08. स्तुति प्रार्थना उपासना

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स्तुति – जो ईश्वर वा किसी दूसरे पदार्थ के गुण ज्ञान, कथन, श्रवण और सत्यभाषण करना है, यह ‘स्तुति’ कहाती है।
स्तुति का फल – जो गुणज्ञान आदि के करने से गुणवाले पदार्थों में प्रीति होती है, यह ‘स्तुति का फल’ कहाता है।
प्रार्थना – अपने पूर्ण पुरुषार्थ के उपरान्त उत्तम कर्मों की सिद्धि के लिये परमेश्वर वा किसी सामर्थ्यवाले मनुष्य के सहाय लेने को ‘प्रार्थना’ कहते हैं।
प्रार्थना का फल – अभिमान का नाश, आत्मा में आर्द्रता, गुण ग्रहण में पुरुषार्थ, और अत्यन्त प्रीति होना यह ‘प्रार्थना का फल’ है।
उपासना – जिससे ईश्वर ही के आनन्दस्वरूप में अपने आत्मा को मग्न करना होता है, उसको ‘उपासना’ कहते हैं।
निर्गुणोपासना – शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, संयोग, वियोग, हल्का, भारी, अविद्या, जन्म, मरण और दुःख आदि गुणों से रहित परमात्मा को जानकर जो उसकी उपासना करनी है, उसको ‘निर्गुणोपासना’ कहते हैं।
सगुणोपासना – जिसको सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, शुद्ध, नित्य, आनन्द, सर्वव्यापक, एक, सनातन, सर्वकर्त्ता, सर्वाधार, सर्वस्वामी, सर्वनियन्ता, सर्वान्तर्यामी, मंगलमय, सर्वानन्दप्रद, सर्वपिता, सब जगत् की रचना करने वाला, न्यायकारी, दयालु आदि सत्य गुणों से युक्त जानके जो ईश्वर की उपासना करनी है, सो ‘सगुणोपासना’ कहाती है।

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