अथ ऋत्विग्वरणम्
यजमानोक्तिः :- ओम् आवसो सदने सीद।
ऋत्विगुक्तिः :- ओं सीदामि।
यजमानोक्तिः :- ओं तत्सत् श्रीब्रह्मणो द्वितीयप्रहरोत्तरार्द्धे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमें कलियुगे कलिप्रथम- चरणेऽमुक….. संवत्सरे, …..अयने, …..ऋतौ, …..मासे, …..पक्षे, …..तिथौ, …..दिवसे, …..लग्ने, …..मुहुर्ते जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तदेशान्तर्गते …..प्रान्ते, …..जनपदे, …..मण्डले, …..ग्रामे/नगरे, …..आवासे/भवने अहम् …..कर्मकरणाय भवन्तं वृणे।
ऋत्विगुक्तिः :- वृतोऽस्मि।
अथाचमन-मन्त्राः
ओम् अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।। १।। इससे एक
ओम् अमृतापिधानमसि स्वाहा।। २।। इससे दूसरा
ओ३म् सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा।। ३।। (तैत्तिरीय आरण्यक प्र. १०/अनु. ३२, ३५) इससे तीसरा आचमन करके तत्पश्चात् जल लेकर नीचे लिखे मन्त्रों से अंगों को स्पर्श करें।
अथ अङ्गस्पर्श-मन्त्राः
ओं वाङ्म आस्ये ऽ स्तु। इस मन्त्र से मुख
ओं नसोर्मे प्राणो ऽ स्तु। इस मन्त्र से नासिका के दोनों छिद्र
ओं अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु। इस मन्त्र से दोनों आंख
ओं कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु। इस मन्त्र से दोनों कान
ओं बाह्वोर्मे बलमस्तु। इस मन्त्र से दोनों बाहु
ओम् ऊर्वोर्म ओजो ऽ स्तु। इस मन्त्र से दोनों जंघा
ओम् अरिष्टानि मे ऽ ङ्गानि तनूस्तन्वा मे सह सन्तु। इस मन्त्र से दाहिने हाथ से जल स्पर्श करके मार्जन करना। (पारस्कर गृ.का.२/क.३/सू.२५)
अथ-ईश्वर-स्तुति-प्रार्थनोपासनामन्त्राः
ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।
यद् भद्रन्तन्न ऽ आसुव।। १।। (यजु अ.३०/मं.३)
हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके हमारे सम्पूर्ण दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए; जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं वह सब हमको प्राप्त कीजिए।
सकल जगत के उत्पादक हे, हे सुखदायक शुद्ध स्वरूप।
हे समग्र ऐश्वर्ययुक्त हे, परमेश्वर हे अगम अनूप।।
दुर्गुण-दुरित हमारे सारे, शीघ्र कीजिए हमसे दूर।
मंगलमय गुण-कर्म-शील से, करिए प्रभु हमको भरपूर।।
हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक ऽ आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।। २।। (यजु.अ.१३/मं.४)
जो स्वप्रकाश स्वरूप और जिसने प्रकाश करनेहारे सूर्य चन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किए हैं। जो उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का प्रसिद्ध स्वामी एक ही चेतन स्वरूप था। जो सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्व वर्तमान था। सो इस भूमि और सूर्यादि का धारण कर रहा है। हम लोग उस सुखस्वरूप शुद्ध परमात्मा के लिए ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अतिप्रेम से विशेष भक्ति किया करें।
छिपे हुए थे जिसके भीतर, नभ में तेजोमय दिनमान।
एक मात्र स्वामी भूतों का, सुप्रसिद्ध चिद्रूप महान्।।
धारण वह ही किए धरा को, सूर्यलोक का भी आधार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।
य ऽ आत्मदा बलदा यस्य विश्व ऽ उपासते प्रशिषं यस्य देवाः।
यस्य छाया ऽ मृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। ३।। (यजु.२५/१३)
जो आत्मज्ञान का दाता, शरीर, आत्मा और समाज के बल का देनेहारा है। जिसकी सब विद्वान लोग उपासना करते हैं। जिसके प्रत्यक्ष सत्यस्वरूप शासन, न्याय अर्थात् शिक्षा को मानते हैं। जिसका आश्रय ही मोक्ष सुखदायक है। जिसका न मानना अर्थात् भक्ति इत्यादि न करना ही मृत्यु आदि दुःख का हेतु है। हम लोग उस सुखस्वरूप, सकल ज्ञान के देनेहारे परमात्मा की प्राप्ति के लिए आत्मा और अन्तःकरण से भक्ति अर्थात् उसी की आज्ञा पालन करने में तत्पर रहें।
आत्मज्ञान का दाता है जो, करता हमको शक्ति प्रदान।
विद्वद्वर्ग सदा करता है, जिसके शासन का सम्मान।।
जिसकी छाया सुखद सुशीतल, दूरी है दुःख का भंडार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।
यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक ऽ इद्राजा जगतो बभूव।
य ऽ ईशे ऽ अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। ४।। (ऋ. १०/१२१/३)
जो प्राणवाले और अप्राणिरूप जगत् का अपनी अनन्त महिमा से एक ही विराजमान राजा है। जो इस मनुष्यादि और गौ आदि प्राणियों के शरीर की रचना करता है। हम लोग उस सुखस्वरूप सकल ऐश्वर्य के देनेहारे परमात्मा की उपासना अर्थात् अपनी सकल उत्तम सामग्री को उसकी आज्ञापालन में समर्पित करके उसकी विशेष भक्ति करें।
जो अनन्त महिमा से अपनी, जड़-जंगम का है अधिराज।
रचित और शासित हैं जिससे, जगतिभर का जीव समाज।।
जिसके बल विक्रम का यश का, कण-कण करता जयजयकार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।
येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढ़ा येन स्वः स्तभितं येन नाकः।
यो ऽ न्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। ५।। (यजु.अ.३२/मं.६)
जिस परमात्मा ने तीक्ष्ण स्वभाव वाले सूर्य आदि और भूमि को धारण किया है, जिस जगदीश्वर ने सुख को धारण किया है और जिस ईश्वर ने दुःख रहित मोक्ष को धारण किया है। जो आकाश में सब लोक-लोकान्तरों को विशेष मानयुक्त अर्थात् जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं वैसे सब लोकों निर्माण करता और भ्रमण कराता है, हम लोग उस सुखदायक कामना करने के योग्य परब्रह्म की प्राप्ति के लिए सब सामर्थ्य से विशेष भक्ति करें।
किया हुआ है धारण जिसने, नभ में तेजोमय दिनमान।
परमशक्तिमय जो प्रभु करता, वसुधा को अवलम्ब प्रदान।।
सुखद मुक्तिधारक लोकों का, अन्तरिक्ष में सिरजनहार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।
प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव।
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्।। ६।। (ऋ.म.१०/सू.१२१/मं.१०)
हे सब प्रजा के स्वामी परमात्मा आप से भिन्न दूसरा कोई उन इन सब उत्पन्न हुए जड़-चेतनादिकों को नहीं तिरस्कार करता है, अर्थात् आप सर्वोपरी हैं। जिस-जिस पदार्थ की कामनावाले हम लोग आपका आश्रय लेवें और वांच्छा करें, वह कामना हमारी सिद्ध होवे, जिससे हम लोग धनैश्वर्यों के स्वामी होवें।
जड़ चेतन जगति के स्वामी, हे प्रभु तुमसा और नहीं।
जहां समाए हुए न हो तुम, ऐसा कोई ठौर नहीं।।
जिन पावन इच्छाओं को ले, शरण आपकी हम आएं।
पूरी होवें सफल सदा हम, विद्या-धन-वैभव पाएं।।
स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।
यत्र देवा ऽ अमृतमानशाना- स्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त।। ७।। (यजु.अ.३२/मं.१०)
हे मनुष्यों वह परमात्मा अपने लोगों का भ्राता के समान सुखदायक, सकल जगत् का उत्पादक, वह सब कामों का पूर्ण करनेहारा, सम्पूर्ण लोकमात्र और नाम-स्थान-जन्मों को जानता है। जिस सांसारिक सुख-दुःख से रहित नित्यानन्दयुक्त मोक्षस्वरूप धारण करनेहारे परमात्मा में मोक्ष को प्राप्त होके विद्वान् लोग स्वेच्छापूर्व्रक विचरते हैं वही परमात्मा अपना गुरु, आचार्य, राजा और न्यायाधीश है। अपने लोग मिलके सदा उसकी भक्ति किया करें।
भ्राता तुल्य सुखद् वह ही प्रभु, सकल जगत् का जीवन प्राण।
मानव के सब यत्न उसी की, करुणा से होते फलवान।।
सदानन्दमय धाम तीसरा, सुख-दुःख के द्वन्द्वों से दूर।
करके प्राप्त उसे ज्ञानी जन, आनन्दित रहते भरपूर।।
अग्ने नय सुपथा राये ऽ अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम ऽ उक्तिं विधेम।। ८।। (यजु.अ.४०/मं.१६)
हे स्वप्रकाश, ज्ञानस्वरूप, सब जगत् के प्रकाश करनेहारे सकल सुखदाता परमेश्वर ! आप जिससे सम्पूर्ण विद्यायुक्त हैं, कृपा करके हम लोगों को विज्ञान वा राज्यादि ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए अच्छे धर्मयुक्त आप्त लोगों के मार्ग से सम्पूर्ण प्रज्ञान और उत्तम कर्म प्राप्त कराइये और हमसे कुटिलतायुक्त पापरूप कर्म को दूर कीजिए। इस कारण हम लोग आपकी बहुत प्रकार से नम्रतापूर्वक स्तुति सदा किया करें और आनन्द में रहें।
स्वयं प्रकाशित ज्ञानरूप हे ! सर्वविद्य हे दयानिधान।
धर्ममार्ग से प्राप्त कराएं, हमें आप ऐश्वर्य महान्।।
पापकर्म कौटिल्य आदि से, रहें दूर हम हे जगदीश।
अर्पित करते नमन आपको, बारंबार झुकाकर शीश।।
अथ स्वस्तिवाचनम्
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्।
होतारं रत्नधातमम्।। १।। (ऋ.१/१/१)
स नः पितेव सूनवेऽग्ने सूपायनो भव।
सचस्वा नः स्वस्तये।। २।। (ऋ.१/१/९)
स्वस्ति नो मिमीतामश्विना भगः स्वस्ति देव्यदितिरनर्वणः।
स्वस्ति पूषा असुरो दधातु नः स्वस्ति द्यावापृथिवी सुचेतुना।।३।। (ऋ.५/५१/११)
स्वस्तये वायुमुप ब्रवामहै सोमं स्वस्ति भुवनस्य यस्पतिः।
बृहस्पतिं सर्वगणं स्वस्तये स्वस्तय आदित्यासो भवन्तु नः।। ४।। (ऋ.५/५१/१२)
विश्वे देवा नो अद्या स्वस्तये वैश्वानरो वसुरग्निः स्वस्तये।
देवा अवन्त्वृभवः स्वस्तये स्वस्ति नो रुद्रः पात्वंहसः।। ५।। (ऋ.५/५१/१३)
स्वस्ति मित्रावरुणा स्वस्ति पथ्ये रेवति।
स्वस्ति न इन्द्रश्चाग्निश्च स्वस्ति नो अदिते कृधि।। ६।। (ऋ.५/५१/१४)
स्वस्ति पन्थामनु चरेम सूर्याचन्द्रमसाविव। पुनर्ददताघ्नता जानता सं गमेमहि।। ७।।
(ऋ.५/५१/१५)
ये देवानां यज्ञिया यज्ञियानां मनोर्यजत्रा अमृता ऋतज्ञाः।
ते नो रासन्तामुरुगायमद्य यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः।। ८।। (ऋ.७/३५/१५)
येभ्यो माता मधुमत्पिन्वते पयः पीयूषं द्यौ- रदितिरद्रिबर्हाः।
उक्थशुष्मान् वृषभरान्त्स्वप्नसस्ताँ आदित्याँ अनुमदा स्वस्तये।। ९।। (ऋ.१०/६३/३)
नृचक्षसो अनिमिषन्तो अर्हणा बृहद्देवासो अमृतत्वमानशुः।
ज्योतीरथा अहिमाया अनागसो दिवो वर्ष्माणं वसते स्वस्तये।। १०।।
(ऋ.१०/६३/४)
सम्राजो ये सुवृधो यज्ञमाययुरपरिह्वृता दधिरे दिवि क्षयम्।
ताँ आ विवास नमसा सुवृक्तिभिर्महो आदित्याँ अदितिं स्वस्तये।। ११।। (ऋ.१०/६३/५)
को वः स्तोमं राधति यं जुजोषथ विश्वे देवासो मनुषो यति ष्ठन।
को वोऽध्वरं तुविजाता अरं करद्यो नः पर्षदत्यंहः स्वस्तये।। १२।।
(ऋ.१०/६३/६)
येभ्यो होत्रां प्रथमामायेजे मनुः समिद्धाग्निर्मनसा सप्त होतृभिः।
त आदित्या अभयं शर्म यच्छत सुगा नः कर्त सुपथा स्वस्तये।। १३।। (ऋ.१०/६३/७)
य ईशिरे भुवनस्य प्रचेतसो विश्वस्य स्थातुर्जगतश्च मन्तवः।
ते नः कृतादकृतादेनसस्पर्यद्या देवासः पिपृता स्वस्तये।।
।। १४।। (ऋ.१०/६३/८)
भरेष्विन्द्रं सुहवं हवामहेंऽहोमुचं सुकृतं दैव्यं जनम्।
अग्निं मित्रं वरुणं सातये भगं द्यावापृथिवी मरुतः स्वस्तये।। १५।। (ऋ.१०/६३/९)
सुत्रामाणं पृथिवीं द्यामनेहसं सुशर्माणमदितिं सुप्रणीतिम्।
दैवीं नावं स्वरित्रामनागसमस्रवन्तीमा रुहेमा स्वस्तये।। १६।। (ऋ.१०/६३/१०)
विश्वे यजत्रा अधि वोचतोतये त्रायध्वं नो दुरेवाया अभिह्रुतः।
सत्यया वो देवहूत्या हुवेम शृण्वतो देवा अवसे स्वस्तये।। १७।। (ऋ.१०/६३/११)
अपामीवामप विश्वामनाहुतिमपारातिं दुर्विदत्रा- मघायतः।
आरे देवा द्वेषो अस्मद्युयोतनोरु णः शर्म यच्छता स्वस्तये।। १८।। (ऋ.१०/६३/१२)
अरिष्टः स मर्तो विश्व एधते प्र प्रजाभिर्जायते धर्मणस्परि।
यमादित्यासो नयथा सुनीतिभिरति विश्वानि दुरिता स्वस्तये।। १९।। (ऋ.१०/६३/१३)
यं देवासोऽवथ वाजसातौ यं शूरसाता मरुतो हिते धने।
प्रातर्यावाणं रथमिन्द्र सानसिमरिष्यन्तमा रुहेमा स्वस्तये।। २०।। (ऋ.१०/६३/१४)
स्वस्ति नः पथ्यासु धन्वसु स्वस्त्यप्सु वृजने स्वर्वति।
स्वस्ति नः पुत्रकृथेषु योनिषु स्वस्ति राये मरुतो दधातन।। २१।। (ऋ.१०/६३/१५)
स्वस्तिरिद्धि प्रपथे श्रेष्ठा रेक्णस्वत्यभि या वाममेति।
सा नो अमा सो अरणे नि पातु स्वावेशा भवतु देवगोपा।। २२।। (ऋ.१०/६३/१६)
इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणऽआप्यायध्वमघ्न्या इन्द्राय भागं प्रजावतीरनमीवाऽअयक्ष्मा मा व स्तेनऽईशत माघश सो ध्रुवाऽअस्मिन् गोपतौ स्यात बह्वीर्यजमानस्य पशून् पाहि।। २३।। (यजु.१/१)
आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो- ऽ अपरीतासऽउद्भिदः।
देवा नो यथा सदमिद् वृधेऽअसन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवेदिवे।। २४।।
(यजु.२५/१४)
देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवाना द्भञ रातिरभि नो निवर्त्तताम्।
देवाना द्भञ सख्यमुपसेदिमा वयं देवा न आयुः प्रतिरन्तु जीवसे ।।२५।।
(यजु.२५/१५)
तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियञ्जिन्वमवसे हूमहे वयम्।
पूषा नो यथा वेदसामसद् वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये।। २६।। (यजु.२५/१८)
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो ऽ अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।। २७।। (यजु.२५/१९)
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवा द्भञ सस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः।। २८।। (यजु.२५/२१)
अग्न आ याहि वीतये गृणानो हव्यदातये।
नि होता सत्सि बर्हिषि।। २९।। (सा.पू.१/१/१)
त्वमग्ने यज्ञाना द्भञ होता विश्वेषा द्भञ हितः।
देवेभिर्मानुषे जने।। ३०।। (सा.पू.१/१/२)
ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभ्रतः।
वाचस्पतिर्बला तेषां तन्वोऽअद्य दधातु मे।। ३१।। (अथर्व.१/१/१)
अथ शान्तिकरणम्
शं न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शं न इन्द्रावरुणा रातहव्या।
शमिन्द्रासोमा सुविताय शं योः शं न इन्द्रापूषणा वाजसातौ।। १।। (ऋ.७/३५/१)
शं नो भगः शमु नः शंसो अस्तु शं नः पुरन्धिः शमु सन्तु रायः।
शं नः सत्यस्य सुयमस्य शंसः शं नो अर्यमा पुरुजातो अस्तु।। २।। (ऋ.७/३५/२)
शं नो धाता शमु धर्ता नो अस्तु शं न उरूची भवतु स्वधाभिः।
शं रोदसी बृहती शं नो अद्रिः शं नो देवानां सुहवानि सन्तु।। ३।। (ऋ.७/३५/३)
शं नो अग्निर्ज्योतिरनीको अस्तु शं नो मित्रावरुणावश्विना शम्।
शं नः सुकृतां सुकृतानि सन्तु शं न इषिरो अभि वातु वातः।। ४।। (ऋ.७/३५/४)
शं नो द्यावापृथिवी पूर्वहूतौ शमन्तरिक्षं दृशये नो अस्तु।
शं न ओषधीर्वनिनो भवन्तु शं नो रजसस्पतिरस्तु जिष्णुः।। ५।। (ऋ.७/३५/५)
शं न इन्द्रो वसुभिर्देवो अस्तु शमादित्येभिर्वरुणः सुशंसः।
शं नो रुद्रो रुद्रेभिर्जलाषः शं नस्त्वष्टा- ग्नाभिरिह शृणोतु।। ६।। (ऋ.७/३५/६)
शं नः सोमो भवतु ब्रह्म शं नः शं नो ग्रावाणः शमु सन्तु यज्ञाः।
शं नः स्वरूणां मितयो भवन्तु शं नः प्रस्वः शम्वस्तु
वेदिः।। ७।। (ऋ.७/३५/७)
शं नः सूर्य उरुचक्षा उदेतु शं नश्चस्रः प्रदिशो भवन्तु।
शं नः पर्वता ध्रुवयो भवन्तु शं नः सिन्धवः शमु सन्त्वापः।। ८।। (ऋ.७/३५/८)
शं नो अदितिर्भवतु व्रतेभिः शं नो भवन्तु मरुतः स्वर्काः।
शं नो विष्णुः शमु पूषा नो अस्तु शं नो भवित्रं शम्वस्तु वायुः।। ९।।
(ऋ.७/३५/९)
शं नो देवः सविता त्रायमाणः शं नो भवन्तूषसो विभातीः
शं नः पर्जन्यो भवतु प्रजाभ्यः शं नः क्षेत्रस्य पतिरस्तु शम्भुः।। १०।। (ऋ.७/३५/१०)
शं नो देवा विश्वदेवा भवन्तु शं सरस्वती सह धीभिरस्तु।
शमभिषाचः शमुरातिषाचः शं नो दिव्याः पार्थिवाः शं नो अप्याः।। ११।।
(ऋ.७/३५/११)
शं नः सत्यस्य पतयो भवन्तु शं नो अर्वन्तः शमु सन्तु गावः।
शं नः ऋभवः सुकृतः सुहस्ताः शं नो भवन्तु पितरो हवेषु।। १२।।
(ऋ.७/३५/१२)
शं नो अज एकपाद्देवो अस्तु शं नोऽहिर्बुध्न्यः शं समुद्रः।
शं नो अपां नपात्पेरुरस्तु शं नः पृश्निर्भवतु देवगोपाः।। १३।। (ऋ.७/३५/१३)
इन्द्रो विश्वस्य राजति। शन्नोऽअस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे।। १४।। (यजु.३६/८)
शन्नो वातः पवता द्भञ शन्नस्तपतु सूर्य्यः।
शन्नः कनिक्रदद्देवः पर्जन्योऽअभि वर्षतु।। १५।। (यजु.३६/१०)
अहानि शम्भवन्तु नः श रात्रीः प्रति धीयताम्।
शन्न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शन्न इन्द्रावरुणा रातहव्या।
शन्न इन्द्रापूषणा वाजसातौ शमिन्द्रासोमा सुविताय शंयोः।। १६।। (यजु.३६/११)
शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये।
शंयोरभि स्रवन्तु नः।। १७।। (यजु.३६/१२)
द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि।। १८।। (यजु.३६/१७)
तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्।
पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शत शृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतम्भूयश्च शरदः शतात्।। १९।। (यजु.३६/२४)
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति।
दूरग्मं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।। २०।। (यजु.३४/१)
येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः।
यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२१।। (यजु.३४/२)
यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु।
यस्मान्नऽऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।। २२।। (यजु.३४/३)
येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत्परिगृहीतममृतेन सर्वम्।
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२३।। (यजु.३४/४)
यस्मिन्नृचः साम यजू द्भञ षि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः।
यस्मिँश्चित्त सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२४।। (यजु.३४/५)
सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिनऽइव।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२५।।
(यजु.३४/६)
स नः पवस्व शं गवे शं जनाय शमर्वते।
श द्भञ राजन्नोषधीभ्यः।। २६।। (साम.उ.१/१/३)
अभयं नः करत्यन्तरिक्षमभयं द्यावापृथिवी उभे इमे।
अभयं पश्चादभयं पुरस्तादुत्तरादधरा- दभयं नो अस्तु।।२७।। (अथर्व.१९/१५/५)
अभयं मित्रादभयममित्रादभयं ज्ञातादभयं परोक्षात्।
अभयं नक्तमभयं दिवा नः सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु।।२८।। (अथर्व.१९/१५/६)
अग्न्याधानम्
ओं भूर्भुवः स्वः। (गोभिल.गृ.प.१/खं.१/सू.११)
ओं भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा। तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठे ऽ ग्निमन्ना दमन्नाद्यायादधे।। (यजृ.अ.३/मं.५)
ओम् उद् बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते स ँ् सृजेथामय९च। अस्मिन्त्सधस्थे ऽ अध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्चसीदत।। (यजु. १५/५४)
समिदाधानम्
ओम् अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्द्धस्व चेद्ध वर्द्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसे नान्नाद्येन समेधय स्वाहा। इदमग्नये जातवेदसे – इदन्न मम।। १।।
(आश्वलायन गृ.सू. १/१०/१२) इस मन्त्र से घृत में डुबोकर पहली..
ओं समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम्।
आस्मिन् हव्या जुहोतन स्वाहा।।
इदमग्नये – इदन्न मम।। २।। (यजु. ३/१)
इससे और..
सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन।
अग्नये जातवेदसे स्वाहा।। इदमग्नये जातवेदसे – इदन्न मम।। ३।। (यजु.३/२)
इस मन्त्र से अर्थात् दोनों मन्त्रों से दूसरी और..
तं त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्द्धयामसि।
बृहच्छोचा यविष्ठ्या स्वाहा।। इदमग्नये ऽ ङ्गिरसे – इदन्न मम।। ४।। (यजु. ३/३)
इस मन्त्र से तीसरी समिधा समर्पित करें। उक्त मन्त्रों से समिधाधान करके नीचे लिखे मन्त्र को पांच बार पढ़कर पांच घृताहुतियां दें।
प९चघृताहुतिमन्त्रः
ओम् अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्द्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्बह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा। इदग्नये जातवेदसे – इदन्न मम।। (आश्व.गृ.सू. १/१०/१२)
जलसि९चनमन्त्राः
ओम् अदिते ऽ नुमन्यस्व।। १।। इससे पूर्व में
ओम् अनुमते ऽ नुमन्यस्व।। २।। इससे पश्चिम में
ओम् सरस्वत्यनुमन्यस्व।। ३।। इससे उत्तर दिशा में
ओं देव सवितः प्र सुव यज्ञं प्र सुव यज्ञपतिं भगाय। दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु।। ४।। (यजु.३०/१)
इस मन्त्रपाठ से वेदी के चारों ओर जल छिड़काएं।
आघारावाज्यभागाहुतिमन्त्राः
ओम् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये – इदन्न मम।। १।।
इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग अग्नि में
ओं सोमाय स्वाहा। इदं सोमाय – इदन्न मम।। २।। (गो.गृ.प्र.१/खं.८/सू.२४)
इससे दक्षिण भाग अग्नि में
ओं प्रजापतये स्वाहा। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। ३।। (यजु. २२ / ३२)
ओम् इन्द्राय स्वाहा। इदमिन्द्राय – इदन्न मम।। ४।। (यजु.२२/२७)
इन दोनों मन्त्रों से वेदी के मध्य में दो आहुतियां दें। उक्त चार घृत आहुतियां देकर नीचे लिखे चार मन्त्रों से प्रातःकाल अग्निहोत्र करें।
प्रातःकालीन-आहुतिमन्त्राः
ओं सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः स्वाहा।। १।।
ओं सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा।। २।।
ओं ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा।। ३।।
(यजु. ३/९)
ओं सजूर्देवेन सवित्रा सजूरुषसेन्द्रवत्या।
जुषाणः सूर्यो वेतु स्वाहा ।। ४।। (यजु. ३/१०)
अब नीचे लिखे मन्त्रों से प्रातः सांय दोनों समय आहुतियां दें।
प्रातः सांयकालीनमन्त्राः
ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा। इदमग्नये प्राणाय – इदन्न मम।। १।। (गोभिगृह्यसूत्र०प्र.१/खं.३/यू. १-३)
ओं भुवर्वायवे ऽ पानाय स्वाहा।
इदं वायवे ऽ पानाय – इदन्न मम ।। २।।
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।
इदमादित्याय व्यानाय – इदन्न मम।। ३।।
ओं भूर्भुवः स्वरग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा। इदमग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः इदन्न मम।। ४।। (तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनैकीकृता ऋ.भा.भू. पंचमहा.)
ओम् आपो ज्योतीरसो ऽ मृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा।। ५।। (तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनरचितः प९चमहायज्ञ.)
ओं यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते। तया मामद्य मेधया ऽ ग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा।। ६।। (यजु.३२/१४)
ओं विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।
यद्भद्रन्तन्न ऽ आसुव स्वाहा।। ७।। (यजु.३०/३)
ओम् अग्ने नय सुपथा राये ऽ अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्। युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम ऽ उक्तिं विधेम स्वाहा।। ८।।
(यजु.४०/१६)
सायंकालीन-आहुतिमन्त्राः
ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा।। १।।
ओम् अग्निर्वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा।। २।।
ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा।। ३।।
(यजु. ३/९ के अनुसार)
इस मन्त्र को मन में बोल कर आहुति दें।
ओं सजूर्देवेन सवित्रा सजू रात्र्येन्द्रवत्या।
जुषाणो ऽ अग्निर्वेतु स्वाहा।। ४।। (यजु.३/९, १०)
ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा।। १।।
(गोभिगृह्यसूत्र०प्र.१/खं.३/यू. १-३)
ओं भुवर्वायवे ऽ पानाय स्वाहा।। २।।
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।। ३।।
ओं भूर्भुवः स्वरग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा।
(तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनैकीकृता ऋ.भा.भू. पंचमहा.)
ओम् आपो ज्योतीरसो ऽ मृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा।। ५।। (तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनरचितः प९चमहायज्ञ.)
ओ३म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।। (यजु.३६/३)
इस मन्त्र से तीन आहुतियां दें।
पूर्णाहुति-प्रकरणम्
आघारावाज्यभागाहुतिमन्त्राः
ओम् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये – इदन्न मम।। १।।
इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग अग्नि में
ओं सोमाय स्वाहा।
इदं सोमाय – इदन्न मम।। २।।
(गो.गृ.प्र.१/खं.८/सू.२४)
इससे दक्षिण भाग अग्नि में
ओं प्रजापतये स्वाहा। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। ३।। (यजु. २२ / ३२)
ओम् इन्द्राय स्वाहा। इदमिन्द्राय – इदन्न मम।। ४।।
इन दो मन्त्रों से वेदी के मध्य में आहुति देनी, उसके पश्चात् उसी घृतपात्र में से स्रुवा को भरके प्रज्वलित समिधाओं पर व्याहृति की निम्न चार आहुतियाँ देवे।
व्याहृत्याहुतिमन्त्राः
ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा।
इदमग्नये प्राणाय – इदन्न मम।। १।।
ओं भुवर्वायवे ऽ पानाय स्वाहा।
इदं वायवे ऽ पानाय – इदन्न मम ।। २।।
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।
इदमादित्याय व्यानाय – इदन्न मम।। ३।।
निम्न मन्त्र से स्विष्टकृत् होमाहुति भात की अथवा घृत की देवें।
यदस्य कर्मणोऽत्यरीरिचं यद्वा न्यूनमिहाकरम्।
अग्निष्टत् स्विष्टकृद् विद्यात् सर्वं स्विष्टं सुहुतं करोतु मे।
अग्नये स्विष्टकृते सुहुतहुते सर्वप्रायश्चित्ताहुतीनां कामानां समर्द्धयित्रे सर्वान्नः कामान्त्समर्द्धय स्वाहा।।
इदमग्नये स्विष्टकृते – इदन्न मम।। १।। (आश्व.१/१०/२२)
ओं प्रजापतये स्वाहा।। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। २।।
(यजु.१८/२२) इस प्राजापत्याहुति को मन में बोलकर देनी चाहिए।
आज्याहुतिमन्त्राः (पवमानाहुतयः)
ओं भूर्भुवः स्वः। अग्न आयूंषि पवस आ सुवोर्जमिषं च नः।
आरे बाधस्व दुच्छुनां स्वाहा।। इदमग्नये पवमानाय – इदन्न मम।। ३।। (ऋ.९/६६/१९)
ओं भूर्भुवः स्वः। अग्निर्ऋषिः पवमानः पाञ्चजन्यः पुरोहितः।
तमीमहे महागयं स्वाहा।। इदमग्नये पवमानाय – इदन्न मम।। ४।।
(ऋ.९/६६/२०)
ओं भूर्भुवः स्वः। अग्ने पवस्व स्वपा अस्मे वर्चः सुवीर्यम्।
दधद्रयिं मयि पोषं स्वाहा।। इदमग्नये पवमानाय – इदन्न मम।। ५।।
(ऋ.९/६६/२१)
ओं भूर्भुवः स्वः। प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव।
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणां स्वाहा।। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। ६।।
(ऋ.१०/१२१/१०)
इनसे घृत की चार आहुतियाँ करके ‘अष्टाज्याहुति’ के निम्नलिखित मन्त्रों से सर्वत्र मंगल कार्यों में आठ आहुति देवें।
त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान्देवस्य हेळोऽवयासिसीष्ठाः।
यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषांसि प्र मुमुग्ध्यस्मत् स्वाहा।। इदमग्निवरुणाभ्याम् – इदन्न मम।। ७।। (ऋ. ४/१/४)
स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती नेदिष्ठोऽअस्या उषसो व्युष्टौ।
अव यक्ष्व नो वरुणं रराणो वीहि मृळीकं सुहवो न एधि स्वाहा।। इदमग्निवरुणाभ्याम् – इदन्न मम।। ८।।
(ऋ.४/१/५)
इमं मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृळय।
त्वामवस्युराचके स्वाहा।। इदं वरुणाय – इदन्न मम।। ९।। (ऋ.१/२५/१९)
तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः।
अहेळमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मा न आयुः प्र मोषीः स्वाहा।। इदं वरुणाय – इदन्न मम।। १०।। (ऋ.१/२४/११)
ये ते शतं वरुण ये सहस्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः।
तेभिर्नोऽअद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्काः स्वाहा।। इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यः – इदन्न मम।। ११।।
(का.श्रौत.२५/१/११)
अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च सत्यमित्त्वमयाऽसि।
अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भेषज द्भञ स्वाहा।। इदमग्नये अयसे – इदन्न मम ।। १२।। (का.श्रौत.२५/१/११)
उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय।
अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा।। इदं वरुणाया ऽऽ दित्यायाऽदितये च – इदन्न मम।। १३।।
(ऋ.१/२४/१५)
भवतन्नः समनसौ सचेतसावरेपसौ।
मा यज्ञ हि सिष्टं मा यज्ञपतिं जातवेदसौ शिवौ भवतमद्य नः स्वाहा।। इदं जातवेदोभ्याम्-इदन्न मम।। १४।। (यजु.५/३)
शारदीय नवसस्येष्टि दीपावली (श्रीमद्दयानन्द-निर्वाण)
(1) ओ३म् परं मृत्यो अनुपरेहि पन्थां यस्ते स्व इतरो देवयानात्।
चक्षुष्मते श्रृण्वते ते ब्रवीमि मा नः प्रजां रीरिषो मोत वीरान् स्वाहा।।
(2) मृत्योः पदं योपयन्तो यदैत द्राघीय आयुः प्रतरं दधानाः।
आप्यायमानाः प्रजया धनेन शुद्धाः पूता भवत यज्ञियासः स्वाहा।।
(3) इमे जीवा वि मृतैराववृत्रन्नभूद् भद्रा देवहूतिर्नो अद्य।
प्रान्चो अगाम नृतये हसाय द्राघीय आयुः प्रतरं दधानाः स्वाहा।।
(4) इमं जीवेभ्यः परिधि दधामि मैषां नु गादपरो अर्थमेतम्।
शतं जीवन्तु शरदः पुरूचीरन्तर्मृत्युं दधतां पर्वतेन स्वाहा।।
(5) यथाहान्यनुपूर्वं भवन्ति यथा ऋतव ऋतुभिर्यन्ति साधु।
यथा नः पूर्वमपरो जहात्येवा धातरायूँषि कल्पयैषाम् स्वाहा।।
-ऋ. 10। 18। 1-5।।
(6) ओ३म् आयुष्मतामायुष्कृतां प्राणेन जीव मा मृथाः।
व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा स्वाहा।।
(7) ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत।
इन्द्रो ह ब्रह्मचर्य्यण देवेभ्यः स्वराभरत् स्वाहा।।
-अथर्व. 11। 5 । 11 ।।
(8) ओ३म् शतायुधाय शतवीर्याय शतोतयेऽभिमातिषाहे।
शतं यो नः शरदो अजीजादिन्द्रो नेषदति दुरितानि विश्रा स्वाहा।।
(9) ये चत्वारः पथयो देवयाना अन्तरा द्यावापृथिवी वियन्ति। तेषां
यो आ ज्यानिमजीजिमावहास्तस्मै नो देवाः परिदत्तेह सर्वं स्वाहा।।
(10) ग्रीष्मो हेमन्त उत नो वसन्तः शरद्वर्षाः सुवितन्नो अस्तु।
तेषामृतूनागूंग शतशारदानां निवात एषामभये स्याम स्वाहा।।
(11) इद्वत्सराय परिवत्सराय संवत्सराय कृणुता बृहन्नमः।
तेषां वयं सुमतौ यज्ञियानां ज्योग् जीता अहताः स्याम स्वाहा।।
-गोभिलीय गृह्यसूत्र प्रपाठक, खण्ड ७। सूत्र 10-11।। म. ब्रा. 2 । 1। 9-12।।
(12) ओं पृथिवी द्यौः प्रदिशो दिशो यस्मै द्युभिरावृताः।
तमिहेन्द्रमुपह्नये शिवा नः सन्तु हेतयः स्वाहा।।
(13) ओं यन्मे किन्चिदुपेप्सितमस्मिन् कर्मणि वृत्रहन्।
तन्मे सर्व समृध्यतां जीवतः शरदः शतम् स्वाहा।।
(14) ओं सम्पत्तिर्भूमिर्वृष्टिज्यैंष्ठ्यं श्रैष्ठयं श्रीः प्रजामिहावतु स्वाहा।।
इदमिन्द्राय इदन्न मम।।
(15) ओं यस्याभावे वैदिकलौकिकानां भूतिर्भवति कर्मणाम्।
इन्द्रपत्नीमुपह्नये सीतागूंग सा मे त्वनपायिनी भूयात् कर्मणि स्वाहा।।
इदमिन्द्रपत्न्यै इदन्न मम।।
(16) ओम् अश्वावती गोमती सूनृतावती बिभर्ति या प्राणभृताम् अतन्द्रिता ।
खलमालिनीमुर्वरामस्मिन् कर्मण्युपह्नये ध्रुवागूंग
सा मे त्वनपायिनी भूयात् स्वाहा।। इदं सीतायै इदन्न मम।।
(17) ओ३म् सीतायै स्वाहा।
(18) ओं प्रजायै स्वाहा।
(19) ओं शमायै स्वाहा।
(20) ओं भूत्यै स्वाहा।
-पार. का. 2। क. 17। मंत्र 7, 9, 10 ।।
(21) ओ३म् व्रीहयश्च मे यवाश्च में माषाश्च मे तिलाश्च मे मुद्गाश्च
मे खल्वाश्च मे प्रियङ्गवश्च मेऽणवश्च मे श्यामाकाश्च मे
नीवाराश्च मे गोधूमाश्च मे मसूराश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् स्वाहा।।
-यजु. 18। 12।।
(22) ओ३म् वाजो नः सप्त प्रदिशश्चतस्त्रो वा परावतः।
वाजो नो विश्वैर्देवैर्धनसाताविहावतु स्वाहा।।
(23) ओ३म् वाजो नो अद्य प्रसुवाति दानं वाजो देवां २ ऋतुभिः
कल्पयाति। वाजो हि मा सर्ववीरं जजान विश्वा आशा वाजपतिर्जयेयम् स्वाहा।।
(24) ओं वाजः पुरस्तादुत मध्यतो नो वाजो देवान् हविषा वर्धयाति।
वाजो हि मा सर्ववीरं चकार सर्वा आशा वाजपतिर्भवेयम् स्वाहा।।
-यजुर्वेद 18। 32-35।।
(25) ओ३म् सीरा युन्जन्ति कवयो युगा वि तन्वते पृथक् धीरा देवेषु सुम्नयौ स्वाहा।।
(26) युनक्त सीरा वियुगा तनोत कृते योनौ वपतेह बीजम्।
विराजः श्रुष्टिः सभरा असन्नो नेदीय इत्सृण्यः पक्वमायवन् स्वाहा।।
(27) लाङ्गलं पवीरवत् सुशीमं सेामसत्सरु।
उदिद्वपतु गामविं प्रस्थावद्रथवाहनं पीवरीं च प्रफर्व्यम् स्वाहा।।
(28) इन्द्रः सीतां निगृह्नातु तां पूषाभिरक्षतु।
सा नः पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम् स्वाहा।।
(29) शुनं सुफाला वि तुदन्तु भूमिं शुनं कीनाशा अनु यन्तु वाहान्।
शुनासीरा हविषा तोशमाना सुपिप्पला औषधीः कर्तमस्मै स्वाहा।।
(30) शुनं वाहाः शुनं नरः शुनं कृषतु लाङ्गलम्।
शुनं वरत्रा बध्यन्तां शुनमष्ट्रामुदिङ्गय स्वाहा।।
(31) शुनासीरेह स्म मे जुषेथाम्।
यद्दिवि चक्रथुः पयस्तेनेमामुपसिन्चतम् स्वाहा।।
(32) सीते वन्दामहे त्वार्वाची सुभगे भव।
यथा नः सुमना असो यथा नः सुफला भवः स्वाहा।।
(33) घृतेन सीता मधुना समक्ता विश्वैर्देवैरनुमता मरुतिभ्यः।
सा नः सीते पयसाभ्याववृत्स्वोर्जस्वती घृतवत्पिन्वमाना स्वाहा।।
-अथर्व. 3। 17।1-9।।
(34) इन्द्राग्निभ्यां स्वाहा।। इदमिन्द्राग्निभ्यां इदन्न मम।
(35) विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा।।
इदं विश्वेभ्यों देवेभ्य इदन्न मम।
(36) द्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा।।
इदं द्यावापृथिवीभ्यांम् इदन्न मम।
(37) स्विष्टमग्ने अभि तत्पृणीहि विश्चांश्च देवः पृतना अभिष्यक्।
सुगन्नु पन्थां प्रदिशन्न एहि ज्योतिष्मध्ये ह्यजरं न आयुः स्वाहा।।
(38) यदस्य कर्मणोऽत्यरीरिचं यद्वा न्यूनमिहाकरम्। अग्निष्टत्स्विष्ट-
कृद्विद्यात्सर्वं स्विष्टं सुहुतं करोतु मे अग्नये स्विष्टकृते सुहुतहुते
सर्वप्रायश्चित्ताहुतीनां कामानां समर्द्धयित्रे सर्वान्नः कामान्त्समर्द्धय स्वाहा।।
इदमग्नये स्विष्टकृते इदन्न मम। -पार. 1। 2। 10।।
ओ3म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।। (यजु 36/3) इस मन्त्र से तीन बार केवल घृत से आहुतियां दे।
पूर्णाहुति-मन्त्राः
ओं सर्वं वै पूर्ण ँ् स्वाहा। इस मन्त्र से तीन बार केवल घृत से आहुतियां देकर अग्नि होत्र को पूर्ण करें।
(५) अथ भूतयज्ञः (बलिवैश्वदेवयज्ञ)
निम्नलिखित दस मन्त्रों से घृत-मिश्रित भात की यदि भात न बना हो तो क्षार और लवणान्न को छोड़कर पाकशाला में जो कुछ भोजन बना हो उसी की आहुति देवें।
ओम् अग्नये स्वाहा।। १।। ओं सोमाय स्वाहा।। २।।
ओम् अग्निषोमाभ्यां स्वाहा।। ३।। ओं विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा।। ४।। ओं धन्वन्तरये स्वाहा।। ५।। ओम् कुह्वै स्वाहा।। ६।। ओम् अनुमत्यै स्वाहा।। ७।। ओं प्रजापतये स्वाहा।। ८।। ओं सह द्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा।। ९।। ओें स्विष्टकृते स्वाहा।। १।।
तत्पश्चात् निम्नलिखित मन्त्रों से बलिदान करें। एक पत्तल अथवा थाली में यथोक्त दिशाओं में भाग रखना। यदि भाग रखने के समय कोई अतिथि आ जाए तो उसी को देना अथवा अग्नि में डालना चाहिए।
ओं सानुगायेन्द्राय नमः।। १।। (इससे पूर्व)
ओं सानुगाय यमाय नमः।। २।। (इससे दक्षिण)
ओं सानुगाय वरुणाय नमः।। ३।। (इससे पश्चिम)
ओं सानुगाय सोमाय नमः।। ४।। (इससे उत्तर)
ओं मरुद्भ्यो नमः।। ५।। (इससे द्वार)
ओं अद्भ्यो नमः।। ६।। (इससे जल)
ओं वनस्पतिभ्यो नमः।। ७।। (इससे मूसल व ऊखल)
ओं मरुद्भ्यो नमः।। ८।। (इससे ईशान)
ओं भद्रकाल्यै नमः।। ९।। (इससे नैऋत्य)
ओं ब्रह्मपतये नमः।। १०।।
ओं वस्तुपतये नमः।। ११।। (इनसे मध्य)
ओं विश्वभ्यो देवेभ्यो नमः।। १२।।
ओं दिवाचारिभ्यो भूतेभ्यो नमः।। १३।।
ओं नक्तंचारिभ्यो भूतेभ्यो नमः।। १४।। (इनसे ऊपर)
ओं सर्वात्मभूतये नमः।। १५।। (इससे पृष्ठ)
ओं पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः।। १६।। (इससे दक्षिण) -मनु. ३/८७-९१
तत्पश्चात् घृतसहित लवणान्न लेके-
शुनां च पतितानां च श्वपचां पापरोगिणाम्।
वायसानां कृमीणां च शनकैर्निवपेद् भुवि।।
(मनु. ३/९२)
अर्थ :- कुत्ता, पतित, चाण्डाल, पापरोगी, काक और कृमि- इन छः नामों से छः भाग पृथ्वी पर धरे और वे भाग जिस-जिस नाम के हों उस-उस को देवें।
(६) अतिथियज्ञः
तद्यस्यैवं विद्वान् व्रात्योऽतिथिर्गृहानागच्छेत्।। १।।
स्वयमेनमभ्युदेत्य ब्रूयाद् व्रात्य क्वावासीत्सीर्व्रा- त्योदकं व्रात्य तर्पयन्तु व्रात्य यथा ते प्रियं तथास्तु व्रात्य यथा ते वशस्तथास्तु व्रात्य यथा ते निकामस्तथाऽस्त्विति।। २।।
(अथर्व. १५/११/१,२)
जब पूर्ण विद्वान् परोपकारी सत्योपदेशक गृहस्थों के घर आवें, तब गृहस्थ लोग स्वयं समीप जाकर उक्त विद्वानों को प्रणाम आदि करके उत्तम आसन पर बैठाकर पूछें कि कल के दिन कहाँ आपने निवास किया था ? हे ब्रह्मन् जलादि पदार्थ जो आपको अपेक्षित हों ग्रहण कीजिए, और हम लोगों को सत्योपदेश से तृप्त कीजिए।
जो धार्मिक, परोपकारी, सत्योपदेशक, पक्षपातरहित, शान्त, सर्वहितकारक विद्वानों की अन्नादि से सेवा और उनसे प्रश्नोत्तर आदि करके विद्या प्राप्त करना अतिथियज्ञ कहाता है, उसको नित्यप्रति किया करें।
यज्ञ-प्रार्थना
पूजनीय प्रभो हमारे भाव उज्जवल कीजिए।
छोड देवें छल कपट को मानसिक बल दीजिए।।
वेद की बोलें ऋचाएं सत्य को धारण करें।
हर्ष में हों मग्न सारे शोक सागर से तरें।।
अश्वमेधादिक रचाएं यज्ञ पर उपकार को।
धर्म मर्यादा चलाकर लाभ दें संसार को।।
नित्य श्रद्धा भक्ति से यज्ञादि हम करते रहें।
रोग पीड़ित विश्व के संताप सब हरते रहें।।
भावना मिट जाए मन से पाप अत्याचार की।
कामनाएं पूर्ण होवें यज्ञ से नर-नारि की।।
लाभकारी हो हवन हर प्राणधारी के लिए।
वायु जल सर्वत्र हों शुभ गन्ध को धारण किए।।
स्वार्थ भाव मिटे हमारा प्रेम पथ विस्तार हो।
इदन्न मम का सार्थक प्रत्येक में व्यवहार हो।।
हाथ जोड़ झुकाएं मस्तक वन्दना हम कर रहे।
नाथ! करुणारूप करुणा आपकी सब पर रहे।।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।।
हे नाथ सब सुखी हों, कोई न हो दुखारी।
सब हों निरोग भगवन, धन-धान्य के भंडारी।
सब भद्रभाव देखें, सन्मार्ग के पथिक हों।
दुःखिया न कोई होवे, सृष्टि में प्राणधारी।
शान्ति पाठः
ओं द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष ँ् शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व ँ् शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि। (यजु.३६/१७)
ओम् शान्तिः शान्तिः शान्तिः।
शान्ति कीजिए प्रभु त्रिभुवन में
जल में थल में और गगन में, अन्तरिक्ष में अग्नि पवन में।
ओषधि वनस्पति वन उपवन में, सकल विश्व में जड़ चेतन में।। 1।।
शान्ति कीजिए प्रभु त्रिभुवन में
ब्राह्मण के उपदेश वचन में, क्षत्रिय के द्वारा हो रण में।
वैश्य जनों के होवे धन में, और सेवक के परिचरणन में।। 2।।
शान्ति कीजिए प्रभु त्रिभुवन में
शान्ति राष्ट्र निर्माण सृजन में, नगर ग्राम में और भवन में।
जीव मात्र के तन में मन में, और जगत के हो कण कण में।। 3।।
शान्ति कीजिए प्रभु त्रिभुवन में
शारदीय नवसस्येष्टि
दीपावली
श्रीमद्दयानन्द-निर्वाण
कार्तिक बदि अमावस्या
शारदीय शुभ शस्य सुहाई, अद्भुत सुन्दरता सरसाई।
मुद्ग, माष, तिल, शालि, चुलाई, जन-मन भरते मोद-बधाई।।
लिपे पुते घर है छवि छाये, दीपावलि की ज्योति जगाये।
नवान्नोष्टि सज्जन करते हैं, शुभ गन्ध घर-घर भरते हैं।।
थल-थल में रम रही रमा है, सदन-सदन सुसमृद्धि सना है।
-श्री सिद्धगोपाल कविरत्न
आनन्द सूधासार दया कर पिला गया।
भारत को दयानन्द दुबारा जिला गया।।
‘शंकर’ दिया बुझाय दिवाली को देह का।
कैवल्य के विशाल-वदन में बिला गया।।
-कविवर नाथूराम ‘शंकर’
आज शरद्ऋतु की समाप्ति में केवल पन्द्रह दिन शेष है। पन्द्रह दिन पीछे सर्वत्र हेमन्त ऋतु का राज्य होगा और शीत का शासन सब को स्वीकार करना होगा। वर्षा के बीतने और शीत लगने पर जनता को कुछ विशेष समारम्भ (तैयारियां) करने पड़ते हैं। वर्षा ऋतु में वृष्टिबाहुल्य से वायुमण्डल तथा घर बार विकृत, मलिन और दुर्गान्धित हो जाते हैं। बरसात के अन्त में उन की संशुद्धि और स्वच्छता की आवश्यकता होती है। वायुमण्डल का संशोधन हवन-यज्ञ से होता है और घर बार की स्वच्छता लिपाई-पुताई से की जाती है। अब ही भावी शीत का निवारण के लिए गरम वस्त्रों का प्रबन्ध करना होता है। इसी समय सावनी की फसल का आगमन होता हे। किसान के आनन्द की सीमा नहीं है। उस का घर अन्न-धान, माष, मृग, बाजरा, तिल और कपास से भरपूर होने को है। इस अवसर पर श्रौत और स्मार्त सूत्रों में गोभिलगृह्यसूत्र, तृतीय प्रपाठक, सप्तमखण्ड, ७-२४ सूत्र, पारस्करगृह्यसूत्र द्वितीय काण्ड, १७वीं कण्डिका, १-१८ सूत्र, आपस्तम्बीय गृह्यसूत्र ११ खण्ड, मानव गृह्यसूत्र तृतीय खण्ड तथा मनुस्मृति के-
सस्यान्ते नवसस्येष्ट्या तथर्त्वन्ते द्विजोऽध्वरैः। -मनु.४। २६।।
इस पद्य में नवसस्येष्टि या नवात्रेष्टि (नव=नवीन+सस्य=फसल वा खेती+इष्टि=यज्ञ, अर्थात् नवीन फसल के अन्न का यज्ञ) करने का विधान है। इन सब कार्यो के लिए पर्व कार्तिक बदि अमावस्या तिथि प्राचीन काल से नियत चली आती है, उस को दीपावली भी कहते हैं। वैसे तो प्रत्येक अमावस्या को दर्शेष्टि यज्ञ कर्मकाण्ड ग्रन्थों में विहित है, किन्तु कार्तिक अमावस्या को दर्शेष्टि और नवसस्येष्टि दोनों दृष्टियों के विधान है, क्योंकि उन से इस अवसर पर वर्षा ऋतु में विकृत वातावर्त की विशेष संशुद्धि अभीष्ट है। वर्षा के अवसान पर दलदलों के सड़ने, मच्छरों के आधिक्य तथा आर्द्रता (नमी) के कारण ऋतुज्वर (मौसमी मलेरिया बुखार) आदि रोग बहुत फैलते हैं। इसलिए इस ऋतु के शारदीय पूर्णिमा, विजया दशमी और दीपावली इन तीन पर्वों के होम, यज्ञों से उन रोगों का अनागत प्रतीकार भी अभिप्रेत है।
जैसे शारदीय अश्विन पूर्णिमा को चांदनी वर्ष भर की बारह पौर्णमासियों मे सर्वोत्कृष्ट होती है, उसी प्रकार कार्तिकीय अमावस्या का अन्धकार वर्ष की बारह अमावस्याओं में सघनतम होता है। इस अमावस्या के अन्धकार पर मृच्छकटिककार शूद्रक कवि की निम्नलिखित उक्ति पूरी उतरती है-
लिम्पतीव तमोऽगंनि, वर्षतीवाजंनं नभः।
असत्पुरुषसेवेव दृष्टिर्विफलतां गता।।
अर्थ-अन्धियारी अंगो पर पुत सी गई है, आकाश अन्जन सा बरसा रहा है, दृष्टिशक्ति इस प्रकार निष्फल (बेकार) हो गई है जिस प्रकार असज्जन की सेवा व्यर्थ जाती है।
ऐसी घनी अन्धियारी रात्रि में, नवीन सावनी सस्य के आगमन से प्रमुदित कृषि प्रधान भारतवर्ष में मानो वर्ष की प्रथम उक्त सस्य (फसल) के स्वागत के लिए दीपमाला का उत्सव मनाया जाता है। यह दीपमाला भी गृहों की वर्षाकालीन आर्द्रता के संशोषण से उन के संशोधन में सहायक होती है।
आज राजप्रसाद से लेकर रंककुटीर तक की शोभा अपूर्व है। प्रत्येक नगर और ग्राम का प्रत्येक आर्य घर परिमार्जन और सुधा (कली और चूना) वा पिंडोल मृत्तिका के लेपन से श्वेत रूप धारण किए हुए है। प्रत्येक अट्टालिका, आंगन और कक्ष्या (कोठरी) में दीपपंक्ति जगमगा रही है। धनियों के बहुमूल्य काचमय प्रकाशोपकरणों (झाड़ फानूस आदि शीशे आलाय) से लेकर दीनों के दीवलों (मृण्मय तेल के छोटे-छोटे दीपकों) तक की कृत्रिम ज्योति प्रकृति के प्रगाढान्धकार से स्पर्द्धा (होड़ा होड़ो) कर रही हैं। पुरूषोत्तमप्रिया के कृपापात्रों के भवन नाना व्यन्जनों और विविध मिष्टान्नों की सरल सगुन्ध से परिपूर्ण हैं तो लक्ष्मी के कृपाकटाक्ष से वन्चित दीनालय धान्य की खीलों से ही सन्तुष्ट हैं। संक्षेपतः आज प्रत्येक आर्य परिवार ने अपने गृह को स्ववित्तानुसार मनोहर बनाने का भरपूर प्रयत्न किया है।
आज वर्ष के प्रथम शस्य-श्रावणी शस्य के शुभागमन के अवसर पर गृहों को शोभा और समृद्धि के आवास योग्य बनाना स्वाभाविक और समुचित ही था। यही लक्ष्मी की पूजा थी, क्योंकि पूजा का वास्तविक भाव योग्य को योग्य स्थान का प्रदान ही है। आज का नवशस्य के शुभागमनावसर पर शोभा और समृद्धि को उसका योग्य स्थान प्रदान-शोभा की समुचित स्थान और अवसर पर स्थापना ही उस की वास्तविक पूजा है। किन्तु तत्व के परित्याग और रूढि़ ही आरूढ़ता के युग पौराणिक काल मे लक्ष्मी की पूजा का यह तत्वांश अन्तर्दृष्टि से तिरोहित हो गया और उस के स्थान में उलूकवाहना की षोडशोपचारपूजा प्रचलित हो गई। उस के वाहन (मूढ़ता के साक्षात् स्वरूप उल्ल महाराज) ने उस के उपासकों की बुद्धि पर ऐसा अधिकार जमाया कि वे अपनी उपास्या देवी के पदार्पण की प्रतीक्षा में दिवाली की सारी रात जागरण (रतजगा) करते हैं। प्रायः बुद्धि-विशारद भक्त शिरोमणि तो निद्रा के अपसारण के लिए रात्रि भर द्यूतक्रीड़ा में रत रहते है। मनःकल्पित लक्ष्मी की प्रतीक्षा करते हुए भी साक्षात् लक्ष्मी (धन सम्पति) को वे द्यूत द्वारा दुत्कारते हैं, तिरस्कार पूर्वक उस को घर से धक्का देते हैं- ‘अक्षैर्मा दीव्यः’ इस अथर्ववेद की कल्याणी वाणी का प्रत्यक्ष प्रतिवाद कर अनादर करते हैं।
आजकल के कलि काल में वैदिककालीन पर्व शारदीय नवसस्पेष्टि तथा दर्शेष्टि का तो सर्वथा लोप हो गया है और केवल उस के बाह्य आडम्बर गृहपरिशोधन परिमार्जन, दीपपंक्ति (दीपावली-दीपमाला) प्रकाशन, मिष्टान्न तथा लाजा वितरण और घोर अविद्यान्धकार काल में प्रचारित द्यूत, दुराचार आदि उसके आनुषंगिक उपचार शेष रह गये हैं। नवान्नेष्टि के चिन्ह होम तक की परिपाटी प्रायः उठ गई है। शायद ही किन्हीं बिरले सौभाग्यशाली गृहों में आज की रात्रि में होम होता होगा। हां, कहीं-कहीं गुग्गुल की धूप जलाने की रीति अवश्य प्रचलित है, जो प्रशंसनीय है।
दीपावली के विषय में भी विजयादशमी के समान यह एक कल्पित कथा चल पड़ी है, कि इस दिन मर्यादापुरुतोम श्री रामचन्द्र बनवास से लौट कर अपनी राजधानी अयोध्या में वापस आए थे और उनकी प्रजा ने उस हर्षोत्सव के उपलक्ष्य में आज दीपावली की थीं। उस का अनुकरण वर्तमान दीपावली चली आती है। विजया दशमी के विवरण में इस प्रसंग के उल्लिखित ऊहापोह से भले प्रकार प्रकट होता है कि यह विचार भी सर्वथा कपोल-कल्पित है, क्योंकि श्री रामचन्द्रजी रावण-वध और लंका विजयानन्तर के तत्काल बाद ही अयोध्या लौट आए थे और जब उक्त विवेचनानुसार रावणवध फाल्गुन वा वैशाख में हुआ था तो श्री रामचन्द्रजी का अयोध्या प्रत्यागमन कार्तिक मास में किस प्रकार सम्भव है? प्रतीत होता है कि दीपावली की दीपमाला के प्रकाश से श्री रामचन्द्र के अयोध्या-प्रत्यागमन के हर्षोत्सव की कल्पना किसी कल्पनाकुन्ज मस्तिष्क में हुई हो और उसी से यह दन्तकथा सर्वसाधारण में प्रचलित हो गई हो। वैदिक धर्मावलम्बी आर्य सामाजिक महाशयों का परमकर्तव्य है कि जहां वे इस प्रकार की ऐतिहासिक तत्त्व की तिरोधायक कपोलकल्पनाओं का निरसन करे, वहां शारदीय नवसस्येष्टि के वैदिक पर्व का प्रत्यावर्तन करके, उस के गृह-संशोधन और दीपावली प्रकाशन आदि अनुषंगों के सहित आगे पद्धति प्रदर्शित प्रकारानुसार उस के स्वरूप का आर्य जनता में प्रचार करें।
जैसा कि पर्वप्रादुर्भाव परिचय के प्रकरण में विवेचना की गई है, आर्यों का एक-एक पर्व किसी विशेष कृत्य के लिए उद्दिष्ट है और इस प्रकार उस का सम्बन्ध किसी न किसी एक विशेष वर्ग के साथ स्थापित है। जिस प्रकार वैदिक धर्म की चातुर्वणर्य और चतुराश्रमव्यवस्था चराचर जगत् में व्याप्त है, उस की व्याप्ति केवल मनुष्यमात्र में ही नहीं है, प्रत्युत तिर्यग्योनियों और उभ्द्धज्जो में भी गुण, कर्मानुसार वर्ण और आश्रम विद्यमान है। पशुओं में गौ और वनस्पतियों में अश्वत्थ (पीपल) ब्राह्मण वर्ण के अन्तर्गत है। इस विषय का यहां अधिकतर विस्तार, प्रकारणान्तर- प्रवेश का दोषावह होगा, इसलिए संकेतमात्र इतना ही पर्याप्त है। इसी प्रकार आर्यों के पर्वो में भी चातुर्वणर्य व्यवस्था पाई जाती है। श्रावणी उपाकर्म, स्वाध्याय से सम्बद्ध होने के कारण ब्राह्मण पर्व है। लोक में भी श्रावणी (सलूनो) ब्राह्मणों का पर्व कहलाती है। विजया दशमी क्षत्रियों की दिग्विजय यात्रा और क्षात्रधर्म के विकास से सम्बन्ध रखने के कारण क्षत्रिय पर्व है और जन साधारण भी उस को क्षत्रियों का पर्व कहते हैं। शारदीय नवस्येष्टि वा दीपावली के पर्व का विशेष सम्बन्ध वैश्य कर्म (कृषि, वाणिज्य और उनकी अधिष्ठात्री समृद्धि की देवी लक्ष्मी) से है, इसलिए दीपावली वैश्य पर्व है और लोग भी उस को वैश्यों का पर्व मानते हैं। शूद्र-पर्व होली का वर्णन उस के प्रकरण में यथास्थान होगा। दीपावली के अवसर पर, जैसा कि ऊपर दिखलाया जा चुका है, नवीन सावनी-सस्य के अन्न से होम होता है। नवीन अन्न की लाजा (खीलें) और मिष्टान्न बांटे जाते हैं। इसी अवसर पर व्यवसायी जन अपने बहीखातों का नवीन वर्ष आरम्भ करते है। आढ़त की दुकानों पर नये बहीखाते दीपावली से ही बदले जाते है। ये सब बातें इस पर्व का वैश्यत्व पूर्णरूपेण स्थापित करती हैं। परन्तु जिस प्रकार चारों वर्ण और उन के गुण, कर्म मुख्यतः पृथक-पृथक होते हुए भी, गौण रूप से एक-दूसरे के गुण कर्मों का समावेश चारों वर्णों में रहता है-ब्राह्मण वर्ण की सम्पति स्वाध्याय, क्षत्रिय वर्ण की शूरता, वैश्य की समृद्धि और शूद्र का सेवा धर्म न्यूनाधिक चारों वर्णों के पुरूषों से सम्बन्ध रखते हुए भी सर्वसाधारण के सम्मिलित (सांझे के) पर्व भी हैं।
किन्तु इस दीपमाला की महारात्रि का महत्व एक महाघटना ने और भी बढ़ा दिया। इसी के सांयकाल विक्रमी सं. 1940 तदनुसार 30 अक्टूबर सन 1883 ई. मंगलवार को वीर विक्रम की 20 वीं शताब्दी के अद्वितीय वेदोद्धारक और वर्तमान आर्य समाज के संस्थापक तथा आचार्य महर्षि दयानन्द की उच्च आत्मा ने इस नश्वर शरीर का परित्याग करके जगज्जननी के क्रोड में आश्रयण का आनन्द प्राप्त किया था। महापुरूषों का देहावसान साधारण मनुष्यों की मृत्यु के समान शोकजनक और रुलाने वाला नहीं होता। उनका प्रादुर्भाव और अन्तर्धान दोनों ही लोककल्याण और आनन्द प्रदान के लिए होते हैं। महापुरूषों का इस लोक में आगमन तो लोकाभ्युदय के लिए प्रत्यक्ष ही है। किन्तु उन का इहलोक लीला-संवरण भी आनन्द का हेतु होता है। वे परोपकार में अपने प्राणों को अर्पण करते हैं। संसार के सुख के लिए अपने शरीर की बलि देते हैं, इसलिए जनता उन के बलिदान पर उन की कीर्ति का कीर्तन और गुणवान करके एक प्रकार का आनन्दानुभव करती है। उन का बलिदान स्वयं जनता के लिए परोपकारार्थ देहोत्सर्ग का उत्तम आदर्श स्थापित करके, जनता में उदाहरण तथा सत्सम्प्रदाय का प्रवर्तन और सुख का संयोजन करता है। इस पांचभौतिक शरीर को त्यागते हुए उन की आत्मा स्वयं भी सन्तोष और आनन्द लाभ करती है। सन्तोष इसलिए कि वे अपने इस लोक में आने का उद्देश्य पूर्ण करते हुए अपने इस लोक के जीवन को परोपकार में विसर्जन कर रहे हैं और आनन्द इसलिए कि उनका जीवात्मा प्राकृतिक बन्धनों से मोक्ष पाकर परमपिता के संसर्ग का संयोग प्राप्त कर रहा है और साथ ही अपने प्रभु की इच्छा को पूर्ण कर रहा है। ‘प्रभो तेरी इच्छा पूर्ण हो’ महर्षि दयानन्द के अन्तिम शब्द यही थे। किसी उर्दू के कवि ने कहा है-
‘राजी हैं हम उसी में जिस में तेरी रजा है।’
इसलिए वैदिक धर्मावलम्बी आर्यों में मोहम्मदियों के समान महापुरूषों के अन्तर्धान की स्मारक तिथियों पर शोकातुर होने वा रोने-पीटने की रीति नहीं है, प्रत्युत इन अवसरों पर उन की गुणावली गाकर आत्मा में आनन्द का संचार किया जाता है। सिक्खो, कबीरपन्थियों, दादूपन्थियों आदि सनातनधर्मी आर्य सन्तान (हिन्दुओं) के अन्य सम्प्रदायों भी अपने धर्मसंस्थापक के चोला छोड़ने के दिन भण्डारा चलाने की रीति है जिस में उनके शब्दकीर्तन करने और कड़ाहप्रसाद बांटने का आनन्द मनाया जाता है और शोक लेशमात्र भी नहीं होता। फलतः आर्य जाति में शोकप्रदर्शनार्थ कोई भी पर्व नहीं है, न ही शोकप्रदर्शन में किसी पर्वता (उत्सवता) का होना सम्भव है। अतएव मृत्यूत्सव, शोकोत्सव वा शोकपर्व पद ही असंगत और असम्बद्ध है। आर्यों के यहां किसी भी महात्मा के भौतिक देह-त्याग के दिन को पुण्य-तिथि (पवित्र तिथि) निर्वाण दिन वा अन्तर्धान-दिवस कहते हैं।
अतः आज महर्षि दयानन्द के गुणानुवाद का अवसर उपस्थित है। महर्षि दयानन्द के आर्य जनता पर इतने असंख्य और अनन्त उपकार है कि मेरे सदृश क्षुद्र लेखकों की निर्बल लेखनी उनके लिखने में असमर्थ है। जिस प्रकार समुद्र की विस्तृत बालुका में असंख्य और अनन्त कण होते हैं और जिस प्रकार दिनकर की किरणावली की गणना नहीं हो सकती, उसी प्रकार महापुरूषों की भी गुणावली गणनातीत और महिमा अप्रेमय होती है। विचारक उस पर विचार और मनन करते रहते हैं। कवि उस का कीर्तन करते रहते है। गायक उस के गान से स्वरसना को रसवती और पवित्र करते रहते हैं और संसारी जन उनसे शिक्षा ग्रहण करके अपना जन्म सुधारते रहते हैं। सच पूछिये तो इस संसृति-सागर में महात्माओं की चरितावली ही तरणी है और उनके आदर्श कर्म ही ज्योतिस्तम्भ हैं, जो भूले-भटके बटोहियों को मार्ग दिखलाते और पार लगाते हैं। मर्यादा पुरूषोत्तम श्री रामचन्द्र की जीवनी न जाने कितने कवीश्वरों के वाग्विलास का विषय बनी है। संस्कृत और हिन्दी काव्यों का प्रचूर भाग श्री रामचन्द्र के गुणानुवाद से ही व्याप्त है। रामकथा ने न जाने कितने पथिकों को सत्पथ दिखलाया है।
योगीराज कृष्ण को भगवद्गीता का कर्मयोग सहस्त्रों आलसियों और उदासियों को कर्ममार्ग में प्रवृत करके कर्मण्य और कर्मवीर बना रहा है। भगवान तथागत का जीवन करोड़ों नर-नारियों और राव-रंकों के लिए शान्तिप्रद बना है। कहां तक गिनाएं, संसार की सिरमौर भारत-वसुन्धरा तो ऐसे अनेक महात्माओं के गुणवान से गुन्जायमान है।
ऊपर कहा जा चुका है कि आज हमारे लिए भी एक महात्मा के गुणगान से अपने कर्णकुहरों को पवित्र करने और उन से शिक्षा ग्रहण करने का सुयोग पुनरपि प्राप्त है। आओ, आज आचार्य दयानन्द के पवित्र चरित्र की कुछ विशेषताओं पर विचार करके अपने समय का सदुपयोग करें।
आदित्य ब्रह्मचारी दयानन्द के जीवन पर विचार करते हुए एक विचारक की दृष्टि से कर्मयोगी के नानारूप, जिन में उस कर्मवीर ने अपनी सारी आयु व्यतीत कर दी, तिरोहित (ओझल) नहीं रह सकते। यहां लघु लेखक का अभिप्राय उन की आद्यावस्था के उन मतपरिवर्तनों से नहीं है, जो सत्य की गवेषणा में उस जिज्ञासु व तत्वान्वेषी के विचारों में समय-समय पर होते रहे, प्रत्युत उन की निश्चित कार्य पद्धति को ग्रहण कर चुकने और आर्यसमाज की संस्था को स्थापित करके क्रमबद्ध कर्मक्षेत्र में अवतीर्ण होने पर जिन विविध रूपों में उस उपकारी ने जनता का उपकार किया है, उन पर एक दृष्टि डालना ही इन पंक्तियों में अभीष्ट है।
(1) जगदुद्धारक संन्यासी दयानन्द
कर्मयोगी दयानन्द का सर्वश्रेष्ठ रूप जो सर्वप्रथम हमारे सम्मुख आता है वह जगदुद्धारक, सार्वभौम धर्मोपदेशक, सद्विद्याप्रचारक, संसारोपकारक संन्यासी का रूप है। संन्यासी पर किसी जाति या देश विशेष का एकान्त स्वत्व वा ममत्व नही होता, प्रत्युत संन्यासी संसारमात्र की सम्पत्ति होता है। वह सारे संसार का होता है और सारा संसार उस का होता है। संसार में जो कुछ भी है वह सब ब्रह्मज्ञानी संन्यासी का ही है। मनु भगवान कहते हैं-
सर्वं स्वं ब्राह्मणस्येदं यत्किन्चिज्जगतीगतम्। -मनु. १ । १०० ।।
इसलिए संन्यासियों को सारा संसार-आबाल वृद्ध-वनिता स्वामी (प्रभु, मालिक) कह कर सम्बोधन करता है। अतः इस रूप में स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसे भारत के मान्य और धर्मगुरू थे, वैसे ही वे अमेरिका तथा योरुप आदि समस्त संसार के धर्मोपदेशक थे। इस रूप में भारत से उन का कोई विशेष सम्बन्ध न था। जिस प्रकार वे भारत में प्रचलित मतमतान्तरों की समालोचना करते थे, उसी प्रकार अन्य देशों में प्रादुर्भूत मतों की भी छानबीन करते थे। सर्व संसार के लिए परम पिता से उपदिष्ट वैदिक धर्म ही उन को शिरोधार्य था और सब देशों और कालों के लिए उसी एकरस वैदिक सिद्धान्त का ही वे जगदीश के अमृतपुत्रों के लिए उपदेश देते थे। ‘संसार का उपकार करना’ ही उन के संस्थापित समाज का ‘मुख्य उद्देश्य है’ और प्रत्येक देश और मत में उत्पन्न हुआ मनुष्य इस समाज का सदस्य बन सकता है। अतः इस रूप में स्वामी दयानन्द विश्व कुटुम्बी थे।
(2) भारत-हितैषी दयानन्द
सर्व संसार-मित्र वा सार्वभौम संन्यासी दयानन्द क्या भारत देश हितैषी वा भारतभक्त भी हो सकता है? क्या सवैहितैषी एकान्तहितैषी भी हो सकता है? यह आपाततः विरोध-विधायक प्रश्न हमारे सामने आता है, किन्तु गम्भीर विचार किया जाये तो प्रश्न मे ही समाधान उपस्थित है। जब प्रत्यंगो की उन्नति के बिना सर्वांग (अंगसमष्टि) की उन्नति असम्भव है, जब प्रत्येक अंग के चतुरस्त्र विकास से ही सर्वांग का पूर्ण विकास सम्भव है, तब सर्व संसार की उन्नति के लिए प्रत्येक देश की पृथक-पृथक उन्नति क्यों आवश्यक नहीं। पुनः क्या सारे संसार के सब बालकों पर प्यार करने वाला अपने बालकों में स्नेहवान् नहीं हो सकता? क्या स्वबालकों पर प्रेमदृष्टि रखने के लिए उस को अन्यों के बालकों में अप्रिय दृष्टि रखना आवश्यक है? क्या किसी पुरूषविशेष के अपने बालक उस के विशेष प्रेमपात्र बने बिना पालित और पोषित हो सकते हैं? क्या एक धार्मिक पुरुष विश्व के बालकों पर स्नेहमयी दृष्टि रखते हुए भी अपने बालकों के पालन-पोषणार्थ उन पर सविशेष प्रेमदृष्टि नहीं रख सकता? यदि ये सब बातें सम्भव हैं तो स्वामी दयानन्द का सार्वभौम धर्मोपदेष्टा संन्यासी रहते हुए भी भारतभक्त और भारत-देशहितैषी रहना सम्भव है। जिस मनुष्य में स्वदेशहित और स्वजातीयता के भाव नहीं है, वह आत्मसम्मान शून्य और स्वाभिमानरहित पुरुष के तुल्य निर्जीव है। इसके अतिरिक्त क्या कोई कैसा ही विश्वकुटुम्बी संन्यासी भी स्वमाता के असीम उपकारों को भूलकर कृतघ्न बन सकता है? फिर क्या वह ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ जन्मभूमि के मृत्कणों से स्वशरीधारण और उस के अन्न पानादि से स्वदेहपोषण रूप त्रिकाल विनिमयायोग्य उपकार को विस्मृत करके अप्रायश्चित्तीय कृतघ्नता का पापी हो सकता है? क्या हम महर्षि दयानन्द सदृश कृतविद्य और बहुश्रुत मनुष्य में इन न्यूनताओं की आशा कर सकते है? कदापि नहीं। यही कारण है कि हम महर्षि दयानन्द को उनके लेखों में यत्रतत्र स्वदेशभक्ति और आर्यवर्त के प्राचीन गौरव के गहरे रंग में सिर से पैर तक रंगा हुआ पाते हैं। उन के लेखों से हम विषय के इतने उद्धरण उपस्थित किए जा सकते है कि जिन को यहां लिखकर इस लेख को वृथा बढ़ाना होगा। उन के लेखों के उन-उन अंशों के भावों को लेकर यह निःशंक कहा जा सकता है। कि महर्षि दयानन्द आजकल के किसी राष्ट्रवादी और सच्चे देशभक्त से कम न थे।
कई महाशय शायद विदेशी वस्त्रवर्जन और स्वदेशी वस्त्र स्वीकार के आन्दोलन का आरम्भ बंगभंग से समझते हैं और उस को गांधीयुग की विशेषता मानते हैं, किन्तु यदि वे ऐतिहासिक अन्वेषण करेंगे तो उन को ज्ञात होगा कि जिस समय किसी भी राजनैतिक आन्दोलन ने विदेशीय वस्त्र के विरूद्ध ननु नच तक न की थी, चूं तक न की थी- उस समय आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने अपने अनुपम ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में विदेशी-वर्जन का शब्द उठाया था और उनके उपदेश से उनके कई अनुयायी स्वनामधन्य पं. गुरूदत्त, वृद्ध ला. साईंदास और महात्मा मुन्सीराम (स्वामी श्रद्धानन्द जी) आदि केवल स्वदेशी वस्त्र ही पहनते थे। जिस प्रकार भूभ्रमण और गुरुत्वाकर्षण आदि के सिद्धान्तों के आविष्कार का अभिमान आर्यभट्ट आदि भारतीय ज्योतिषियों को ही है, परन्तु संसार में उस के प्रचार का सेहरा पाश्चात्य ज्योतिषियों के सिर पर है। उसी प्रकार विक्रम की बीसवीं शताब्दी में स्वदेशी वस्त्र परिधान के प्रथम उपदेश का श्रेय स्वामी दयानन्द को ही प्राप्त है। हां इस समय उस के प्रबल प्रचार के गौरवग्राही महात्मा गांधी अवश्य हैं।
वृद्ध भारत के पुनः प्राचीन गौरव स्थापन में जो भगीरथ प्रयत्न महर्षि दयानन्द ने किया है, उस को इतिहास स्यात् कभी न भूल सकेगा।
(3) शिक्षा प्रचारक दयानन्द
सच्छिक्षा के जिस आदर्श पर आज सभ्य संसार इतने परिवर्तनों के पश्चात पहुँचा है, उस के मूलतत्वों को महर्षि दयानन्द की दीर्घदृष्टि ने अर्धशताब्दी पूर्व ही देख लिया था। आजकल की शिक्षासरणि का प्रथम मूलतत्व गुरूशिष्यों का सतत-सम्बन्ध और सार्वकालिक सहवास ही माना जाता है और सम्प्रति साश्रम विश्वविद्यालयों की स्थापना का नाद चारों ओर से सुनाई दे रहा है। किन्तु महर्षि स्वशिक्षा-विधि में गुरुकुलों की स्थापना पर जिन में शिष्यों को स्वगुरुओं के साथ सदैव रहना अनिवार्य है, बहुत समय पूर्व विशेष बल दे चुके थे और उस को ही शिक्षा का एकमात्र साधन बतला चुके थे। महर्षि की शिक्षाविधि का दूसरा मूलतत्व और वस्तुतः शिक्षा का आधार-स्तम्भ जिस पर अभी तक सभ्य संसार में यथेष्ट बल नहीं दिया गया है, किन्तु उस की उपादेयता यत्रतत्र स्वीकार की जा रही है और समय आयेगा कि उसका महत्व पूर्ण रूप से माना जायेगा, ब्रह्मचर्य है। यहां ब्रह्मचर्य के महत्व को दिखलाने के लिए स्थान नहीं है, किन्तु यह निर्विवाद कहा जा सकता है कि शारीरिक, मानसिक, आत्मिक आदि प्रत्येक प्रकार का चतुरस्त्र-विकासक सर्वोपरि साधन ब्रह्मचर्य ही हो सकता है। शिक्षा का तृतीय मूलतत्व, शिक्षा का सर्वसाधारण के बालक-बालिकाओं में अनिवार्य वितरण और निःशुल्क प्रसार माना जाता है। महर्षि की गुरुकुल-पाठ्यप्रणाली के अन्तर्गत ये दोनों बातें स्वयमेव ही हो जाती हैं। यह दूसरी बात है कि महर्षि का आर्यसमाज स्वल्पसामर्थ्य के कारण इस विषय में यथेष्ट और पूर्ण प्रयत्न नहीं कर सका। परन्तु यह सब मुक्तकण्ठ से स्वीकार करते हैं कि महर्षि द्वारा स्थापित आर्यसमाज ने भारतीय जनसाधारण में स्वशक्ति भर, नितान्त निःशुल्क नहीं तो अत्यन्त अल्पमूल्य पर शिक्षाप्रसार का भारी प्रयत्न किया है। आर्यसमाज के मुख्य केन्द्र पंजाब और संयुक्त प्रान्त में पचासों शिक्षणालय-बालकों के लिए गुरुकुल, कालेज, स्कूल और पाठशालाएं तथा कन्याओं के लिए कन्याविद्यालय और पाठशालाएं-आर्यसमाज की ओर से संस्थापित और प्रचलित है। शिक्षा के पवित्र मन्दिर से बहिष्कृत तथाकथित अबला और निम्न या दलित जातियों में शिक्षा-प्रसार में आर्यसमाज ने विशेषतः नामोल्लेख्य प्रयत्न किया है। यह सब महर्षि की शिक्षाप्रसारिणी विभूति का ही चमत्कार है।
(4) समाजसुधारक दयानन्द
महर्षि दयानन्द के प्रादुर्भाव से पूर्व भारत अगिणत कुरीतियों और कुप्रथाओं का आखेटस्थल बना हुआ था। जिन कुप्रथाओं को अब परमसनातनी भी हेय और त्याज्य समझते है, उस समय उन के भी विरुद्ध शब्द उठाने का बहुत ही कम उदार पुरुषों को साहस होता था। उन के उन्मूलन में सप्रयत्न और स्वयम् आदर्श बनकर दिखलाने की तो बात ही दूसरी है परन्तु आदित्य ब्रह्मचारी के प्रखर प्रताप ने आज हम को उस दिन का दर्शन करा दिया है, जब कि आर्य जाति की जड़ को खोखला करने वाली इन कुप्रथाओं को किसी को किसी कन्दरा में भी शरण नहीं मिलेगी। पूर्व जो सनातनी महामहोपदेशक और महामहोपाध्याय बालविवाह और ‘स्त्रीशूद्रौ नाधीयाताम्’ पर स्वपाण्डित्य का सारा बल व्यय करते देखे जाते थे, वे ही अब ‘ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम्।’ का उच्चैः उच्चारण और उस की पुष्टि करते देखे जाते है और अस्पृश्य दलितोद्धार की सभाओं के सभापति के आसन को अलंकृत करके सम्भाषण करते हुए सूने जाते है। अब सनातनियों के गण्य और मान्य पुरुष बालविधवाओं के दुःखभंजन के पवित्र व्रत में दीक्षित दृष्टिगोचर होते हैं, और सनातन धर्म की कई तथाकथित ‘नाको’ तक ने स्वबालविधवा पुत्रियों का आजन्म मर्मान्तवेदना विमोचन करके अक्षय पूण्य का संचय किया है। आर्य जाति की 6 करोड़ अभागी अस्पृश्य जनता के उद्धार पर तो कुछ काली भेड़ों को छोड़कर समस्त आर्य जाति एकमत दीख रही है। बालविवाह का दिवाभीत भी अपना मुख छिपाए फिरता है और अब आशा होती है कि सुधारकों के अविराम उद्योग औन ईश-अनुग्रह से उस की समय-कुसमय की हूक भी सुनाई न देगी। समाज सूधारक में महर्षि का सब से बड़ा कार्य चिरकाल से बद्धमूल जात्यभिमान और जन्म से जाति-पांति के विचार को मिटाकर गुण, कर्म और स्वभावानुसार वैदिक वर्णाश्रम की मर्यादा का परिचालन था। महर्षि के प्रभाव से जिन समुदायों और जिन सम्प्रदायों के व्यक्ति परमपिता की कल्याणी वाणी के श्रवण मात्र तक के अधिकार से वंचित थे, उन में भी आजकल कई कृतविद्य महाशय पण्डित और शास्त्री पदवी से विभूषित हैं, तथा सहस्त्रों वर्षों से लुप्त ब्रहाचर्याश्रमों के दुर्लभ दर्शन भी होने लगे है, जिन में सैकड़ों वर्णी विद्याध्ययन कर रहे हैं। महर्षि दयानन्द की दया से, जिन जनों को चैके की लकीर से बाहर भोजन दुर्लभ था, उन को अब प्रत्येक शुद्ध स्थान में दाल, भात आदि सुपच रसोई सुलभ हो गई है। किन्तु समाज-सुधार की यह तरंग वा प्रभा विशेषतः महर्षि दयानन्द के कर्मक्षेत्र पंजाब और संयुक्त प्रान्त में ही दिखलाई देती है। जिन प्रान्तों में महर्षि विशेष कार्य नहीं कर सके, वे बंगाल और मद्रास प्रान्त आज मानसिक शक्तियों में विशिष्ट होने पर भी, अभी तक बाल विवाह और जात्यभिमान आदि कुप्रथाओं के लीला-निकेतन बने हुए हैं। इतने ही से समाजसुधारक दयानन्द के महान् कार्य और प्रयत्न का अनुमान किया जा सकता है।
(5) देवगिरोद्धारक दयानन्द
भारत यूं तो सदैव से देवगिरा (संस्कृत) का घर रहा है और इस में प्रत्येक समय इस वाणी के धुरन्धर और प्रगल्भ पण्डित उपजते रहे हैं, पर कई शताब्दियों से इस पर एक समुदायविशेष के मनुष्यों का ही अधिकार रह गया था। मुसलमानों के राजत्वकाल से द्विजातियों में क्षत्रियों और वैश्यों ने इस का पढ़ना बिल्कुल त्याग दिया था। जिन क्षत्रियों में राजा जनक से ब्रह्मवादी और भीष्मपितामाह से धर्मोपदेष्टाओं का प्रादुर्भाव हुआ था और जिन वैश्यों में तुलाधार से आत्मतत्वज्ञानी जन्मे थे, उन के वंशधरों में देववाणी के वाक्यमात्र को भी समझने की शक्ति नहीं रही थी और यही कारण था कि ब्राह्मणब्रुव उन की नकेल पकड़ कर उन को जिधर चाहते थे ले जाते थे। महर्षि दयानन्द की दीर्घदृष्टि ने इस न्यूनता को अनुभव करके सर्वसाधारण में संस्कृत भाषा फैलाने का उपक्रम किया। जहां उन्होंने देववाणी के सरल आर्ष ग्रन्थों का प्रचार किया, वहां सर्वसाधारण में संस्कृत व्याकरण के शीघ्रबोधार्थ वेदांगप्रकाश नामक पुस्तकमालिका लोकभाषाथसहित बनवा कर प्रकाशित कराई। वे ब्राह्मणेतरों को संस्कृत सीखने का उत्साह बराबर दिलाते रहे। उन के मथुरा में रहते हुए एक महाशय नयनसुख जडि़या तक ने उन से पाणिनीय अष्टाध्यायी के सूत्र कण्ठाग्र किये थे। भारत के दुर्भाग्य से महर्षि के पांचभौतिकशरीर का असयम ही अवसान हो गया, पर उन की प्रज्वलित की हुई दीपशिखा अभी तक अपना प्रकाश बराबर फैला रही है और उससे आलोकित होकर आर्यसमाज ने देवगिरा के प्रसारार्थ बीसियों विद्यालय प्रचलित कर रक्खे है। जिन्होंने सर्वसाधारतण में संस्कृत विद्यालयों से बड़े-बड़े धुरन्धर और दिग्गज पण्डित तो बन कर कतिपय ही निकले हैं, पर संख्या को लेकर देखा जाए तो उन्होंने जन्म के ब्राह्मणो के अतिरिक्त ब्राह्मणेतर नामधारियों में संस्कृत का पर्याप्त प्रचार किया है। आर्यसमाज के संस्कृत-प्रचार का उज्ज्वल प्रमाण देखना हो तो आप को बहुत से ऐसे संस्कृतज्ञ आर्य दृष्टिगोचर होंगे, जिन के कुलों में नागरी लिपि काला अक्षर भैंस बराबर चला जाता था। इस विषय मे यहां किसी जाति-विशेष का नामोल्लेख स्यात् अनुचित होने पर भी प्रमाण स्वरूप से यह निर्देश स्यात् अनुचित न होगा कि महर्षि के आर्यसमाज के उद्योग से इस समय आर्य गृहस्थों में (मूंड मुंडाए उदासियों आदि में तो स्यात् पूर्व भी ब्राह्मणेतर संस्कृतज्ञ रहे हो) मेघ, जाट, वैश्य, कायस्थ, खत्री तगा आदि जातियों में शास्त्री और अलंकार आदि अनेक पदवीधर पण्डित विद्यमान हैं और इन जातियों के सैकड़ों बालक-बालिकाएं संस्कृताध्ययन कर रहे है। जो संस्कृत वाणी पूर्व पौरोहित्य-व्यवसायियों के लिए ही उपयोगी समझी जाती थी और जिस के कष्टसाध्य अनुशीलन का फल भागवत का सप्ताह बांचना वा वेतन लेकर दूसरों के लिए जपानुष्ठान करना ही समझा जाता था, वह अब इतर व्यवसायियों के लिए भी उपयुक्त और प्रयोजनीय हो गई है। वेग से बहते हुए प्रवाह को इस प्रकार पलट देना महर्षि दयानन्द का ही अलौकिक चमत्कार हो सकता है। इसलिए इस कलिकाल में देवगिरोद्धारक रूप से महर्षि का नाम आसूर्य-चन्द्र चमकता रहेगा।
(6) राष्ट्र (आर्य) भाषा-प्रसारक दयानन्द
संस्कृत वाणी देववाणी की ज्येष्ठ पुत्री होने के कारण भारत के धार्मिक विद्वानों की सदैव से धार्मिक भाषा रही है, पर कुछ काल से ऐसे समान उपस्थित हो गए थे कि सर्वसाधारण की व्यवहार्य वा कथ्या भाषा नहीं बन सकती थी, वा उस के द्वारा सर्वसाधारण में ज्ञान-प्रसार का कार्य नहीं नही हो सकता था। ऐसे समयों में धर्म और देश के नेता तथा सुधारक सदैव से प्रचलित लोकसभा से काम लेते रहे हैं, क्योंकि उन को तो जनता में अधिकाधिक ज्ञान प्रसार अभीष्ट होता है, स्वपाण्डित्यप्रदर्शन नही। पुराकाल मे जब इस देश की प्रचलित भाषा पाली बन गई थी महात्मा बुद्ध ने अपने उपदेशामृत की वर्षा पाली भाषा द्वारा ही की थी, तब से बौद्ध धर्म का साहित्य-भण्डार पाली भाषा के ग्रन्थों से भरा जाने लगा। फिर जैन धर्म के तीर्थकरों और महात्माओं ने मागधी प्राकृत में स्वधर्म का प्रचार किया और जैन धर्म ग्रन्थ भी मागधी मे बनने लगे। इन दोनों धर्मों के पाली और मागधी साहित्य में आज भी सहस्त्रों ग्रन्थ विद्यमान हैं और वे अन्य भाषाओं के बड़े-बड़े साहित्यों से लग्गा खाते है। इन भाषाओं द्वारा ही इन धर्मो ने सर्वसाधारण की बड़ी संख्या में शीघ्र प्रचार पा लिया था। महर्षि दयानन्द सा दीर्घदर्शी और अनुभवी धर्मोपदेष्टा भी आजकल भारत में सब से अधिक समझे जाने वाली आर्यभाषा (हिन्दी) को उपेक्षादृष्टि से नहीं देख सकता था और इसीलिए इस ने अधिकांश इसी भाषा में धर्मप्रचार किया। इसी भाषा में स्वव्याख्यान दिए और इसी में अपने ग्रन्थों को लिखा। जिस समय महर्षि ने आर्यभाषा को अपनाया था, उस समय उस की अवस्था बहुत ही हीन और दीन थी। उस समय बहुत थोड़े देशहितचिन्तकों ने इस की भाविनी देशव्यापक भाषा बनने की योग्यता पर ध्यान दिया था और देश के अधिकांश विद्वान तो उस में स्वलेख लिखने से स्वगौरवहानि समझते थे। स्वदेशी सस्कृतज्ञ पण्डित तो उस को ‘भाषा-भाखा’ कह कर मुंह सकोड़ते थें। रहे अंग्रेजी विद्वान, वे स्वदेश की प्रत्येक वस्तु को ही हेय दृष्टि से देखते थे। ऐसे समय में महर्षि दयानन्द ने हीना-दीना आर्यभाषा को आश्रय दिया और उन के आश्रयदान से ही उस का विस्तार हुआ हैं। उन्होंने संस्कृत के महापण्डित होते हुए और स्वमातृभाषा गुजराती की उपेक्षा करके भी अपने समस्त ग्रन्थों को आर्यभाषा में लिखकर उस की साहित्य वृद्धि की और उस के प्रचार का मार्ग अति प्रशस्त बना दिया। उनके भाषाग्रन्थों और विशेषतः विश्वविश्रुत और सदा स्मरणीय सत्यार्थप्रकाश का पाठ उन के प्रत्येक अनुयायी के लिए तो आवश्यकीय है ही, परन्तु उनके प्रतिपक्षियों ने भी उस को कम नहीं पढ़ा। इस के अतिरिक्त उन्होंने आर्यभाषा का ज्ञान प्रत्येक आर्य सदस्य के लिए आर्यसमाज के उपनियमों में अनिवार्य रक्खा हुआ है। इस नियम के वशवर्ती होकर न जाने कितने सहस्त्र मनुष्यों ने आर्यभाषा का लिखना पढ़ना सीखा होगा। संयुक्त प्रान्त के उद्योग से भारत के इतर प्रान्त पंजाब, बम्बई, बंगाल और यत्किान्चित् मद्रास प्रान्त मे भी, जहां कि वह बोली नही जाती, इस का प्रचार हुआ है जिस में पंजाब में इस का प्रचार विशेषतः उल्लेख योग्य है। पंजाब की आर्य कन्या पाठशालाओं में आर्यभाषा द्वारा ही शिक्षा दी जाती है। अतः उन शतशः कन्या पाठशालाओं में शिक्षा पाई हुई विद्यार्थिनियों द्वारा वहां के बहुसंख्यक आर्य परिवारों में उस का प्रसार हो गया है। श्रीमद्दयानन्द एंग्लो वैदिक कालेज लाहौर द्वारा भी इस भाषा का पंजाब में बहुत कुछ प्रचार हुआ है। पंजाब की आर्य प्रतिनिधि सभा के कांगडी गुरुकुल विश्वविद्यालय ने तो आर्यभाषा के माध्यम द्वारा उच्चशिक्षा प्रदान करने का भी निदर्शन करके दिखला दिया है। जिस के विषय में अन्य विश्वविद्यालय अभी तक सोच विचार में ही पड़े हुए हैं। आर्यसमाज की ओर से आर्यसमाज के कई साप्ताहिक तथा मासिक पत्र भी प्रकाशित हो रहे है। आर्यभाषा के ऐसे संवेग और विस्तृत प्रसार ही से उस के भारत की राष्ट्र और देशव्यापक (Lingua Franca) भाषा बनाने का स्वप्न पूरा और सत्य होता हुआ दीख पड़ता है और इस विषय में महर्षि दयानन्द के महान् उद्योग के कारण उन का नाम राष्ट्रभाषा-प्रसारकों की सूची में सर्वोच्च स्थान को अलंकृत करता रहेगा।
(7) सनातनी पर उदार दयानन्द
महर्षि दयानन्द की एक और विभूति जो हमारे ध्यान को अपनी ओर विशेषरूपेण आकृष्ट करती है, वह उनके परम सनातनी होते हुए भी उन की परम उदारता हैं स्वामी दयानन्द के सनातनीपन की पराकाष्ठा का अनुमान आप इनते मात्र से ही लगा सकते हैं कि उन्होंने अपने ग्रन्थों में स्थान-स्थान पर यह बलपूर्वक लिखा है कि मेरे सारे धार्मिक सिद्धान्त वे ही हैं जिन को ब्रह्मा से लेकर जैमिनि पर्यन्त सारे ऋषि-मुनि मानते चले आए हैं। यदि आप उन के स्वमन्तव्यामन्तव्य पर गवेषणापूर्वक विचार करें तो आप को विदित होगा कि वस्तुतः उन का कोई सिद्धान्त भी नवीन नहीं है किन्तु वे सारे के सारे प्राचीन ऋषि-मुनियों के सम्मत है। वस्तुतः इस संसार में कोई भी वस्तु नवीन नहीं है, प्रत्युत परमार्थ दृष्टि से सब ही प्राचीन तथा सनातन हैं। फिर स्वामी दयानन्द नवीन सिद्धान्त ला ही कहां से सकते थे? योरुप और एतद्देश के कई विद्वान तो महर्षि दयानन्द के सनातनीपन को देखकर आश्चर्यचकित रह गये हैं। और उन्होंने उन को प्रतिक्रिया की ओर लौटाने वाला (Reactionary) वा वर्तमान संसार को दो सहस्त्र वर्ष पीछे फेंकने वाला बतलाया है। आदि ब्राह्मसमाज और कई नवीन सुधारकों से उन का ऐक्यमत केवल इसलिए नहीं हो सका कि वे वेदों को शब्दार्थ-सम्बन्ध से अनादि और अपौरूषेय मानते थे। कोई-कोई तो उन को वेदों के पीछे प्रमत्त (दीवाना) तक बतलाने की कृपा करते थे। कई उन से सनातनी और वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था के मानने के मत से सहमत नहीं हो सकते थे। बहुत से नवसभ्यताभिमानी उन का इसलिए मखौल उड़ाते हैं कि उन्होंने साम्प्रतिक आचार-व्यवहार के विरुद्ध प्राचीन भारत की नियोग जैसी प्रथा की आजकल भी पुष्टि की है। ऐसे ही उनके कई और सनातनी तथा रूढि़ विचारों से नई सभ्यता से मुग्ध पुरूषों के विचार नहीं मिलते। परन्तु इस के साथ ही वे महर्षि की परमोदारता देखकर भी आश्चर्य के सागर में निमग्न होते है, उन को ऐसे सनातनी विचार रखने वाले मनुष्य के जन्म को छोड़कर गुण, कर्म, स्वभावनुसार वर्णव्यवस्था मानना, मनुष्यमात्र को वेद और विद्या का अधिकार बतलाना, स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार देना और शुद्ध पवित्र मनुष्यमात्र के हाथ के भोजन को भक्ष्य और ग्राह्य बतलाना आदि उदार विचार खटकते हैं और इसलिए प्रोफेसर मैक्समूलर ने उन की उदार सनातनी (Liberal Orthodoz) लिखा है। किन्तु महर्षि का यही तो महत्त्व है कि वे परम सनातनी होते हुए भी परमोदार विचार रखते थे, वा इस को दूसरे शब्दों में यों भी कह सकते हैं कि सत्य, सनातन, परमोदार, सार्वभौम वैदिक धर्म के ही प्रचारक थे।
उपसंहार उपर्युक्त पंक्तियों में महर्षि के कई गुण दिखलाने से लेखक को यही अभिप्रेत है कि आज उन की निर्वाण-तिथि में, जब उस परमयोगी ने परम आनन्द का योग प्राप्त किया था। सहृदय पाठक उन की सद्गुणावली का मनन करके अपना आदर्श निश्चित करें और और महर्षि के पदचिन्हों पर चलकर ऐहिक औैर पारलौकिक सुख का मार्ग ढूँढते हुए संसारमात्र, स्वदेश, स्वराष्ट्र, स्वसमाज, स्वमातृभाषा के लिए उपयोगी और उद्योगी बनें। सवेंशस्तथैव विदधातु।
पूर्णाहुति के पश्चात खीलों और मिष्टान्न के (बताशे आदि) हुतशेष को यज्ञमण्डप में उपस्थित जनों में वितरण करके भक्षण किया जाये।
अपराह्न मे प्रचलित प्रथानुसार इष्टमित्रों को मिष्टान्न के उपायन (भेंट) दिये जायें। सांयकाल के समय आवास गृहों को सुचारुरूपेण सजाकर स्वसामर्थ्यानुसार दीपमाला की जाये।
सामाजिक कृत्य अपराह्न वा रात्रि मे स्वसुभीते के अनुसार समाज-मन्दिर आदि में एकत्र होकर आर्यसमाज के संस्थापक ऋषि दयानन्द की स्मृति में सभा की जाये और उस में ऋषि के गुणानुवाद पर भाषण, लेख और कविताओं का पाठ किया जाये तथा इसी विषय पर मधुर संगीत हो। इस अवसर पर दयानन्द मिशन फण्ड के लिए चार आना वा अधिक प्रत्येक पुरुष दान देवे।
श्रीमद्दयानन्द महिमा
(गीतिका-मिलिन्दपाद)
ब्रह्मचारी ब्रह्म-विद्या का विशद विश्राम था।
धर्मधारी धीर योगी, सर्व सद्गुण-धाम था।
कर्मवीरों में प्रतापी, पर निरा निष्काम था।।
बीज विद्या के उसी का पुण्य पौरुष बो गया।। १ ।।
सत्यवादी वीर था जो, वाचनिक संग्राम का।
साहसी पाया किसी को भी न जिसके काम का।।
प्राण दे प्रेमी बना जो, प्रेम के परिणाम का।
क्या दया आनन्दधारी, धीर था वह नाम का?
धन्य सच्छिक्षा-सुधा से, धर्म का मुख धो गया।
देख लो लोगो दुबारा, भारतोदय हो गया।। २ ।।
साधु भक्तों में सुयोगी, संयमी बढ़ने लगे।
सभ्यता की सीढि़यों पै, सूरमा चढ़ने लगे।।
वेद-मन्त्रों को विवेकी, प्रेम से पढ़ने लगे।
वन्चकों की छातियों में शूल से गड़ने लगे।।
भारती जागों, अविद्या का कुलाहल सो गया।
देख लो लोगो दुबारा, भारतोदय हो गया।। ३ ।।
कामना विज्ञानवादी मुक्ति की करने लगे।
ध्यान द्वारा धारणा में ध्येय को धरने लगे।।
आलसी पापी, प्रमादी पाप से डरने लगे।
अन्धविश्वासी सचाई, भूल में भरने लगे।।
धूलि मिथ्या की उड़ा दी, दम्भ-दाहक रो गया।
देख लो लोगो दुबारा, भारतोदय हो गया।। ४।।
तर्क झन्झा के झकोले, झाड़ते चलने लगे।
युक्तियों की आग चेती, जालियां जलने लगे।।
पुण्य के पौधे फबीले, फूलने फलने लगे।
हाथ हत्यारे हठीले, मादकी मलने लगे।।
खेल देखे चेतना के जड़ खिलौना खो गया।
देख लो लोगो दुबारा, भारतोदय हो गया।। ५ ।।
तामसी थोथे मतों की, मोह-माया हट गई।
ऐंठ की पोली पहाड़ी खण्डनों से फट गई।।
छूत छैया की अछूती, नाक लम्बी कट गई।
लालची पाखण्डियों की पेट-पूजा घट गई।।
ऊत भूतों का बखेड़ा, डूब मरने को गया।
देख लो लोगो दुबारा, भारतोदय हो गया।। ६ ।।
सत्य के साथी विवेकी मृत्यु को तर जायेंगे।
ज्ञान-गीता गाय भोलों का भला कर जायेंगे।।
अन्ध-अज्ञानी अन्धेरें मे पड़े मर जायेंगे।
आप डूबेंगे, अविद्या देश में भर जायेंगे।।
शंकरानन्दी वही है, जान शिव को जो गया।
देख लो लोगो दुबारा, भारतोदय हो गया।। ७ ।।
– कविवर श्री नाथूराम ‘शंकर’ कृत
दयानन्द-निर्वाण
(शार्दूलविक्रीडितवृत्तम्)
होती वृद्धि अधर्म की जब कहीं, अन्याय आधार में।
धर्माधार धुरीण धैर्य बहता, धर्मध्वजी धार में।
मुक्तात्मा तब जन्म ले उतरते, सम्पूज्य संसार में ।
दे ‘आनन्द दया’ अनुरूप बनके जाते निराकार में ।। १ ।।
गूंजे गौरव-गीतिका जगत् में भावे भली भारती।
मानें मानव ज्ञान गुरू का, हां मुक्त मेधाव्रती।
वाणी वैदिक दे विनोद बन के, आमोद आभावती।
दे सन्देश विशेष विश्वपति का, निर्वाण पाया यती ।। २।।
छोड़ा था घरबार, धान्य, धरणी, माता-पिता जान के।
विद्याहेतु बिताय बालपन को, जिज्ञासु हो ज्ञान के।
योगी-निधान खोज करके धी-धारणा, ध्यान के।
सम्प्रज्ञात समाधि सिद्ध करके, थे योग्य निर्वाण के ।।३।।
घूमे कानन कुन्च मे, कुधर में, वीथि गली ग्राम मे।
मारा मान महान् दिग्गजन का, शास्त्रार्थ संग्राम में।
कीने वेद विशुद्ध बोधवित् जो, प्राणी धराधाम में।
पाया अन्तिम काल पे्रम प्रभु का, निर्वाण निष्काम में ।। ४ ।।
राजा रंक सिखाय एक प्रभू की, आराधना साधना।
फैलाई श्रुतिसिद्ध सत्य सुख की, संभावना, भावना।
होवे वेद प्रचार चारु जग में, कैसी रही कामना?
पा निर्वाण गये महान् पर भी, थी आसना वासना ।। ५ ।।
भाती है खल को न भूति यश वा, जो गौरवागार है।
जाने हैं कब मूढ़ मुक्ति मन क्या, सत्यार्थ क्या सार है?
पापी ने धन लोभ में विष दिया, हां दुष्ट ! भू भार है।
कीना घातक किन्तु मुक्त ऋषि ने, ऐसा महोदार है ।। ६ ।।
शय्यासीन हुए ऋषीश फिर भी, धैर्येण चेते रहे।
आर्यों को अनुकूल कर्म कृति का आदेश देते रहे।
प्रेमी भक्त महान् ज्ञान गुरु का, सामोद लेते रहे।
सेवा में सविशेष यत्न करते थे, शिष्य केते रहे ।। ७ ।।
पाया था, ‘गुरुदत्त’ ज्ञान प्रभु का, जीता जगज्जाल था।
था अत्यद्भुत दृश्य, कारुणिक था, तेजस्वि पै भाल था।
पीछे भक्त सभी खड़े कर लिये, मृत्युन्मुखी काल था।
‘द्वारे दो सब खोल’ वेद पथ के, आत्माध्वनीताल था ।। ८ ।।
गायत्री जप मंत्र गान कर के, संलग्न प्रज्ञान में।
प्राणायाम प्रपूर्ण श्वास भर के, दी धारणा ध्यान में।
‘इच्छा है जगदीश ! आज यह तो, हो पूर्ण’ औसान में।
‘लीला आज अपार की’ कह हुए, निर्मुक्त निर्वाण में ।। ९ ।।
हा स्वामिन् ! सब आज दीप-अवली से शोभते ओक थे।
था अस्तंगत ‘सूर्य’ किन्तु श्रुति का, फीके पड़े लोक थे।
छोड़ा जीवन-मध्य आर्यगण को, हा शोक ! वे रोक थे।
हो आदर्श अनूप आप अब भी, जैसे श्रुतालोक थे ।। १० ।।
-श्री सूर्यदेव शर्मा एम. ए.
वैदिक धर्म विशारद, काव्य मनीषी, साहित्यालंकार
महर्षि-प्रशस्ति-पन्चक
(षट्पदी-छन्द)
(1)
जय-जय सद्गुण-सदन साधु सद्धर्म सुधारक।
जय जय विमल विवेक विबुध वर वेद-विचारक।।
जय धर्म-धुरन्धर धीर धर, आर्य जाति के ध्रुव धवल।
जय दयानन्द ऋषिवर प्रवर, देशभक्ति-सर शुचि कमल।।
(2)
जय अति अनुपम अमल उच्च उद्देश्य उजागर।
संयम सुकृत सनेह शील साहस के सागर।।
आत्मत्याग-अनुराग-योग मूरति मन-भावन।
भवभय-भीषण भूरि भ्रान्ति भ्रम-भेद-नसावन।।
जय प्रतिभापूर्ण पयोधि प्रिय, पुण्य-प्रभा-विकसित करन।
जय दयानन्द ऋषिवर प्रवर दुःखियन-दुःख दारूण-हरन।।
(3)
जय गुरु गौरवरूप शुद्ध सत्यार्थ-प्रकाशक।
ब्रह्मचर्य व्रत-वीर दम्भ दाहक के नाशक।
पूरण-प्रकट-प्रताप-प्राण दे प्रण के पालक।
मुनिवर जीवनमुक्त विपुल विघ्नों के घालक।।
जय भारत भूषण विमल मति, सदय-हृदय दूषण-दलन।
जय दयानन्द ऋषिवर प्रवर छल, बल, दल, मोटे खलन।।
(4)
जय निर्भय निष्कपट निरन्तर नुत निष्कामी।
दृढ़व्रत प्रतिपल, शूरवीर सच्चे नर नामी।।
जय दयानन्द ऋषिवर प्रवर, जयति जयति जय जयति जय।।
(5)
जय! जय!! जय!!! पौरुषी पुरुष प्रभुवर के प्यारे।
दे देकर उपदेश देश के क्लेश निवारे।।
वैदिक बोध विशुद्ध विश्व भर को बतलाया।
प्रतिभा का पीयूष प्रेम से हमें पिलाया।।
चहुं ओर, चारु निज चरित से, छिटकाई कीरति किरण।
जय दयानन्द ऋषिवर, प्रवर सादर वन्दौं तव चरण।।
महर्षि-स्तुति
सरसी छन्द
दयाधन! हो तव जय जयकार।। ध्रुव ।।
भारत नहीं किन्तु ऋषिवर ! तव ऋणी सकल संसार।। ध्रुव ।।
सघन अविद्या-घन-पटली में लुप्त हुआ श्रुतिसार।
सदय हृदय से किया आपने, फिर उसका निस्तार ।। १ ।।
जीवनज्योति जगी जनता में, विनसे विविध विकार।
ज्ञानसूर्य की दिव्य छटा में, छिटके शास्त्र-विचार।। २ ।।
राग-रोष, दुःख-दोष-कोष का, किया आशु संहार।
परम पुण्य तव प्रेममंत्र का, सब में हुआ प्रचार।। ३ ।।
विश्ववन्द्य श्रीदयानन्द ने किया परम उपकार।
‘श्रीहरि’ ऋषिवर के चरणों में, वार-वार जयकार।। ४ ।।
-कविवर श्रीहरि रचित