इस संस्कार में यज्ञोपवीत या जनेऊ धारण कराया जाता है। इसके धारण कराने का तात्पर्य यह है कि बालक अब पढ़ने के लायक हो गया है, और उसे आचार्य के पास विद्याध्ययन के लिए व्रत सूत्र में बांधना है। यज्ञोपवीत में तीन सूत्र होते हैं जो तीन ऋणों के सूचक हैं। ब्रह्मचर्य को धारण कर वेदविद्या के अध्ययन से “ऋषिऋण” चुकाना है। धर्मपूर्वक गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर सन्तानोत्पत्ति से “पितृऋण” और गृहस्थ का त्याग कर देश सेवा के लिए अपने को तैयार करके “देवऋण” चुकाना होता है। इन ऋणों को उतारने के लिए ही क्रमशः ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ आश्रम की योजना वैदिक संस्कृति में की गई है।
बालक-बालिका के पढ़ने योग्य अर्थात् पांचवे से सातवे वर्ष तक यह संस्कार करना उचित है। इस संस्कार के पूर्व बालक को आर्थिक सुविधानुसार तीन दिवस तक दुग्धाहार, श्रीखंडाहार, दलियाहार, खिचड़ी-आहार इन में से किसी एक का चयन कर उसी का सेवन कराना चाहिए।
इस संस्कार में आचार्य की पुरोहितम् भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है। आचार्य हरहित चाहती सम्भ्रान्त महिलावत अर्थात् जलवत बच्चे की कल्याण की भावना से उसका यज्ञोपवीत कराए। आचार्य की भावना श्रेष्ठ ही श्रेष्ठ बच्चे को बनाने की होनी चाहिए। वह विभिन्न देव भावों से बालक के जीवन को भरने का संकल्प लेते यज्ञोपवीत संस्कार कराता है।
यज्ञोपवीत की महान् शर्त यह है कि आचार्य तथा बच्चा सम-हृदय, सम-चित्त, एकाग्र-मन, सम-अर्थ-सेवी हो। लेकिन इस सब में आचार्य आचार्य हो तथा शिष्य शिष्य हो। आचार्य परिष्कृत बचपन द्वारा बालक के सहज बचपन का परिष्कार करे। यह महत्वपूर्ण शर्त है। आचार्य बच्चे के विकास के विषय में सोचते समय अपनी बचपनी अवस्था का ध्यान अवश्य ही रखे। इस संस्कार के द्वारा आचार्य तथा बालक शिक्षा देने-लेने हेतु एक दूसरे का सम-वरण करते हैं। यह बिल्कुल उसी प्रकार होता है जैसे मां गर्भ में अपने शिशु का और शिशु अपनी मां का वरण करता है।