ओ३म्
सत्यार्थ प्रकाश कवितामृत
काव्यरचना : आर्य महाकवि पं. जयगोपाल जी
स्वर : ब्र. अरुणकुमार “आर्यवीर”
ध्वनिमुद्रण : श्री आशीष सक्सेना (स्वर दर्पण साऊंड स्टूडियो, जबलपुर)
षष्ठ समुल्लासः
अथ राजप्रजाधर्मान् व्याख्यास्यामः
राजधर्मान् प्रवक्ष्यामि यथावृत्तो भवेन्नृपः।
संभवश्च यथा तस्य सिद्धिश्च परमा यथा।।1।।
ब्राह्मं प्राप्तेन संस्कारं क्षत्रियेण यथाविधि।
सर्वस्यास्य यथान्यायं कर्त्तव्य परिरक्षणम्।।2।।
– मनु0 7 । 1 । 2
दोहा
क्या राजा के धर्म हैं, क्या राजा के काज।
मंगल हित व्याख्या करूं, कहें मनु महाराज।।
चौपाई
विज्ञ विप्र सम शिक्षा पाकर, क्षत्रिय होवे ज्ञान प्रभाकर।
न्याय परक हो राज्य चलावे, बसे प्रजा निर्भय सुख पावे।
त्रीणि राजाना विदथे पुरूणि परि विश्वानि भूषथः सदासि।।
– ऋ0 मं0 3 । सू0 38 । मं0 6।।
नियत करे नृप तीन सभाएं, नशहिं विघ्न उन्नति बाधाएं।
सभ्य सभासद योग्य प्रवीना, निर्भय सम्मति देंय स्वाधीना।
इन समितिन के कार्य्य चलाएं, उन्नति पथ पर देश ले जाएं।
राज सभा विद्या अरु आरज, तीनों करें राज का कारज।
खुले रहें सब के हित द्वारा, उन्नति का सब को अधिकारा।
तं सभा च समितश्च सेना च ।।1।।
– अथर्व0 कां0 15। अनु0 2 । व0 9। मं0 2
सभ्यः सभां में पाहि ये च सभ्याः सभसदः।।2।।
– अथर्व0 कां0 19 । अनु0 7 । व0 55 । मं0 6
चौपाई
समिति व्यवस्था देने हारीं, सेना और सभाएं सारीं।
मिल कर राज्य धर्म को पालें, पाप गर्त से प्रजा सम्हालें।
सभा सदों को बोले राजा, ‘हे संसदि अरु सभ्य समाजा’।
सभा धम्र कँह करियो पालन, न्याय व्यवस्था का संचालन।
नहीं सभासद कोऊ स्वतंतर, नियमाधीन सभी परतंतर।
नहीं कोऊ एक छत्र अधिकारी, सभा नियम के सभी पुजारी।
सभापति केवल है राजा, तदधीन सब सभा समाजा।
सभाधीन नृप नहीं स्वाधीना, हस्ति के शिर अंकुश दीना।
राष्ट्रमेव विश्वाहन्ति तस्माद्राष्ट्री विशं घातुकः। विशमेव
राष्ट्रायाद्यां तस्माद्राष्ट्री विशमत्ति न पुष्टं पशुं मन्यत इति ।।1।।
– शत0 । का0 13 । अनु0 2 । ब्रा0 3 ।।
हो स्वायत नरेश अकेला, नाशहि गज सम बन अरु बेला।
ध्वंस प्रजा सारी कर डारे, मत्त साँड सम वह हुंकारे।
सिंह मार जिम वन पशु खावे, पापी नृप सों कौन बचावे।।
छीने झपटे ताड़े मारे, सृष्टि रोवे बिना सहारे।
लम्पट विषयी भोग विलासी, बल कर नार सतीत्व विनाशी।।
इन्द्रों जयाति न परा जयाता अधिराजो राजसु राजयातै।
चर्कृत्य ईडयो वन्द्यश्चोपसद्यो नमस्योऽभवेह।।
– अथर्व0 कां0 6 । अनु0 10 । व0 18। मं0 1
राजा के लक्षण क्या हैं
एहि कारण अस वेद बखाना, सुनहु मित्र श्रुति को धर ध्याना।
जन समाज मँह जो बलवन्ता, शत्रु विजेता दुष्ट निहन्ता।।
सर्व श्रेष्ठ नृप गण मँह राजे, सभापति के योग्य विराजे।
शंसनीय गुण कर्म सुभाऊ, आदर जोग सुतेज प्रभाऊ।।
शरण गहे की राखे लाजा, चालन योग राज्य के काजा।
करे सभापति ऐसे जन को, प्रजा हेत अर्पे तन मन को।।
इमं देवाऽअसपत्न सुवध्वं महते क्षत्राय महते ज्यैष्ठयाय
महते जानराज्यायेन्द्रस्येन्द्रियाय0।। – यजुः0 अ0 1। मं0 40
चौपाई
राजा प्रजा के हे विद्वानो, ऐसा पुरुष सभापति मानो।
जो इस बृहद राष्ट्र को पाले, चक्रवर्ति या राज्य सँभाले;
जाते बढ़े देश की संपत, नाम सुनत जिहिं वैरी कंपत।।
स्थिरा वः सन्त्वायुधा पराणुर्दे वीलू उत प्रतिष्कभें।
युष्माकमस्तु तविषी पनीयसी मा मत्यस्य मायिनः।।
– ऋ0 मं0 ं । सू0 31 । मं0 2 ।।
तोप बंदूक अग्नि के अस्तर, बरछे भाले आदिक शस्तर।
राजवर्ग सब दृढ़ तव होवें, मृत्यु नींद में शत्रु सोवें।।
शंसनीय वीरों की सेना, कालहुं ते जो नेंक डरे ना।
सदा विजय हो वीर तुम्हारी, शंसें जग के नर अरु नारी;
यदि तुम करिहौ अत्याचारा, नष्ट भ्रष्ट हो राज्य तुम्हारा।।
दोहा
अधिकारी विद्या सभा, के होवें विद्वान्।
धर्म सभा को हाथ लें, धर्मीं चतुर सुजान।।
चौपाई
राज सभा के आवें धर्मी, न्यायशील सज्जन शुभ कर्मी।
इन सब में जो हो सर्वोत्तम, सभापति वह बने नरोत्तम।।
तीनों मिल कर राज सभाएं, राज काज के नियम बनाएं।
लोक कार्य में सब परंततर, निज कर्मों में सभी स्वतंतर।।
सभापति के गुण
इन्द्राऽनिलयमार्काणामग्रेश्च वरुणस्य च।
चन्द्रवित्तेशयोश्चैव मात्रा निर्हृत्य शाश्वतीः।।1।।
तपत्यादित्यवच्चैष चक्षूंषि च मनांसि च।
न चैनं भुवि शक्नोति कश्चिदप्यभिवीक्षितुम्।।2।।
सोऽग्निर्भवति वायुश्च सोऽर्कः सोमः स धर्मराट्।
स कुबेरः स वरुणः स महेन्द्रः प्रभावतः।।3।।
– मनु0 7 । 4 । 6 । 7
नरपति जानहु इन्द्र समाना, विद्युत सम तीक्षण बलवाना।
परमैश्वर्य्यवान् सुखदायक, देव तुल्य विद्वज्जन नायक।।
वायुवत प्राणों का प्यारा, हृदयंगम गति जानन हारा।
यम सम पक्षपात नहीं राखे, निर्भय बात न्याय की भाखे।।
रविवत धर्म ज्ञान प्रकाशक, अन्धकार अज्ञान विनाशक।
दुष्अन बाँधे वरुण कहावे, अग्नि सम दुर्जनन जलावे।।
नृप कुवेर धन कोष विधाता, सोम समान सौम्य सुख दाता।
तेजोमय जिमि तपे दिवाकर, तप्त करे भू गगन तपा कर।।
किस की समरथ आँख मिलावे, जो देखे सो नयन झुकावे।
ऐसा बने सभापति राजा, जिहिं सन्माने सकल समाजा।।
स राजा पुरुषो दण्डः स नेता शासिता च सः।
चतुर्णामाश्रमाणां च धर्मस्य प्रतिीाूः स्मृतः।।1।।
दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति।
दण्डः सुप्तेषु जागर्त्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः।।2।।
समीक्ष्य स धृतः सम्यक् सर्वा र०जयति प्रजाः।
असमीक्ष्य प्रणीतस्तु विनाशयति सर्वतः।।3।।
दुष्येयुः सर्ववर्णाश्च भिद्येरन्सर्वसेतवः।
सर्वलोकप्रकोपश्च भवेद्दण्डस्य विभ्रमात्।।4।।
यत्र श्यामो लोहिताक्षो दण्डश्चरति पापहा।
प्रजास्तत्र न मुह्यन्ति नेता चेत्साधु पश्यति।।5।।
तस्याहुः संप्रणेतारं राजानं सत्यवादिनम्।
समीक्ष्यकारिणं प्राज्ञं धर्मकामार्थकोविदम्।।6।।
तं राजा प्रणयन्समयक् त्रिवर्गेणाभिवर्द्धते।
कामात्मा विषमः क्षुद्रो दण्डेनैव निहन्यते।।7।।
दण्डो हि सुमहत्तेजो दुर्धश्चाकृतात्मभिः।
धर्माद्विचलितं हन्ति नृपमेव सबान्धवम्।।8।।
सोऽसहायेन मूढेन लुब्धेनाकृतबुद्धिना।
न शक्यो न्यायतो नेतुं सक्तेन विषयेषु च।।9।।
शुचिना सत्यसन्धेन यािाशास्त्रानुसारिणा।
प्रणेतुं शक्यते दण्डः सुसहायेन धीमता।।10।।
– मनु0 7 । 17-19 ं 24-28 । 30-31
चौपाई
केवल दण्ड जगत में राजा, शासक रक्षक सकल समाजा।
आश्रम धर्म दण्ड प्रति पालक, दण्ड एक दुष्टों का घालक।।
दण्ड प्रजा पर करता शासन,दण्ड राजा का ऊंचा आसन।
सृष्टि सोवे डण्डा जागे, दुष्ट चोर डण्डे से भागे;
दण्ड सकल धर्मों में ऊंचा, दण्डे के वश जगत समूँचा।।
दोहा
जो धारे नृप दण्ड को, न्याय धर्म अनुसार।
सुखी रहे उसकी प्रजा, यश गावे संसार।।
चौपाई
दण्ड धार अन्याय कमावे, वाको राज नष्ट हो जावे।
दण्ड बिना मिट जाय व्यवस्था, बिगड़ जायगी देश अवस्था।।
नष्ट भ्रष्ट हों कुल मर्य्यादा, कलह क्लेश हों वाद विवादा।
दूषित सभी वर्ण हो जायें, ऊंचे कुलहिं कलंक लगायें।।
होय भयंकर लोक प्रकोषा, अन्धकार फैले घन टोपा।
कृष्ण काय जँह दण्ड भयंकर, रक्त नेत्र विचरे प्रलंयकर।।
वहाँ प्रजा रहती सुखियारी, मोह रहित चौकस नर नारी।
दण्ड धरे जो होय विवेकी, सूनृतवादी पुण्यभिषेकी।।
न्यायावन निष्पक्ष सुजाना, करे नृपति सोउ दण्ड विधाना।
भली भाँति जो दण्ड चलावे, सो नृप चार पदारथ पावे।।
जो नरेश लंपट अन्यायी, कुटिल क्षुद्र बुद्धि हरजाई।
उसका दण्ड उसी को मारे, नृप को मार छार कर डारे।।
तेजोमय यह दण्ड बखाना, याको धारहि चतुर सुजाना।
जो राजा मूरख और पापी, लंपट विषयी नीच सुरापी।।
दण्डहु धारे बिना विचारे, वाको दण्ड नष्ट कर डारे।
आत जनों से सूना राजा, अन्यायी नित करत अकाजा।।
दण्ड ग्रहण की रखे न शक्ति, प्रजा न राखे उसमें भक्ति।
वह समरथ जो जाने नीति, जिसमें राखे प्रजा प्रतीति।।
सच्चरित सज्जन सत्संगी, नीति युक्त बली बजरंगी।
जाके नर हें योग्य सहायक, दुष्ट जनन को जो हृत्सायक।।
वह समर्थ वह दण्ड चलावे, वही दण्ड धर उचित कहावे।
सैन्यापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वमेव च।
सर्वलोकाधिपत्यं च वेदशास्त्रविदहति।।1।।
दशावरा वा परिषद् यं धर्मं परिकल्पयेत्।
त्र्यवरा वापि वृत्तस्था तं धर्मं न विचालयेत्।।2।।
त्रैविद्यो हैतुकस्तर्की नैरुक्तो धर्मपाठकः।
त्रयश्चाश्रमिणः पूर्वे परिषत्स्याद्दशावरा।।3।।
ऋग्वेदविद्यजुर्विच्य सामवेदविदेव च।
त्र्यवरा परिषज्ज्ञेया धर्मसंशयनिर्णये।।4।।
एकोऽपि वेदविद्धर्मं यं व्यवस्येद् द्विजोत्तमः।
स विज्ञेयः परो धर्मों नाज्ञानामुदितोऽयुतैः।।5।।
अव्रतानाममन्त्राणां जातिमात्रोपजीविनाम्।
सहस्त्रशः समेतानां परिषत्त्वं न विद्यते।।6।।
यं वदन्ति तमोभूता मूर्खां धर्ममतद्विदः।
तत्पापं शतधा भूत्वा तद्वक्तृननुगच्छति।।7।।
– मनु0 12। 100। 110-115।।
सेनापति अरु राज्यधिकारी, न्यायाधीश नृपति यह चारी।
पूरन पण्डित हों विद्वाना, कार्य्य दक्ष नर चतुर सुजाना।।
दश नर पुंगव सभा बनावें, नीति धर्म का कार्य्य चलावें।
अथवा सच्चरित्र विद्वाना, तीन मिलें तो काज निभाना।।
नियम धर्म जो सभा बनावे, तस विरोध कोऊ करन न पावे।
न्याय निरुक्त वेद वित् सज्जन, धर्म शास्त्र वेत्ता विद्वज्जन।।
ब्रह्मचारि वा होंय गृहस्थी, अथवा होवें वानप्रस्थी।
तब वह सभा होय गुणवारी, जनु माला दश रत्न हारी।।
साम यजु ऋक् जानन हारे, तीन पुरुष हों सभा मँझारे।
ऐसी सभा रचे जो नेमा, मानें उसे चहें जो क्षेमा।।
चलहिं सभा के जो प्रतिकूला, सकल राज्य हो नष्ट समूला।
यदि संन्यासी होय द्विजोत्तम, चतुर्वेद शास्त्रज्ञ नरोत्तम।।
हो विरक्त तो भला अकेला, वाकी करे न कोउ अवहेला।
धर्म व्यवस्था जो वह देवे, आज्ञा जान नृपति शिर लेवे।।
मूरख धर्म नीति क्या जाने, उनकी बात न कोई माने।
एक चन्द्र नाशहि अँधियारा, सकहिं न लाखों मिल कर तारा।।
जो नहीं सत्यव्रती ब्रह्मचारी, बुद्धि हीन नहीं वेद विचारी।
जन्म मात्र से शूद्र समाना, उदर पूर्ति हित बोझ उठाना।
लाख मिलें ऐसे अज्ञानी, उनको सभा न माने मानी।
मूरख मण्डल वाको नामा, वे धूरत अपयश को धामा।।
उनके वचन न माने कोई, जो माने है मूरख सोई।
इन लोगों ने जाल फैलाए, अंध कूप में अनिक गिराए;
ताँते तीनहु राज सभाएं, इन में मूरख नहीं मिलाएं।।
त्रैविद्येभ्यस्त्रयीं विद्यां दण्डनीतिं च शाश्वतीम्।
आन्वीक्षिकीं चात्मविद्यां वार्त्तारम्भाँश्च लोकतः।।1।।
इन्द्रियाणां जये योगं समातिष्ठेद्दिवानिशम्।
जितेन्द्रियो हि शक्नोति वशे स्थापयितुं प्रजाः।।2।।
दश कामसमुत्थानि तथाष्टौ क्रोधजानि च।
व्यसनानि दुरन्तानि प्रयत्नेन विवर्जयेत्।।3।।
कामजेषु प्रसक्तो हि व्यसनेषु महीपतिः।
वियुज्यतेऽर्थधर्माभ्यां क्रोधजेष्वात्मनैव तु।।4।।
मृगयाक्षो दिवास्वप्न5 परिवादः स्त्रियो मदः।
तौर्य्यत्रिकं वृथाट्या च कामजो दशको गणः।।5।।
पैशुन्यं साहसं द्रोह ईर्ष्यासूयार्थदूषणम्।
वाग्दण्डजं च पारुष्यं क्रोधजोऽपि गणोऽष्टकः।।6।।
द्वयोरप्येतयोर्मूलं यं सर्वे कवयो विदुः।
तं यत्नेन जयेल्लोभं तज्जावेतावुभौ गणौ।।7।।
पानमक्षाः स्त्रियश्चैव मृगया च यथाक्रमम्।
एतत्कष्टतमं विद्याच्चतुष्कं कामजे गणे।।8।।
दण्डस्य पातनं चैव वाक्पारुष्यार्थदूषणे।
क्रोधजेऽपि गणे विद्यात्कष्टमेतत्त्रिकं सदा।।9।।
सप्तकस्यास्य वर्गस्य सर्वत्रैवानुषङिगणः।
पूर्वं पूर्वं गुरुतरं विद्याद् व्यसनमात्मवान्।।10।।
व्यसनस्य च मृत्योश्च व्यसनं कष्टमुच्यते।
व्यसन्यधोऽधो व्रजति स्वर्यात्यव्यसनी मृतः।।11।।
– मनु0 7 । 43-53
नृप नृप सभा सभासद सारे, त्रैविद्या के जानन हारे।
ज्ञान उपासन कर्म प्रधाना, दण्ड नीति में दक्ष सुजाना।।
जानहिं प्रभु गुण कर्म स्वभावा, पर दुख हरण हृदय हर्षावा।
बात चलाने की चतुराई, रीति नीति शुभ जिसने पाई।।
वे नर सभ्य सभापति होंवें, नर नरपति सुख निद्रा सोवें।
जिन जीत्यों नहीं इन्द्रिय ग्रामा, तिनके निष्फल सगरे कामा।।
मन हारा सब जग ते हारा, मन जीता जीता जग सारा।
प्रजा वर्ग उसने वश कीना, जिसने निज मन रखा अधीना।।
दोहा
दश बेटे हैं काम के, आठ क्रोध के जान।
काम क्रोध जिसने तजे, वाको साँचा ज्ञान।।
चौपाई
जिसने काम क्रोध नहीं त्यागा, विफल काम सो नृपति अभागा।
कामज व्यसन ग्रस्त जो राजा, तिनके सारे काज अकाजा।।
वाकी नष्ट होय सब संपत, तेज पुण्य सब होवें चंपत।
राज्य भ्रष्ट दुर्भग श्री हीना, ताके कण्ठ पाश यम दीना।।
व्यसन क्रोध से उपजें जेते, उनमें फँसे मरे नृप तेते।
काम व्यसन दश सुनिये मीता, प्रबल काम में जग को जीता।।
मृगया द्यूत दिवस में शयना, काम कथा कामातुर वयना।
रमणी रमण पान मद गाना, रंडी भडुए नाच नचाना।।
बृथा भ्रमण कामहुं के दूषण, इन ते बचे नृपति नर भूषण।
क्रोधहु व्यसन सुनहु अब भाई, क्रोध जगत में बड़ी बुराई।।
छल बल से सेवे पर नारी, पर चुगली कर होय सुखारी।
ईर्षालु मन राखें द्रोहा, पर उन्नति लख मन में कोहा।।
पर गुण दोष, दोष गुण माने, पाप कमाई अच्छी जाने।
कड़वे बोल कुबोलहुं बोले, मन ही मन बैठा विष घोले।।
दोहा
केवल लालच जानिये, काम क्रोध का मूल।
ताँते लालच त्यागिये, लोभ हृदय को शूल।।
चौपाई
काम जन्य दश दुर्गुण भारी, महाँ पाप इन में हैं चारी।
रमणी भोग द्यूत मदपाना, कर अखेट जीवों को खाना।।
तीन क्रोध के दोष महाना, निर्दोषी को दण्ड दिलाना।
वचन कठिन धन दुर उपयोगा, तीन भयानक नर कँह रोगा;
क्रम क्रम से यह पातक भारी, व्यसन ग्रस्त मरते संसारी।।
कुण्डलिया
व्यर्थ ख़र्च से है बुरा, कहना वचन कठोर।
अन्यायी उससे अधिक, जिसते दण्ड बहोर।।
जिसते दण्ड बहोर, अहेर रु नारी जूआ।
मद्यप सब से नीच, मीच बिन भाई मूआ।
सप्त दोष यह नाशहिं, तन धन तेज सुवर्चा।
इन दोषों से बचे तजे, जो व्यर्थ का खर्चा।
चौपाई
दुष्ट व्यसन से अच्छा मरना, बुरा व्यसन अग्नि में जरना।
ताँते हे नर व्यसनहिं त्यागो, थोड़ा जीवन जागो जागो।
राजा सभासद तथा मन्त्रियों के लक्षण
मौलान्शास्त्रविदः शूराँल्लब्धलक्ष्यान्कुलोद्रतान्।
सचिवान्सप्त चाष्टौ वा प्रकुर्वीत परीक्षितान्।।1।।
अपि यत्सुकरं कर्मं तदप्येकेन दुष्करम्।
विशेषतोऽसहायेन किन्तु राज्यं महोदयम्।।2।।
तैः सार्द्धं चिन्तयेन्नित्यं सामान्यं सन्धिविग्रहम्।
स्थानं समुदयं गुप्तिं लब्धप्रशमनानि च।।3।।
तेषां स्वं स्वमभिप्रायमुपलभ्य पृथक् पृथक्।
समस्ताना०च कार्येषु विदध्याद्धितमात्मनः।।4।।
अन्यानपि प्रकुर्वीत शुचीन् प्राज्ञानवस्थिवान्।
सम्यगर्थसमाहर्तॄनमात्यान्सुपरीक्षितान्।।5।।
निवर्त्तेतास्य यावद्भिरितिकर्तव्यता नृभिः।
तावतोऽतन्द्रितान् दक्षान् प्रकुर्वीत विचक्षणान्।।6।।
तेषामर्थे नियु०जीत शूरान् दक्षान् कुलोद्गतान्।
शुचीनाकरकर्मान्ते भीरूनन्तर्निवेशने।।7।।
दूतं चैव प्रकुर्वीत सव्रशास्त्रविशारदम्।
इङिगताकारचेष्टज्ञं शुचिं दक्षं कुलोदृगतम्।।8।।
अनुरक्तः शुचिर्दक्षः स्मृतिमान् देशकालवित्।
वपुष्मान्वीतभीर्वाग्मी दूतो राज्ञः प्रशस्यते।।9।।
– मनु0 7 । 54-57 । 60-64
चौपाई
जो निज देश राष्ट्र में जनमें, देश प्रेम हो जिनके मन में।
वेद शास्त्र के जानन वारे, वीर वचन के पालन हारे।
निष्फल क्रिया न जावे जाँकी, सुन्दर गति हो जिनकी बाँकी।
सुपरीक्षित अरु श्रेष्ठ कुलीना, सच्चरित्र वर चतुर प्रवीना।
सात आठ ऐसे हों मन्त्री, जिनके कर हो शासन तन्त्री।
राजय कर्म का बहु विस्तारा, नृप का मन्त्री बने सहारा।
समरथ नहीं एकाकी राजा, ले सम्भाल सब काज सुकाजा।
एक के हाथ न शक्ति दीजे, या ते राज्य तन्त्र सब छीजे।
उचित सभापति को इह कारण, करे न एकहु शासन धारण।
सन्धि विग्रह और विरोधन, समुदय गुप्ति स्थान सुबोधन।
लब्ध शमन को नित्य विचारे, अष्ट मन्त्रि की सभा संवारे।
सुने विचार सभी के राजा, बहु सम्मति से कीजे काजा।
जिनसे हो निज पर कल्याणा, ऐसे कार्य करे नृप नाना।
जो नर होंय चतुर मतिमानी, जिनके मन पावन अरु ज्ञानी।
द्रव्य करें जो संग्रह चातर, भक्त परीक्षित अरु सत पातर।
ऐसे जन भी नृप अपनाये, उन को भी निज सचिव बनाये।
सफल काम होवें नर जेते, पद प्रधान पावें वे तेते।
आलस हीन चतुर बलवाना, लोक मान जेते परधाना।
भृत्य रखे उन सब को राजा, शंसनीय हो राज समाजा।
बड़े कर्म पर उन्हें लगाये, जो नर वीर बली कुल जाये।
जो कायर भीरु बल हीना, अन्तःपुर तिहिं राखे दीना।
दूत लक्षण
उत्तम वंश चरित के चारु, पावन चतुर विशारद कारु।
राज काज में अति उत्साही, मन के जाननहार सिपाही।
भूलें कभी न बात पुरानी, कपट हीन नृप के सन्मानी।
देश काल लख कारज कर्ता, निर्भय रूपवान गुण भर्ता।
वाक्पटु अस व्यक्ति दूता, भक्त देश के सत्य सपूता।
किस किस को क्या क्या अधिकार देना योग्य है
अमात्ये दण्ड आयत्तो दण्डेवेनयिकी क्रिया।
नृपतौ कोशराष्ट्रे च दूते सन्धिविपर्ययौ।।1।।
दूत एव हि संधत्ते भिनत्त्येव च संहतान्।
दूतस्तत्कुरुते कर्म भिद्यन्ते येन वा न वा।।2।।
बुद्ध्वा च सर्वं तत्त्वेन परराजचिकीर्षितम्।
तथा प्रयत्नमातिष्ठेद्यथात्मानं न पीडयेत्।।3।।
धनुर्दुर्गं महीदुर्गमब्दुर्गं वार्क्षमेव वा।
नृदुर्गं गिरिदुर्गं वा समाश्रित्य वसेत्पुरम्।।4।।
एकः शतं योधयति प्राकारस्थो धनुर्धरः।
शतं दशसहस्त्राणि तस्साद् दुर्गं विधीयते।।5।।
तत्स्यादायुधसमपन्नं धनधान्येन वाहनैः।
ब्राह्मणैः शिल्पिभिर्यन्त्रैर्यसेनोदकेन च।।6।।
तस्य मध्ये सुपर्याप्तं कारयेद् गृहमात्मनः।
गुप्तं सर्वर्त्तुकं शुभ्रं जलवृक्षसमन्वितम्।।7।।
तदध्यास्योद्वहेद्भार्यां सवर्णां लक्षणान्विताम्।
कुले महति सम्भूतां हृद्यां रूपगुणान्विताम्।।8।।
पुरोहितं प्रकुर्वीत वृणुयादेव चर्त्विजम्।
तेऽस्य गृह्याणि कर्माणि कुर्य्युर्वैतानिकानि च।।9।।
– मनु0 7। 65, 66, 67, 70, 74, 78।
दोहा
सौंपे हाथ समाज के, न्याय दण्ड अधिकार।
राज काज अरु कोष को, नरपति लेय सम्हार।।
चौपाई
शेष कार्य सब सभा चलावे, संधि विरोध दूत सुलझावे।
फटे दिलों को दूत मिलावें, मिले हुओं में फूट करावे।
तोड़ फोड़ वेरी को नाशन, चतुर दूत को ऐसा भाषण।
सभा सभापति दूत अरु राजा, सगरे मिल करलें अस काजा।
जाते रिपु दुख देन न पावे, राजा अपना देश बचावे।
दुर्ग लक्षण
ऐसे सुन्दर दुर्ग बनावे, जहाँ शत्रु ते रक्षा पावे।
अन्न धनादिक से परिपूरन, भरा रहे नृप दुर्ग सपूरन।
माटी निर्मित घन बन माँही, चहुं दिक् जल पूरित परिखाही।
परिखा पार सेन्य दल मोटा, गहवर गिरि आवृत पुन कोटा।
ताके भीतर नगर बसावे, कोटहु पर परकोट बनावे।
दुर्ग माँहि थित एक सिपाई, शत रिपु देवे मार गिराई।
सौ सैनिक दश सहस गिरावे, इह कारण नृप दुर्ग बनावे।
शस्त्र सुसज्जित पूरित धाना, शिल्पी ब्राह्मण वाहन नाना।
अनिक यन्त्र तृण घास रु चारा, जल आदिक हों दुर्ग मझारा।
दुर्ग मध्य हों राज प्रसादा, श्वेत वर्ण सुन्दर निर्बाधा।
राज काज वहां करे नरेशा, हरे प्रजा के कष्ट कलेशा।
दोहा
ब्रह्मचर्य सम्पूर्ण कर, लिख पढ़ हो विद्वान्।
क्षत्रिय कन्या को वरहि, नरपति वीर महान्।।
चौपाई
विदुषी सच्चरिता गुणवारी, ऐसी ब्याहे राजकुमारी।
राजा ब्याहे एकहु नारी, अवर न देखे आँख उघारी।
ऋत्विज और पुराहित माने, आदर से उनको सन्माने।
राजघराने के शभ कारज, वही करावें दोनों आरज।
राज काज में लवलीना, सदा रहे नृप सभा अधीना।
सन्ध्या हवन आदि सब कर्मा, नृप को केवल शासन धर्मा।
इससे बड़ा न कारज कोई, रेन दिवस नृप करिहै सोई।
साँवत्सरिकमाप्तैश्च राष्ट्रादाहारयेद् बलिम्।
स्याच्चाम्नायपरो लोके वर्त्तेत पितृवन्नृषु।।1।।
अध्यक्षान्विविधान्कुर्यात् तत्र तत्र विपश्चितः।
तेऽस्य सवा्रण्यवेक्षेरनृ नृणां कार्याणि कुर्वताम्।।2।।
आवृत्तानां गुरुकुलाद्विप्राणां पूजको भवेत्।
नृपाणामक्षयो ह्येष निधिर्ब्राह्यो विधीयते।।3।।
समोत्तमाधमै राजा त्वाहूतः पालयन् प्रजाः।
न निवर्तेत संग्रामात् क्षात्रं धर्ममनुस्मरन्।।4।।
आहवेषु मिथोऽन्योन्यं जिघांसन्तो महीक्षितः।
युध्यमानाः परं शकत्या स्वर्गं यान्त्यपराङ्मुखाः।।5।।
न च हन्यात्स्थलारूढं न क्लीबं न कृता०जलिम्।
न मुक्तकेशं नासीनं न तवास्मीति वादिनम्।।6।।
न सुप्तं न बिसन्नाहं न नग्नं न निरायुधम्।
नायुध्यमानं पश्यन्तं न परेण समागतम्।।7।।
नायुधव्यसनं प्राप्तं नार्त्तं नातिपरिक्षतम्।
न भीतं न परावृत्तं सतां धर्ममनुस्मरन्।।8।।
यस्तु भीतः परावृत्तः सङ्ग्रामे हन्यते परैः।
भर्त्तुर्यद्दुष्कृतं कि०िचत्तत्सर्वं प्रतिपद्यते।।9।।
यच्चास्य सुकृतं कि०िचदमुत्रार्थमुपार्जितम्।
भर्त्ता तत्सर्वमादत्ते परावृत्तहतस्य तु ।।10।।
रथाश्वं हस्तिनं छत्रं धनं धान्यं पशून्स्त्रियः।
सर्वद्रव्याणि कुप्यं च यो यज्जयति तस्य तत्।।11।।
राज्ञश्च दद्युरुद्धारमित्येषा वैदिकी श्रुतिः।
राज्ञा च सर्वयोधेभ्यो दातव्यमपृथग्जितम्।।12।।
– मनु0 7 । 80-82, 87-89, 91-97
दोहा
वार्षिक कर संग्रह करे, करे देश कल्याण।
प्रर्जा पुत्रवत पालिये, सब का राखे मान।।
चौपाई
कर विभाग सब कारज बाँटे, सुजनहुं माने दुष्टन डाँटे।
गुरुकुल से निकलें ब्रह्मचारी, चतुर्वेद ज्ञाता गुणकारी।।
राज सभा उनको सन्माने, ज्ञान रतन से भरे खजाने।
यह नृप का अक्षय भण्डारा, इन ते होवे वेद प्रचारा।।
छोटा हो सम हो बलवाना, जो कोऊ रण में करे आह्नाना।
अवस करे ता संग संग्रामा, ताको खुला स्वर्ग को धामा।।
पूर्ण शक्ति से जो रण करते, पीठ न देते सन्मुख मरते।
रिपु को मार मार मर जाएं, वे नृप वीर गति को पाएं।।
दोहा
विजय हेत भागे कभी, कभी सन्मुख हो जाय।
युद्ध नीति में कुशल नृप, छल बल से फल पाय।।
चौपाई
वीरसिंह सन्मुख हो धाये, बाण लगे ठण्डा हो जाय।
ऐसे नीति उचित न रन में, अस विचार राखे निज मन में।।
यथा उचित जब जैसा कीजे, सुन्दर विजय वधुवर लीजे।
युद्ध विमुख धित को नहीं मारे, क्लीब बद्ध कर नहीं संहारे।।
मुक्त केश बैठा शरणागत, मूर्छित सुप्त नग्न अति आरत।
शस्त्र हीन रण दर्शक दुखिया, भीत भगे हो युद्ध विमुखिया।।
इनको योधा कबहुं न मारे, पकर इन्हें बंदी गृह डारे।
खान पान बंदी को देवे, औषध सों घायल नर सेवे।।
कबहुं न उनको दुखिया राखे, मत अश्लील वचन कटु भाखे।
उनसे समुचित कार्य करावे, बन्दी जन को नहीं सतावे।।
बालक रोगी बूढ़ा नारी, इन पर करहि न शस्त्र प्रहारी।
बंदी के नारी अरु बालक, उनका बने पितृ सम पालक।।
भगिनी पुत्री सम तिन देखे, काम दृष्टि से कबहुँ न पेखे।
राज्य नींव जब दृढ़ हो जाये, सिर नहीं शत्रु कहीं उठाये।।
मुक्त करे तब बंदी सादर, कुशल सहित पहुंचाये घर घर।
पुनः वैर की जिन से आसा, सदा रखे तिन कारावासा।।
जो नर डर कर पीठ दिखावे, राज दण्ड वह भीरु पावे।
सन्मुख होय मरे जो वीरा, स्वर्गधाम वह पाये धीरा।।
भाजत रिपु कर से जो मरता, वह निज गौरव अरु यश हरता।
जो सैनिक योधा सेनानी, लूटे शत्रु की रजधानी।।
धन संपत अरु हाथी घोड़े, रजत रूप्य मोहरें के तोड़े।
रमणी रत्न पदारथ नाना, लूट पाट को सब सामाना।।
जो जीतें वह उनको लेवें, षोडश भाग नृपति को देवें।
जो कछु सब ने मिल कर छीना, सकल द्रव्य वह राज्य अधीना।।
विजय द्रव्य का षोडश अंशा, देह सैन्य को नृप अवतंसा।
मरे युद्ध में जो नर वीरा, नृपति हेत जिन दिये सरीरा।।
उनके भाग उन्हें मिल जाएं,सुवन नार उनके वे पाएं।
देश हित जिन जीवन वारा, नृप पालहि उनके परिवारा।।
तरुण भये ते पुन अधिकारी, बने उचित पदवी के धारी।
जो नृप चाहे यश सन्ताना, प्रजा प्रेम सुख संपत नाना;
तो नहीं तोड़े यह मर्य्यादा, चले नीति पर त्याग प्रमादा।।
राजा और राज सभा के लक्षण
दोहा
सदा यत्न करते रहें, नृप की सभा नरेश।
इन चारों पर जो चले, सुखी बसे तिस देश।।
चौपाई
अपनाये को पाना चाहे, प्राप्त हुआ जो उसे बचाये।
रक्षित धन को और बढ़ाना, बढ़े तो उसे सुमार्गत लगाना।।
छात्रन हित वह करहु प्रदाना, अथवा उस से धर्म फैलाना।
वेद प्रचार पुण्य की वृद्धि, धन के बिना न होवे सिद्धि।।
दीन अपाहज जन का पालन, सुख सों राज्य तंत्र संचालन।
उसी वृद्ध धन से सब कीजै, नृप नृपसभा सुकीरति लीजै।।
धन अप्राप्त दण्ड से पाये, अनुभव सों धन प्राप्त बचाये।
उसे बढ़ाये कर व्यौहारा, सरल भाव सों सभी प्रकारा।।
ध्यान रखे शत्र की माया, सदा बचाये अपनी काया।
निज त्रुटियों को गोपन राखे, शत्रु मित्र सन्मुख नहीं भाखे;
रिपु छिद्रों को ढूंढ निकाले, कच्छप सम निज छिद्र छिपाले।।
अलब्धं चैव लिप्सेत लब्धं रक्षेत्प्रयत्नतः।
रक्षितं वर्द्धयेच्चैव वृद्धं पात्रेषु निःक्षिपेत्।।1।।
एतच्चतुर्विधं विद्यात् पुरुषार्थप्रयोजनम्।
अस्य नितयमनुष्ठानं सम्यक्कुर्यादतन्द्रितः।।2।।
अलब्धमिच्छेद्दण्डेन लब्धं रक्षेदवेक्षया।
रक्षितं वर्द्धयेद्वृद्धया वृद्धं दानेन निःक्षिपेत्।।3।।
अमाययैव वर्तेत न कथ०चन मायया।
बुध्येतारिप्रयुक्तां च मायां नितयं स्वसंवृतः।।4।।
नास्य छिद्रं परो विद्याच्छिद्रं विद्यात्परस्य तु।
गूहेत्कूर्म इवाङगानि रक्षेद्विवरमात्मनः।।5।।
बकवच्चिन्तयेदर्थान् सिंहवच्च पराक्रमेत्।
वृकवच्चावलुम्पेत शशवच्च विनिष्पतेत्।।6।।
एवं विजयमानस्य येऽस्य स्युः परिपन्थिनः।
तानानयेद्वशं सर्वान् सामादिभिरुपक्रमैः।।7।।
यदि ते तु न तिष्ठेयुरुपायैः प्रथमैस्त्रिभिः।
दण्डनेव प्रसह्यैताँश्छनकैर्वशमानयेत्।।8।।
यथोद्धरति निर्दाता कक्षं धान्यं च रक्षति।
तथा रक्षेन्नृपो राष्ट्रं हन्याच्च परिपन्थिनः।।9।।
मोहाद्राजा स्वराष्ट्रं यः कर्षयत्ननवेक्षया।
सोऽचिराद्धश्यते राज्याज्जीविताच्च सबान्धवः।।10।।
शरीरकर्षणात्प्राणाः क्षीयन्ते प्राणिनां यथा।
तथा राज्ञामपि प्राणाः क्षीयन्ते राष्ट्रकर्षणात्।।11।।
राष्ट्रस्य संग्रहे नित्यं विधानमिदमाचरेत्।
सुसंगृहीतराष्ट्रो हि पार्थिवः सुखमेधते।।12।।
द्वयोस्त्रयाणां प०चानां मध्ये गुल्ममधिष्ठितम्।
तथा ग्रामशतानां च कुर्य्याद्राष्ट्रस्य संग्रहम्।।13।।
ग्रामस्याधिपतिं कुर्य्याद्दशग्रामपतिं तथा।
विंशतीशं शतेशं च सहस्त्रपतिमेव च।।14।।
ग्रामदोषान्त्समुत्पन्नान् ग्रामिकः शनकैः स्वयम्।
शंसेद् ग्रामदशेशय दशेशो विंशतीशिनम्।।15।।
विंशतीशस्तु तत्सर्वं शतेशाय निवेदयेत्।
शंसेद् ग्रामशतेशस्तु सहस्त्रपतये स्वयम्।।16।।
तेषां ग्राम्याणि कार्याणि पृथक्कार्याणि चेव हि।
राज्ञोऽन्यः सचिवः स्त्रिग्धस्तानि पश्येदतन्द्रितः।।17।।
नगरे नगरे चैकं कुर्यात्सर्वार्थचिन्तकम्।
उच्चैः स्थानं घोररूपं नक्षत्रााणामिव ग्रहम्।।18।।
स ताननुपरिक्रामेत्सर्वानेव सदा स्वयम्।
तेषां वृत्तं परिणयेत्सम्यग्राष्ट्रेषु तच्चरैः।।19।।
राज्ञो हि रक्षाधिकृताः परस्वादायिनः शठाः।
भृत्या भवन्ति प्रायेण तेभ्यो रक्षेदिमाः प्रजाः।।20।।
ये कार्यिकेभ्योऽर्थमेव गृह्नीयुः पापचेतसः।
तेषां सर्वस्वमादाय राजा कुर्यात्प्रवासनम्।।21।।
– मनु0 7।99।101।104-107।110-117।120-124।।
चौपाई
ध्यानावस्थित नदी किनारे, बक जिमि जल में मछली मारे।
धन संग्रह तिमि करे नरेशा, बक वृत्ति तन उज्वल वेशा।
रिपु दल सिंह समान पछारे, चित्रक सम छिप छिप कर मारे।
बली शत्रु यदि आये समीपा, शशक भाँति भग जाय महीपा।
समय पाय पुन छल से मारे, शत्रु पछार छार कर डारे।
विजय हेत सब दस्यु लुटेरे, सन्धि करे उनके मन फेरे।
धन दे उनको वश में लावे, तोड़ फोड़ कर साथ मिलावे।
किसी भाँति भी यदि नमानें, दण्ड देय उन को अपमाने।
धान्यक जैसे धान्य निकाले, छिलका फैंके धान सम्भाले।
कूट काट छिलका अलगावे, पर चावल कोऊ टूट न पावे।
दस्यु चोर तिमि राजा मारे, दुष्टन को जड़ सहित उखारे।
जो नृप मोह मुग्ध अविचारी, देशहु दुर्बल करे विकारी।
बन्धु सहित तस राज्य बिनासे, उल्टे पड़ें भाग्य के पासे।
जो नर तन को करते छीना, उनके प्राण होंय बल हीना।
तयों नरेश दुर्बल हो मरता, निबल प्रजा जो अपनी करता।
ताँते राजसभा और राजा, प्रजा वृद्धि हित करे सुकाजा।
दोहा
दोउ त्रय पांचन ग्राम में, अरु शत ग्राम मंझार।
राज थान राजा रखे, शासहिं सोच विचार।।
चौपाई
गाँव गाँव मँह रखे प्रधाना, राज्य कार्य हो जिसने जाना।
दश ग्रामों पर इक अधिकारी, कार्य चलावे जो सरकारी।
बीस गाँव पर अन्य प्रबन्धी, काज करे जो राज सम्बन्धी।
चौथा सौ ग्रामों पर जोड़े, राज्य नियम परजा मत तोड़े।
सहस गाँव को पंचम धारे, विधि सों शासन डोर सम्हारे।
गाँव गाँव में जिमि पटवारी, आज कल्ह रहते अधिकारी।
दश गाँवों, पर होता थाना, दो थानों पर एक प्रधाना।
दोहा
पांच पांच थाने रहें, इक तहसील अधीन।
दस तहसीलें होत है, एक ज़िला में लीन।।
चौपाई
वर्तमान यह राज्य प्रणाली, मनुस्मृति से सकल निकाली।
समाचार भेजें परधाना, नित होवें घटना जो नाना।
क्रम क्रम ऊपर सूचित कीजे, समाचार नरपति को दीजे।
इस विधि देश दशा को जाने, नृपति प्रजा की व्याधि पछाने।
दोहा
एक सहस दश सहस पर, रखे सभापति दोय।
जो देखें कहीं प्रजा पर, कोऊ अन्याय न होय।।
चौपाई
फिरे सभापति ग्रामा ग्रामा, देखे सकल राज्य को धामा।
अधिकारिन का करे निरीक्षण, उनके कारज करे परीक्षण।
नगर नगर में भवन विशाला, सभा हेत बनवाये भुपाला।
पौर सभ्य वँह बैठ विचारें, शासन विधि को नित्य सुधारें।
चन्द्र समान धवल हो भौना, जनु प्रकृति का शुभ्र खिलौना।
भ्रमण करे जो नित्य सभापत, ताके कारज चलें निरापत।
गुप्त दूत ताँते चर सारे, सभापति निज कर में धारे।
गुप्त दूत हों राज कुटुम्बी, अथवा उत्तम कुल अवलम्बी।
विचर विचर कर सब को देखें, राजसभा गुण अवगुण पेखें।
अपराधिन को दण्ड दिलाएं, गुणि जन का सन्मान बढ़ाएं।
दोहा
रक्षण करना प्रजा का, जिनका हो अधिकार।
वे नृप के परखे हुए, होवें शुद्धाचार।।
चौपाई
दुर्जन डाकू चोर लुटेरे, नगर मांहि विचरें बहुतेरे।
उनको नृप किंकर रख लेवे, यथा योग्य मासिक धन देवे।
कार्य करें वे राज्य अधीना, कबहुं न राखे उन्हें स्वाधीना।
इस विध उनसे पाप छुड़ाये, रक्षा कारज उन्हें सिखाये।
घूँस खोर जो हो अधिकारी, उसकी छीने सम्पत सारी।
उसे देश से बाहर निकाले, राज्य भूमि में पांव न डाले।
दण्ड देख सब जन डर जावे, पुन भविष्य में घूँस न खावें।
जो नृप इन्हें न देवे दण्डा, राजपुरुष हों सब उद्दण्डा।
न्याय शून्य होंगे अधिकारी, हाहाकार करें नर नारी।
राजपुरुष तब घूस न खावें, जो वे समुचित वेतन पावें।
बूढ़े पावें वेतन आधा, भोजन में कोई होय न बाधा।
जब तक जीयें तब तक लेवें, मरण होय तब कुछ नहीं देवें।
जो होवे उनकी सन्ताना, उनके हों अधिकार प्रधान।
राज पुरुष यदि कोऊ मर जावे, उसकी पत्नी मासिक पावे।
जब लग समरथ होय न बालक, नरपति उनका होय पालक।
जो सुत पत्री होंय कुकर्मी, तौ वे कुछ नहीं पाँय अधर्मी।
यथा फलेन युज्येत राजा कर्त्ता च कर्मणाम्।
तथाऽवेक्ष्य नृपो राष्ट्रे कल्पयेत्सततं करान्।।1।।
यथाऽल्पाऽल्पमदन्त्याद्यं वार्य्योकोवत्सषट्पदाः।
तथाऽल्पाऽल्पो ग्रहीतव्यो राष्ट्राद्राज्ञाब्दिकः करः।।2।।
नोच्छिन्द्यादात्मनो मूलं परेषां चातितृष्णया।
उच्छिन्दन्ह्यात्मनो मूलमात्मानं ताँश्च पीडयेत्।।3।।
तीक्ष्णश्चैव मृदुश्च स्यात् कार्यं वीक्ष्य महीपतिः।
तीक्ष्णश्चैव मृदुश्चैव राजा भवति सम्मतः।।4।।
एवं सर्वं विधायेदमितिकर्त्तव्यमात्मनः।
युक्तश्चैवाप्रमत्तश्च परिरक्षेदिमाः प्रजाः।।5।।
विक्रोशन्त्यो यस्य राष्ट्राद्ध्नियन्ते दस्युभिः प्रजाः।
सम्पश्यतः सभृत्यस्य मृतः स न तु जीवति।।6।।
क्षत्रियस्य परो धर्मः प्रजानामेव पालनम्।
निर्दिष्टफलभोक्ता हि राजा धर्मेण युज्यते।।7।।
– मनु0 7।128-129। 139-140। 142-144।
राजा प्रजा यथा सुख पावें, सोच समझ कर अवसर गावें।
बछड़ा जोंक भँवर सम भूपा तनिक तनिक धन लेकर रूपा।
अतिशय लोभ प्रजा को नाशहि, नरपति को भी संग विनाशहि।
प्रजा एक सब सुख को मूला, मूल कटे नृप हो उन्मूला।
कारज लख हो कोमल तीक्ष्ण, जो नृप करता समय परीक्षण।
माननीय वह होवे जग में, विघ्न न आवे ताके मग में।
या विधि त्याग प्रमाद नरेशा, पालहि प्रजा सुधारे देशा।
डाकू हरे प्रजा की संपत, लूट पाट हो जांय चंपत।
बिलपे रोवे प्रजा बिचारी, टक टक देखें नृप अधिकारी।
राज पुरुष मन्त्री और राजा, मृत जनों सब राज समाजा।
दुःख भयंकर भोगें सारे, रखवारे नहीं वे हत्यारे।
नरपति धर्म प्रजा का पालन, धर्म सहित शासन स०चालन।
उत्थाय पश्चिमे यामे कृतशोचः समाहितः।
हुताग्निर्ब्राह्मणाँश्चार्च्य प्रविशेत्स शुभां सभाम्।।1।।
तत्र स्थितः प्रजाः सर्वाः प्रतिनन्द्य विसर्जयेत्।
विसृज्य च प्रजाः सर्वा मन्त्रयेत्सह मन्त्रिभिः।।2।।
गिरिपृष्ठं समारुह्य प्रासादं वा रहोगतः।
अरण्ये निःशलाके वा मन्त्रयेदविभावितः।।3।।
यस्य मन्त्रं न जानन्ति समागम्य पृथग्जनाः।
स कृत्स्त्रां पृथिवीं भुङ्क्ते कोशहीनोऽपि पार्थिवः।।4।।
– मनु0 7। 145-148
चौपाई
पिछले प्रहर रात्रि के जागे, नहाय धोय आलस को त्यागे।
सन्ध्या हवन विप्र करि अर्चा, सभा मांहि नृप जाय सुवर्चा।
प्रजा वर्ग को कर सन्माना, उन्हें विसर्जित करे समाना।
मुख्य सचिव सों करे विचारा, उसे संग ले चढ़े पहारा।
अथवा घन जंगल में जावे, जहां न कोई मानस आवे।
श्रद्धा सहित सचिव सों बोले, राज्य डोर की गांठें खोले।
जो नृप राखे गुप्त विचारा, जाको भेद गभीर अपारा।
वह समरथ सब जग को शासे, निर्धन भी दिनकर सम भासे।
आसनं चैव यानं च सन्धिं विग्रहमेव च।
कार्यं वीक्ष्य प्रयु०जीत द्वैधं संश्रयमेव च।।1।।
सन्धिं तु द्विविधं विद्याद्राजा विग्रहमेव च।
उसे यानासने चैव द्विविधः संश्रयः स्मृतः।।2।।
समानयानकर्मा च विपरीतस्तथैव च।
तथा त्वायतिसंयुक्तः सन्धिर्ज्ञेयो द्विलक्षणः।।3।।
स्वयंकृतश्च कार्यार्थमकाले काल एव वा।
मित्रस्य चैवापकृते द्विविधो विग्रहः स्मृतः।।4।।
एकाकिनश्चात्ययिके कार्ये प्राप्ते यद्च्छया।
संहतस्य च मित्रेण द्विविधं यानमुच्यते।।5।।
क्षीणस्य चेव क्रमशो दैवात्पूर्वकृतेन वा।
मित्रस्य चानुरोधेन द्विविधं स्मृतमासनम्।।6।।
बलस्य स्वामिनश्चैव स्थितिः कार्यार्थसिद्धये।
द्विविधं कीर्त्यते द्वैधं षाड्गुण्यगुणवेदिभिः।।7।।
अर्थसम्पादनार्थं च पीड्यमानस्य शत्रुभिः।
साधुषु व्यपदेशार्थं द्विविधः संश्रयः स्मृतः।।8।।
यदावगच्छेदायत्यामाधिक्यं ध्रुवमात्मनः।
तदात्वे चाल्पिकां पीडां तदा सन्धिं समाश्रयेत्।।9।।
यदा प्रहृष्टा मन्येत सर्वास्तु प्रकृतीर्भृशम्।
अत्युच्छ्रितं तथात्मानं तदा कुर्वति विग्रहम्।।10।।
यदा मन्येत भावेन हृष्टं पुष्अं बलं स्वकम्।
परस्य विपरीतं च तदा यायाद्रिपुं प्रति।।11।।
यदा तु स्यात्परिक्षीणो वाहनेन बलेन च।
तदासीत प्रयत्नेन शनकैः सान्त्वयन्नरीन्।।12।।
मन्येतारिं यदा राजा सर्वथा बलवत्तरम्।
तदा द्विधा बलं कृत्वा साधयेत्कार्य्यमात्मनः।।13।।
यदा परबलानां तु गमनीयतमो भवेत्।
तदा तु संश्रयेत् क्षिप्रं धार्मिकं बलिनं नृपम्।।14।।
निग्रहं प्रकृतीनां च कुर्याद् योऽरिबलस्य च।
उपसेवेत तं नितयं सव्रयत्नैर्गुरुं यथा।।15।।
यदि तत्रापि सम्पश्येद् दोषं संश्रयकारितम्।
सुयुद्धमेव तत्राऽपि निर्विशङकः समाचरेत्।।16।।
– मनु0 7। 161-176
संधि विग्रह आसन याना, संस्त्रय द्वैधी भाव विधाना।
इन्हें यथावत जाने राजा, तब हों उसके पूरन काजा।
दो प्रकार की होवे संधि, अभि संधि अरु अपर विसंधि।
मिल अनमिल यह दोउ प्रकारा, रिपु सों राखे उचित व्योहारा।
करत रहे नित चिंतन मन में, तत्पर रहिये विजय यतन में।
निज कारज सिद्धि के अर्धा, रिपु से विग्रह करे समर्था।
मित्र शत्रु अरु निज अपराधी, वैरी जान भयंकर व्याधि।
दूर करे जब समरथ पावे, शत्रु को यमधाम पठावे।
अकस्मात् कोई कारज आवे, शत्रु पर एकाकी धावे।
मित्र संग वा करे चढ़ाई, यान नाम याको है भाई।
जब देखे निज बल को हीना, शत्रु को लख प्रबल प्रवीना।
आसन मार प्रतीक्षा कीजे, समय आय तब कारज कीजे।
सेना को बाँटे द्वै दल में, टूट पड़े शत्रु के बल में।
द्वै प्रकार को द्वैधी भावा, या नीति को परम प्रभावा।
जब देखे रिपु है बलवन्ता, परम प्रतापी सैन्य अनन्ता।
राजा अपने प्राण बचाये, अन्य नृपति के समय विहाये।
किसी संत का आश्रय लेवे, कोऊ तापस की कुटिया सेवे।
जब लग बढ़े न निज बल वीरज, बैठ रहे मन में रख धीरज।
जब देखे निज को बलवाना, बढ़त प्रजा में सुख सन्ताना।
हृष्ट पुष्ट बलवत है सेना, सागर सम उफने मद फेना।
तब शत्रु से करे लड़ाई, मार मार देवे विनसाई।
प्रजा वर्ग अरु सेना सारी, रोक रही हो रिपु को भारी।
गुरु सम उनकी सेवा कीजै, आदर मान सभी को दीजै।
जिसका आश्रय लेवे राजा, जब देखे वह करत अकाजा।
दूषित मन यदि उसका पाये, निर्भय उससे युद्ध चलाये।
जो नृप न्यायशील हो धर्मी, निज जन वत्सल पात्र सुकर्मी।
उससे कबहुं न करे लड़ाई, मेल रखे जिमि भाई भाई।
सर्वोपायैस्तथा कुर्यान्नीतिज्ञः पृथिवीपतिः।
यथास्याभ्यधिका न स्युर्मित्रोदासीनशत्रवः।।1।।
आयतिं सर्वकाया्रणां तदात्वं च विचारयेत्।
अतीतानां च सर्वेषां गुणदोषौ च तत्त्वतः।।2।।
आयत्यां गुणदोषज्ञस्तदात्वे क्षिप्रनिश्चयः।
अतीते कार्य्यशेषज्ञः शत्रुभिर्नाभिभूयते।।3।।
यथैनं नाभिसंदध्युर्मित्रोदासीनशत्रवः।
तथा सर्वं संविदध्यादेष सामासिको नयः।।4।।
– मनु0 7 । 177-180
दोहा
वैरी अधिक न हो सकें, मित्र न होंय उदास।
जो नृप यह नीति चले, ताके कारज रास।।
चौपाई
क्या कर्तव्य किये क्या कर्मा, भावी करन योग क्या धर्मा।
तीन काल के कर्म विचारे, दोष मिटावे नीति सुधारे।
वह नृप सब शत्रुन को मारे, रण में विजय पाय नहीं हारे।
कृत्वा विधानं मूले तु यात्रिकं च यथाविधि।
उपगृह्यास्पदं चेव चारान् सम्यग्विधाय च।।1।।
संशोध्य त्रिविधं मार्गं षड्विधं च बलं स्वकम्।
सांपरायिककल्पेन यायादरिपुरं शनैः।।2।।
शत्रुसेविनि मित्रे च गूढे युक्ततरो भवेत्।
गतप्रत्यागते चेव स हि कष्टतरो रिपुः।।3।।
दण्डव्यूहेन तन्मार्गं यायात्तु शकटेन वा।
वराहमकराभ्यां वा सूच्या वा गरुडेन वा।।4।।
यतश्च भयमाशङ्केत् ततो विस्तारयेद् बलम्।
पद्येन चैव व्यूहेन निविशेत सदा स्वयम्।।5।।
सेनापतिबलाध्यक्षौ सर्वदिक्षु निवेशयेत्।
यतश्च भयमाशङ्केत् प्राचीं तां कल्पयेद्दिशम्।।6।।
गुल्मांश्च स्थापयेदाप्तान् कृतसंज्ञान् समन्ततः।
स्थाने युद्धे कुशलानभीरूनविकारिणः।।7।।
संहतान् योधयेदल्पान् कामं विस्तारयेद् बहून्।
सूच्या वज्रेण चैवैतान् व्यूहेन व्यूह्य योधयेत्।।8।।
स्यन्दनाश्वैः समे युध्येदनूपे नौद्विपैस्तथा।
वृक्षगुल्मावृते चापैरसिचर्मायुधैः स्थले।।9।।
प्रहर्षयेद् बलं व्यूह्य ताँश्च सम्यक् परीक्षयेत्।
चेष्टाश्चैव विजानीयादरीन् योधयतामपि।।10।।
उपरुध्यारिमासीत राष्ट्र चास्योपपीडयेत्।
दूषयेच्चास्य सततं यवसान्नोदकेन्धनम्।।11।।
भिन्द्याच्चैव तडागानि प्राकारपरिखास्तथा।
समवस्कन्दयेच्चेनं रात्रौ विन्नासयेत्तथा।।12।।
प्रमाणानि च कुर्वीत तेषां धमर्यान्यथोदितान्।
रत्नैश्च पूजयेदेनं प्रधानपुरुषैः सह।।13।।
आदानमप्रियकरं दान०च प्रियकारकम्।
अभीप्सितानामर्थानां काले युक्तं प्रशस्यते।।14।।
– मनु0 7 । 184-192। 194-196। 203-204
चौपाई
शत्रु पर जब करे चढ़ाई, चतुराइ से लड़े लड़ाई।
पहले अपना देश सम्हाले, रक्षा के परबंध करा ले।
यात्रा की सामग्री सारी, शस्त्र अस्त्र रथ आदि सवारी।
लेकर संग करे प्रस्थाना, रखे गुप्तचर गुप्त ठिकाना।
मित्र नहीं वह कपट पिटारा, मन मलीन मुख का उजियारा।
गुप्त भेद रिपु को बतलावे, आग लगा रिपु को हर्षावे।
राज पुरुष राजा के जेते, युद्ध कला को सीखें तेते।
जो नरपति हों युद्ध प्रवीना, वाके शत्रु रहे आधीना।
दण्ड व्यूह से सैन्य चलावे, शकट बना रिपु सन्मुख धावे।
व्यूह वराह समान रचइये, प्रबल वेग से शत्रु गहिये।
सूची व्यूह सूचि सम छेदक, मुख महीन शत्रु दल भेदक।
मकर व्यूह जिमि जल में नाका, पता न पाए शत्रु ताका।
गरुड़ व्यूह रच झपटा मारे, नीलकण्ठ जिमि सर्प विडारे।
जँह शत्रु का नृप भय पावे, उसी ओर निज दल फैलावे।
खड़ा करे दल पद्माकारा, मध्य रहे नृप सैन्य सहारा।
बलाध्यक्ष सेनापति सारे, चहुंदिश ठाढ़े सैन्य निहारे।
युद्ध ओर मुख रखें लड़ाके, युद्ध विमुख मुख होंय न ताके।
दृढ़ प्रबन्ध पाछे भी कीजे, शत्रु को अवसर नहीं दीजे।
पार्श्व ओर रिपु घात न पावे, दल के मत भीतर घँस जावे।
अचल अडोल वीर गति धीरा, खड़े रहें खंभे सम वीरा।
छोटे दल से शत्रु महाना, विवश होय जब पड़े लड़ाना।
टूट पड़े मिल सैनिक सारे, दावानल सम रिपु बन जारें।
दोहा
रिपु के पुर वा दुर्ग में, करना चहे प्रवेश।
प्रविशे सूचिव्यूह से, जीते शत्रु देश।।
चौपाई
शत्रु सैन्य में करे दरारा, खड्ग व्यूह से मार दुधारा।
लड़ते भिड़ते घुसते जायें, विजय भवन के दर्शन पायें।
यदि तोपें गोले बसांतीं, रिपु की गर्जत हो दिन रातीं।
आगे बढ़े सर्प सम लेटे, सरके सरके अंग समेटे।
निकट पहुँच तापें हथियाये, तिन मुख रिपु दल ओर फिराये।
मार छार वैरी को कर दे, रण आंगन लोथों से भर दे।
युद्ध स्थल यदि हो मैदानी, समतल भूमि सकल समानी।
रथ वाही और चालहिं पैदल, रिपु पर धावा बोलें हयदल।
सागर युद्ध होय जहां भारी, वहां पर राखे नाव सवारी।
जँह नदिया जल थोड़े वारी, वँह हाथी हौदे अंबारी।
घन जंगल में सैनिक जल को, उत्साहे भड़काए रन को।
हटे युद्ध तब दे विख्याना, सुप्त शौर्य और तेज जगाना।
खान पान औषध से सेवे, वीरन के मन वश कर लेवे।
व्यूह बिना नहीं लड़े लड़ाई, सेना परखे कर चतुराई।
रण में दल को देखे भाले, मत कोई शत्रु संग मिलाले।
चहुं दिक से शत्रु को घेरे, नाशहि नगर पौर गृह डेरे।
चारा ईंधन दाना पानी, ध्वंस करे शत्रु की हानि।
खाई कोट रु शत्रु सरोवर, तोड़ फोड़ सब करे बरोबर।
रात्रि काल में उसे डरावे, दुन्दुभि नौबत शंख बजावे।
विजय पाय वैरी को पकड़े, बचन पाश से उसको जकड़े।
लेखबद्ध सन्धि कर छोड़े, जांते पुन सन्धि नहीं तोड़े।
दोहा
उचित जान कोऊ अन्य नर, जो रिपु कुल का होय।
तिहि सिंहासन दीजिए, कीजे नरपति सोय।।
चौपाई
उस नर से यह वचन लिखाये, बहुर न आज्ञा बाहर जाये।
तासु संग निज पुरुष लगावे, मत षड्यन्त्र फेर रचावे।
युद्ध मांहि जो नरपति हारे, धन जन से उसको सत्कारे।
बन्दि गृह यदि उसको राखे, तौ भी बुरा वचन नहीं भाखे।
हार शोक उस पर नहीं छाये, कारागृह में भी हर्षाये।
पर धन ग्रहण वैर का कारण, धन देवे हो द्वेष निवारण।
समयोचित तांते नित कीजे, विजित नरेशहिं आदर दीजे।
जो इच्छा हो उसकी पावे, व्यंग वचन से नहीं चिढ़ावे।
हम जीते तुम हारे हमसे, ऐसा वचन न कहे भरम से।
किन्तु कहे तुम हो सम भाई, यह सब विधना बात बनाई।
हिरण्यभूभिसम्प्राप्त्या पार्थिवो न तथैधते।
यथा मित्रं ध्रुवं लब्ध्वा कृशमप्यायतिक्षमम्।।1।।
धर्मज्ञं च कृतज्ञं च तुष्टप्रकृतिमेव च।
अनुरक्तं स्थिरारम्भं लघुमित्रं प्रशस्यते।।2।।
प्राज्ञं कुलीनं शूरं च दक्षं दातारमेव च।
कृतज्ञं धृतिमन्त०च कष्अमाहुररिं बुधाः।।3।।
आर्य्यता पुरुषज्ञानं शौर्य्यं करुणवेदिता।
स्थौललक्ष्यं च सततमुदासीनगुणोदयः।।4।।
– मनु0 6।208-211
दोहा
राजा बढ़े न स्वर्ण से, बढ़े न भूमि पाये।
केवल सांचे मीत को, पाय बढ़े हर्षाय।।
चौपाई
दुर्बल हो वा हो बलवाना, सुहृद होय सांचा गुणवाना।
मुख प्रसन्न धर्मी अनुरागी, स्थिरारंभ लालच का त्यागी।
शंसनीय ऐसा लघु मित्रा, प्रात स्मरण के योग पवित्रा।
किये हुए उपकारहु माने, ऐसा मित्र सदा सन्माने।
दोहा
बुद्धिमान दानी चतुर, अरु कृतज्ञ मतिधीर।
ऐसा मित्र दुखाइये, पाइये मन की पीर।
उदासीन का लक्षण (कुण्डलिया)
उत्तम गुण संयुक्त जन, रखे पुरुष पहिचान।
वीर करुण वरु बात पर, तनिक न देवे ध्यान।
तनिक न देवे ध्यान, रखे निज ढंग निराला।
चक्कर में रहे पड़ा, बात के सुनने वाला।
उदासीन वह चतुर, बहिर से भोला भाला।
नहीं भरोसे योग, भले उत्तम गुण वाला।
एवं सर्वमिदं राजा सह संम्मन्त्र्य मन्त्रिभिः।
व्यायाम्याप्लुत्य मध्याह्ने भोक्तुमन्तःपुरं विशेत्।।1।।
– मनु0 126।
चौपाई
इह विधि नितय चरहि महिपाला, पितु सम करे प्रजा प्रतिपाला।
प्रात करे उठ मज्जन धावन, संध्या अग्नि होत्र पुन पावन।
मन्त्री गण सों बहुर विचारे, किंकर जन के कष्ट निवारे।
सैन्य व्यहू पुन देखे जाकर, गज तुरंग सब रखे सिधा कर।
पुन व्यायाम करे नृप नागर, सुन्दर सुघड़ सुडौल उजागर।
हो प्रसन्न अन्तः पुर जाये, उत्तम उत्तम भोजन खाये।
प्रजा से कर लेने की विधि
प०चाशद्भाग आदेयो राज्ञा पशुहिरण्ययोः।
धान्यानामष्टमो भागः षष्ठो द्वादश एव वा।।
– मनु0 7 । 130
चौपाई
स्वर्णदिक के जो व्यापारी, अथवा पशुओं के व्यौहारी।
अर्ध लाभ इनसे नृप लेवे, आधा व्यापारिन को देवे।
अष्टम भाग अन्न से पाये, छइा बारहवां वा अपनाये।
कृषि कर रक्त करे नहीं चूषण, कर धन ले इतना नर भूषण।
होय प्रजा यदि सम्पति वारी, धन शालीन निरोग सुखारी।
तौ नरपति भी उन्नति पावे, सकल जगत ताको यश गावे।
मरे प्रजा यदि दुखित निराशन, नृप पुन किस पर करिहैं शासन।
जो नरपति नहीं होवे भाई, तो पुन किसकी प्रजा कहाई।
दोनों निज निज कर्म स्वतन्तर, राज काज मंह दोऊ परतन्तर।
जो सम्मति हो सर्व प्रजा की, राजा माने अनुमति ताकी।
नृप आदेश प्रजा सब माने, पितु सम राजा को सन्माने।
दोहा
राजनीति संक्षेप से, लिखी राज के काज।
जो नरपति इस पर चले, नशहि न वाको राज।।
चौपाई
विस्तृत नीति ज्ञान हो पाना, कर स्वाध्याय वेद भगवाना।
शुक्र नीति मनु अरु महाभारत, आदिक ग्रन्थ नीति विस्तारक।
प्रजा न्याय हित जो व्यवहारा, ताका मनु ने कियो प्रचारा।
अष्टम और नवम अध्याये, मनु ने नीति धर्म बताये।
प्रत्यहं देशदृष्टैश्च शास्त्रदृष्टैश्च हेतुभिः।
अष्टादशसु मार्गेषु निबद्धानि पृथक् पृथक्।।1।।
तेषामाद्यमृणादानं निषेपोऽस्वामिविक्रय5।
संभूय च समुत्थनं दतस्यानपकर्म च।।2।।
वेतनस्यैव चादानं संविदश्च व्यतिक्रमः।
क्रयविक्रयानुशयो विवादः स्वामिपालयोः।।3।।
सीमाविवादधम्रश्च पारुष्ये दण्डवाचिके।
स्तेयं च साहसं चैव स्त्रीसङ्ग्रहणमेव च।।4।।
स्त्रीपुंधर्मों विभागश्च द्यूतमाह्नय एव च।
पदान्यष्टादशैतानि व्यवहारस्थिताविह।।5।।
तेषु स्थानेषु भूयिष्ठं विवादं चरतां नृणाम्।
धर्मं शाश्वतमाश्रित्य कुर्यात्कार्यविनिर्णयम्।।6।।
धर्मों विद्धस्त्वधर्मेण सभां यन्नेपतिष्ठते।
शल्यं चास्य न कृन्तन्ति विद्वास्तत्र सभासदः।।7।।
सभा वा न प्रवेष्टव्या वव्यं वा सम०जसम्।
अब्रुवन्विब्रुवन्वापि नरो भवति किल्विषी।।8।।
यत्र धर्मों ह्यधर्मेण सत्यं यत्रानृतेन च।
हन्यते प्रेक्षमाणानां हतास्तत्र सभासदः।।9।।
धर्म एव हतो हन्ति धर्मों रक्षति रक्षितः।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मों हतोऽवधीत्।।10।।
वृषो हि भगवान्धम्रस्तस्य यः कुरुते ह्यलम्।
वृषं तं विदुर्देवास्तस्माद्धर्मं न लोपयेत्।।11।।
एक एव सुहृद्धर्मो निधनेऽप्युनुयाति यः।
शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यद्धि गच्छति।।12।।
पादोऽधर्मस्य कर्त्तारं पादः साक्षिणमृच्छति।
पादः सभासदः सर्वान् पादो राजानमृच्छति।।13।।
राजा भवत्यनेनास्तु मुच्यन्ते च सभासदः।
एनो गच्छति कर्त्तारं निन्दार्हों यत्र निन्द्यते।।14।।
– मनु0 8 । 3-6। 12-19
चौपाई
नृप नृप सभाराज दर्बारी, सकल कलह को करें निवारी।
अष्टादश विधि होंय विवादा, जिनका हेतु लोक मर्य्यादा।
इन झगड़ों को सदा मिटाये, यथा योग्य समुचित जो पाये।
परम्परागत हैं कुछ रीति, प्रजा रखे जिनके संग प्रीति।
यद्यपि शास्त्र विरोधी जाने, लोक परन्तु उसे प्रमाने।
ऐसा मार्ग वहाँ अपनावे, जो नृप लोक दोउन को भावे।
अठारह विवाद वर्णन
ऋण लेवे पुन नहीं लौटारे, पर की रखी धरोहर मारे।
किसी पुरुष का पड़ा पदारथ, बेच खाय कोई अन्य अकारथ।
मिल मिलाय काहू को नासहिं, छल कर मारहिं झूठ बिसासहिं।
पहले माँग पदारथ लेवे, पर पाछे उसको नहीं देवें।
चाकर के वतन को राखें, घट देवें अरु दुर्वच भाखें।
वचन देय पुन करत न पूरे, धर्महीन बातों के सूरे।
पशुपति अरु पशु पालन हारा, इनके झगड़े का निबटारा।
भूमि सींव पर होय विवादा, खेत मेड़ बन्धन मर्यादा।
कर्कश बात रु दण्ड कठोरा, चोरी डाका पर घर फोरा।
काम करे कोउ जोरा जोरी, भोगे कोऊ पर नार किशोरी।
पति पत्नी के धर्म बनाये, उनमें यदि व्यतिक्रम कोऊ आए।
सम्पति को वारा बटवारा, झगड़ा पड़े करे निबटारा।
जड़ चेतन वस्तु को द्यूता, खेले यदि कोऊ पूत कपूता।
उनके झगड़े को निपटाना, पक्षपात बिन न्याय मनाना।
जँह अन्याय न्याय को बेधे, जहाँ अधर्म धर्म को छेदे।
घायल पड़ा धर्म जहां रोवे, शलय काढ़ कोउ घाव न धोवे।
वंह नृप सभा सभासद सारे, पापविद्ध घायल हत्यारे।
धर्मी पुरुष सभा नहीं सेवे, जो सेवे तो सत्पथ लेवे।
लख अन्याय मौन गह रहना, सत्य बात मुख सों नहीं कहना।
महा पाप पापी नर सोई, पुरुष रूप में है खर कोई।
जँह पर झूठ सत्य को मारे, न्यायहुं जहां अन्याय संहारे।
टक टक लखें सभासद सारे, सत्य वचन कोउ नहीं उचारे।
मृतक सभा कोउ जीवित नाहीं, पाप लगे उनकी परछाहीं।
दोहा
जो नर राखे धर्म को, तासु धर्म रखवार।
मारहिं जो जन धर्म को, तिनहिं धर्म दे मारं
चौपाई
रे नर धर्म प्राण ते प्यारा, उभय लोक का है रखवारा।
धर्म सर्व सुख सम्पति दाता, संकट हर्ता सांचा नाता।
जो नर अधम धर्म कंह लोपै, उसी पतित पर ईश्वर कौपै।
ते नर वृषल शूद्र चण्डाला, तांते काहु धर्म प्रतिपाला।
धर्म मित्र जग में है भाई, जो होवे परलोक सहाई।
मरण समय सम्बन्धी छूटें, शेष जगत के नाते टूटें।
सभा मांहि जब हो अन्याया, अरु पापी ने पाप कमाया।
चार भाग पापहु के होंवे, सभा सभापति दुःख से रोवें।
एक भाग कर्ता को लागे, दूसर साक्षी के तन लागे।
तीसर अंश सभासद खावे, चौथा भाग महीभृत पावे।
जंह पर निंदनीय को निंदहिं, वंदनीय को जहां पर वंदहिं।
दण्डनीय को दण्ड कठोरा, माननीय को मान विभोरा।
वहां सब सभ्य सभासद राजा, पाप रहित हो राजा समाजा।
एक मात्र कर्ता हो पापी, दण्ड योग्य दुर्जन अभिशापी।
आप्ताः सर्वेषु वर्णेषु कार्य्याः कार्येषु साक्षिणः।
सर्वधर्मविदोऽलुब्धा विपरीतांस्तु वर्जयेत्।।1।।
स्त्रीणां साक्ष्यं स्त्रियः कुर्युर्द्विजानां सदृशा द्विजाः।
शूद्राश्च सन्तः शूद्राणामन्त्यानामन्त्ययोनयः।।2।।
साहसेषु च सव्रेषु स्तेयसङ्ग्रहणेषु च।
वाग्दण्डयोश्च पारुष्ये न परीक्षेत साक्षिणः।।3।।
बहुत्वं परीगृह्नीयात् साक्षिद्वैधे नराधिपः।
समेषु तु गुणोत्कृष्टान् गुणिद्वैधे द्विजोत्तमान्।।4।।
समक्षदर्शनात्साक्ष्यं श्रवणाच्यैव सिध्यति।
तत्र सत्यं ब्रुवन्साक्षी धर्मार्थाभ्यां न हीयते।।5।।
साक्षी दृष्ट श्रुतादन्यद्विब्रु वन्नार्य्यसंसदि।
अवाङ्नरकमभ्येति प्रेत्य स्वर्गाच्च हीयते।।6।।
स्वभावेनैव यदृ ब्रुयुस्तद् ग्राह्यं व्यावहारिकम्।
अतो यदन्यद्विर्बूयुर्धर्मार्थं तदपार्थकम्।।7।।
सभान्तः साक्षिणः प्राप्तानर्थिप्रत्यर्थिसन्निधौ।
प्राङ्विवाकोऽनुयु०जीत विधिनाऽनेन सान्त्वयन्।।8।।
यद् द्वयोरनयोर्वेत्थ कार्येऽस्मिँश्चेष्टितं मिथः।
तद् ब्रूत सर्वं सत्येन युष्माकं ह्यत्र साक्षिता।।9।।
सत्यं साक्ष्ये ब्रुवन्साक्षी लोकानाप्नोति पुष्कलान्।
इह चानुत्तमां कीर्तिं वागेषा ब्रह्मपूजिता।।10।।
सत्येन पूयते साक्षी धम्रः सत्येन वर्द्धते।
तस्मात्सत्यं हि वक्तव्यं सर्ववर्णेषु साक्षिभिः।।11।।
आत्मैव ह्यात्मनः साक्षी गतिरात्मा तथात्मनः।
मावमंस्थाः स्वमात्मानं नृणां साक्षिणमुत्तमम्।।12।।
यस्य विद्वान् हि वदतः क्षेत्रज्ञो नाभिशङकते।
तस्मात्र देवाः श्रेयांसं लोकेऽन्यं पुरुषं विदुः।।13।।
एकोऽहमस्मीत्यात्मानं यत्त्वं कल्याण मन्यसे।
नित्यं स्थितस्ते हृद्येषः पुण्यपापेक्षिता मुनिः।।14।।
– मनु0 8। 63, 68,72-75, 78-91, 83-84, 96-91।
दोहा
कपट रहित धर्मात्मा, लोभ हीन विद्वान।
सर्व धर्म वित पुरुष को, साक्षी करे सुजान।।
चौपाई
नारी की साखिन हो नारी, द्विज का द्विज हो साक्ष्य सम्हारी।
अन्त्यज के हित अन्त्यज भाखे, समवर्णी नर साखी राखे।
मार पीट गाली व्यभिचारा, चौर कर्म आदिक बलकारा।
इनमें कबहुं न परखे साखी, कोऊ हो साखी घटना भाखी।
आवश्यक है साक्षी इनमें, वण्र भेद नहीं राखे तिन में।
गुप्त कार्य जो होंवें सारे, उन को न्यायाधीश विचारे।
उभय पक्ष की सुने गवाही, बहु संख्यक सच माने न्यायी।
सम संख्यक जहां साखी देखे, वँह उत्तम गुणवत जन देखे।
दोनों ओर होंय गुण वारे, ऋषि मुनि सुजनहिं तँह अनुहारे।
इक द्रष्टा इक साक्षी श्रोता, झूठ कहे सो दण्डित होता।
दृष्ट श्रवण से उलटा बोले, धर्म तुला पर झूठ को तोले।
उस साक्षी की जिह्ना छेदे, नरक पठाय रसातल भेदे।
दोहा
स्वाभाविक व्यवहार की, साक्षी कहे जो बात।
वा के वचन विचारिये, वह नहीं बात छिपात।।
चौपाई
अन्य वचन जो होंय सिखाये, शुक सम घर में बैठ रटाये।
न्यायी धरे न उन पर काना, व्यर्थ जान नहीं देवे ध्याना।
सभा मांझ वादी प्रतिवादी, होंय उपस्थित दोऊ विवादी।
उनके सन्मुख साक्षी बोले, सांच झूठ न्यायी जन तोले।
दोहा
साक्षी जन को प्रेम से, पूछे न्यायाधीश।
सत्य सत्य सब कुछ कहो, देख रहा जगदीश।।
चौपाई
सत्य वचन जो साक्षी बोले, स्वर्ग द्वार प्रभु वाको खोले।
उत्तम जन्म मिले वा नर को, सहजहिं पाए परमेश्वर को।
लोक मांहि सुख कीरति पावे, दृग देखी जो बात सुनावे।
वाणी से नर पावे माना, वाणी ही से हो अपमाना।
सांचे का जग करता आदर, मिथ्यावादी पाए अनादर।
सत से साक्षी होवे पावन, सत्यहि केवल धर्म बढ़ावन।
मन को मन का साक्षी जानो, मन की गति मन में पहचानो।
तांते हे नर! लख भगवाना, मत कर निज आतम अपमाना।
मन वाणी आतम को मन्दर, व्याप रहा जो या तन अन्दर।
वही सत्य है नित अविनाशी, तांते बनहु न मिथ्या भाषी।
जाके बोले होय न शंका, वह निर्भीक सत्य का डंका।
वह पुरुषों में है पुरुषोत्तम, वाको ज्ञानी कहें नरोत्तम।
मैं हूं यहां अकेला भाई, यह विचार बड़ मूरखताई।
अन्दर बैठा अन्तर्यामी, पाप पुण्य वह जाने स्वामी।
उस से डर कर सब सत कहना, सदा नहीं इस जग में रहना।
लोभान्मोहाद्भयान्मैत्रात्कामात्क्रोधात्तथैव च।
अज्ञानाद् बालभावाच्च साक्ष्यं वितथमुच्यते।।1।।
एषामन्यतमे स्थाने यः साक्ष्यमनृतं वदेत्।
तस्य दण्डविशेषाँस्तु प्रवक्ष्याम्यनुपूर्वशः।।2।।
लोभात्सहस्त्रं दण्ड्यास्तु मोहात्पूर्वंन्तु साहसम्।
भयाद् द्वौ मध्यमौ दण्ड्याौ मैत्रात्पूर्वं चतुर्गुणम्।।3।।
कामाद्दशगुणं पूर्वं क्रोधात्तु त्रिगुणं परम्।
अज्ञानाद् द्वे शते पूर्वे बालिश्याच्छतमेव तु।।4।।
उपस्ािमुदरं जिह्ना हस्तौ पादौ च प०चमम्।
चक्षुर्नासा च कर्णौं च धनं देहस्तथैव च।।5।।
अनुबंध परिज्ञाय देशकाली च तत्त्वतः।
साराऽपराधौ चालोक्य दण्डं दण्ड्योषु पातयेत्।।6।।
अधर्मदण्डनं लोके यशोघ्नं कीर्त्तिनाशनम्।
अस्वर्ग्य०च परन्नापि तस्मात्तत्परिवर्जयेत्।।7।।
अदण्ड्याान्दण्डयन् राजा दण्ड्याांश्चैवाप्यदण्डयन्।
अयशो महदाप्नोति नरकं चैव गच्छति।।8।।
वाग्दण्डं प्रथमं कुर्याद्विग्दण्डं तदनन्तरम्।
तृतीयं धनदण्डं तु वधदण्डमतः परम्।।9।।
– मनु0 8। 118-121। 125-129।
दोहा
लोभ मोह भय मित्रता, काम क्रोध अज्ञान।
यह कारण यदि साक्ष्य के, वा को मिथ्या जान।
चौपाई
कहे लोभ से मिथ्या बैना, वा ते तुर्त दण्ड भर लैना।
पन्द्रह रूप्यक और दस आने, ऐसे नर को दण्ड बखाने।
मोह से झूठी साखी देवे, रूप्यक त्रय आना दो लेवे।
भय से मिथ्या बोले जो नर, चार आना छः रूपक ले भर।
मैत्री वश जे झूठ बताएं, उनते साढ़ बारह पाएं।
दोहा
मन में रख कोई कामना, झूठा बने गवाह।
पंचविंशति दण्ड दें, पावें दुख की राह।।
चौपाई
क्रोध लाग जो झूठ उचारें, वे साखी निज आतम मारें।
छयतालिस पुन चौदह आना, दण्ड रूप उनसे भरवाना।
झूठ कहे जो जन अनजाने, रूप्यक छः उस नर ते पाने।
झूठ कहे जो बाल अजाना, एक रुपप्या अरु नौ आना।
कर पद नाक नैन अरु काना, झूठे साखी के कटवाना।
संपति छीने प्राण निकारे, झूठ कथन से लोक निवारे।
देश काल नर लख कर न्यायी, दण्डहि देय घटाय बढ़ाई।
अनुचित दण्ड कबहुं नहीं देखे, न्याय करे जग में यश लेवे।
निज कीरति नाशत अन्यायी, यह अन्याय महा दुःखदायी।
लोक नशाहि परलोकहु जाए, अन्यायी कहीं चैन न पाए।
दोहा
निर्दोषी को दण्ड दे, अरु दोषी को त्रान।
सो नृप नरकहिं जा गिरे, जीवित मृतक समान।।
चौपाई
प्रथम दण्ड वाणी का माना, दूसर पुन धिक्कार सुनाना।
दण्ड तीसरा धन का लेना, चौथा दण्ड हनन कर देना।
येन येन यथाङगेन स्तेनो नृषु विचष्टेते।
तत्तदेव हरेदस्य प्रत्यादेशाय पार्थिवः।।1।।
पिताचार्य्यः सुहृन्माता भार्य्या पुत्रः पुरोहितः।
नादण्ड्याो नाम राज्ञोऽस्ति यः स्वधर्मे न तिष्ठति।।2।।
कार्षापणं भवेद्दण्डयो यत्रान्यः प्राकृतो जनः।
तत्र राजा भवेद्दण्ड्याः सहस्त्रमिति धारणा।।3।।
अष्टापाद्यन्तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्विषम्।
षोडशैव तु वेश्यस्य द्वात्रिंशत्क्षत्रियस्य च।।4।।
ब्राह्मणस्य चतुःषष्टिः पूर्णं वापि शतं भवेत्।
द्विगुणा वा चतुःषष्टिस्तद्दोषगुणविद्धि सः।।5।।
ऐन्द्रं स्थानमभिप्रेप्सुर्यशश्चाक्षयमव्ययम्।
नोपेक्षेत क्षणमपि राजा साहसिकं नरम्।।6।।
वाग्दुष्टात्तस्कराच्चेव दण्डेनैव च हिंसतः।
साहसस्य नरः कर्त्ता विज्ञेयः पापकृत्तमः।।7।।
साहसे वत्तमानं तु यो मर्षयति पार्थिवः।
स विनाशं व्रजत्याशु विद्वेषं चाधिगच्छति।।8।।
न मित्रकारणाद्राजा विपुलाद्वा धनागमात्।
समुत्सृजेत् साहसिकान्सर्वभूतभयावहान्।।9।।
गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्।
आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्।।10।।
नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन।
प्रकाशं वाऽप्रकाशं वा मन्युस्तन्मन्युमृच्छति।।11।।
यस्य स्तेनः पुरे नास्ति नान्यस्त्रीगो न दुष्टवाक्।
न साहसिकदण्डघ्नौ स राजा शक्रलोकभाक्।।12।।
– मनु0 8।334-338। 344-377। 350-351। 386
चौपाई
जिन अंगन जो वस्तु चुराये, तिन अंगों को नृप कटवाये।
इस प्रकार दण्डे जो राजा, शिक्षा पाए सकल समाजा।
सुत पितु होवे बान्धव भाई, दण्ड देय दण्डित को न्यायी।
न्याय दण्ड सब लाग समाना, न्यायी नृप का हो कल्याना।
दोहा
प्राकृत जन से सहस गुन, पाये दण्ड नरेश।
सुखी बसे उस देश की, प्रजा न पाये क्लेश।।
अठ सौ गुन दीवान को, छोटे को शत सात।
इह विधि दण्डे नृप जनहिं, करे न कुछ पखपात।।
चौपाई
लघु से जानो लघु सिपैय्या, दण्ड भरे वह आठ रुपैय्या।
अष्ट गुना घट से घट दण्डहि, विजय मुकुट वा नृप शिर मंडहि।
अधिक दण्ड यदि ये नहीं पावें, तो यह नृपजन लूट मचावें।
नृप अनुचर हों अत्याचारी, नाश करेंगे परजा सारी।
प्रजा अजा सम वश में आवे, कान पकड़ दो चपत लगावे।
राज पुरुष हैं सिंह समाना, असि बिन कठिन इन्हें वश लाना।
ताँते राज पुरुष हों जेते, अधिक दण्ड के लायक तेते।
दोहा
ज्ञानवान चोरी करे, ताको है बहु दोष।
अज्ञानी के कर्म पर, अधिक न होवे रोष।।
चौपाई
अठगुन शुद्र विवेकी देवे, षोडश गुना वैश्य से लेवे।
छत्री से बत्तिस गुन लेना, शत गुन दण्ड विप्र को देना।
जो नर जितना आदर जोगू, उतना अधिक दण्ड कर भोगू।
दोहा
जो चाहे कल्याण नृप, सुख संपति त्रैकाल।
छिन नहीं बिलमें दण्ड दे, दस्युन को तत्काल।।
चौपाई
साहसि सब दुष्टन को राजा, प्रजा लागि नित करे अकाजा।
जो नृप साहसि जनहिं सहारे, बल से वाको छिनहुं न मारे।
सो नरपति नाशहि निज देशा, नशत स्वयं पावत बहु क्लेशा।
सकल प्रजा दुख देने हारा, साहसी नृप-तरु-तेज कुठारा।
मित्र होय वा हो धनवाना, साहसी जन का चिहन् मिटाना।
गुरु बालक सुत ब्राह्मण बूढ़ा, हो विद्वान भले हो मूढ़ा।
धर्म त्याग जो बना अधर्मी, निर्दोषन बध करे कुकर्मी।
उसको भूपति मार विडारे, पहले मारे फेर विचारे।
दुष्टन मारे जो भूपाला, उसे न हत्या लगे त्रिकाला।
सन्मुख मारे गुपचुप मारे, साहसिन मार छार कर डारे।
दोहा
क्रोधी जन को मारना, इसमें नहीं कोई दोष।
नीति मनु भगवान की, मरे रोष से रोष।
जिस नरपति की परजा मांही, डाकू परतियगामी नाहीं।
दुष्ट वचन का बोलन वारा, नहीं नृप आज्ञा भंजन हारा।
सो भूपति जानहु परमोत्तम, शान्त सुखी महिपाल नरोत्तम।
दोहा
जाति गुण अभिमान से, नार करे व्यभिचार।
कुत्तों से नुचवाय के, वाको डारो मार।
चौपाई
जो नर भोगे नार पराई, निज तिय त्यागे करे ढिठाई।
तप्त लोह पर ताहि सुलावे, अस विधि यमपुर ताहि पठावे।
प्रश्न
यदि राजा वा उसकी रानी, बल पर गर्वित अति अभिमानी।
न्यायधीश अरु उसकी नारी, कबहुंक हो जाएं व्यभिचारी।
उनको दण्ड कोन पुन देवे, क्यों कर दण्ड सबल नर लेवे।
अजा प्रजा सिंहहुं किम दण्डे, रविसन किम खद्योत प्रचण्डे।
उत्तर
भाग्यवान पुण्यातम राजा, यदि वह करे नीच दुष्काजा।
वाको क्यों नहीं दण्ड विधाना, कितना होय चहे बलवाना।
माने कौन दण्डपुन प्रानी, स्वयं न माने यदि नृप मानी।
सकल सभा मिल दण्डे वाको, किसकी शक्ति न माने ताको।
एक ओर राजा एकाकी, एक ओर परजा हो ताकी।
भाढ़ न फोड़े चना अकेला, बुदबुद सहे न सागर वेला।
जो कहुं ऐसा नियम न होवे, नृप पीड़ित परजा बहु रोवे।
नृप नृप जन गज सम मतवाले, कौन प्रजा पद दलित सम्हाले।
न्याय दण्ड राजा है भूपर, नृप नहीं न्याय दण्ड से ऊपर।
प्रश्न
अंग अंग का काटना, यह अन्याय अनर्थ।
वह काटे जो नर रखे, रचने की सामर्थ।।
चौपाई
अंग भंग अति दण्ड कठोरा, अन्य दण्ड कोउ दीजै थोरा।
निर्दयता इसमें है भारी, अंगन काटे मार कुल्हारी।
कौन करे ऐसा दुष्कारज, हृदय शून्य बर्बर को कारज।
उत्तर
अति अल्पज्ञ बुद्धि के भोरे, मूरख राजनीति से कोरे।
कठिन दण्ड जो इसको कहते, मिथ्या दया धार मँह बहते।
एकहुं मिले दण्ड जब भारी, शेष डरें जग के नर नारी।
कानों को सब हाथ लगावें, पाप कर्म के निकट न जावें।
सुगम दण्ड को दुष्ट न जाने, दण्डे को गधहा पहचाने।
अत्याचार बढ़ेगा जग में, जीवन दूभर हो पग पग में।
मार धाड़ चोरी अरु डाके, नित नित होंगे ऐसे साके।
बहू बेटी धन संपति सारी, हो न सके इनकी रखवारी।
राजा कैसे कर प्राप्त करे?
दोहा
नद नदियां सागर जहां, होता तो व्यापार।
उनसे राजा कर गहे, यथा लाभ अनुसार।।
चौपाई
कछु अल्पज्ञ ज्ञान के कोरे, कहते हैं बुद्धि के भोरे।
नहीं जहाज थे पूरब काले, वे मूरख झूठे मतवाले।
पूर्व समय में जल व्यापारा, होता था नौ पोतों द्वारा।
प्रजा बसे थी दीप दिपन्तर, रक्षक राजा रहे निरन्तर।
ताँते देश विदेशन गामी, राज कर्म रत नृप शुभ कामी।
जब जल यात्रा पर कहीं जावें, नरपति उनको सदा बचावें।
नाव पोत आदिक जल याना, करें नृपति सुन्दर निर्माना।
नौ सेना उनकी रखवारी, नित्य करे दल जल संचारी।
प्रति दिन नृप उठ करे निरीक्षण, हय गय वाहन आदि परीक्षण।
जाँच करे नित निज कृत्यन की, कारज कर्ता सब भृत्यन की।
लाभ खर्च अरु कोष खजाना, रतन खानि आदिक को ध्याना।
जो नृप इह विधि करे करावे, पाप नशहि मुक्ति पद पावे।
प्रश्न
राजनीति पूरन अहै, संस्कृत विद्या मांहि।
जगत पुकारे आज का, इसमें पूरन नांहि।।
उत्तर
संस्कृत विद्या सब गुण पूरी, राज नीति भी नहीं अधूरी।
वर्तमान जितनी हैं नीति, वह सब संस्कृत ग्रंथ गृहीती।
अन्य चलेगी नीति यावत, गीर ग्रंथ उल्लेखित तावत।
नहीं प्रत्यक्ष लेख है जिनका, करें विवेक महीपति तिनका।
प्रत्यहं लोकदृष्टैश्च शास्त्रदृष्टैश्च हेतुभिः।। -मनु0 8। 3
नृप नृपसभा हेतु सुख दायक, बाँधे नियम सभा के नायक।
ध्यान रखे पर यह नर नाहा, होने पायन बाल विवाहा।
बिन प्रसन्नता वधु अरु वर की, जो ब्याहे सो जानहु तरकी।
बहु विवाह की रीति रोके, इन विषयन को नृप अवलोके।
ब्रह्मचर्य्य की होवे वृद्धि, जाते सकल कार्य्य की सिद्धि।
यह है आत्म शक्ति को कारण, तनु व्याधि को कहरि निवारण।
दोहा
आतम और शरीर की, द्वैविध शक्ति महान।
विद्यमान दोनों जहां, वही देश बलवान।।
चौपाई
तनु निर्बल पर कोरा ज्ञानी, पुरुष निरर्थक आतम मानी।
इक बलवत शत ज्ञानी मारे, केवल ज्ञान न पार उतारे।
जो केवल तन के बलवाना, काला अक्षर भैंस समाना।
वे नर कैसे राज्य चलावें, आपस में लड़ भिड़ मर जावें।
उनके नहीं कोउ राज व्यवस्था, पशु सम तिनकी होय अवस्था।
गौओं को जिमि हाँके ग्वाला, तिमि इनको नर बुद्धि वाला।
ताँते द्वैविधि शक्ति बढ़ाएं, सुख संपति जीवन में पाएं।
विषय वासना अरु व्यभिचारा, बल बुद्धि करते संहारा।
इनते बढ़ कर दोष न कोई, इन्हें तजे जो क्षत्रिय सोई।
हों दृढ़गङ् क्षत्रिय बलवन्ता, पुन वे कबहुं न हो श्रीहन्ता।
द्वैविधि शक्ति रखे नरेशा, शक्तिवान हो वाको देशा।
जैसा राजा तैसी परजा, अटलनेम प्रकृति ने सरजा।
उचित यही नृप नृप पुरुषन को, सदा विचारें इन नियमन को।
न्याय मूर्ति बन कर दिखलावें, प्रजा जनों को मार्ग बतावें।
राजधर्म का वर्णन कीना, यह संक्षिप्त रूप है दीना।
वेद विहित यह नीति सारी, शुक्राचार्य्य विदुर विस्तारी।
दोहा
सप्तम अष्टम अरु नवम, यह तीनों अध्याय।
राज धर्म निज ग्रंथ में, मनु ने दियो बताय।।
कुण्डलिया
राजधर्म आपद्धर्म, इत्यादिक जो ग्रन्थ।
जो विस्तृत पढ़ना चहे, पढ़े करें अवमंथ।।
पढ़े करें अवमंथ, महाभारत को देखें।
उसमें भी वरु शान्ति पर्व पूरन अवलेखें।
इस प्रकार पढ़ नृपति करे शासन को कर्मा।
वेद शास्त्र में लिखे विशद राजा के धर्मा।।
दोहा
परमेश्वर की प्रजा है, राजा है परमेश।
न्याय करे यह जान कर, पृथ्वीपाल नरेश।।
इति श्री आर्य महाकवि जयगोपाल विरचित सत्यार्थ प्रकाश
कवितामृते षष्ठ समुल्लासः समाप्तः।