05 विजयादशमी आश्विन शुक्ल दशमी

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अथ ऋत्विग्वरणम्
यजमानोक्तिः :- ओम् आवसो सदने सीद।
ऋत्विगुक्तिः :- ओं सीदामि।
यजमानोक्तिः :- ओं तत्सत् श्रीब्रह्मणो द्वितीयप्रहरोत्तरार्द्धे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमें कलियुगे कलिप्रथम- चरणेऽमुक….. संवत्सरे, …..अयने, …..ऋतौ, …..मासे, …..पक्षे, …..तिथौ, …..दिवसे, …..लग्ने, …..मुहुर्ते जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तदेशान्तर्गते …..प्रान्ते, …..जनपदे, …..मण्डले, …..ग्रामे/नगरे, …..आवासे/भवने अहम् …..कर्मकरणाय भवन्तं वृणे।
ऋत्विगुक्तिः :- वृतोऽस्मि।

अथाचमन-मन्त्राः
ओम् अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।। १।। इससे एक
ओम् अमृतापिधानमसि स्वाहा।। २।। इससे दूसरा
ओ३म् सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा।। ३।। (तैत्तिरीय आरण्यक प्र. १०/अनु. ३२, ३५) इससे तीसरा आचमन करके तत्पश्चात् जल लेकर नीचे लिखे मन्त्रों से अंगों को स्पर्श करें।

अथ अङ्गस्पर्श-मन्त्राः
ओं वाङ्म आस्ये ऽ स्तु। इस मन्त्र से मुख
ओं नसोर्मे प्राणो ऽ स्तु। इस मन्त्र से नासिका के दोनों छिद्र
ओं अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु। इस मन्त्र से दोनों आंख
ओं कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु। इस मन्त्र से दोनों कान
ओं बाह्वोर्मे बलमस्तु। इस मन्त्र से दोनों बाहु
ओम् ऊर्वोर्म ओजो ऽ स्तु। इस मन्त्र से दोनों जंघा
ओम् अरिष्टानि मे ऽ ङ्गानि तनूस्तन्वा मे सह सन्तु। इस मन्त्र से दाहिने हाथ से जल स्पर्श करके मार्जन करना। (पारस्कर गृ.का.२/क.३/सू.२५)

अथ-ईश्वर-स्तुति-प्रार्थनोपासनामन्त्राः
ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।
यद् भद्रन्तन्न ऽ आसुव।। १।। (यजु अ.३०/मं.३)
हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके हमारे सम्पूर्ण दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए; जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं वह सब हमको प्राप्त कीजिए।
सकल जगत के उत्पादक हे, हे सुखदायक शुद्ध स्वरूप।
हे समग्र ऐश्वर्ययुक्त हे, परमेश्वर हे अगम अनूप।।
दुर्गुण-दुरित हमारे सारे, शीघ्र कीजिए हमसे दूर।
मंगलमय गुण-कर्म-शील से, करिए प्रभु हमको भरपूर।।

हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक ऽ आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।। २।। (यजु.अ.१३/मं.४)
जो स्वप्रकाश स्वरूप और जिसने प्रकाश करनेहारे सूर्य चन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किए हैं। जो उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का प्रसिद्ध स्वामी एक ही चेतन स्वरूप था। जो सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्व वर्तमान था। सो इस भूमि और सूर्यादि का धारण कर रहा है। हम लोग उस सुखस्वरूप शुद्ध परमात्मा के लिए ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अतिप्रेम से विशेष भक्ति किया करें।
छिपे हुए थे जिसके भीतर, नभ में तेजोमय दिनमान।
एक मात्र स्वामी भूतों का, सुप्रसिद्ध चिद्रूप महान्।।
धारण वह ही किए धरा को, सूर्यलोक का भी आधार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।

य ऽ आत्मदा बलदा यस्य विश्व ऽ उपासते प्रशिषं यस्य देवाः।
यस्य छाया ऽ मृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। ३।। (यजु.२५/१३)
जो आत्मज्ञान का दाता, शरीर, आत्मा और समाज के बल का देनेहारा है। जिसकी सब विद्वान लोग उपासना करते हैं। जिसके प्रत्यक्ष सत्यस्वरूप शासन, न्याय अर्थात् शिक्षा को मानते हैं। जिसका आश्रय ही मोक्ष सुखदायक है। जिसका न मानना अर्थात् भक्ति इत्यादि न करना ही मृत्यु आदि दुःख का हेतु है। हम लोग उस सुखस्वरूप, सकल ज्ञान के देनेहारे परमात्मा की प्राप्ति के लिए आत्मा और अन्तःकरण से भक्ति अर्थात् उसी की आज्ञा पालन करने में तत्पर रहें।
आत्मज्ञान का दाता है जो, करता हमको शक्ति प्रदान।
विद्वद्वर्ग सदा करता है, जिसके शासन का सम्मान।।
जिसकी छाया सुखद सुशीतल, दूरी है दुःख का भंडार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।

यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक ऽ इद्राजा जगतो बभूव।
य ऽ ईशे ऽ अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। ४।। (ऋ. १०/१२१/३)
जो प्राणवाले और अप्राणिरूप जगत् का अपनी अनन्त महिमा से एक ही विराजमान राजा है। जो इस मनुष्यादि और गौ आदि प्राणियों के शरीर की रचना करता है। हम लोग उस सुखस्वरूप सकल ऐश्वर्य के देनेहारे परमात्मा की उपासना अर्थात् अपनी सकल उत्तम सामग्री को उसकी आज्ञापालन में समर्पित करके उसकी विशेष भक्ति करें।
जो अनन्त महिमा से अपनी, जड़-जंगम का है अधिराज।
रचित और शासित हैं जिससे, जगतिभर का जीव समाज।।
जिसके बल विक्रम का यश का, कण-कण करता जयजयकार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।

येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढ़ा येन स्वः स्तभितं येन नाकः।
यो ऽ न्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। ५।। (यजु.अ.३२/मं.६)
जिस परमात्मा ने तीक्ष्ण स्वभाव वाले सूर्य आदि और भूमि को धारण किया है, जिस जगदीश्वर ने सुख को धारण किया है और जिस ईश्वर ने दुःख रहित मोक्ष को धारण किया है। जो आकाश में सब लोक-लोकान्तरों को विशेष मानयुक्त अर्थात् जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं वैसे सब लोकों निर्माण करता और भ्रमण कराता है, हम लोग उस सुखदायक कामना करने के योग्य परब्रह्म की प्राप्ति के लिए सब सामर्थ्य से विशेष भक्ति करें।
किया हुआ है धारण जिसने, नभ में तेजोमय दिनमान।
परमशक्तिमय जो प्रभु करता, वसुधा को अवलम्ब प्रदान।।
सुखद मुक्तिधारक लोकों का, अन्तरिक्ष में सिरजनहार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।

प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव।
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्।। ६।। (ऋ.म.१०/सू.१२१/मं.१०)
हे सब प्रजा के स्वामी परमात्मा आप से भिन्न दूसरा कोई उन इन सब उत्पन्न हुए जड़-चेतनादिकों को नहीं तिरस्कार करता है, अर्थात् आप सर्वोपरी हैं। जिस-जिस पदार्थ की कामनावाले हम लोग आपका आश्रय लेवें और वांच्छा करें, वह कामना हमारी सिद्ध होवे, जिससे हम लोग धनैश्वर्यों के स्वामी होवें।
जड़ चेतन जगति के स्वामी, हे प्रभु तुमसा और नहीं।
जहां समाए हुए न हो तुम, ऐसा कोई ठौर नहीं।।
जिन पावन इच्छाओं को ले, शरण आपकी हम आएं।
पूरी होवें सफल सदा हम, विद्या-धन-वैभव पाएं।।

स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।
यत्र देवा ऽ अमृतमानशाना- स्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त।। ७।। (यजु.अ.३२/मं.१०)
हे मनुष्यों वह परमात्मा अपने लोगों का भ्राता के समान सुखदायक, सकल जगत् का उत्पादक, वह सब कामों का पूर्ण करनेहारा, सम्पूर्ण लोकमात्र और नाम-स्थान-जन्मों को जानता है। जिस सांसारिक सुख-दुःख से रहित नित्यानन्दयुक्त मोक्षस्वरूप धारण करनेहारे परमात्मा में मोक्ष को प्राप्त होके विद्वान् लोग स्वेच्छापूर्व्रक विचरते हैं वही परमात्मा अपना गुरु, आचार्य, राजा और न्यायाधीश है। अपने लोग मिलके सदा उसकी भक्ति किया करें।
भ्राता तुल्य सुखद् वह ही प्रभु, सकल जगत् का जीवन प्राण।
मानव के सब यत्न उसी की, करुणा से होते फलवान।।
सदानन्दमय धाम तीसरा, सुख-दुःख के द्वन्द्वों से दूर।
करके प्राप्त उसे ज्ञानी जन, आनन्दित रहते भरपूर।।

अग्ने नय सुपथा राये ऽ अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम ऽ उक्तिं विधेम।। ८।। (यजु.अ.४०/मं.१६)
हे स्वप्रकाश, ज्ञानस्वरूप, सब जगत् के प्रकाश करनेहारे सकल सुखदाता परमेश्वर ! आप जिससे सम्पूर्ण विद्यायुक्त हैं, कृपा करके हम लोगों को विज्ञान वा राज्यादि ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए अच्छे धर्मयुक्त आप्त लोगों के मार्ग से सम्पूर्ण प्रज्ञान और उत्तम कर्म प्राप्त कराइये और हमसे कुटिलतायुक्त पापरूप कर्म को दूर कीजिए। इस कारण हम लोग आपकी बहुत प्रकार से नम्रतापूर्वक स्तुति सदा किया करें और आनन्द में रहें।
स्वयं प्रकाशित ज्ञानरूप हे ! सर्वविद्य हे दयानिधान।
धर्ममार्ग से प्राप्त कराएं, हमें आप ऐश्वर्य महान्।।
पापकर्म कौटिल्य आदि से, रहें दूर हम हे जगदीश।
अर्पित करते नमन आपको, बारंबार झुकाकर शीश।।

अथ स्वस्तिवाचनम्
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्।
होतारं रत्नधातमम्।। १।। (ऋ.१/१/१)
स नः पितेव सूनवेऽग्ने सूपायनो भव।
सचस्वा नः स्वस्तये।। २।। (ऋ.१/१/९)
स्वस्ति नो मिमीतामश्विना भगः स्वस्ति देव्यदितिरनर्वणः।
स्वस्ति पूषा असुरो दधातु नः स्वस्ति द्यावापृथिवी सुचेतुना।।३।। (ऋ.५/५१/११)
स्वस्तये वायुमुप ब्रवामहै सोमं स्वस्ति भुवनस्य यस्पतिः।
बृहस्पतिं सर्वगणं स्वस्तये स्वस्तय आदित्यासो भवन्तु नः।। ४।। (ऋ.५/५१/१२)
विश्वे देवा नो अद्या स्वस्तये वैश्वानरो वसुरग्निः स्वस्तये।
देवा अवन्त्वृभवः स्वस्तये स्वस्ति नो रुद्रः पात्वंहसः।। ५।। (ऋ.५/५१/१३)
स्वस्ति मित्रावरुणा स्वस्ति पथ्ये रेवति।
स्वस्ति न इन्द्रश्चाग्निश्च स्वस्ति नो अदिते कृधि।। ६।। (ऋ.५/५१/१४)
स्वस्ति पन्थामनु चरेम सूर्याचन्द्रमसाविव। पुनर्ददताघ्नता जानता सं गमेमहि।। ७।।
(ऋ.५/५१/१५)
ये देवानां यज्ञिया यज्ञियानां मनोर्यजत्रा अमृता ऋतज्ञाः।
ते नो रासन्तामुरुगायमद्य यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः।। ८।। (ऋ.७/३५/१५)
येभ्यो माता मधुमत्पिन्वते पयः पीयूषं द्यौ- रदितिरद्रिबर्हाः।
उक्थशुष्मान् वृषभरान्त्स्वप्नसस्ताँ आदित्याँ अनुमदा स्वस्तये।। ९।। (ऋ.१०/६३/३)
नृचक्षसो अनिमिषन्तो अर्हणा बृहद्देवासो अमृतत्वमानशुः।
ज्योतीरथा अहिमाया अनागसो दिवो वर्ष्माणं वसते स्वस्तये।। १०।।
(ऋ.१०/६३/४)
सम्राजो ये सुवृधो यज्ञमाययुरपरिह्वृता दधिरे दिवि क्षयम्।
ताँ आ विवास नमसा सुवृक्तिभिर्महो आदित्याँ अदितिं स्वस्तये।। ११।। (ऋ.१०/६३/५)
को वः स्तोमं राधति यं जुजोषथ विश्वे देवासो मनुषो यति ष्ठन।
को वोऽध्वरं तुविजाता अरं करद्यो नः पर्षदत्यंहः स्वस्तये।। १२।।
(ऋ.१०/६३/६)
येभ्यो होत्रां प्रथमामायेजे मनुः समिद्धाग्निर्मनसा सप्त होतृभिः।
त आदित्या अभयं शर्म यच्छत सुगा नः कर्त सुपथा स्वस्तये।। १३।। (ऋ.१०/६३/७)
य ईशिरे भुवनस्य प्रचेतसो विश्वस्य स्थातुर्जगतश्च मन्तवः।
ते नः कृतादकृतादेनसस्पर्यद्या देवासः पिपृता स्वस्तये।।
।। १४।। (ऋ.१०/६३/८)
भरेष्विन्द्रं सुहवं हवामहेंऽहोमुचं सुकृतं दैव्यं जनम्।
अग्निं मित्रं वरुणं सातये भगं द्यावापृथिवी मरुतः स्वस्तये।। १५।। (ऋ.१०/६३/९)
सुत्रामाणं पृथिवीं द्यामनेहसं सुशर्माणमदितिं सुप्रणीतिम्।
दैवीं नावं स्वरित्रामनागसमस्रवन्तीमा रुहेमा स्वस्तये।। १६।। (ऋ.१०/६३/१०)
विश्वे यजत्रा अधि वोचतोतये त्रायध्वं नो दुरेवाया अभिह्रुतः।
सत्यया वो देवहूत्या हुवेम शृण्वतो देवा अवसे स्वस्तये।। १७।। (ऋ.१०/६३/११)
अपामीवामप विश्वामनाहुतिमपारातिं दुर्विदत्रा- मघायतः।
आरे देवा द्वेषो अस्मद्युयोतनोरु णः शर्म यच्छता स्वस्तये।। १८।। (ऋ.१०/६३/१२)
अरिष्टः स मर्तो विश्व एधते प्र प्रजाभिर्जायते धर्मणस्परि।
यमादित्यासो नयथा सुनीतिभिरति विश्वानि दुरिता स्वस्तये।। १९।। (ऋ.१०/६३/१३)
यं देवासोऽवथ वाजसातौ यं शूरसाता मरुतो हिते धने।
प्रातर्यावाणं रथमिन्द्र सानसिमरिष्यन्तमा रुहेमा स्वस्तये।। २०।। (ऋ.१०/६३/१४)
स्वस्ति नः पथ्यासु धन्वसु स्वस्त्यप्सु वृजने स्वर्वति।
स्वस्ति नः पुत्रकृथेषु योनिषु स्वस्ति राये मरुतो दधातन।। २१।। (ऋ.१०/६३/१५)
स्वस्तिरिद्धि प्रपथे श्रेष्ठा रेक्णस्वत्यभि या वाममेति।
सा नो अमा सो अरणे नि पातु स्वावेशा भवतु देवगोपा।। २२।। (ऋ.१०/६३/१६)
इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणऽआप्यायध्वमघ्न्या इन्द्राय भागं प्रजावतीरनमीवाऽअयक्ष्मा मा व स्तेनऽईशत माघश सो ध्रुवाऽअस्मिन् गोपतौ स्यात बह्वीर्यजमानस्य पशून् पाहि।। २३।। (यजु.१/१)
आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो- ऽ अपरीतासऽउद्भिदः।
देवा नो यथा सदमिद् वृधेऽअसन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवेदिवे।। २४।।
(यजु.२५/१४)
देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवाना द्भञ रातिरभि नो निवर्त्तताम्।
देवाना द्भञ सख्यमुपसेदिमा वयं देवा न आयुः प्रतिरन्तु जीवसे ।।२५।।
(यजु.२५/१५)
तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियञ्जिन्वमवसे हूमहे वयम्।
पूषा नो यथा वेदसामसद् वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये।। २६।। (यजु.२५/१८)
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो ऽ अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।। २७।। (यजु.२५/१९)
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवा द्भञ सस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः।। २८।। (यजु.२५/२१)
अग्न आ याहि वीतये गृणानो हव्यदातये।
नि होता सत्सि बर्हिषि।। २९।। (सा.पू.१/१/१)
त्वमग्ने यज्ञाना द्भञ होता विश्वेषा द्भञ हितः।
देवेभिर्मानुषे जने।। ३०।। (सा.पू.१/१/२)
ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभ्रतः।
वाचस्पतिर्बला तेषां तन्वोऽअद्य दधातु मे।। ३१।। (अथर्व.१/१/१)

अथ शान्तिकरणम्
शं न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शं न इन्द्रावरुणा रातहव्या।
शमिन्द्रासोमा सुविताय शं योः शं न इन्द्रापूषणा वाजसातौ।। १।। (ऋ.७/३५/१)
शं नो भगः शमु नः शंसो अस्तु शं नः पुरन्धिः शमु सन्तु रायः।
शं नः सत्यस्य सुयमस्य शंसः शं नो अर्यमा पुरुजातो अस्तु।। २।। (ऋ.७/३५/२)
शं नो धाता शमु धर्ता नो अस्तु शं न उरूची भवतु स्वधाभिः।
शं रोदसी बृहती शं नो अद्रिः शं नो देवानां सुहवानि सन्तु।। ३।। (ऋ.७/३५/३)
शं नो अग्निर्ज्योतिरनीको अस्तु शं नो मित्रावरुणावश्विना शम्।
शं नः सुकृतां सुकृतानि सन्तु शं न इषिरो अभि वातु वातः।। ४।। (ऋ.७/३५/४)
शं नो द्यावापृथिवी पूर्वहूतौ शमन्तरिक्षं दृशये नो अस्तु।
शं न ओषधीर्वनिनो भवन्तु शं नो रजसस्पतिरस्तु जिष्णुः।। ५।। (ऋ.७/३५/५)
शं न इन्द्रो वसुभिर्देवो अस्तु शमादित्येभिर्वरुणः सुशंसः।
शं नो रुद्रो रुद्रेभिर्जलाषः शं नस्त्वष्टा- ग्नाभिरिह शृणोतु।। ६।। (ऋ.७/३५/६)
शं नः सोमो भवतु ब्रह्म शं नः शं नो ग्रावाणः शमु सन्तु यज्ञाः।
शं नः स्वरूणां मितयो भवन्तु शं नः प्रस्वः शम्वस्तु
वेदिः।। ७।। (ऋ.७/३५/७)
शं नः सूर्य उरुचक्षा उदेतु शं नश्चस्रः प्रदिशो भवन्तु।
शं नः पर्वता ध्रुवयो भवन्तु शं नः सिन्धवः शमु सन्त्वापः।। ८।। (ऋ.७/३५/८)
शं नो अदितिर्भवतु व्रतेभिः शं नो भवन्तु मरुतः स्वर्काः।
शं नो विष्णुः शमु पूषा नो अस्तु शं नो भवित्रं शम्वस्तु वायुः।। ९।।
(ऋ.७/३५/९)
शं नो देवः सविता त्रायमाणः शं नो भवन्तूषसो विभातीः
शं नः पर्जन्यो भवतु प्रजाभ्यः शं नः क्षेत्रस्य पतिरस्तु शम्भुः।। १०।। (ऋ.७/३५/१०)
शं नो देवा विश्वदेवा भवन्तु शं सरस्वती सह धीभिरस्तु।
शमभिषाचः शमुरातिषाचः शं नो दिव्याः पार्थिवाः शं नो अप्याः।। ११।।
(ऋ.७/३५/११)
शं नः सत्यस्य पतयो भवन्तु शं नो अर्वन्तः शमु सन्तु गावः।
शं नः ऋभवः सुकृतः सुहस्ताः शं नो भवन्तु पितरो हवेषु।। १२।।
(ऋ.७/३५/१२)
शं नो अज एकपाद्देवो अस्तु शं नोऽहिर्बुध्न्यः शं समुद्रः।
शं नो अपां नपात्पेरुरस्तु शं नः पृश्निर्भवतु देवगोपाः।। १३।। (ऋ.७/३५/१३)
इन्द्रो विश्वस्य राजति। शन्नोऽअस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे।। १४।। (यजु.३६/८)
शन्नो वातः पवता द्भञ शन्नस्तपतु सूर्य्यः।
शन्नः कनिक्रदद्देवः पर्जन्योऽअभि वर्षतु।। १५।। (यजु.३६/१०)
अहानि शम्भवन्तु नः श रात्रीः प्रति धीयताम्।
शन्न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शन्न इन्द्रावरुणा रातहव्या।
शन्न इन्द्रापूषणा वाजसातौ शमिन्द्रासोमा सुविताय शंयोः।। १६।। (यजु.३६/११)
शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये।
शंयोरभि स्रवन्तु नः।। १७।। (यजु.३६/१२)
द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि।। १८।। (यजु.३६/१७)
तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्।
पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शत शृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतम्भूयश्च शरदः शतात्।। १९।। (यजु.३६/२४)
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति।
दूरग्मं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।। २०।। (यजु.३४/१)
येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः।
यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२१।। (यजु.३४/२)
यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु।
यस्मान्नऽऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।। २२।। (यजु.३४/३)
येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत्परिगृहीतममृतेन सर्वम्।
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२३।। (यजु.३४/४)
यस्मिन्नृचः साम यजू द्भञ षि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः।
यस्मिँश्चित्त सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२४।। (यजु.३४/५)
सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिनऽइव।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२५।।
(यजु.३४/६)
स नः पवस्व शं गवे शं जनाय शमर्वते।
श द्भञ राजन्नोषधीभ्यः।। २६।। (साम.उ.१/१/३)
अभयं नः करत्यन्तरिक्षमभयं द्यावापृथिवी उभे इमे।
अभयं पश्चादभयं पुरस्तादुत्तरादधरा- दभयं नो अस्तु।।२७।। (अथर्व.१९/१५/५)
अभयं मित्रादभयममित्रादभयं ज्ञातादभयं परोक्षात्।
अभयं नक्तमभयं दिवा नः सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु।।२८।। (अथर्व.१९/१५/६)

अग्न्याधानम्
ओं भूर्भुवः स्वः। (गोभिल.गृ.प.१/खं.१/सू.११)
ओं भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा। तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठे ऽ ग्निमन्ना दमन्नाद्यायादधे।। (यजृ.अ.३/मं.५)
ओम् उद् बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते स ँ् सृजेथामय९च। अस्मिन्त्सधस्थे ऽ अध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्चसीदत।। (यजु. १५/५४)
समिदाधानम्
ओम् अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्द्धस्व चेद्ध वर्द्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसे नान्नाद्येन समेधय स्वाहा। इदमग्नये जातवेदसे – इदन्न मम।। १।।
(आश्वलायन गृ.सू. १/१०/१२) इस मन्त्र से घृत में डुबोकर पहली..
ओं समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम्।
आस्मिन् हव्या जुहोतन स्वाहा।।
इदमग्नये – इदन्न मम।। २।। (यजु. ३/१)
इससे और..
सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन।
अग्नये जातवेदसे स्वाहा।। इदमग्नये जातवेदसे – इदन्न मम।। ३।। (यजु.३/२)
इस मन्त्र से अर्थात् दोनों मन्त्रों से दूसरी और..
तं त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्द्धयामसि।
बृहच्छोचा यविष्ठ्या स्वाहा।। इदमग्नये ऽ ङ्गिरसे – इदन्न मम।। ४।। (यजु. ३/३)
इस मन्त्र से तीसरी समिधा समर्पित करें। उक्त मन्त्रों से समिधाधान करके नीचे लिखे मन्त्र को पांच बार पढ़कर पांच घृताहुतियां दें।

प९चघृताहुतिमन्त्रः
ओम् अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्द्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्बह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा। इदग्नये जातवेदसे – इदन्न मम।। (आश्व.गृ.सू. १/१०/१२)

जलसि९चनमन्त्राः
ओम् अदिते ऽ नुमन्यस्व।। १।। इससे पूर्व में
ओम् अनुमते ऽ नुमन्यस्व।। २।। इससे पश्चिम में
ओम् सरस्वत्यनुमन्यस्व।। ३।। इससे उत्तर दिशा में
ओं देव सवितः प्र सुव यज्ञं प्र सुव यज्ञपतिं भगाय। दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु।। ४।। (यजु.३०/१)
इस मन्त्रपाठ से वेदी के चारों ओर जल छिड़काएं।

आघारावाज्यभागाहुतिमन्त्राः
ओम् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये – इदन्न मम।। १।।
इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग अग्नि में
ओं सोमाय स्वाहा। इदं सोमाय – इदन्न मम।। २।। (गो.गृ.प्र.१/खं.८/सू.२४)
इससे दक्षिण भाग अग्नि में
ओं प्रजापतये स्वाहा। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। ३।। (यजु. २२ / ३२)
ओम् इन्द्राय स्वाहा। इदमिन्द्राय – इदन्न मम।। ४।। (यजु.२२/२७)
इन दोनों मन्त्रों से वेदी के मध्य में दो आहुतियां दें। उक्त चार घृत आहुतियां देकर नीचे लिखे चार मन्त्रों से प्रातःकाल अग्निहोत्र करें।

प्रातःकालीन-आहुतिमन्त्राः
ओं सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः स्वाहा।। १।।
ओं सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा।। २।।
ओं ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा।। ३।।
(यजु. ३/९)
ओं सजूर्देवेन सवित्रा सजूरुषसेन्द्रवत्या।
जुषाणः सूर्यो वेतु स्वाहा ।। ४।। (यजु. ३/१०)
अब नीचे लिखे मन्त्रों से प्रातः सांय दोनों समय आहुतियां दें।

प्रातः सांयकालीनमन्त्राः
ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा। इदमग्नये प्राणाय – इदन्न मम।। १।। (गोभिगृह्यसूत्र०प्र.१/खं.३/यू. १-३)
ओं भुवर्वायवे ऽ पानाय स्वाहा।
इदं वायवे ऽ पानाय – इदन्न मम ।। २।।
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।
इदमादित्याय व्यानाय – इदन्न मम।। ३।।
ओं भूर्भुवः स्वरग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा। इदमग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः इदन्न मम।। ४।। (तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनैकीकृता ऋ.भा.भू. पंचमहा.)
ओम् आपो ज्योतीरसो ऽ मृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा।। ५।। (तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनरचितः प९चमहायज्ञ.)
ओं यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते। तया मामद्य मेधया ऽ ग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा।। ६।। (यजु.३२/१४)
ओं विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।
यद्भद्रन्तन्न ऽ आसुव स्वाहा।। ७।। (यजु.३०/३)
ओम् अग्ने नय सुपथा राये ऽ अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्। युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम ऽ उक्तिं विधेम स्वाहा।। ८।।
(यजु.४०/१६)

सायंकालीन-आहुतिमन्त्राः
ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा।। १।।
ओम् अग्निर्वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा।। २।।
ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा।। ३।।
(यजु. ३/९ के अनुसार)
इस मन्त्र को मन में बोल कर आहुति दें।
ओं सजूर्देवेन सवित्रा सजू रात्र्येन्द्रवत्या।
जुषाणो ऽ अग्निर्वेतु स्वाहा।। ४।। (यजु.३/९, १०)
ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा।। १।।
(गोभिगृह्यसूत्र०प्र.१/खं.३/यू. १-३)
ओं भुवर्वायवे ऽ पानाय स्वाहा।। २।।
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।। ३।।
ओं भूर्भुवः स्वरग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा।
(तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनैकीकृता ऋ.भा.भू. पंचमहा.)
ओम् आपो ज्योतीरसो ऽ मृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा।। ५।। (तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनरचितः प९चमहायज्ञ.)
ओ३म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।। (यजु.३६/३)
इस मन्त्र से तीन आहुतियां दें।

पूर्णाहुति-प्रकरणम्
आघारावाज्यभागाहुतिमन्त्राः
ओम् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये – इदन्न मम।। १।।
इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग अग्नि में
ओं सोमाय स्वाहा।
इदं सोमाय – इदन्न मम।। २।।
(गो.गृ.प्र.१/खं.८/सू.२४)
इससे दक्षिण भाग अग्नि में
ओं प्रजापतये स्वाहा। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। ३।। (यजु. २२ / ३२)
ओम् इन्द्राय स्वाहा। इदमिन्द्राय – इदन्न मम।। ४।।
इन दो मन्त्रों से वेदी के मध्य में आहुति देनी, उसके पश्चात् उसी घृतपात्र में से स्रुवा को भरके प्रज्वलित समिधाओं पर व्याहृति की निम्न चार आहुतियाँ देवे।
व्याहृत्याहुतिमन्त्राः
ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा।
इदमग्नये प्राणाय – इदन्न मम।। १।।
ओं भुवर्वायवे ऽ पानाय स्वाहा।
इदं वायवे ऽ पानाय – इदन्न मम ।। २।।
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।
इदमादित्याय व्यानाय – इदन्न मम।। ३।।
निम्न मन्त्र से स्विष्टकृत् होमाहुति भात की अथवा घृत की देवें।
यदस्य कर्मणोऽत्यरीरिचं यद्वा न्यूनमिहाकरम्।
अग्निष्टत् स्विष्टकृद् विद्यात् सर्वं स्विष्टं सुहुतं करोतु मे।
अग्नये स्विष्टकृते सुहुतहुते सर्वप्रायश्चित्ताहुतीनां कामानां समर्द्धयित्रे सर्वान्नः कामान्त्समर्द्धय स्वाहा।।
इदमग्नये स्विष्टकृते – इदन्न मम।। १।। (आश्व.१/१०/२२)
ओं प्रजापतये स्वाहा।। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। २।।
(यजु.१८/२२) इस प्राजापत्याहुति को मन में बोलकर देनी चाहिए।
आज्याहुतिमन्त्राः (पवमानाहुतयः)
ओं भूर्भुवः स्वः। अग्न आयूंषि पवस आ सुवोर्जमिषं च नः।
आरे बाधस्व दुच्छुनां स्वाहा।। इदमग्नये पवमानाय – इदन्न मम।। ३।। (ऋ.९/६६/१९)
ओं भूर्भुवः स्वः। अग्निर्ऋषिः पवमानः पाञ्चजन्यः पुरोहितः।
तमीमहे महागयं स्वाहा।। इदमग्नये पवमानाय – इदन्न मम।। ४।।
(ऋ.९/६६/२०)
ओं भूर्भुवः स्वः। अग्ने पवस्व स्वपा अस्मे वर्चः सुवीर्यम्।
दधद्रयिं मयि पोषं स्वाहा।। इदमग्नये पवमानाय – इदन्न मम।। ५।।
(ऋ.९/६६/२१)
ओं भूर्भुवः स्वः। प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव।
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणां स्वाहा।। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। ६।।
(ऋ.१०/१२१/१०)
इनसे घृत की चार आहुतियाँ करके ‘अष्टाज्याहुति’ के निम्नलिखित मन्त्रों से सर्वत्र मंगल कार्यों में आठ आहुति देवें।
त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान्देवस्य हेळोऽवयासिसीष्ठाः।
यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषांसि प्र मुमुग्ध्यस्मत् स्वाहा।। इदमग्निवरुणाभ्याम् – इदन्न मम।। ७।। (ऋ. ४/१/४)
स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती नेदिष्ठोऽअस्या उषसो व्युष्टौ।
अव यक्ष्व नो वरुणं रराणो वीहि मृळीकं सुहवो न एधि स्वाहा।। इदमग्निवरुणाभ्याम् – इदन्न मम।। ८।।
(ऋ.४/१/५)
इमं मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृळय।
त्वामवस्युराचके स्वाहा।। इदं वरुणाय – इदन्न मम।। ९।। (ऋ.१/२५/१९)
तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः।
अहेळमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मा न आयुः प्र मोषीः स्वाहा।। इदं वरुणाय – इदन्न मम।। १०।। (ऋ.१/२४/११)
ये ते शतं वरुण ये सहस्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः।
तेभिर्नोऽअद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्काः स्वाहा।। इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यः – इदन्न मम।। ११।।
(का.श्रौत.२५/१/११)
अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च सत्यमित्त्वमयाऽसि।
अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भेषज द्भञ स्वाहा।। इदमग्नये अयसे – इदन्न मम ।। १२।। (का.श्रौत.२५/१/११)
उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय।
अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा।। इदं वरुणाया ऽऽ दित्यायाऽदितये च – इदन्न मम।। १३।।
(ऋ.१/२४/१५)
भवतन्नः समनसौ सचेतसावरेपसौ।
मा यज्ञ हि सिष्टं मा यज्ञपतिं जातवेदसौ शिवौ भवतमद्य नः स्वाहा।। इदं जातवेदोभ्याम्-इदन्न मम।। १४।। (यजु.५/३)

विजया दशमी

ओ३म संशितं म इदं ब्रहा संशितं वीर्यं१ बलम्।

संशितं क्षत्रमजरमस्तु जिष्णुर्येषामस्मि पुरोहितः स्वाहा ।। १ ।।

समहमेंषा राष्ट्रं श्यामि समोजो वीर्यं१ बलम्।

वृश्चामि शत्रूणां बाहूननेन हविषाहम् स्वाहा ।।२।।

नोचैः पद्यन्तामधरे भवन्तु ये नः सूरिं मघवानं पृतन्यान्।

क्षिणामि ब्रह्मणामित्रानुन्नयामि स्वानहम् स्वाहा ।।३।।

तीक्ष्णीयांसः परशोरग्नेस्तीक्ष्णतरा उत।

इन्द्रस्य वज्रात्तीक्ष्णीयांसो येषामस्मि पुरोहितः स्वाहा ।।४।।

एषामहमायुधा सं श्याम्येशां राष्ट्रं सुवीरं वर्धयामि।

एषां क्षत्रमजरमस्तु जिष्णवे३षां चित्तं विश्वेऽवन्तु देवाः स्वाहा ।।५।।

उद्धर्षन्तां मघवन्वाजिनान्युद् वीराणां जयतामेतु घोषः।

पृथग् घोषा उलुलयः केतुमन्त उदीरताम्।

देवा इन्द्रज्येष्ठा मरुतो यन्तु सेनया स्वाहा ।।६।।

प्रेता जयता नर उग्रा वः सन्तु बाहवः।

तीक्ष्णेषवोऽबलन्वनों हतोग्रायुधा अबलानुग्रबाहवः स्वाहा ।।७।।

अवसृष्टा परा पत शरव्ये ब्रह्मसंशिते।

जयामित्रान् प्रपद्यस्व जह्येषां वरं वरं मामीषां मोचि कश्चन स्वाहा।।८।।

-अथर्व. ३ । १९ । १-३।।

  ये बाहवो या इषवो धन्वनां वीर्याणि च।

असीन्परशूनायुधं चित्ताकूतं च यद्धृति।

सर्वं तदर्बुदे त्वममित्रेभ्यो दृशे कुरूदारांश्च प्रदर्शय स्वाहा ।। ९ ।।

उत्तिष्ठत सं नह्यध्वं मित्रा देवजना यूयम्।

सं दृष्टा गुप्ता वः सन्तु या नो मित्राण्यर्बुदे स्वाहा ।।१॰।।

उत्तिष्ठतमा रभेथामादानसंदानाभ्याम्।

अमित्राणां सेना अभिधत्तमर्बुदे स्वाहा ।। ११ ।।

  -अथर्ववेद ११ । ९ । १-३ ।।

पूर्णाहुति-मन्त्राः
ओं सर्वं वै पूर्ण ँ् स्वाहा। इस मन्त्र से तीन बार केवल घृत से आहुतियां देकर अग्नि होत्र को पूर्ण करें।

(५) अथ भूतयज्ञः (बलिवैश्वदेवयज्ञ)
निम्नलिखित दस मन्त्रों से घृत-मिश्रित भात की यदि भात न बना हो तो क्षार और लवणान्न को छोड़कर पाकशाला में जो कुछ भोजन बना हो उसी की आहुति देवें।
ओम् अग्नये स्वाहा।। १।। ओं सोमाय स्वाहा।। २।।
ओम् अग्निषोमाभ्यां स्वाहा।। ३।। ओं विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा।। ४।। ओं धन्वन्तरये स्वाहा।। ५।। ओम् कुह्वै स्वाहा।। ६।। ओम् अनुमत्यै स्वाहा।। ७।। ओं प्रजापतये स्वाहा।। ८।। ओं सह द्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा।। ९।। ओें स्विष्टकृते स्वाहा।। १।।
तत्पश्चात् निम्नलिखित मन्त्रों से बलिदान करें। एक पत्तल अथवा थाली में यथोक्त दिशाओं में भाग रखना। यदि भाग रखने के समय कोई अतिथि आ जाए तो उसी को देना अथवा अग्नि में डालना चाहिए।
ओं सानुगायेन्द्राय नमः।। १।। (इससे पूर्व)
ओं सानुगाय यमाय नमः।। २।। (इससे दक्षिण)
ओं सानुगाय वरुणाय नमः।। ३।। (इससे पश्चिम)
ओं सानुगाय सोमाय नमः।। ४।। (इससे उत्तर)
ओं मरुद्भ्यो नमः।। ५।। (इससे द्वार)
ओं अद्भ्यो नमः।। ६।। (इससे जल)
ओं वनस्पतिभ्यो नमः।। ७।। (इससे मूसल व ऊखल)
ओं मरुद्भ्यो नमः।। ८।। (इससे ईशान)
ओं भद्रकाल्यै नमः।। ९।। (इससे नैऋत्य)
ओं ब्रह्मपतये नमः।। १०।।
ओं वस्तुपतये नमः।। ११।। (इनसे मध्य)
ओं विश्वभ्यो देवेभ्यो नमः।। १२।।
ओं दिवाचारिभ्यो भूतेभ्यो नमः।। १३।।
ओं नक्तंचारिभ्यो भूतेभ्यो नमः।। १४।। (इनसे ऊपर)
ओं सर्वात्मभूतये नमः।। १५।। (इससे पृष्ठ)
ओं पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः।। १६।। (इससे दक्षिण) -मनु. ३/८७-९१
तत्पश्चात् घृतसहित लवणान्न लेके-
शुनां च पतितानां च श्वपचां पापरोगिणाम्।
वायसानां कृमीणां च शनकैर्निवपेद् भुवि।।
(मनु. ३/९२)
अर्थ :- कुत्ता, पतित, चाण्डाल, पापरोगी, काक और कृमि- इन छः नामों से छः भाग पृथ्वी पर धरे और वे भाग जिस-जिस नाम के हों उस-उस को देवें।

(६) अतिथियज्ञः
तद्यस्यैवं विद्वान् व्रात्योऽतिथिर्गृहानागच्छेत्।। १।।
स्वयमेनमभ्युदेत्य ब्रूयाद् व्रात्य क्वावासीत्सीर्व्रा- त्योदकं व्रात्य तर्पयन्तु व्रात्य यथा ते प्रियं तथास्तु व्रात्य यथा ते वशस्तथास्तु व्रात्य यथा ते निकामस्तथाऽस्त्विति।। २।।
(अथर्व. १५/११/१,२)
जब पूर्ण विद्वान् परोपकारी सत्योपदेशक गृहस्थों के घर आवें, तब गृहस्थ लोग स्वयं समीप जाकर उक्त विद्वानों को प्रणाम आदि करके उत्तम आसन पर बैठाकर पूछें कि कल के दिन कहाँ आपने निवास किया था ? हे ब्रह्मन् जलादि पदार्थ जो आपको अपेक्षित हों ग्रहण कीजिए, और हम लोगों को सत्योपदेश से तृप्त कीजिए।
जो धार्मिक, परोपकारी, सत्योपदेशक, पक्षपातरहित, शान्त, सर्वहितकारक विद्वानों की अन्नादि से सेवा और उनसे प्रश्नोत्तर आदि करके विद्या प्राप्त करना अतिथियज्ञ कहाता है, उसको नित्यप्रति किया करें।

यज्ञ-प्रार्थना
पूजनीय प्रभो हमारे भाव उज्जवल कीजिए।
छोड देवें छल कपट को मानसिक बल दीजिए।।
वेद की बोलें ऋचाएं सत्य को धारण करें।
हर्ष में हों मग्न सारे शोक सागर से तरें।।
अश्वमेधादिक रचाएं यज्ञ पर उपकार को।
धर्म मर्यादा चलाकर लाभ दें संसार को।।
नित्य श्रद्धा भक्ति से यज्ञादि हम करते रहें।
रोग पीड़ित विश्व के संताप सब हरते रहें।।
भावना मिट जाए मन से पाप अत्याचार की।
कामनाएं पूर्ण होवें यज्ञ से नर-नारि की।।
लाभकारी हो हवन हर प्राणधारी के लिए।
वायु जल सर्वत्र हों शुभ गन्ध को धारण किए।।
स्वार्थ भाव मिटे हमारा प्रेम पथ विस्तार हो।
इदन्न मम का सार्थक प्रत्येक में व्यवहार हो।।
हाथ जोड़ झुकाएं मस्तक वन्दना हम कर रहे।
नाथ! करुणारूप करुणा आपकी सब पर रहे।।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।।
हे नाथ सब सुखी हों, कोई न हो दुखारी।
सब हों निरोग भगवन, धन-धान्य के भंडारी।
सब भद्रभाव देखें, सन्मार्ग के पथिक हों।
दुःखिया न कोई होवे, सृष्टि में प्राणधारी।

शान्ति पाठः
ओं द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष ँ् शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व ँ् शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि। (यजु.३६/१७)
ओम् शान्तिः शान्तिः शान्तिः।

शान्ति कीजिए प्रभु त्रिभुवन में

जल में थल में और गगन में, अन्तरिक्ष में अग्नि पवन में।

ओषधि वनस्पति वन उपवन में, सकल विश्व में जड़ चेतन में।। 1।।

शान्ति कीजिए प्रभु त्रिभुवन में

ब्राह्मण के उपदेश वचन में, क्षत्रिय के द्वारा हो रण में।

वैश्य जनों के होवे धन में, और सेवक के परिचरणन में।। 2।।

शान्ति कीजिए प्रभु त्रिभुवन में

शान्ति राष्ट्र निर्माण सृजन में, नगर ग्राम में और भवन में।

जीव मात्र के तन में मन में, और जगत के हो कण कण में।। 3।।

शान्ति कीजिए प्रभु त्रिभुवन में

विजया दशमी

आश्विन सुदि दशमी

हुआ प्रकृति का निर्मल जीवन, स्वच्छ गम्य सब पन्थ गए बन।

विमल व्योम में छिटके तारे, मुद्रित हुए है जिग्मिषु  सारे।।

                                            -श्री गिरधरशर्मा  ‘नवरत्न’

विजयार्थी विजयार्थ चले है, व्यापारी भी चल निकले हैं।

विजया दशमी दुन्दुभि बाजी, नरपतियों से सेना साजी।।

क्षात्र-तेज से वीर भरे है, वे उत्साह शक्ति प्रेरे हैं।

                                                                                                – श्री सिद्ध गोपाल काव्यतीर्थ, कविरत्न

            जगतीतल में भारतवर्ष  ही एक ऐसा भूखण्ड है जहां वर्षा की ऋतु अन्य ऋतुओं से पृथक होती है अन्य देशों में शीत (जाड़ा ) और उष्ण (गरमी) दो ऋतुएं (मौसम) होती हैं। उन में ही समय-समय पर वर्षा भी होती रहती हैं किन्तु भारत में जाड़ा गरमी और बरसात के तीन मौसम वर्ष  के चार-चार मास रहते हैं। वर्षा  के चातुर्मास्य (चैमासा) में वर्षा का इतना प्राचुर्य रहता है कि उस में बंगाल आदि कई देशों  मे तो जल थल एक हो जाता है। भारत के अन्य प्रान्तों की नदियां भी बाढ़ से उमड़ पड़ती है। ताल-तलैया जल से परिपूर्ण हो जाते है। आने-जाने के सारे मार्ग कीचड़ और जलसे भरे रहते हैं। चार मास तक शकट (गाड़ी-तांगों) आदि वाहनों का यातायात प्रायः रूका रहता है। किसान अपनी गाड़ी तांगों को उड़ेल (पृथक-पृथक करके) रख देते हैं। प्राचीन भारत में तो, जब यहां  सड़को वा राजमार्गो की बहुतायात न थी, वर्षाकाल में यात्राएं बिलकुल ही बन्द रहती थीं। राजन्यवर्ग की  विजय यात्रा और वैश्यों  की व्यापार यात्रा वर्षा  के चातुर्मास्य में रूकी रहती थी। वर्षा  के अवसान पर जब शरद ऋतु  का प्रवेश  होता था तो इन अवरुद्ध  यात्राओं का पुनः प्रारम्भ होता था।

अब नदियों को गाध (उथला) करती हुई और मार्ग के कीचड़ो को सुखाती हुई, शरदऋतु  का पदार्पण हो गया है। जलाशयों में कुमुदिनियां (कुई) खिल रही हैं। निर्वष्ट (बरसे) हुए हल्के मेघ सूर्य के मार्ग में से हट गए हैं, इसलिए उस का प्रताप चारों दिशाओ में फैलने लगा है। शरदऋतु की साम्राज्ञी कुमुदिनी के छत्र और कांस के चमर से शोभा पा रही है। स्वच्छ चांदनी आंखो को अतीव आनन्द देती है। स्थल पर हंसो की पंक्तियों, आकाश  में ताराओं और जलाशयों में कुमुदिनियों पर श्व़ेतता छाई हुई है। ईखे बढ़ कर लम्बी और सघन हो गई है और उन के खेतों की छाया में मेढ़ो पर बैठे हुए गोपालबाल मधुर गीत गा रहे हैं। अगस्त्य नामक तारे के उदय होते ही जलाशय स्वच्छ हो गए है। गाड़ियों  के बैल वर्षा  भर छूटे रह कर और यथेष्ट घास चर कर खूब तैयार हो गए है। उन के ठांठ मोटे होकर बड़े सुन्दर प्रतीत होते है। वे आनन्द से उन्मत होकर खोरू खोद रहे हैं-वप्रक्रीड़ा कर रहे हैं। सींगो से नदियों की ढांगो को ढ़ा रहे हैं। शारद (सप्तपर्ण) वृक्ष के पुष्प खिल रहे हैं और उन मे हाथी के मद की सी गन्ध आ रही है। चारों ओर शरत्- श्री विराज रही है। ऐसे समय मे ही, इन दिनों ही- दिग्विजय-यात्रा और व्यापार-यात्रा के पुनः प्रारम्भ की तैयारियां होती है। विजयादशमी उत्सव का ससमारोह समारम्भ होता है। बरसात में जंग लगे हुए योद्धाओं के खड्गादि शस्त्र और कवच संघर्षण द्वारा (सेकल करके) स्वच्छ और शाणित  किये जाते हैं, जिन की चमक आंखो में चकाचैंध उत्पन्न करती है। अश्वों और हाथियों की सज्जा सामग्री (वल्गा=लगाम, इयाण=पलाग) आभूषण और होदे संस्कार और सुधार किया जाता है। चतुरंगिणी सेनाएं  सुसज्जित की जाती है।

            वैश्यों (कृषकों और व्यापारियों) के चार मास से उड़ले पड़े हुए शकटादि वाहन धावन (धोने और पौंछने) और तले मर्दनादि द्वारा बांध जोड़कर यात्रायोग्य सन्नद्ध किये जाते हैं । तथा व्यापारियों की दुकानों पर लेखनी मसिपात्र आदि लेखन उपकरण स्वच्छ किये जाते हैं, और नये बहीखाते और बस्ते बदले जाते हैं। संक्षेपतः प्रत्येक व्यवसायी अपने उपकरणों का परिमार्जन और सन्नहन (Equipping) करता है। इन सारे कार्यो की तैयारी आश्विन शुदि प्रतिपदा से आरम्भ करके आश्विन शुदि विजया दशमी तक पूरी हो जाती है। इस लघु लेखक को स्मरण है कि उस की बाल्यावस्था में उस के पिता के यहां विजया दशमी से एक सप्ताह पूर्व से शस्त्रों के सैकल का कार्य होता रहता था।

विजया दशमी के दिन यज्ञशाला के द्वार देश  में सुसज्जित, सशस्त्र, चतुरंगिणी (अश्व, हाथी, रथ तथा    पदाति) को क्रमबद्ध खड़ा करके उनकी नीराजना विधि (आरती) की जाती है। नीराजना विधि में स्वस्ति और शान्तिवाचन पूर्वक बृहत्होम यज्ञ होता है, जिस में क्षात्र धर्म के वर्णनपरक मन्त्रों से विशेष आहुतियां दी जाती हैं।

            वैश्यवर्ण वा अन्य व्यवसायी भी इसी प्रकार अपने व्यवसाय के वाहन आदि उपकरणों को        सुसज्जित और परिमार्जित रूप में यज्ञशालाओं में क्रमबद्ध  उपस्थित करके नीराजना का अनुष्टान  करते थे।यह कृत्य  पूर्वाह्न  में होता था। सांयकाल के समय राजन्य गण अपनी सज्जित सेना सहित सजधज के विजय-यात्रा का नियम बद्ध  उपक्रम करते थे। वैश्य  भी अपने वाहनों में बैठकर इसी प्रकार व्यापार यात्रा का   प्रारम्भ सूचक अनुष्टान करते थे। विजयादशमी के दिन से दिग्विजय यात्रा और व्यापार-यात्रा निर्बाध चल पड़ती  थी। इसी प्राचीन दिग्विजय-यात्राओं के स्मारक रूप में अवशेष आज तक सांयकाल के समय  ग्राम-सीमोल्लंघन यात्रा रूप से भारत के महराष्ट्र  आदि अनेक प्रान्तों में प्रचलित है।

            इस अवसर पर प्रजाएं अपने प्रभुओं की सेवा से रोकड़ा रूपये के रूप में उपायन (भेंट) प्रस्तुत  करती थीं और वे भी उन को बहुमूल्य उपहार और पारितोषिकों से पुरस्कृत  करते थे।

            जन साधारण में इस समय परस्पर एक-दूसरे के गृह  पर जाकर मिलने-भेंटने की प्रथा का भी प्रचार था। इस से जहां वर्ष  भर के मिथो मनोमालिन्य वा मनमुटाव को मेटना अभिप्रेत था। वहां दीर्घयात्रा पर जाने से पूर्व वयस्कों, सम्बन्धियों और सन्मित्रों का अन्तिम साक्षात्कार भी उद्दिष्ट  था।

            प्राचीन काल में विजया दशमी का युद्ध स्वरूप इतना ही प्रतीत होता है। पीछे से इस पर्व के      आनन्दावसर पर श्री रामचन्द्र के भव्याभिनय वा रम्य रामलीला के प्रदर्शन का प्रचार चल पड़ा और जिस ने      विकृत रूप धारण किया।

            दीर्घकाल से विजया दशमी के पर्व पर रामलीला के रचे जाने के कारण जनता में यह मिथ्या  धारणा बद्ध मूल हो गई  है कि विजया दशमी के दिन मर्यादा पुरषोत्तम  सूर्यवंशावतंस श्रीरामचन्द्र ने  राक्षसराज रावण का वध करके लंका पर विजय प्राप्त की थी। वाल्मीकि रामायण के अवलोकन से इस चिरकालीन कल्पना का नितान्त निराकरण होता है। उपर्युक्त ग्रन्थ के अनुसार श्री पण्डित हरिमंगल मिश्र  एम. ए. कृत  ‘प्राचीन भारत’ के परिशिष्ट  में जो रामचरित की घटनाओं की तिथियों की दो जन्त्रियां दी गईहै। उन से रावणवध की तिथियां क्रमश: वैशाख कृष्ण चतुर्दशी और उक्त ग्रन्थ में ही उद्धृत पं. महादेव प्रसाद त्रिपाठी कृत ‘भक्तिविलास’ के आधार पर फाल्गुन शुदि एकादशी गुरूवार ज्ञात होती हैं। श्री पण्डित हरिशंकर जी दीक्षित अपनी त्यौहार-पद्धति में इस विषय में इस प्रकार लिखते हैं कि रामायण का कथन इस विश्वास का विरोध करता है। वाल्मीकि रामायण में यह स्पष्ट  लिखा है कि आज के दिन महाराजा रामचन्द्र ने पम्पापुर से लंका की ओर प्रस्थान किया और चैत्र को अमावस्या को रावण का वध कहा गया है। इस से यह स्पष्ट  विदित होता है कि श्री महाराजा रामचन्द्र की विजय तिथि चैत्र कृष्णा अमावस है। आश्विन शुक्ला दशमी को श्री महाराज रामचन्द्र का विजय दिन मनाना वाल्मीकि रामायण से तो सिद्ध होता नहीं और न गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण से यह सिद्ध  होता है कि यह दशमी श्री रामचन्द्र जी की विजय तिथि हैं। भाषा  की रामायण से भी यह विदित होता है कि वर्षा ऋतु  के चार मास पर्यन्त रामचन्द्र जी का निवास पम्पापुर  ही में रहा। वर्षाऋतु के बीतने पर श्री हनुमान जी सीता देवी की  खोज में गए है। इसके पश्चात्  ही श्री रामचन्द्र जी का जाना विदित होता है। अतएव जनता का यह विश्वास  है कि श्री रामचन्द्र जी ने अश्विन शुक्ला दशमी को रावण का वध किया है, निर्मूल प्रतीत होता है।‘

            उपर्युक्त अवतरणों से पूर्ण-प्रमाणित होता है कि कम से कम विजया दशमी रावण-वध और लंका-विजय की तिथि नहीं है।

विजय दशमी

विजया दशमी का दिन हिन्दुओं का एक पवित्र दिन है क्योंकि इसी शुभ मुहुर्त में मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने विजय यात्रा की थी और कुछ समय मे ही लंकापति रावण का वध कर असंख्य प्राणियों को उसके अत्याचारों से मुक्त किया था। राम की यह विजय धर्म की अधर्म पर अपूर्व विजय थी। राम ने रावण का राज्य छीनने के लिए लंका पर चढ़ाई नही की थी और न लंका की प्रजा को दास बनाकर उसका दोहन शोषण करने के लिए ही, अपितु आर्य परम्परा के अनुसार अत्याचार के उन्मूलन और धर्म की प्रतिष्टा  के  लिए की थी। उन्होनें अपनी विजय से सच्चे वीर का आदर्श उपस्थित करके आर्य प्रथानुमोदित क्षत्रिय धर्म की महिमा उपस्थित करके आर्य प्रथानुमोदित क्षत्रिय धर्म की महिमा का भव्य दिग्दर्शन कराया था। यूरोप और अमेरिका के वर्तमान युद्ध देवता  इस आदर्श को जितना शीघ्र अपनाकर क्रिया में लायें उतना  ही विश्व शन्ति के लिए श्रेयस्कर है।

            मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने लंका पर चढ़ाई करने के लिए अयोध्या या मिथिला से सैनिक सहायता प्राप्त न की थी। उन्होंने स्वयम् अपने बल पर युद्ध किया था। विजयादशमी का दिन उस दिन का स्मरण कराता है, जब आर्य जाति का जाति-सुलभ तेज मौजूद था। जब वह अत्याचार के उन्मूलन और पीडि़तो के रक्षण के लिए शक्तिशाली अत्याचारी के मुकाबले में संगठनात्मक प्रतिभा के बल पर जंगली जातियों को ला खड़ा करना जानती थी। भगवान् राम का हम सत्कार करते है, क्योंकि उन्होनें आर्यजाति की मर्यादा के अनुरूप नेतृत्व और शौर्य प्रदर्शित किया और विश्वास की भावना को गौरवान्वित किया था।

            राम हमारे पूज्य है, इसलिए नहीं कि वे भगवान् के अवतार थे। वे दुनिया को मन चाहा नाच नचा सकते थे। उन के नाम का जाप करने मात्र से मनुष्य भवसागर से तर जाता है। वह सूर्य को पश्चिम में उदय कर सकते थे। मुर्दे को जिला सकते थे। समुद्र को सुखा और सूर्य-चन्द्र को पृथ्वी पर उतार सकते थे इत्यादि इत्यादि। हम उन की पूजा इसलिए करते हें कि वे आदर्श पुरूष थे और आर्य संस्कृति के मूर्तिमान् प्रतीक थे।

            इटली के पन्द्रहवी शताब्दी के कूटनीतिज्ञ मेकावेली ने अपने देश के सीजर बोर्जिया को आदर्श पुरूष बताया और अपनी संसार प्रसिद्ध पुस्तक ‘राजा’ में तत्कालीन यूरोपीय शासको को उस का अनुकरण करने का परामर्श दिया।

            इस के कई शताब्दियों बाद एक जर्मन दार्शनिक का जन्म हुआ जिस का नाम निट्शे था। इस ने भी सीजर बोर्जिया को आदर्श पुरुष माना और आशा प्रकट की कि जर्मन युवक उसके अनुरूप होगा। निट्शे ने नेपोलियन को भी संसार का आदर्श पुरूष बताया और कहा कि संसार में वही जाति अन्य जातियों के ऊपर शासन कर सकेगी जिस के युवकों में इन दोनों पुरूषों के गुण विद्यमान होंगे।

            सीजर बोर्जिया और नैपोलियन में आकाश, पाताल का अन्तर हैं। नैपोलियन के प्रतिभावान योद्धा होने में कोई सन्देह नहीं किया जा सकता, पर सीजन बोर्जिया अपने समय का सब से अधिक घृणित और पतित व्यक्ति था। उस ने अपने भाई को मरवा दिया था। एक महिला का सतीत्व नष्ट किया था और अपनी माता के अपमान का बदला लेने के लिए निर्दोष स्विस जनता को तलवार के घाट उतार दिया था। वह विष की उपयोगिता में विश्वाश रखता था और अपने शत्रुओं पर विजय पाने की चिन्ता में उचित और अनुचित का ध्यान रखना आवश्यक न समझता था। उस की तुलना अरबिस्तान के हसन बिन सब्बाह से की जा सकती है। जिस ने शत्रु से छुटकारा पाने के मामले में छुरे के उपयोग को धर्मोदेश कीर पवित्रता प्रदान की थी।

            मेकावेली और निट्शे किसी व्यक्ति के आदर्श वा देवापम होने के लिए उस में जिन गुणों की     उपस्थिति आवश्यक समझते थे, उन में भौतिक बल, कूटनीतिज्ञ, साम्राज्य लोलुपता और नृशंसता को विशेष रूप से महत्व दिया गया था। मैकावली स्वयं कूटनीतिज्ञ था, इसलिए उसे सीजन बोर्जिया को चरित्र विशेष रूप से रूचा। निट्शे का प्रादुर्भाव तब हुआ जब फ्रेडरिक महान् और उस के कृपण पिता के द्वारा प्रशिया में सैनिकवाद का प्रतिपादन हो चुका था। निट्शे को प्रूशियन सैनिक के कायदे कानून की पाबन्दी और निर्दयता विशेष रूप से रूचिकर लगी। और आशा प्रकट की कि संसार का भविष्य  प्रूशियन सैनिक के हाथ मे है। परन्तु चूंकि वह उसे पूर्णरूपेण देवोपम पुरूश के रूप में देखना चाहता था, इसलिए उस ने सीजन का मित्रघात करने को मनोवृति और नैतिक चरित्रहीनता को भी अपनाने की सलाह दी।

            यह कहना आवश्यक है कि दूसरे महासमर के जर्मन नेताओं के कार्यकलाप विचार-बिन्दू पर निट्शे की गहरी छाप लगी हुई थी। परन्तु मैकावली ने यूरोप के शासकवर्ग को सीजर बोर्जिया के जिन गुणों को अपनाने की सलाह दी थी और निट्शे ने पू्शियन सैनिक को उस के जिन गुणों के कारण संसार का भावी शासक पूर्ण वा देवापम पुरूष समझा जाता था, वे गुण कहीं अधिक विकसित मात्रा में एशियायी विजेताओं में या मंगोल और तुर्क सैनिकों में विद्यमान थे।

            आर्य संस्कृति के देवापम पुरूष की विभावना इन मध्य एषियायी इटालियन या प्रुशियन           विभावनाओं से बिलकुल भिन्न प्रकार की रही है। सीजर बोर्जिया ने अपने पिता का अनुराग स्वयम् अपनाये रहने की इच्छा से अपने भाई की हत्या करवा दी। भरत ने राज्य मिलने पर भी उसे तिरस्कारपूर्वक ठुकरा दिया और भाई का अनुगामी रहकर ही सन्तोष किया। नेपोलियन ने रूस के तत्कालीन जार एलेक्जेण्डर से चिरकालीन मित्रता की सन्धि की (जिस प्रकार हिटलर ने स्टोलिन से अमर सन्धि की थी) और अवसर  पाते ही मित्र के साथ विश्वासघात किया। राम ने एक बहुत कमजोर आदमी का पक्ष ग्रहण किया और अन्त तक उस का साथ निभाया। औरंगजेब ने अपने पिता को कैद में डाला और भाइयों को मरवा दिया। ठीक उसी तरह जिस जिस तरह उनके पिता ने राज्य प्राप्ति के लिए अपने भाइयों को मरवाया था। राम ने अपने दुर्बल, शक्तिहीन और स्त्रैण पिता की आज्ञा का सहर्ष पालन किया और अपने भाई भरत के विरूद्ध षडयन्त्र करने के गन्दे विचार को भी मन में न आने दिया।

            संसार का देवापम पुरुष होने के लिए किसी व्यक्ति के भीतर किस प्रकार के गुणों का उपस्थिति आवश्यक है? उन गुणों की जो उस की बर्बर प्रवृति को क्रीडा करने का अवसर देते हैं या उन गुणों की  जो व्यक्ति की सदवृति को विकसित करके समाज के नित्य और निर्धारित नियमों का पालन करने और उन में विकास करने की प्रेरणा देते है? सीजन ईसाई था, नेपोलियन भी ईसाई था। मूसा के दस आदेश वाक्य प्रत्येक ईसाई को उस समय भी मान्य थे जैसे आज मान्य हैं, परन्तु मेकावेली और निट्शे के आदर्श पुरूषों ने इन सभी आदेश वाक्यों के विरूद्ध आचरण किया। भारतीय समाज में भी नियम उपनियम समाज के सृजन के आरम्भकाल से चले आ रहे हैं। हम राम को परम श्रद्धा की दृष्टी से देखते है, क्योंकि उन्होनें उन नियमों का साधारण व्यक्ति की भांति पालन किया। उसी प्रकार हम बाली और रावण को घृणा और तिरस्कार की दृष्टि से देखते हैं, क्योंकि उन में से एक ने अपने भाई की स्त्री पर अधिकार करके और दूसरे ने समाज की रक्षा करने के स्थान उल्लंघन किया। इस प्रकार जहां मेकावेली और निट्शे के दृष्टिकोण से बाली और रावण ही देवापम पुरूश सिद्ध होंगे। हमारी संस्कृति हमें ऐसे व्यक्तियों को समाज का शत्रु और ऐसे व्यक्तियों से समाज को मुक्त करने वाले व्यक्तियों को उस का रक्षक या पिता कहना सिखलाती है।

            राम को आर्य संस्कृति की विशिष्ट देन कहने में जरा भी अत्युक्ति नहीं हैं। जहां आर्य संस्कृति में मानवी  विकास को प्राधान्य दिया गया है, वहां अर्द्ध विकसित एशियायी और यूरोपीय समाज में भौतिक विकास और पुरुषबल को ही अपना आदर्श समझ गया है। यही कारण है कि अनेक तूफानों और बवंडरो की भयंकर चपेटों में से गुजरने के बाद भी आर्य संस्कृति आज जीवित है। कोई जाति तभी तक जीवित रह सकती है जब तक वह मानवी विकास के प्राकृतिक कार्यकलाप में योग देती रहे। इतिहास बताता है की जिन जातिओं ने हत्या, व्यभिचार और मक्कारों को त्यागकर आगे बढ़ने से इंकार किया और इन्हीं को अपनी उन्नति और तुष्टि का साधन समझा वे नष्ट हो गई।

आर्य संस्कृति के प्रतीक राम को हम नमस्कार करते हैं। हम पूज्य सीता के अज्ञात चरणों में भी अपनी श्रद्धांजलि प्रस्तुत करते हैं, क्योंकि वे अपने आचरण की आर्य ललनाओं के चरित्र पर अमिट छाप छोड़ गई हैं। उन का पातिव्रत्य और त्याग आर्य ललना को अपना सारा जीवन ही त्यागमय बनाने को प्रोत्साहित करता आ रहा है। लक्ष्मण का संयम और भरत का भ्रातृप्रेम अब भी हम में चरित्रबल उत्पन्न करते और स्फूर्ति प्रदान करते हैं।

हमारा आदर्श पुरुष से सर्वथा भिन्न है। हमारा आदर्श पुरुष मानव-समाज के लिए मंगल, निस्पृहता और शान्ति का सन्देश लेकर आता है। हमें भगवान् राम का वह चित्र प्रिय लगता है जिस में वह अपने भाई और पत्नी के साथ नंगे शरीर वन की खाक छान रहे होते हैं। उन्हे वह चित्र अच्छा लगता है जिस में सीजर ने विष द्वारा किसी शत्रु को समाप्त किया हो या नैपोलियन किसी नगर पर तोप के गोलों की वर्षा कर रहा हो या प्रूशियन सैनिक आकाश की और टांगे फैकता हुआ आगे बढ़ रहा हो। यही अन्तर है और इसी अन्तर में हमारी जाति के अमरत्व का रहस्य छिपा हुआ है।                                                                     -रघुनाथप्रसाद पाठक विजया दशमी के दिन अपराजिता देवी के पूजन की उद्भावना भी पौराणिक काल में ही हुई थी। इस का स्रोत स्यात् सरस्वती की वाग्देवी की आकृति के समान कविकल्पना-प्रसूता अपरोजय वा विजया की अपराजिता नाम्री देवी के रूप की मूर्ति की कल्पना में विद्यमान हो, क्योंकि पौराणिक षोंडशोपचार पूजा का सूत्रपात कविकल्पित रूपकों से ही हुआ। अपराजिता का अपभ्रंश पायता प्रतीत होता है जो विजया दशमी का नामान्तर प्रसिद्ध है। भारत के अज्ञानान्धकार काल में इस अपराजिता देवी ने चण्डी तथा कालिका आदि के अनेक नामों और रूपों से इतना प्राबल्य पाया कि उन की पूजा ने विजयादशमी के वास्तविक स्वरूप नीराजना विधि को बिल्कुल ढांप लिया और इस कपोल-कल्पित महाभंयकर कालिका चण्डी की रक्तपिपासा इतनी बढ़ी कि उस की मूर्ति के सामने इस पवित्र अवसर पर पुरूष से लेकर भैंसो और बकरो तक असंख्य प्राणियों की बलि होने लगी। विजया दशमी के दिन राजपूताने और महाराष्ट्र की भूमि निरपराध पशुओं के रक्त से लाला हो जाती थी। सन्तोश का विषय है कि दया धर्म के प्रचारकों के उद्योग से अब यह जघन्य अत्याचार कुछ रजवाड़ो और स्थानों में बंद हो गया है परन्तु आर्यधर्म के सेवकों के सामने अभी बहुत कुछ कार्य पूरा करने को शेष है। आर्य पुरूषो का परम कर्तव्य है कि वे संसार से विविध अत्याचारों का लोप करके विजया दशमी आदि पर्वो के शुद्ध और सनातनस्वरूप का जनता मे पुनः प्रचार करें और भारत के प्राचीन इतिहास का भी शोध करके वास्तविक ऐतिहासिक घटनाओं की शुद्ध तिथियों का जनसाधारण में प्रचारित करें। तभी वे अपने वैदिक धर्मावलम्बी आर्य नाम को सार्थक कर सकते हैं।

विजया दशमी के अवसर पर जो रामलीला के अभिनय यत्रतत्र होते है, उन का सुधार भी अपेक्षित है। यदि आर्य पुरूषों के प्रभाव और प्रयत्न से उन को उपयोगी और यथार्थ रूप दिया जा सके तो इस के लिए भी अवश्य उद्योग होना चाहिए।

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