबी अमीरी सुख दुःख में भटक कर अपने अक्षय भंडार को भूल गए हैं।
”संघीभूत“ चैतन्यता का स्तर ही अध्यात्म है। इस स्तर के पारस (अध्यात्म) को छूकर वापस आने वाला मानव वह सोना हो जाता है जिसका मूल्य आपेक्षिक नहीं वरन शाश्वत होता है। वह महामानव अपने आपका मूल्य स्वयं ही होता है.. उसका एक दिव्य प्रभाव होता है.. वह पेड़-पौधों के प्रति भी उतना ही संवेदनशील होता है जितना मानवों के प्रति.. वह अपने साथ खुशियां, कहकहे, हल्कापन लिए चलता है। स्थल स्थल उन्मुक्ति पूर्वक इसे बाटता है। अपनत्व स्वाभाविक रूप से उसके हर व्यवहार में बहता है। वह एक अपनत्व की धार होता है जिसमें कई कई परिचित अपरिचित स्नान करते हैं। अध्यात्म स्तर का स्पर्ष प्रमाण यही सम सहज अपनत्व होता है। वह ”अपने आप में तुष्ट“, ”समस्त कामनाओं से छूटा“ ”दुःख में सम“, ”सुख में सम“ राग भय क्रोध से मुक्त, और ”स्वाधीन अंतःकरणवाला“ होता है।
”बुराई से भागने के लिए हमें अधिकतम सीमा तक ईश्वर के समकक्ष बनाना होगा। ईश्वर के समकक्ष बनना याने कि यथा उचित (यथावत करना, कहना) और धार्मिक (पवित्र) और बुद्धिमान बनना“ -प्लेटो। आध्यत्मिक होने का अर्थ हैं स्व-स्वरूप को आंजना मांजना और तब तक अंजना मांजना जब तक कि वह शत प्रतिशत परि शुद्ध न हो जाए। परिशुद्धतम मैं ब्रह्म समकक्ष है हमारी सीमितता में भी। सीमितता में ब्रह्म समकक्षता प्राप्त करना अध्यात्म है।
अनुभूति के आत्म आयाम में मानव अपने और ईश्वर के मध्य का क्रम खो देता है.. उत्तरोत्तर प्रगति में एक स्थल उसने केवल यह सत्य ही नहीं जाना कि ”मनुष्य ईश्वर निर्मित एवं उसी की प्रतिमूर्ति है“ वरन उसने यह सत्य भी जाना कि ”ईश्वर मनुष्य निर्मित एवं उसी की प्रतिभूति है।“ यह परम सत्य कि ईश्वर मनुष्य निर्मित एवं उसी की प्रतिमूर्ति है.. अहं अस्ति का उत्कृष्ट स्वरूप है।
समस्त आपेक्षिक सत्यों, बाह्य सत्यों की दीर्घता को आत्म सूक्ष्म द्वारा परे हटाने पर ही.. मानव नव हो जाता है.. यह न होना… अपने आप के निकटतम होकर बाकी सब कुछ से परे हो जाना है। ”(अध्यात्म पुरुष) आत्मा की छलनी में निरन्तर विक्षेपों (मलों) छानते हैं और इस प्रकार दीर्घ एवं नवीन आयु को धारण करते हुए परे चले जाते है।“ यह दीर्घ एवं नवीन आयु क्या है? यह मानव का समयजीत हो जाना है…। समयजीत मानव ही परे जा सकता है.. लघुतम.. शून्य समय में महत्तम दूरी अनंत तय करना ही परे जाना है।
पूरा जगत आवास है उस ब्रह्म का अतिरक्त कोई स्थान नहीं कोई पल नहीं है उससे.. और पूरे जगत में व्याप्त उससे तादात्म कर लेना ही अध्यात्म – अनुभूति है। सृष्टि के आरंभ से आज तक कई व्यक्ति ऐसे हुए हैं जो इस तादात्म्य में सफल हुए हैं। जिन्हानें इस तादाम की और इंगन किया है.. ये इंगन एवं तादात्म पथ उपलब्ध हैं मानव को। इन इंगनों से उपलब्ध सत्य का रस दिव्य सोम है जो ब्रह्म से पूर्णतः आप्लावित है.. इसका उपभोग.. उपभोग नहीं है.. यह दिव्य रस उपभोगात्मक नहीं है.. यह तो असमाप्त है.. और यह हर कुछ को हर पल को दिव्य स्वादिष्ट कर देता है। ”जो व्यक्ति आप्तों द्वारा संग्रहीत पवित्रकारणी ऋचाओं के रस का अध्येता है धारण कर्ता है.. वह जगत के कारण में रमें प्राण ब्रह्म द्वारा सभी कुछ को दिव्य स्वादिष्ट अश्नत (ग्रहण करना, चखना,) करता है“
(4) सप्त आत्म सप्त अति-आत्म
1) सूक्ष्मतम में महानतम-सूक्ष्मतम,
2) सुकम्प कम्पदा में अकम्प सर्वगतिदाता,
3) सत-चित में सत्-चित-आनन्द,
4) चिद्-बिन्दु में चिद्-बिन्दु-आनन्द,
5) ब्रह्म निकटतम में दूरतम-निकटतम,
6) तत्त्वं सुपदार्थम् में सर्वत्र सम,
7) ब्रह्मस्थ में खं ब्रह्म।
कामना मनुष्य को बांधती है। कामना का मोटा सा अर्थ किया जा सकता है काम ना। काम ना याने कि कार्य नहीं। जिस व्यक्ति का उसने कोई काम ही निर्धारित नहीं किया तो वह व्यक्ति जो कुछ चाहता है वह होती है कामना। सतत आप्त कर्म व्यक्ति को कामनाओं से बाहर कर देते हैं। कामनाओं से बाहर हो जाने पर व्यक्ति परम अर्न्तमुखी हो जाता है। अर्न्तमुखी होने की अन्तिम उपलब्धि है अध्यात्म याने कि आत्मा में। ”जो कामनाओं से रहित है, जो कामनाओं से बाहर चला गया है, कि जिसकी कामनाएं पूरी हो गई है या जिसको केवल आत्मा की ही भावना है, उनके प्राण नहीं निकलते हैं वह ब्रह्म ही हुआ ब्रह्म को पहुचंता है।“ 92
अध्यात्म की आत्मा क्या है? अध्यात्म के प्राण क्या हैं? अध्यात्म का तन क्या है? अध्यात्म एक महायज्ञ है। इस महायज्ञ की आत्मा है ‘स्वाहा’.. इस महायज्ञ का प्राण है ‘इदं न मम’.. इस महायज्ञ का शरीर है ‘अग्नि’। स्वाहा याने कि ‘स्व’ का विसर्जन। स्व का विसर्जन किसके लिए? पर के लिए.. पर में स्व का भाव पैदा होना ही मानवता है। स्व का सम्पूर्ण विसर्जन अध्यात्म की आत्मा है। ‘इदं न मम’ याने मेरा नही है यह.. अध्यात्म स्तर की देन मेरा से विमुक्त होना है। मेरा से विमुक्ति अध्यात्म का प्राण है। अध्यात्म का क्षेत्र बड़ा व्यापक है। आदमी परम चैतन्य प्राणी हो जाता है इस व्यापकता में.. व्यापकता ही अग्नि है अध्यात्म के महायज्ञ का शरीर। अध्यात्म की आत्मा, प्राण, शरीर हम धारण कर लें तो हम भी अध्यात्म हो जाएंगे। हमें छू कोई भी पावन हो लिया करेगा।
अध्यात्म पर एक बहुत बड़ा प्रश्न है अध्यात्म अनुभूतियां। अध्यात्म के विषय को बहुत बड़ा एक उत्तर है अध्यात्म अनुभूतियां। अनुभूतियां शब्द कुछ ठीक नहीं है। ठीक शब्द है ”अनुभूति“ पर क्योंकि अनुभूति के कई कई आयाम हैं तथा अभिव्यक्ति उसके समकक्ष नहीं.. इसलिए अनुभूतियां शब्द का उपयोग किया है। अभिव्यक्ति और सामान्य अनुभव के बीच में भी बहुत बड़ी खाई है। ठंड, गर्मी, भूख, प्यास आदि भौतिक लगना हम सही सही अनुभव करते हैं पर सही सही अभिव्यक्त नहीं कर सकते हैं। भूख, ठंड, गर्मी, सर्दी भले ही हम अभिव्यक्त न कर पाते हैं.. सही सही समझ तो जाते हैं आसानी से.. क्योंकि ये अनुभव हमारे भोगे हुए हैं। एक अत्यधिक शीत प्रदेश के निवासी ने आम कभी नहीं देखा.. उसे यह समझाया जा सकता है कि आम कैसा होता है, उसे आम का स्वाद कैसा होता है यह बिना आम खिलाए समझाना और उसका पूर्णतः समझ जाना असंभव है। ”अध्यात्म अनुभव“ के साथ यही बात लागू होती है। आम का स्वाद सामान्य अनुभव है.. वह समझा पाना अज्ञ व्यक्ति को अंसभव है.. अध्यात्म अनुभव दिव्य अनुभव है वह समझ पाना किसी को भला कैसे संभव हो सकता है? ”अध्यात्म अनुभूति“ जिसने अनुभूत की वह तो इसे सहजतः समझ सकता है.. पर जिसे यह अनुभव नहीं है उसे समझाना आकाश को तकिए सा लपेट लेना है। आध्यात्मिक अनुभूति पर सबसे बड़ा प्रश्न उन्होनें खड़ा किया है जिन्होंने इसे अनुभूत नहीं किया। उत्तर इस प्रश्न का है पर प्रश्नकर्ता की समझ से बाहर है। कुएं के मेंढक द्वारा सागर समझने के प्रयास वाली ही बात है यह।
व्यापकतत्व की अनुभूति में स्वाभाविक हैं मानव बहुत संज्ञाओं का उपयोग करे । यहां से वहां तक .. प्रदर्शित करने का एक पथ है.. यह भी.. वह भी.. वह भी और वह भी वही है। ”वह ही अग्नि है, वह सूर्य है, वह वायु है, वह चन्द्रमा है, वह शुक्र है, वह ब्रह्म है, वह जल है, वह प्रजापति है।“ वह सब कुछ है, इत् उत् सर्वत्र विराट है। इसको ही दूसरे शब्दों द्वारा ऋषि ने अभिव्यक्त किया है ऊपर। शाब्दिक अर्थ टुकड़े टुकड़े होने पर भी भावात्मक अर्थ अखिल एक के संदर्भ में ही है। यह उसकी अनुभूति की अति निकट अभिव्यक्ति है। इसी को कुछ अन्य शब्दों में अन्य स्थल पर कहा है। ”वह धाता है, वह विधाता है, वही वायु वही आकाश में उठा मेघ है।“ ”वही अर्यमा, वही रुद्र और महादेव है“ ”वही अग्नि, सूत्र और महायम है“ आदि से अंत तक उस का फैलाव है। इस अभिव्यक्ति और ऊपर की अभिव्यक्ति में थोड़ा सा ही विभेद है। दोनोें का उद्गम एक ही अध्यात्म अनुभूति है। ”उसका केन्द्र तो सर्वत्र है पर परिधि कहीं नहीं“ -किसी विचारक के इस कथन में भी उसके आदि से अंत तक के फैलाव का सूत्र रूप में विवरण है। सर्व केन्द्रीय सर्व परिधीय भी होता है।
”व्यापक ऋतों का संचालक“, ”विश्व ब्रह्माण्ड रूपी रथ का रथी“, ”दिव्य शक्तियों का अग्रणी हुआ“, ”शाश्वत सदा रहने वाला“, ”प्रत्येक ऋतु में यजनीय“, ”आरंभ काल में ही विश्व को धारण करने वाला“, ”उग्र शक्ति सम्पन्न सत्ता“, ”विस्तृत ज्ञान का अधिपति“ ”सब ओर से अवयवों में व्याप्त“, ” अजन्मित होने पर भी गर्भ में विचरणकर्ता“, ”जिसकी सब ओर आंख है, जिसका मुख सर्वत्र है, जिसके बाहु सब दिशा में हैं, जिसके पद सर्वत्र हैं“, ”अच्युत $ च्युत = अगतित होते समस्त गतियों का विधायक“, ”विज्ञान को पवित्र करने वाला“, ”समस्त प्राणियों का केन्द्र स्थानीय“ ”सुचारू रूप में शासन करने वाला“ ”संकीर्ण दृष्टि को व्यापकता देने वाला“, ”अभि $ चाकशीति = सब और से निरीक्षण कर्ता“ ”नित्य नियमों का आभ्यान्तरिक स्रोत“, ”वयुनावित = प्रकृष्ठ ज्ञान वाला“ ”दिव्य विशिष्ट गुण का सृजन करने वाला“ ”अतंस प्रकाशक“, ”आनंद प्रदायक“ आदि आदि हैं। ये संज्ञाएं क्या कोई सामान्य व्यक्ति गरड़िया अभिव्यक्त कर सकता हैं? एक एक संज्ञा में अंतहीन फैलाव है इस फैलाव की अनुभूति ही संज्ञा की सार्थकता है।
स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)