ओ३म्
सत्यार्थ प्रकाश कवितामृत
काव्यरचना : आर्य महाकवि पं. जयगोपाल जी
स्वर : ब्र. अरुणकुमार “आर्यवीर”
ध्वनिमुद्रण : श्री आशीष सक्सेना (स्वर दर्पण साऊंड स्टूडियो, जबलपुर)
चतुर्थ समुल्लासः
अथ समावर्त्तनविवाहगृहाश्रमविधिं वक्ष्यामः।
वेदानधीत्य वेदौ वा वेदं वापि यथाक्रमम्।
अविप्लुतब्रह्मचर्यो गृहस्थाश्रममाविशेत्।।1।।
तं प्रतीतं स्वधर्मेण ब्रह्मदायहरं पितुः।
स्त्रग्विणं तल्प आसीनमर्हयेत्प्रथमं गवा।।2।।
गुरुणानुमतः स्त्रात्वा समावृत्तो यथाविधि।
उद्वहेत द्विजो भार्यां सवर्णां लक्षणान्विताम्।।3।। – मनुस्मृति
दोहा
पूरन विद्या प्राप्त कर, ब्रह्मचर्य व्रतधार।
करहि प्रवेश गृहस्थ मंह, आर्य धर्म अनुसार।।
माला डाले कंठ में, वर को पलंग पौढ़ाय।
मान करे गोदान से, गुरु कन्या पितु आय।।
चौपाई
गुरु की आज्ञा ले ब्रह्मचारी, गृह प्रवेश की करे तयारी।
न्हाय धोय गुरुकुल से आवे, शुभ कन्या सों ब्याह करावे।
आत्म वर्ण कन्या अनुकूला, सुभग सुलच्छित सुख की मूला।
माता की छः पीढ़ी तजिये, पितृ गोत्र कन्या नहीं भजिये।
नयन ओट जो हों पदारथ, वा संग प्रीति रहे यथारथ।
जो नयनन नित देखी भाली, वहां न रहे नयन की लाली।
मिसरी सुनी वरं नहीं खाई, रहे प्रबल इच्छा मन भाई।
अनदेखी वस्तु मँह प्रीति, होत सदा यह जग की रीति।
तिमि कन्या दूरस्थ विवाहा, वँधी रहे प्रीति अरु चाहा।
ताँते मातृ पिण्ड को त्यागे, पितृ गोत्र के निकट न लागे।
निकट सबन्ध दोष अतिरेका, सुनहु जो वर्णहिं शास्त्र अनेका।
बाल्यकाल मँह हिलमिल खेले, झगड़े लड़े मनाए मेले।
उछले कूदे नंगे धड़ंगे, कीच धूलि माटी मँह रंगे।
परिचित सभी बुराई, उचित न वहाँ विवाह सगाई।
असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितुः।
सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने।।4।।
– मनु0 3 । 5
परोक्षपिप्रया इव हि देवाः प्रत्यक्षद्विषः।। – शतपथ0
प्रेम प्रीति का वहाँ न वासा, जब लग जीवहिं भरहिं उसासा।
दूसर दोष शास्त्र कहें भारा, जिसे अनारज लोग बिसारा।
पानी मँह पानी मिल जाए, वह जल नया रंग नहीं लाए।
त्यों पितु गोत्र वंश जननी की, निर्गुण निरस विवाह में फीकी।
धातुन का नहीं हो परिवर्तन, नहीं आवर्तन प्रत्यावर्तन।
निर्गुण मूढ़ रहे सन्ताना, तनिक न उन्नति हो हौं जाना।
यथा दूध मँह मिसरी घोले, स्वाद सरसता मुख से बोले।
उत्तम गुण पय मँह आ जाएँ, शुठी आदिक द्रव्य मिलाएँ।
ताँते अन्य गोत्र मँह ब्याहो, जो तुम उत्तम सन्तति चाहो।
रोगी अन्य देश में जावे, जल वायु जाकर बदलावे।
इह विध दूर गोत्र की बाला, ब्याहे हो उत्तम गुण वाला।
निकट ब्याह ते नित्य लड़ाई, उपालम्भ अरु जगत हँसाई।
बढ़े दूर से नेह की डोरी, पत्नी रहे पति रंग बोरी।
नया देश नयी नयी बातें, दूर देश की मिलें सौगातें।
तांते निकट ब्याह नहीं करिये, मातृ पितृ जाति परिहरिये।
दुहिता दुर्हिता दूरेहिता भवतीति।। – निरुक्त 3।4
कन्या का ‘दुहिता’ है नामा, दूर रहे कन्या हित कामा।
जो कन्या पितु निर्धन होवे, पति घर में नहीं सुख सों सोवे।
जब जब वह माता घर आवे, तब ही तब कुछ संग ले जावे।
निकट होय जो माता का घर,रखे न पत्नी स्वामी का डर।
उसके मन मँह हो अभिमाना, स्वामी का करदे अपमाना।
रार बढ़े पितृ गृह जावे, नित का झगड़ा कौन मिटावे।
महान्त्यपि समृद्धानि गोऽजाविधनधान्यतः।
स्त्रीसम्बन्धे दशैतानि कुलानि परिवर्जयेत्।। 1 ।।
– मनु0 3।6
हीनक्रियं निष्पुरुषं निश्छन्दो रोमशार्शसम्।
क्षय्यामयाव्यपस्मारिश्वित्रिकुष्ठिकुलानि च।। 1 ।। – मनु0 3 । 7
नोद्वहेत्कपिलां कन्यां नाऽधिकाग्ङी न रोगिणीम्।
नालोमिकां नातिलोमां न वाचाटान्न पिङगलाम्।। 3 ।। – मनु0 3। 8
नर्क्षवृक्षनदीनाम्नीं नान्त्यपर्वतनामिकाम्।
न पक्ष्यहिप्रेष्यनाम्नीं न च भीषणनामिकाम्।। 4 ।। – मनु0 3 । 9
मनु लिखित यह दश कुल त्यागे, लाच के वश कबहुँ न लागे।
राज्य लक्ष्म हाथी घोड़े, दीनारों के मिल जाएं तोड़े।
अजा गाय धन अरु हो धाना, ऐसे कुल नहीं ब्याह कराना।
क्रियाहीन सत्पुरुष न जिसमें, वेद विमुख जो कुल हो तिसमें।
अर्श श्वास क्षय युक्त कुलन में, बडे बाल हों जिनके तनमें।
धित्रकुष्ठ आमाशय व्याधि, इन वंशन में करे न शादी।
संक्रामक यह रोग भयंकर, रज वीरज में पावें संकर।
इनका होय न और प्रसारन, एते कुल वरजे एहि कारण।
पीत वर्ण कन्या अधिकांगी, नर सों लंबी चौड़ी छांगी।
लोम रहित लोमश वाचाली, रोगिन पिंगल नयनों वाली।
नखत वृक्ष नद पर्वत नामा, पक्षी सर्प नामिका वामा।
प्रेष्य भयंकर नामों वाली, जैसे भीमा चण्डी काली।
निन्दित दनाम शास्त्र ने माने, ब्याह सम्बन्ध योग नहीं जाने।
अव्यङगाङगीं सौम्यनाम्नीं हंसवारणगामिनीम्।
तनुलोमकेशदशनां मृद्वङगीमुद्वहेत्स्त्रियम्।। 5 ।।
– मनु0 3 । 10
हंस हस्ति गति सुन्दर बाला, सरलांगी तनु दशन सुचाला।
सूक्ष्म रोमिका देह गठीली, मृदु चिकुरा मधु बयनि छबीली।
ऐसी कन्या का कर गहिये, तो जीवन भर सुख सों रहिये।
विवाह का समय और विधि
दोहा
कन्या षोडश वर्ष से, चौबीस वर्ष पर्यन्त।
पच्चिस से अड़तालिस पर, ब्याहे वर उपरंत।।
चौपाई
जुगल जोड़ी चौबीस अड़ताली, सर्वोत्तम उत्तम गुण वाली।
तीस अठारह मध्यम जाने, सोलह चौबिस नीच बखानें।
दोहा
ब्रह्मचर्य पालन सहित, इन विधिं जहाँ विवाह।
वही देश उन्नति करें, पावहिं सुख अथाह।।
चौपाई
ब्रह्मचर्य पालन जँह नाँहीं, करें ब्याह बालापन माँही।
डूबे देश जाति वह सारी, पड़े जाय दुख सागर खारी।
पूरन ब्रह्मचर्य विद्वाना, कर विवाह पावहिं सुख नाना।।
ब्याह सुधारे जाति सुधरे, पंक पतित यह जाति उधरे।
ब्याह रीति मँह होय बिगारा, कबहुं न होवे देश सुधारा।।
प्रश्न
अष्टवर्षा भवेद् गौरी नववर्षा च रोहिणी।
दशवर्षा भवेत्कन्या तत ऊर्ध्व रजस्वला।। 1 ।।
माता चैव पिता तस्या ज्येष्ठो भ्राता तथैव च।
त्रयस्ते नरकं यान्ति दृष्टवा कन्यां रजस्वलाम्।।2।।
दोहा
आठ वर्ष की बालिका, सो गौरी कहलाय।
नौ बर्सो की रोहिणी, कन्या दशम सुहाय।।
चौपाई
पुन कन्या पुन रजका दर्शन, महा पाप तस दर्सन पर्सन।
पिता मातु अरु जेठा भाई, नर्क जाँय तस दर्सन पाई।
कन्या रज दर्सन ते पूरव, ब्याहे पाए पुण्य अपूरव।
उत्तर
एकक्षणा भवेद् गौरी द्विक्षणेयन्तु रोहिणी।
त्रिक्षणा सा भवेत्कन्या ह्यत ऊर्ध्व रजस्वला।। 1 ।।
माता पिता तथा भ्राता मातुलो भगिनी स्वका।
सर्वे ते नरकं यान्ति दृष्ट्वाव कन्यां रजस्वलाम्।। 2 ।।
चौपाई
सुनहु मित्र ब्रह्मा की बानी, क्यों करते अपनी मनमानी।
सद्यो निर्मित ब्रह्म पुराना, आयु दे ब्रह्म भगवाना।
छिन मँह गौरी बनती बाला, होय रोहिणी द्वै छिन काला।
तीजे छिन कन्या हो जावे, रजोधर्मिणी पुन कहलावे।
रजस्वला का जो मुख देखे, महा पाप जसु होंय न लेखे।
माता पिता बहन अरु भाई, मामा मामी फूफी ताई।
नरक माँझ सबका हो वासा, सकल पुण्य का होय विनासा।
क्यों नहीं मानो श्लोक प्रमाना, सद्यो निर्मित ब्रह्म पुराना।
काशीनाथ सत्य क्यों मानें, क्यों नहीं ब्रह्मा वचन प्रमानें।
काशीनाथ कलियुग का ज्ञानी, सत्ययुगी ब्रह्मा की बानी।
प्रश्न
निपट असंभव श्लोक तुम्हारे, वे मानहिं जो हो मतवारे।
जन्मत ही बहु छिन लग जावें, कैसे उसका ब्याह करावें।
ऐसे ब्याह का फल क्या होवे, दूल्हा नाचे गुड़िया रोवे।
उत्तर
यदि असंभव श्लोक हमारे, तो संभव क्यों श्लोक तुम्हारे।
आठ वर्ष की निष्फल शादी, देश जाति निज की बरबादी।
सोलह की आयु मँह नारी, होय गर्भ के धारण हारी।
इससे पूरव अंग अधूरे, भोग योग होवें नहीं पूरे।
महा पाप है बाल विवाहा, दुख दायक अति कष्ट अथाहा।
लाखों मर रही कन्या बाला, दिन दिन बढ़ रही मृत्यु अकाला।
बच्चों की कछु गिनती नाँहीं, चले जाँय मृत्यु मुख माँहीं।
मरहिं बाल और उनकी मैय्या, घर घर में रोगिन की शय्या।
बाल विवाह के कड़वे यह फल, मरी जाय जाति सब जल जल।
जो कन्या पुन होवे काली, वह गौरी क्या बात निराली।
गौरी रोहिणी नाम असंगत, गोरी संज्ञा काली रंगत।
वासुदेव की रोहिणी नारी, महादेव की गौरी प्यारी।
तिनहिं पौराणिक माता मानहिं, कन्याएं गौरी सब जानहिं।
पाणिग्रहणं उनका किम करिये, मातृभाव क्यों कर परिहरिये।
दोनों मिथ्या श्लोक तुम्हारे, सद्यो निर्मित झूठ हमारे।
नाम पाराशर तुमने लीना, ब्रह्मा लेख हमने कह दीना।
दोहा
ब्रह्मादिक के नाम से, रच डारे बहु श्लोक।
ऐसे कपटी नरन का नशहि लोक परलोक।।
चौपाई
तज इनको गह वेद प्रमाता, सत्य मार्ग चाहो प्रगटाना।
त्रीणि वर्षाण्युदीक्षेत कुमार्युतुमती सती।
ऊर्ध्वं तु कालादेतस्माद्विन्देत सदृशं पतिम्।। – मनु0 1। 10
काममामरणात्तिष्ठेद् गृहे कन्यर्तुमत्यपि।
न चैवैनां प्रयच्छेत्तु गुणहीनाय कहिंचित्।। – मनु0 1। 81
दोहा
कन्या होय रजस्वला, तीन वर्ष पर्य्यन्त।
निज सदृश कर खोज कर, ब्याहे सुन्दर कंत।।
चौपाई
भली मरण तक रहे कँवारी, निर्गुण वर नहीं ब्याहे नारीं।
तांते बाल विवाह न करना, या विवाह ते अच्छा मरना।
प्रश्न
महाराज इक शंका मोरी,दूर करें कर कृपा बहोरी।
वर कन्या जब ब्याह करावें, समुचित अनुमति किसकी पावें।
माता पिता की आज्ञा पाएं, निज इच्छा से या करवाएं।
उत्तर
उत्तम जानहु वही विवाहा, वर कन्या का हो चित चाहा।
माता पिता यदि चहें विवाहन, चाहें निज कर्त्तव्य निबाहन।
वर कन्या की स्वीकृति लेवें, पुन विवाह की सम्मति देवें।
यदि सहमत नहीं बालक बाला, ब्याह विचार तजें तत्काला।
लड़का लड़की दोनों चाहें, निज सम्मति से ब्याह कराएं।
माता पिता का क्या परयोजन, भूखे की इच्छा पर भोजन।
भला इसी में माता पिता का, मन से मिलें चंद्र अरु राका।
सुख सों बसें बाल अरु बाला, मात पिता हो जाँय निहाला।
ब्याह नहीं होवे मनमाना, तो जीवन भर क्लेश उठाना।
सन्तुष्टो भार्यया भर्त्ता भर्त्रा भार्य्या तथौव च।
यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै धुवम्।। – मनु0 3 । 60
नारी से नर नरसों नारी, जँह प्रसन्न तँह संपति सारी।
उस कुल में लक्ष्मी को वासा, बढ़ता रहे भाग्य का पासा।
जँह विरोध नित कलह लड़ाई, सदा कँगाली रहती छाई।
अहो स्वयंवर रीति सुहानी, आर्य्यवर्त में रही पुरानी।
सर्वोत्तम है वही विवाहा, वही ब्याह जो हो चित चाहा।
युवा सुवासाः परिवीत आगात् उ श्रेयान्भवति जायमानः।
तं धीरांस कवय उन्नयन्ति स्वाध्यो3 मनसा देवयन्तः ।। 1 ।।
– ऋ मं0 3 । सू0 8 । मं0 4
आ धेनवो धुनयन्तामशिश्वीः सबर्दुघाः शशया अप्रदुग्धाः।
नव्यानव्या युवतयो भवन्तीमहद्देवानामसुरत्वमेकम्।
– ऋ0 मं0 3 । सू0 55 । मं0 16
पूर्वीरहं शूरदः शश्रमाणा दोषावस्तोरुषसो जरयन्तीः।
मिनाति श्रियं जरिमा तनूनामप्यू नु पत्नीवृषणो जगम्युः।। 3 ।।
– ऋ मं0 1 । सू0 171 । मं0 1
चौपाई
ब्याह काल पर रखे विचारा, हो सबन्ध सब विधि अनुसारा
वर कन्या का मेल न होवे, आजीवन घर बैठा रोवे।
करे ब्याह आयु अति वाली, बृथा बीज बोये जिम माली।
अप्रदुग्ध धेनु सी भोरी, कन्या सद्गुण रूप किशोरी।
सुघर सुशीला यौवनमाती, दिव्य रमण प्रज्ञा को पाती।
तरुण पति पा गर्भ सुधारे, भूल न बाल विवाह विचारे।
नष्ट करे नर बाल विवाहा, नशहि नार दुख पाय अथाहा।
दोनों लोक नष्ट हो जावें, बाल्य काल जो ब्याह करावें।
जिस प्रकार चंचल श्रमकारी, समरथ सिंचन वीरज वारी।
युवक प्राप्त कर नार किशोरी, यौवन मँह मद मान विभोरी।
जियें वर्ष शत् अरु सुख पावें, पुत्र सपौत्र आनन्द मनावें।
इस प्रकार वर्तें नर नारी, तो सृष्टि हो जाय सुखारी।
कुण्डलिया
ब्रह्मचर्य पूरन किये उत्तम विद्या पाय।
धारण सुन्दर वस्त्र कर पूरन युवा सुहाय।।
पूरन युवा सुहाय गृहस्थी फेर सम्भाले।
जग में उन्नति करे कीरति धर्म कमाले।।
बाकी विद्या धीरज अरु लख धर्महि निष्ठा।
वह नर ऊँचा होय करें सब लोग प्रतिष्ठा।।
जयगोपाल नहीं उन्नति पावें वे नर नारी।
पाणि ग्रहण जो करें और नही हों ब्रह्मचारी।।
चौपाई
जब लग रही स्वयंवर रीति, सुख सम्पत्ति अरु रही सुनीति।
ऋषि मुनि राजा अरु महाराजा, ब्रह्मचर्य रत आर्य समाजा।
हो विद्वान स्वयंवर करते, नहीं अकाल मृत्यु सों मरते।
उन्नति की चोटी पर भारत, सोहं सोहं देश पुकारत।
भयी जब ब्रह्मचर्य की हानि, हुआ स्वयंवर एक कहानी।
घर मँह आयी अविद्या रानी, नष्ट हुई सब प्रथा पुरानी।
मात पिता आधीन विवाहा, सुत कन्या के मन अनचाहा।
तब से भारत गिरता आया, आज तलक भी संभल न पाया।
दुष्ट रीति यह त्यागो भाई, इससे नहीं कोई अधिक बुराई।
करो ब्याह निज वर्ण सवर्णा, जो चाहो दुख सागर तरणा।
गुण स्वभाव अरु कर्मनुसारा, वर्ण ज्ञान मँह रखो विचारा।
प्रश्न
ब्राह्मण मात पिता हों जाके, सुत ब्राह्मण होते हैं ताके।
अब्राह्मण के ब्राह्मण जाये, वेद विरुद्ध यह वचन न भाये।
उत्तर
वेद विरुद्ध यह वचन न प्यारे, तुमने अपने ग्रन्थ विचारे।
अब्राह्मण के ब्राह्मण जाए, होंगे हैं अरु होते आए।
छान्दोग्य को पढ़िये भाई, कथा जाबाली ऋषि की आई।
जाबाली की कुल अज्ञात, किस कुल के थे जनक रु मात।
ब्राह्मण भे तप कर के बन में, विश्वामित्र क्षात्र कुल जनमें।
थे मातंग ऋषि चंडाला, तप सों ब्राह्मण भे तत्काला।
अब भी जो उत्तम विद्वाना, वे ब्राह्मण वे योग्य सुजाना।
वही शूद जो मूर्ख अजाना, काला अक्षर भैंस समाना।
प्रश्न
रज वीरज सों बना शरीरा, कैसे हो परिवर्तित नीरा।
अहो नाथ जब बदले पानी, संकर वर्ण होंय हौं जानी।
वणिक पुत्र छत्री नहीं होवें, चहें आम और दाड़िम बोवें।
उत्तर
रज वीरज संयोगज देहा, देह पिंड आतम को गेहा।
नहीं शरीर की ब्राह्मण जाति, जाति कर्म व्यवस्था लाती।
स्वाध्यायेन जपैर्हो मैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः।
महायज्ञेश्च यज्ञैश्च ब्राह्यीयं क्रियते तनुः।।
– मनु0 2 । 28
स्वाध्याय जप होम प्रयोगा, साङगोपाङग वेद अरु योगा।
चन्द्र पूर्णिमा इज्या इष्टि, सत्संगति अरु सम्यग्दृष्टि।
पंच यज्ञ वा अग्निष्टोमा, सत्य वचन सत्कर्मी होना।
शिल्प कला पढ़ पूर्ण प्रवीना, मिथ्याचार विचार विहीना।
चरितवान होवे उपकारी, तब ब्राह्मी तनु होय संवारी।
क्या यह श्लोक न मानहु भ्राता, मनु तो सूधा मार्ग दिखाता।
जो तुम मानहु मनु प्रमाना, पुन संशय क्यों मन में आना।
रज वीरज से वर्ण न होवे, जान बूझ क्यों बुद्धि खोवे।
जो तुम ऐसा समझो भाई, परम्परा ऐसी चलि आई।
जन्मज मानहिं वर्ण सनातन, लोक रीति है यही पुरातन।
बुद्धि भई विपरीत तुम्हारी, यह अब कैसे जाय सुधारी।
पाँच सात पीढ़ी ते आई, प्रथा सनातन कैसे भाई।
वेद सनातन जिसे बखनें, हम तो उसे पुरातन मानें।
आदि सृष्टि में एक अवस्था, रही कर्म से वर्ण व्यवस्था।
कछुक लोग मूरख अभिमानी, वर्णव्यवस्था तोड़ पुरानी।
मनमानी जब करने लागे, पेट स्वार्थ सों भरने लागे।
अति विचित्र देखा संसारा, पिता पुत्र मँह अन्तर भारा।
पिता दुष्ट सुत शुद्धाचारी, पुत्र सचरित पिता व्यभिचारी।
पिता पुत्र दोनों भल देखे, दोनों नीच कहीं अवलेखे।
कुछ पीढ़ी से हुए अनारज, छाँड दई जिन रीति आरज।
येनास्य पितरो याता येन याता पितामहाः।
तेन यायात्सतां मार्गं तेन गच्छन्न रिष्यते।।
– मनु0 4 । 178
पिता पितामह का जो मारग, वही मार्ग है तात सुमारग।
चले उसी पथ पर सन्ताना, यही बखानें वेद पुराना।
यदि सन्मारग पुरखा त्यागें, उनके पथ पर भूल न लागें।
जो धर्मीं सत पथ पर जावें, उनके अनुचर दुःख न पावें।
वेद सत्य ईश्वर की वाणी, वही सनातन सत्यश् पुरानी।
वही पुरुषों का पुरुष पुरातन, माननीय वह सत्य सनातन।
वेद विरुध नहीं वचन प्रमाना, रचे वेद ईश्वर भगवाना।
जो नहीं मानें ईश्वर वाणी, सत्य त्याग करते मन मानी।
उनसे प्रश्न करो तुम जाकर, युक्तियुक्त बातें समझा कर।
यदि पिता हो चोर जुआरी, तो क्या बेटा होय खिलारी।
पिता होय यदि कोऊ कंगाला, धन लुटाय सुत देय दिवाला।
यदि पिता कोई अन्धा होवे, क्या सुत भी निज आखें खोवे।
देखा सुना न कहीं कदापि, अन्धे मानें वही तथापि।
तांते पुरखन उत्तम कर्मा, मानीय सब को यह धर्मा।
दुष्ट कर्म त्यागहु तत्काला, जो चाहो निज देश संभाला।
रज वीरज से जो कोई माने, कर्म योग से वर्ण न जाने।
ब्राह्मण मुसलमान हो जाए, पुन ब्राह्मण क्यों नहीं कहलाये।
तत्क्षण उत्तर दोगे ऐसा, कर्म हीन वह ब्राह्मण कैसा।
ताँते सिद्ध हुआ यह भाई, जग में केवल कर्म बड़ाई।
ब्राह्मण वह जो हो सत्कर्मा, अन्त्यज सो जो हो दुष्कर्मा।
प्रश्न
ब्राह्मणोस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भया शूद्रो अजायत।।
– यजु0 अ0 31 । 11
क्यों करते स्वामिन मनमानी, सुनिये यजुर्वेद की बानी।
प्रभु के मुख से ब्राह्मण निकसे, बाहू से सब छत्री विगसे।
पगसों शूद्र नीच सब तनमें, सकल वैश्य जंघा से जनमें।
यही सत्य वर्णों के मांही, मानन योग बात तुव नाहीं।
जिस घर जनमा सो तिस वरना, हेर फेर इसमें नहीं करना।
उत्तर
अर्थ अनर्थ करो मत प्यारे, पुरुष सूक्त में मंत्र उचारे।
पुरुष नाम व्यापक परमेश्वर, सर्वाधार प्रभु सर्वेश्वर।
निराकार नहीं कोऊ आकारा, उसी पुरुष का सकल पसारा।
हाथ पाँव मुख जंघा होना, किमि अंगों से उत्पन्न कीना।
भुजा नहीं पर भुज सों जन्में, तनिक विचारो अपने मन में।
यही दोष वदतो व्याघाता, पिता नहीं पर सुत उपजाता।
व्यापक नहीं जो है साकारा, निराकार नहीं अगों वारा।
सर्व शक्तिमय जग का कर्ता, पालन कर्ता धर्ता हर्ता।
पुण्य पाप के फल का दाता, अजर अजन्मा जन्म न पाता।
पारब्रह्म के गुण यह सारे, मिथ्या अर्थ करो तुम न्यारे।
साँचे अर्थ सुनहु धर ध्याना, कैसे भये वर्ण यह नाना।
चार वर्ण मँह ब्राह्मण मुखिया, धन संतोष पाप है सुखिया।
बल बीरज बाहू को नामा, क्षत्रिय करहिं बाहू को कामा।
देश विदेश करहिं व्यापारा, वैश्य जगत में विचरन हारा।
है पर्यटन जाँघ को कर्मा, वैश्य करे चल फिर निज धर्मा।
देह माँझ नीचे जिमि चरणा, तैसे नीच शूद्र को वर्णा।
यस्मादेते मुख्यास्तस्मान्मुखतो ह्यसृज्यन्त। इत्यादि। – शतपथ0
ब्राह्मण मुख से होते उत्पन, मुखाकार होते उनके तन।
भुज सम छत्री सर्पाकारा, वैश्य रूप हों जंघाकारा।
सब वर्णों के भिन्न शरीरा, कोई कद्दु कोई घीया खीरा।
उपादान हो जैसा जाँका, रूपाकार होय मिति ताँका।
जो यह युक्ति होय तुम्हारी, आदि सृष्टि के जो नर नारी।
वे जन्मे मुख बाहू पग से, चारहु वर्ण भिन्न भिन्न मग से।
तब से स्थापित वर्ण हमारे, ब्राह्मण क्षत्रिय आदिक सारे।
सुनहु मित्र तुव मिथ्या युक्ति, वेदों में नहीं ऐसी उक्ति।
वरं नहीं तुम मुखज महाशय, तुम लेटे जनमें गर्भाशय।
जैसे जनमें सब संसारा, वैसे होवे जन्म तुम्हारा।
तांते तज मिथ्या अभिमाना, क्या कहते हैं मनु भगवाना।
शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्।
क्षत्रियाज्जातमेवन्तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च।।
– मनु0 10 । 65
शूद्र कुलन मँह होवे उत्पन्न, ब्राह्म कर्म ते होवे ब्राह्मन।
क्षात्र कर्म सों क्षत्रिय होवे, क्षत्रिय बनें शूद्रपन खोवे।
वैसे ही जन्मे ब्राह्मण के घर, शूद्र कर्म सो होवे शूदर।
वनिज करे तो वैश्य कहावे, युद्ध करे क्षत्रिय पद पावे।
कर्म करे जो जैसा जैसा, वर्ण पाय वह तैसा तैसा।
धर्मचर्य्यया जघन्यो वर्णः पूर्वं पूर्वं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ।।1।।
अधर्मचर्य्यया पूर्वोंवर्णोंजघन्यंजघन्यं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ।।2।।
– आपस्तम्ब सूत्र
उच्च वर्ण के पापाचारी, नीच वर्ण पावें नर नारी।
नीच वर्ण हों उत्तम कर्मी, उत्तम वर्ण पाँय जो धर्मी।
ताँते सिद्ध हुआ यह प्यारे, कर्म डुबावे, कर्म उबारे।
कर्म जन्य हो वर्ण व्यवस्था, रहे जाति की शुद्ध अवस्था।
विप्र कर्म ब्राह्मण नहीं छोड़े, जाति च्युत हो जो कोई तोड़े।
क्षात्र धर्म क्षत्रिय नहीं त्यागे, वर्ण धर्म में सब जन लागे।
जन्म जात जाति के ब्राह्मण, माँज रहे घर घर में बर्तन।
क्षत्रिय हैं बल विक्रम हीना, घर घर डोलहिं उदर अधीना।
जन्म जात जाति अभिमानी, करे देश की गहरी हानि।
जो मानहु गुण कर्म स्वभावा, वा को उत्तम होय प्रभावा।
कर्म हीन कोउ होय न जाति, कुल मँह संकरता नहीं आती।
प्रश्न
स्वामिन शंका एक निवारो, बात विचारन जोग विचारो।
एक पुत्र जिसके हाँ होवे, वह आयु भर बैठा रोवे।
दूसर वर्ण जाय वह धारे, वृद्ध पिता को कौन सम्हारे।
कौन करे पितु माता सेवा, नहीं कोऊ रहा नाम का लेवा।
अपना सुत तो भया पराया, बदल गया हा निज का जाया।
कर्म व्यवस्था घर की भेदन, जिसते होय वंश उच्छेदन।
उत्तर
सेवा भंग न कुल को नाशा, तोड़ें तनिक मोह की पाशा।
इक सुत बदले दूसर आवे, अपर योग्य कोऊ बेटा पावे।
दोनों विद्या राज सभाएँ, कर्म देख संतति बदलाएं।
वर्ण व्यवस्था बिगरे नाँहीं, दोष न आवे जाति माँही।
जबहुं षोडशी होवे बाला, परखें सभा तिनहिं तत्काला।
पच्चिस की हो युवक अवस्था, परख परख दे वर्ण व्यवस्था।
ब्राह्मण सों ब्राह्मणी विवाहे, छत्राणी छत्री घर जाए।
वैश्या वैश्य शूद्र शूद्राणी, ब्याह करें नहीं होवे हानि।
चारों वर्णों के गुण और कर्म
अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा।
दानं प्रतिग्रहश्चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्।। 1।।
– मनु0 1 । 88
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्मस्वभावजम्।। 2 ।।
– भ0 गी0 अ0 18 । 42
पाठन पठन यजन अरु याजन, दानादान विप्र के भाजन।
ब्राह्मण के हैं यह छः कर्मा, पूरन करें विप्र निज धर्मा।
बुरा कर्म नहीं मन में लावे, भूल न मन में पाप समावे।
इन्द्रिय को अन्याय से वरजे, पाप पंथ सों मन में लरजे।
ब्रह्मचारि इन्द्रिय कँह जीते, धर्म काय मंह आयु बीते।
शमदम तप तीनहुं को धारे, वह साँचा ब्राह्मण है प्यारे।
अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति।
विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति।।
– मनु0 5 । 109
जल सों शुद्ध होंय सब अंगा, कूप नहाओ नहाओ गंगा।
सत्य वचन से मन हो पावन, सत्य गंग में करले धावन।
विद्या तप से आतम शुद्धि, ज्ञान पाय पावन हो बुद्धि।
राग द्वेष को मन से तजिये, मिथ्या त्याग सत्य को भजिये।
स्तुति निंदा दुखसुख क्षुत् प्यासा, शीत उष्ण की करे न आसा।
हर्ष शोक से रहना ऊपर, वही शान्त ब्राह्मण है भू पर।
अहंकार नहीं राखे मन में, सरलभाव रहता ब्राह्मण में।
ऐसा ब्राह्मण ऋजु स्वभावा, जग में वाका पूर्ण प्रभावा।
साङगोपाङग वेद को जाने, कर विवेक सत को पहचाने।
जड़ को जड़ चेतन को चेतन, ऐसा ज्ञान युक्त हो ब्राह्मण।
ज्ञानी विज्ञानी सब जाने, जड़ चेतन सब जग पहचाने।
पृथिवी से ईश्वर पर्यन्ता, जग में भरे पदार्थ अनन्ता।
उनका करना सत उपयोगा, जग सुख पावे कर उपभोगा।
ईश्वर वेद मुक्ति सब माने, आवागवन जीव सत जाने।
विद्या धर्म ओर सत्संगा, मातृ पितृ सेवा में रंगा।
करता रहे अतिथि की सेवा, मात पिता गुरु माने देवा।
यह चौदह ब्राह्मण के कर्मा, उत्तम वर्ण विप्र सद्धर्मा।
क्षत्रिय के लक्षण
प्रजानां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।
विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः।। 1 ।।
– मनु. 1 । 89
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।। 2 ।।
– भ0 गी0 अ0 18। 43
न्यायावान परजा रखवारा, सज्जन का करता सत्कारा।
दुष्टों के सिर राखे डंडा, उनका चूरन करे घमंडा।
सत्पात्रन में देवे दाना, जग में विद्या धर्म बढ़ाना।
याग यजन वेदों का पढ़ना, लाखों शत्रु अकेले लड़ना।
इन्द्रियजित बलवान शरीरा, शोर्यवान तेजस्वी वीरा।
कार्य कुशल निर्भय रणधीरा, सज्जन सन्मुख ठाड़े सीरा।
रण में कबहुं पीठ नहीं देवे, ज्यों त्यों हाथ विजय को लेवे।
भागे रिपु को देवे धोखा, दाँव पंच में होय अनोखा।
अवसर देख शत्रु को मारे, उचित गति रण मौहि विचारे।
दानशीलता ईश्वर भावा, कभी न त्यागे न्याय स्वभावा।
यथा योग्य परजा से बरते, कभी अन्याय करे नहीं कर ते।
मन मंह पक्षपात नहीं राखे, सब सों बात न्याय की भाखे।
कर विचार पुन देवे दाना, दान सहित आदर सन्माना।
करे प्रतिज्ञा अपनी पूरी, पाये प्रशंसा भूरी भूरी।
यह एकादश क्षत्रिय लक्षण, क्षत्रिय धर्म देश का रक्षण।
वैश्य के गुण कर्म
पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।
वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च।। 1 ।।
– मनु0 1 । 90
गो आदिक पशुओं का वर्धन, धर्म वृद्धि हित वर्धन निज धन।
अग्नि होत्र आदिक का करना, सत्संगति प्रभु नाम सिमरना।
वेद पठन अरु वनज व्यापारा, करे व्याज का सद् व्यौहारा।
चार आठ छः बारह आना, सौ पर मासिक सूद लगाना।
बीस आना से अधिक जो पावे, वैश्य नहीं वह चोर कहावे।
होवे व्याज मूल से दूना, इससे अधिक पाप है छूना।
कृषि कर्म से उपज बढ़ावे, इन कर्मन ते वैश्य कहावे।
शूद्र के गुण कर्म
एकमेव हि शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्।
एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया।।
– मनु0 1 । 91
निन्दा जरन और अभिमाना, तजे करे द्विज को सन्माना।
तीन वर्ण की सेवा करना, उन सों करे उदर की भरना।
केवल यही शूद्र को कर्मा, सर्व श्रेष्ठ सेवा को धर्मा।
खुला रहे वर्णों का द्वारा, योग्य होंय पायें अधिकारा।
एहि विधि भारत होवे ऊंचा, मल विकार मिट जाय समूचा।
डरत रहें द्विज उत्तम वरणी, नभ ते गिरें न लोटें धरणीं।
खड़े रहें निज कर्मन ऊपर, संकर वर्ण रहें नहीं भू पर।
खुले शूद्र कंह उन्नति द्वारा, घर घर हो विद्या परचारा।
बढ़े शूद्र के मन उत्साहा, उत्तम वर्ण प्राप्ति की चाहा।
धर्म वृद्धि विद्वा परचारा, ब्राह्मण को यह दें अधिकारा।
वे धर्मी पूरन विद्वाना, वे समर्थ वे योग्य सुजाना।
राज्य संभारे क्षत्रिय मानी, विघ्र न होय होय नहीं हानि।
पशु पालन अरु धन व्यापारी, केवल वैश्य रहें अधिकारी।
शूद्र निरक्षर मूरख सारे, नहीं जानें विज्ञान बेचारे।
करते केवल तनु के कर्मा, केवल सेवा उनको धर्मा।
सभ्य लोग राजा महाराजा, वर्ण प्रबर्तन उन को काजा।
विवाह के लक्षण
ब्राह्मो दैवस्तथैवाषैः प्राजापत्यस्तथाऽऽसुरः।
गान्धर्वों राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमोऽधमः।।
– मनु0 3 । 21
आठ भाँति का होय विवाहू, ब्राह्म दैव और आरष आहू।
प्राजापत्य असुर गन्धर्वा, राक्षस अरु पैशाच सगर्वा।
ब्राह्म ब्याह है सब सों उत्तम, माननीय अरु पूज्य प्रभूत्तम।
ब्रह्मचर्य पूरन विद्वाना, धर्म परायण शील समाना।
हो प्रसन्न जो करें विबाहा, ब्राह्म कहावे सुख सन्नाहा।
दूजा दैव विवाह कहावे, भूषणयुत कन्या वर पावे।
वर से ले कछु कन्या दाना, आर्ष विवाह तीसरा माना।
प्राजापत्य पुण्य को मूला, केवल धर्म वृद्धि अनुकूला।
वर कन्या दोनों कछु पावें, सो विवाह आसुर कहलावें।
नियम रहित बिन समय प्रबन्धा, वर कन्या का हो सम्बन्धा।
मन के मिले मिलें जब दोऊ, है गान्धर्व विवाहा सोऊ।
झपट कपट बल कर हर लाना, राक्षस ब्याह नीच तर माना।
महाभ्रष्ट पैशाच विवाहा, करे सो ेपावे पाप अथाहा।
सोती पागल सुरा पिलाई, कन्या को भोगे हरजाई।
ब्राह्म ब्याह सर्वोत्तम बोले, प्राजापत अरु दैव मंझोले।
गान्धर्व आसुर और आरष, यह तीनों निकृष्ट अनारष।
अधम ब्याह राक्षस अति घोरा, महाभ्रष्ट पैशाच अथोरा।
वर कन्या निश्चय ठहरावें, ब्याह पूर्व मिलने नहीं पावें।
तरुणाई में नर अरु नारी, बसहिं अकेले दूषण भारी।
पठन काल जब होवे पूरन, करें प्रबन्ध गुरु सम्पूरन।
कन्या चित्र पठे गुरवानी, चरित कथा सब संग सुहानी।
वर का गुरु वर चित्र पठावे, वर चरित्र लिख कर बतलावे।
दोनों के गुण कर्म सुभावा, मिलें तो करें ब्याह ठहरावा।
वर कन्या को चित्र दिखावें, जीवन के इतिहास सुनावें।
जब दोनों की अनुमति पाएं, तब विवाह सम्बन्ध कराएं।
गुरु सन्मुख यदि ब्याहा चाहें, गुरुकुल में ही ब्याह करावें।
अथवा गुरु से छुट्टि पाकर, ब्याह करें कन्या गृह जाकर।
वर कन्या जब सन्मुख आवें, दोनों के शास्त्रार्थ करावें।
गुप्त प्रश्न यदि हों प्रष्टव्या, उत्तर लिख देना कर्त्तव्या।
जब दोनों की दृढ़ हो प्रीति, खान पान करिये भल रीति।
उनका करें गुरु जन पालन, पौष्टिक भोजन लाड़न लालन।
ब्रह्मचर्य मँह कष्ट उठाए, तप में पच्चिस वर्ष बिताए।
अक्खड़ रूखे भये जो अंगा, पुन पनपें पा प्रीति गंगा।
चन्द्र कला सम दिन दिन चमके, हष्टपुष्ट तनु जोबन दमके।
रजोवती कन्या जब होवे, शुभ पवित्र हो नहावे धोवे।
उस दिन मँडप रचे विशाला, बृहद् होम होमे तत्काला।
सखा मित्र समधि बुलवावे, सादर प्रीति भोजन खिलावे।
उचित पांय जिस दिन ऋतु दाना, उसी दिवस संस्कार कराना।
संस्कार विधि के अनुसारा, कीजे सकल क्रिया व्यौहारा।
अर्ध रात्रि वा उस से पूरब, कर विवाह वधु गहे अपूरब।
वधु ले जाय एकान्तिक वासा, प्रभु ने कीनी पूरन आसा।
वीरज व्यर्थ कुथल नहीं वर्षे, स्थापहि नर नारी आकर्षे।
उत्तम ब्रह्मचर्य का वीरज, रज सों मिश्रि वधु शरीरज।
ताँते हो उत्तम सन्ताना, सबल निरोगी बहु गुण बाना।
वीर्य पात का हो जब काला, स्थिर होवें नर युवती बाला।
नासा सन्मुख नासा आवे, नयनन सों निज नयन मिलावे।
सीधा राखें दोउ सरीरा, मन प्रसन्न तन डिगें न धीरा।
नर निज तन को ढीला छोड़े, निज योनि को नार सिकोड़े।
ऊपर बीरज करे आकर्षण, गर्भाशय में वीर्य प्रवर्षण।
पुन ऐसे कछु समय बिताना, शुद्ध सलिल सों कर असनाना।
पढ़ी लिखी जो विदुषी नारी, तुर्त जान ले गर्भ सुधारी।
गये मास जाने सब कोई, रजोधम्र उनके नहीं होई।
अश्वगंध केसर अरु एला, सालब मिसरी सोंठ नवेला।
उष्ण दूध मँह इन्हें मिलावें, भोग बाद दोनों पी जावें।
पृथक् पृथक् शय्या पर लेटें, शयन करें पुन बहुरि न भेटें।
जब जब चाहें शर्भाधाना, करें शास्त्र विधि एहि समाना।
गर्भ स्थिति का निश्चय होवे, बहुर न नारी के संग सोवे।
एक वर्ष नहिं करें समागम, ऐसी आज्ञा देवहिं आगम।
उनकी उत्तम हो सन्ताना, रोग रहित सुन्दर बलवाना।
जो नहीं चले शास्त्र अनुसारा, जीवन भर रोवे दी मारा।
वीर्य जाए आयु घट जाए, नित का रोगी औषध खाए।
छोड़ें नहीं परस्पर प्रीति, मन से राखें दोनों प्रीति।
सपनेहू मँह वीर्य न जावे, ऐसी गति पुरुष अपनावे।
नारी करे गर्भ का रक्षण, सुपच स्वाद भोजन कर भक्षण।
गर्भज बालक हो बलवाना, रूपवान लावण्य निधाना।
दशमें मास जनम को धारे, निज जननी का कष्ट निवारे।
चतुरथ मासे सावध रहिये, अधिक ध्यान अष्टम में दइये।
रे चन रूखे भोजन भारी, सेवहि गर्भवती मत नारी।
गेहूं उड़द दूध घृत शाली, सेवहि नारी बालक बाली।
देश काल सेवहि कर युक्ति, पावहिं सभी कष्ट से मुक्ति।
गर्भ दशा में हो संस्कारा, करहिं नार नर अधिक विचारा।
करहु पुसंवन चौथे मासे, कुत्सित संस्कार सब नासे।
अष्टम में सीमन्तोनयना, यजन पाठ करि सुन्दर वैना।
जन्म लेय बालक जिस काले, नारी अरु शिशु उभय संभाले।
सेवन शुण्ठी पाक करावे, जाके सेवन से बल आवे।
कोष्ण सुगन्धित निर्मल नीरा, धोवे नारी निबल सरीरा।
सुख जलहिं बालक नहलाये, अंक मांहि उस को पौढ़ाए।
ता पाछे कर नाड़ी छेदन, कर डारे नाड़ी का भेदन।
कोमल गहे सूत को धागा, बँधे नाभि की जड़ का भागा।
अंगुलि चार छोड़ कर डारे, सुख से बालक गोद सम्हारे।
ऐसी विधि सों सूत बंधावे, बिंदु रक्त भी निकस न पावे।
वह भूमि शोधे पश्चाता, जन्म दिया बालक जँह माता।
द्रव्य सुगन्धित होम जलाएं, अणु दुर्गंधित सब जर जाएं।
पिता पुत्र को गोद सम्हारे, ‘वेदोसि’ यह वचन उचारे।
घृत मधु सानी स्वर्ण सलाई, जिह्ना पर कर ‘ओउम्’ लिखाई।
उसी शलाका को चटवावे, माता ले शिशु गोद खेलावे।
दूध पिलावे उस को माता, दूध अभावे लावे धाता।
स्वस्थ दूध वारी कोऊ नारी, होवे दुग्ध पिलावन हारी।
पुन प्रसूतिका जाय वहां पर, निर्मल वायु आय जहां पर।
करे होम उत दोनों काला, जिह विधि हो सुख सों प्रतिपाला।
मातृ दुग्ध छः दिन शिशु पीवे, पुष्ट भोजन सों माता जीवे।
खाए स्वस्थ पदारथ रोचन, करती रहे योनि संकोचन।
छठे दिवस पुन बाहर निकसे, रवि को देख कपल जिमि विकसे।
बालक के हित राखे धाई, स्वच्छ वस्त्र जो रखे सफ़ाई।
वह बालक को दूध पिलावे, पाले पोवे और खिलावे।
ध्यान रखे बालक का माता, पुन कुपथ्य होने नहीं पाता।
स्तन पर ऐसा लेप लिपावे, पुनः दुग्ध चूना नहीं पावे।
नामकरण आदि संस्कारा, ‘संस्कार विधि’ के अनुसारा।
यथा काल सब करता जाए, सुखमय सब परिवार बनाए।
रजस्वला पुन जब हो वामा, यही रीति कर ले सुख धामा।
ऋतु कालाभिगामीस्यात्स्वदार निरतः सदा।
पर्व वर्जं ब्रजेच्चैनां तदृव्रतो रतिकाम्यया।।
निन्द्यास्त्रष्टासु चान्यासु स्त्रियो रात्रिषु वर्जयन्।
ब्रह्मचार्येव भवति यत्र तत्रााश्रमेवसन्।।
– मनु0 3 । 50
सन्तुष्टो भार्यया भर्त्ता भर्त्रा भार्या तथैव च।
यस्मित्रेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम्।। 1 ।।
यदि हि स्त्री न रोचेत पुमांसन्न प्रमोदयेत्।
अप्रमोदात्पुनः पुंसः प्रजनं न प्रवर्त्तते।। 2 ।।
स्त्रियां तु रोचमानायां सर्वं तद्रोचते कुलम्।
तस्यां त्वरोचमानायां सर्वमेव न रोचते।। 3 ।।
– मनु0 अ0 3 । 60-62
वह गृहस्थ जानहु ब्रह्मचारी, जा को नारी अपनी प्यारी।
जिन रात्रिन मँह वर्जित भोगा, करउ नहीं उन मँह संजोगा।
ऋतुगामी निज मन का स्वामी, पर नारि चितवे नहीं कामी।
नर में नारी नारी नर में, जहां प्रेम राखें तिस घर में।
सदा रहे सुख संपति वासा, जहां कलह तहां होत विनासा।
जाकी पति सों नाहीं प्रीति, वह पतनी नहीं पतित अनीति।
पति की मरे कामना सारी, सुख सौभाग्यहीन वह नारी।
बधु प्रसन्नता गृह सुखदायक, पत्नी रोष महाँ दुखदायक।
पितृभिर्भ्रातृभिश्चैताः पतिभिर्देवरैस्तथा।
पूज्या भूषयितव्याश्च बहुकल्याणमीप्सुभिः।। 1 ।।
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राऽफलाः क्रियाः।। 2 ।।
शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम्।
न शोचन्ति तु यत्रैता वर्द्धते तद्धि सर्वदा।। 3 ।।
तस्मादेताः सदा पूज्या भूषणाच्छादनाशनैः।
भूतिकामैर्नरैर्नित्यं सत्कारेषूत्सवेषु च।। 4 ।।
– मनु0 3 । 55 । 57 । 59
पितु भाई पति देवर सारे, सब जन नारी को सत्कारे।
भूषण वस्त्र देय करि आदर, कबहुं न इसका करे निरादर।
जो चाहो गृह में कल्याना, नारि महातम मनु बखाना।
पूजित नारी जिस घर मांही, वहां नहीं दुख को परछांही।
उस घर के गृह जन सब देवा, संपति करे चरण को सेवा।
जो कुल नारिन को दुत्कारे, देव लोक वाको धिक्कारे।
सभी क्रियाएं निष्फल जावें, काम करें पर फल नहीं पावें।
नारिन के मुख जहाँ उदासी, सो कुल जानहु सत्यानासी।
जँह प्रसन्न चित हर्षित वामा, वहां नचत लक्ष्मी अभिरामा।
तांते जो सुख सम्पति चाहें, नारिन और सराहें।
भूषण वस्तर दें उपहारा, करें नारि का नित सत्कारा।
पूजा से आदर परयोजन, भूषण वत्र भेंट और भोजन।
दिवस रात दोऊ काल नमस्ते, करहिं नमस्ते मृदु मुख हस्ते।
सदा प्रहष्टया भाव्यं गृहकार्येषु दक्षया।
सुसंस्कृतोपस्करया व्यये चामुह्महस्तया।। – मनु0 5 । 150
नारी गृह के काज सम्हारे, हो प्रसन्न सब बात विचारे।
गृह वस्तु सब सहज सजाये, जो देखे हर्षित हो जाये।
सुखी रखे परिवारिक जन को, उचित रूप से खर्चे धन को।
शुद्ध पवित्र बनाय रसोई, ताते रोग न होवे कोई।
आय व्यय का व्योरा राखे, मिथ्या वचन कबहुं नहीं भाखे।
भृत्यों से गृह काज करावे, कारज कोऊ बिगड़ नहीं पावे।
स्त्रियो रत्नान्यथो विद्या सत्यं शौचं सुभाषितम्।
विविधानि च शिल्पानि समादेयानि सर्वतः।।
– मनु0 2 । 140
रत्न जवाहरनार सुहानी, सत्य शौच विद्या शुभ वानी।
उत्तम शिल्प होंय जंह नाना, है कर्तव्य मनुष्य का पाना।
देश विदेश जहां ते पावे, ऐसे रतन तुरत अपनावे।
सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयातृ सत्यमप्रियम्।
प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः ।। 1 ।।
भद्रं भद्रमिति ब्रूयाद्भद्रमित्येव वा वदेत्।
शुष्कवैरं विवादं च न कुर्यात्केनचित्सह ।। 2 ।।
– मनु0 4 । 138-139
सत्य कहे पर बोले प्यारा, ऐसा बोले वचन सम्हारा।
कड़वा सत्य कबहुं मत बोलो, पहले तोलो पाछे बोलो।
प्यारा हो पर होवे झूठा, ऐसा वचन न बोल अनूठा।
सदा बोल वाणी हितकारी, सुखकारी अति प्यारी प्यारी।
शुष्क वैर नहीं करे विवादा, मनर०जक कीजे संवादा।
चाहे कोई बुरा मनावे, हितकर बतियां अवस सुनावे।
पुरुषा बहवो राजन् सततं प्रियवादिनः।
अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः।।
– उद्योग पर्व विदुरनीति 5 । 15
अप्रिय पथ्य कहे जो राजन, दुर्लभ ऐसा प्यारा साजन।
जगत करे सब ठकुर सुहाती, यह सृष्टि स्वारथ की साथी।
सांचा मीत वही है प्यारा, सन्मुख कहने सुनने हारा।
नयन ओट गुण वर्णनकारी, सो साँचा सज्जन हितकारी।
जब लग नहीं निज दोष सुनावे, दोषों से किमि मुक्ति पावे।
पर निन्दा भूलेहु नहीं करिये, निन्दक हो किस विध भवतरिये।
गुण को दोष दोष गुण मानें, उस पापी को निंदक जानें।
दोष दोष गुण गुण जो कहते, स्तुति कारक वे सुख से रहते।
ताँते निंदक अनृतवादी, स्तुति जानहु सत भाषण आदि।
बुद्धिवृद्धिकराण्याशु धन्यानि च हितानि च।
नित्यं शास्त्राण्यवेक्षेत निगमांश्चैव वैदिकान्।। 1 ।।
यथा यथा हि पुरुषः शास्त्रं समधिगच्छति।
तथा तथा विजानाति विज्ञानं चास्य रोचते।। 2 ।।
– मनु0 4 । 19-20
बुद्धि वर्धन संपतिकारी, शास्त्र सुनें नित नर अरु नारी।
पूर्व पठित नित ग्रन्थ विचारे, बिन स्वाध्याय समय नहीं हारे।
ज्यों ज्यों होय शास्त्र को ज्ञाना, बढ़त जात रुचि अरु विज्ञाना।
ऋषियज्ञं देवयज्ञं भूतयज्ञं च सर्वदा।
नृयज्ञं पितृयज्ञं च यथाशक्ति न हापयेत् ।। 1 ।।
दोहा
देव यज्ञ ऋषि यज्ञ दो, कीजे सायं प्रात।
जो जीवन में सुख चहो, तजहु न इनको तात।
चौपाई
वेद पाठ अरु सन्ध्योपासन, योगाभ्यास बैठ शुभ आसन।
विद्वत्संग शुद्धि अरु दाना, यह दोउ यज्ञ करत कल्याना।
अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञश्च तर्प्पणम्।
होमो देवो बलिर्भौतो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम्।। 2 ।।
– मनु0 3 । 70
स्वाध्यायेनार्चयेतर्षीन् होमैर्देवान् यथाविधि।
पितृन् श्राद्धैश्च नृनत्रैर्भूतानि बलिकर्मणा।। 3 ।।
– मनु0 3 । 81
सायंसायं र्गृहपतिर्नो अग्निः प्रातः प्रातः सौमनस्य दाता।।1।।
प्रातः प्रातगृहपतिर्नो अग्निः सायंसायं सौमनस्य दाता।।2।।
– अथर्व0 19 । 7 ं 3-4
तस्मादहोरात्रस्य संयोगे ब्राह्मणः सन्ध्यामुपासीत।
उद्यन्तमस्तं यान्तमादित्यमभिध्यायन्।। 3 ।।
-षड्विंशब्राह्मण प्र0 4 । खं0 5
न तिष्ठति तु यः पूर्वों नोपास्ते यस्तु पश्चिमाम्।
स साधुभिर्बहिष्कार्यः सर्वस्माद् द्विजकर्मणः।।4।।
– मनु0 2 । 103
प्रात हवन दिन भर हरषावन, रखे रात्रि तक पौनहिं पावन।
बल बुद्धि अरु स्वास्थ्य बढ़ाए, तांते प्रति दिन हवन कराए।
जब होवे दिन रात की संधि, हवन करे नाशहि दुर्गन्धि।
कर प्रभु की भक्ति अरु ध्याना, जो चाहो प्राणी कल्याना।
जो नर दोऊ कर्म नहीं धारहिं, द्विज गण वाको बहिर निकारहिं।
प्रश्न (दोहा)
संध्योपासन उचित है, नित करना त्रैकाल।
दोऊ काल कैसे कहें, छोड़ सनातन चाल।।
उत्तर
साँझ प्रात संधिके काला, पुन संध्या किस विध त्रैकाला।
मिलते अंधकार अरु जयोति, जौन समय वह संधि होती।
मध्य दिवस जो संध्या करिये, मध्य रात्रि पुन काहे बिसरिये।
प्रहर प्रहर अरु घड़ी घड़ी सों, संध्या बांधी एक लड़ी सों।
कौन समय जब संध्या नाँही, कछु सोचें अपने मन माँही।
वेद शास्त्र बहु देखे भाले, नहीं प्रमाण संध्या त्रैकाले।
दोहा
भूत भविष्यत वर्तमान, इनको कहें त्रिकाल।
काल भेद नहीं संधि से, कहें शास्त्र गोपाल।।
चौपाई
तृतिये पितृ यज्ञ बखाने, मात पिता गुरु जन सन्मानें।
पितृ यज्ञ दोउ विध मन भावन, गुरु जन तर्पण श्राद्ध जिमावन।
‘श्रत्’ है ”सत्य” अर्थ प्रतिपादक, सत्य क्रिया श्रद्धा संपादक।
श्रद्धा सों जो कीजे कर्मा, सोऊ श्राद्ध जानहु निज धर्मा।
मात पिता का करिये तर्पण, तन मन धन सब उनके अर्पण।
तर्पण श्राद्ध जियत का कीजे, मृतक न खावे पीवे रीझे।
ओं ब्रह्मदयो देवास्तृप्यन्ताम्। ब्रह्मादिदेवपत्न्यस्तृप्यन्ताम्।
ब्रह्मादिदेवसुतास्तृप्यन्ताम्। ब्रह्मादिदेवगणास्तृप्यन्ताम्।
इति देवतर्पणम्।
दोहा
“विद्वासो हि देवाः” यह, शतपथ ब्राह्मण का वचन।
देव सभी विद्वान हैं, सेवा कीजे कर लगन।
चौपाई
साङगोपाङग वेद जो जानें, वाकी संज्ञा ब्रह्मा मानें।
ब्रह्मा से घट कर हें देवा, सब देवन की कीजे सेवा।
देवी कहिये विदुषी नारी, विद्या भूषण सहित सवारी।
उनके योग्य शिष्य अरु जाये, यह सब देव गणन में आये।
जिनका कीजे श्राद्ध से तर्पण, करिये श्रद्धा सहित समर्पण।
ऋषि तर्पण
ओं मरीच्यादय ऋषयस्तृप्यन्ताम्। मरीच्याद्यृषिपत्न्यस्तृप्यन्ताम्।
मरीच्याद्यृषिसुतास्तृप्यन्ताम्। मरीच्याद्यृषिगणास्तृप्यन्ताम्।।
इति ऋषितर्पणम्।।
चौपाई
जिमि मरीचि ब्रह्मा का पोता, चतुर्वेद वित यज्ञ जुहोता।
सत्याचारी विद्यादाता, जग उपकारी वेद विधाता।
तिस विध उनकी विदुषी नारी, कन्या जगत पढ़ाने हारी।
शिष्य पुत्र अरु सेवक उनके, दृढ़ विश्वासी वैदिक धुन के।
उनका पूजन अरु सत्कारा, ऋषि तर्पण यह जाय पुकारा।
पितृ तर्पण
ओं सोमसदः पितरस्तृप्यन्ताम्। अग्निष्वात्ताः पितरस्तृप्यन्ताम्।
बर्हिषदः पितरस्तृप्यन्ताम्। सोमपाः पितरस्तृप्यन्ताम्। हविर्भुजः
पितरस्तृप्यन्ताम्। आज्यपाः पितरस्तृप्यन्ताम्। सुकालिनः
पितरस्तृप्यन्ताम्। यमादिभ्यो नमः यमादींस्तर्पयामि। पित्रे स्वधा
नमः पितरं तर्पयामि। पितामहाय स्वधा नमः पितामहं तर्पयामि।
प्रपितामहाय स्वधा नमः प्रपितामहं तर्पयामि। मात्रे स्वधा नमो
मातरं तर्पयामि। पितामह्यै स्वध नमः पितामहीं तर्पयामि।
प्रपितामह्यै स्वधा नमः प्रपितामहीं तर्प्पयामि। स्वपत्न्यै स्वधा नमः
स्वपत्नीं तर्पयामि। सम्बन्धिभ्यः स्वधा नमः सम्बन्धिनस्तर्पयामि।
सगोत्रेभ्यः स्वधा नमः सगोत्राँस्तर्पयामि।।
इति पितृतर्पणम्।।
चौपाई
जे पदार्थ विज्ञान प्रवीना, पारब्रह्मा मन में जिन चीना।
तिनको नाम सोमसद भाई, तिनहि पितर की पदवी पाई।
आगनेय हैं जिते पदारथ, जानहिं तिनके गुणहिं यथारथ।
तिन कहँ अग्निष्वात पुकारें, वही देश की दशा सुधारें।
जो जन सद्व्यवहारे चातर, बर्हीषद ते योग्य सुपातर।
परधन संपति के रखवारे, सोम महौषध पीने हारे।
स्वयं स्वस्थ पुन रोग मिटावें, व्याधि ग्रस्त को दवा पिलावें।
सोमपा वे रोग निवारक, वही पितर वे स्वास्थ्य सुधारक।
तज हिंसा जो करते भोजन, मद्य माँस नहीं छूएं जो जन।
तिनका नाम हविर्भुज गावें, वे पितरन मँह आदर पावें।
जानन जोग वस्तु के रक्षक, दूध दही घृत माखन भक्षक।
ते आज्यप पितृ पद जोगू, बलकारी द्रव्यन उपभोगू।
शुभ कर्मन मँह समय बितावें, ते सज्जन शोभन कहलावें।
न्यायाधीश पितर यम नामी, दण्डहिं दुष्टन जगहित कामी।
संतति की रखते रखवारी, अन्नादिक बहुविध सत्कारी।
पालक पोषक जन्म के दाता, सब से ऊँचा प्रेम का नाता।
पित्तर पिता का होवे दादा, दादा जनक जान परदादा।
दोहा
पिता पितामह आदि की, सेवा धर्म महान।
जो उनकी सेवा करे, पावे पद कल्यान।
चौपाई
आदर मान करे सो माता, प्रेम मयी जीवन की दाता।
पितु माता कहलाये दादी, वाकी माता है परदादी।
पत्नी भगिनी गोत सम्बन्धी, भले बृद्ध, कुल के अनुबंधी।
श्रद्धा सहित तिनहिं जो सेवे, अन्न वस्त्र आदर सों देवे।
या को तर्पण श्राद्ध बखानें, मृतक श्राद्ध को शास्त्र न माने।
चौथे वैश्वदेव नित कर्मा, परम पूनीत मनुज को धर्मा।
होय सिद्ध जब पक कर भोजन, डाले नित्य आहूति जो जन।
सो नर सदा स्वास्थ्य को पावे, रोग शोक कोउ निकट न आवे।
घृत मिष्टान्न आदि की हूती, अग्नि माँहि आरोग्य प्रसूति।
पृथक करे चूल्हे से आगी, आहुति देवे पुण्य को भागी।
खारी लोनी और खटाई, वस्तु न डारे अग्गिहिं भाई।
पढ़े मन्त्र यह देय आहूति, यश दायक बल बुद्धि विभूति।
वैश्यदेवस्य सिद्धस्य गृह्येऽग्रौ विधिपूर्वकम्।
आभ्यः कुय्याद्देवताभ्यो ब्राह्मणो होममन्वहम्।।
– मनु. 3 । 84
ओं अगन्ये स्वाहा। सोमाय स्वाहा। अग्नीषोमाभ्यां स्वाहा। विश्वेभ्यो
देवभ्यः स्वाहा। धन्वन्तरये स्वाहा। कुह्नै स्वाहा। अनुमत्यै स्वाहा।
प्रजापतये स्वाहा। सह द्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा। स्विष्टकृते स्वाहा।।
दोहा
आहुति देकर अन्न के, चहुं दिश राखे भाग।
आगन्तुकहिं खिलाये दे, अथवा डारहि आग।।
चौपाई
ता पाछे सब अन्न सलोने, दाल शाक आदिक रख दोने।
चौके मँह भूमि पर धरिये, विधि सों शास्त्र रीति अनुसरिये।
ओं आनुगायेन्द्राय नमः। सानुगाय यमाय नमः। सानुगाय वरुणाय
नमः। सानुगाय सोमाय नमः। मरुद्भ्यो नमः। अद्भ्यो नमः।
वनस्पतिभ्यो नमः। श्रियै नमः। भद्रकाल्यै नमः। ब्रह्मपतयेनमः।
वास्तुपतये नमः। विश्वेभ्यो देवेभ्यो नमः। दिवाचरेभ्यो भूतेभ्यो
नमः। नक्त०चारिभ्यो भूतेभ्यो नमः। दिवाचरेभ्यो भूतेभ्यो
शुनां च पतितानां च श्वपचां पापरोगिणाम्।
वायसानां कृमीणां च शनकैर्निर्वपेद् भुवि।।
– मनु. 3 । 12
चौपाई
क्रिमिभ्यो नम इत्यादि उचरिये, अन्न सलोने भू पर धरिये।
रोगी पतित काक ओर श्वाना, लवण अन्न इन कंह कर दाना।
नमः शब्द का अन्न प्रयोजन, काकादिक को दइये भोजन।
यह विध मानव शास्त्र बखानी, प्राणिमात्र के हित कल्यानी।
जिस चौके में पकता भोजन, वायु शुद्धि का तहां प्रयोजन।
ताँते दइये अवस आहूति, जा ते होय न रोग प्रसूति।
जीव जन्तु मरते अनजाने, जब कोई लगे रसोई बनाने।
ताँते उनकी करो भलाई, हत्या दोष न लागे भाई।
पंचम यज्ञ अतिथि की सेवा, साक्षात अभ्यागत देवा।
तिथि समय कोउ नियत न जाका, अतिथि नाम शास्त्र कहें ताँका।
अभ्यागत् योगी संन्यासी, उपदेशक विद्या के रासी।
ठौर ठौर उपदेश सुनावें, शान्त करे मन ताप मिटावें।
ऐसे जनजिस गृह में आवें, वे गृहस्थ मानहु तर जावें।
अभ्यागत को आदर कीजे, अर्घ्य पाद्य आसन पुन दीजे।
स्वादु रसीले नाना व्य०जन, तनु पुष्टि कर अरु मन र०जन।
तृप्त करें आगत अभ्यागत, तन मन धन से कीजे स्वागत।
बात चीत पुन करिये नाना, जासों बड़े गृही को ज्ञान।
देस देस आचार ब्यौहारा, उनके रहन सहन परकारा।
सब जाने अरु लाभ उठावें, सत्संगति सों ज्ञान बढ़ावें।
सद्गृहस्थ अरु नृप अभ्यागत, दोउ पाहुने हैं गृह आगत।
पाषण्डिनो विकर्मस्थान् वैडालवृत्तिकान् शठान्।
हैतुकान् बकवृत्तींश्च वाङ्मात्रेणापि नार्चयेत्।।
– मनु. 4 । 30
कुत्सित कर्मी और पाखण्डी, वेद विरोधी शठ उद्दण्डी।
जिनके मन को वृत्ति बिलारी, मीठी वाणी कपट संवारी।
बक वृत्ति मूरख अभिमानी, ज्ञानी बनें स्वयं अज्ञानी।
जिमि वैरागी जोगी खाखी, जटा बांध मुनि मूरत राखी।
निरे निरक्षर लम्पट धूरत, वेद विरोधी छल की मूरत।
जो इनका कीजे सत्कारा, तो फैलेगा भ्रष्टाचारा।
स्वयं गिरें अरु लोक गिरावें, दुःख सागर में देश डुबायें।
ऐसे नर को नहीं आदरिये, अपने गृह सों बाहर करिये।
प०चमहायज्ञों का फल
पंच यज्ञ को बड़ी महातम, हों प्रसन्न आतप परमातम।
ब्रह्मयज्ञ सों विद्या उन्नति, धर्म सभ्यता गुणन समुन्नति।
अग्गिहोत्र से हो जग पावन, नष्ट होय दुर्गन्धि अपावन।
शुद्ध होय जल वायु वृष्अि, सुखद स्वास्थ्य पावे सब सृष्टि।
शुद्ध पवन में ले नर श्वासा, अग्नि होत्र सों उठे सुवासा।
बुद्धि बढ़े तनु हो बलवाना, चार पदारथ मिलें समाना।
दैव यज्ञ है या को नामा, परम पुनीत स्वर्ग को धामा।
सेवहि मात पिता गुरु ज्ञानी, अरु पंडित विद्या के दानी।
इनते बढ़े मनुज को ज्ञाना, साँच झूठ की हो पहिचाना।
सत को गहे असत को त्यागे, अति सुख पाये सत अनुरागे।
माता पिता परम उपकारी, जीवन भर रहिये आभारी।
उनका बदला अवस चुकाना, कर नित सेवा सुख पहुंचाना।
पितृ यज्ञ संज्ञा है याकी, करे जो जग में शोभा ताकी।
बलीवैश्वदेव, नित करिये, जो चाहो भवसागर तरिये।
जब लग उत्तम नहीं अभ्यागत, तब लग दूर न होंय दुरागत।
इनके बिना न उन्नति होवे, पहुनाई सब अवगुण धोवे।
देश विदेश करी उन यात्रा, उनसे बढ़े ज्ञाना की मात्रा।
अनुभव से सन्मार्ग बतावे, झूठ साँच की जाँच करावे।
उनसे हों सन्देह निवर्तन, सत्य धर्म का होय प्रपर्वन।
ब्राह्मे मुहूर्त्ते बुध्येत धर्माथौं चानुचिन्तयेत्।
कायक्लेशाँश्च तन्मूलान् वेदतत्त्वार्थमेव च।।
मनु. 4 । 12
ब्राह्म मुहूरत सब जन जागो, आलस छोड़ो शय्या त्यागो।
धर्मं अर्थं का चिन्तन करिये, प्रभु का ध्यान हृदय में धरिये।
तनु की व्याधि और निदाना, चिंतन कर मन में भगवाना।
पापाचरण कबहुं नहीं करना, अन्तर्यामी प्रभु सों डरना।
नाधर्मश्चरितो लोके सद्यः फलति गौरिव।
शनैरावत्तमानस्तु कर्त्तुर्मूलानि कृन्तति।।
– मनु. 4 । 172
अधर्मेणैधते तावत्ततो भद्राणि पश्यति।
ततः सपता०जयति समूलं तु विनश्यति।।
– मनु. 4 । 174
सत्यधर्मार्यवृत्तेषु शौचे चैवारमेत्सदा।
शिष्याँश्च शिष्याद्धर्मेण वाग्बाहूदरसंयतः।।
– मनु. 4 । 175
पापाचरण तुरत नहीं फलता, शनै शनै बत्ती सम जलता।
समय पाप सर्वंस्व विनासे, ज्यों जल में गल जांय बतासे।
पापी पाप करे और फूले, जिमि तरु फूले नदिया कूले।
छीन झपट शत्रुन को जीते, दुर्बल रुधिर पान कर जीते।
पुष्कल पाप नदी जब चढ़ती, तीछन धारा छिन छिन बढ़ती।
तोड़ फोड़ सब देत करारे, जड़ सों उखड़े तरु किनारे।
यही दशा पापी की होवे, पहले हंसे पाछे रोवे।
भोले जन पर कर अन्याया, करे एकट्ठी घर में माया।
खावे पीवे मौज उड़ावे, मान तान सुन्दर पहरावे।
हुकम हुकूमत नौकर चाकर, ऐंठे अकड़े माया पाकर।
पड़े समय की एक चपेटा, धन दौलत सब जाय लपेटा।
पुन दाने दाने को तरसें, आंखों से जल धारा बरसें।
क्या होवे पाछे पछताये, नहीं समझे पहले समझाये।
ताँते आर्य वृत्त अपनाएं, धर्म कर्म में चित्त रमाएं।
आर्य बनें दे सद उपदेशा, धर्म प्रचारें देश विदेशा।
ऋत्विक् पुरोहिताचाय्यैंर्मातुलातिथिसंश्रितैः।
बालवृद्धातुरेवैंद्यैज्ञर्ज्ञतिसम्बन्धिबान्धवैः।। 1 ।।
मातापितृभ्यां यामिभिर्भ्रात्रा पुत्रेण भार्यया।
दुहित्रा दासवर्गेण विवादं न समाचरेत् ।। 2 ।।
मनु. 4 । 179-180
ऋत्विक यज्ञ कराने हारा, वंश पुरोहित सत्याचारा।
गुरु मातुल अभ्यागत बालक, बूढ़े वृद्ध लोग प्रतिपालक।
आश्रित रोगी वैद्य सवर्णी, धशुरादिक बान्धव हितचरणी।
माता पिता भगिनी और भाई, इन सों करे न कबहुं लराई।
इन से लड़े बहुत दुख पावे, मान प्रतिष्ठा सकल गँवावे।
अतपास्त्वनधीयानः प्रतिग्रहरुचिर्द्धिजः।
अभ्भस्यश्मप्लवेनैव सह तेनैव मज्जति।।
– मनु. 4 । 190
त्रिष्वप्येतेषु दत्तं हि विधिनाप्यर्जितं धनम्।
दातुर्भवत्यनर्थाय परत्रादातुरेव च।। – मनु. 4 । 193
यथा प्लवेनौपलेन निमज्जत्युदके तरन्।
तथा निमज्जतोऽधस्तादज्ञौ दातृप्रतीच्छकौ।।
– मनु. 4 । 194
चौपाई
ब्रह्मचर्य्य आदिक तपहीना, अनपढ़ दानाधीना दीना।
यह तीनों डूबें मँझधारा, पाथर नाओ समुद्र अपारा।
निज दाता को संग डुबावें, दुख सागर में गोते खावे।
धर्मार्जित धन इनको देना, सम्पति देय विपत्ति लेना।
इसी जन्म दुख पावे दाता, आगत जन्म गृहीता पाता।
पाथर नौका चढ़ अज्ञानी, तरा चहें अंबुधि को पानी।
डूबें लेने देने वाले, दुख सागर में वे मतवाले।
पाखण्डियो के लक्षण
धर्मध्वजी सदालुब्धश्छाद्यिको लोकदम्भकः।
वैडालव्रतिको ज्ञेयो हिंस्त्रः सर्वाभिसन्धकः।। 1 ।।
अधोदृष्टिर्नैष्कृतिकः स्वार्थसाधनतत्परः।
शठो मिथ्याविनीतश्च बकव्रतचरो द्विजः।। 2 ।।
– मनु. 4 । 195 । 196
चौपाई
धर्म नाम ले ठगने हारे, लोभी कपटी छल को धारे।
दम्भी अपनी करे बड़ाई, हिंसक सृष्टि को दुखदायी।
जिनकी वृत्ति हो वैडाली, मुख मीठी और मन की काली।
भले बुरे सबसों मिल वरतें, डरिये ऐसे धूरत नरते।
नीची दृष्टि रखने वाले, निज नीति के हैं रखवाले।
ईर्षालु प्राणों के घातक, पर जन नाशहिं गनहिं न पातक।
दे विश्वास स्वार्थ हित मारे, स्वारथि सों नित करे किनारे।
शठ निज हठ जो कबहुं न छोड़े, सत्पथ में अटकाये रोड़े।
झूठमूठ की विनय दिखावे, हँस बोले अरु हाथ मिलावे।
मिथ्या विनयी बड़े भयानक, पाथर निर्मित नकली मानक।
बगुला भक्त साधु को भेखा, तँह शिकार मारा जँह देखा।
एतेजन जानहु पाखण्डी, नीच दुष्ट दुर्जन उद्दण्डी।
जो चाहो जीवन की आसा, इन पर करहु नहीं विस्वासा।
धर्मं शनैः सच्चिनुयाद् वल्मीकमिव पुत्तिकाः।
परलोकसहायर्थं सर्वलोकान्यपीडयन्।। 1 ।।
नामुत्र हि सहायार्थं पिता माता च तिष्ठतः।
न पुत्रदारं न ज्ञातिधर्मस्तिष्ठति केवलः।। 2 ।।
एकः प्रजायते जन्तुरेक एव प्रलीयते।
एको नु भुड्क्ते सुकृतमेक एवच दुष्कृतम् ।। 3 ।।
– मनु. 4 । 138 -240
एकः पापानि कुरुते फलं भुड्क्ते महाजनः।
भोक्तारो विप्रमुच्यन्ते कर्त्ता दोषेण लिप्यते।। 4 ।।
– म. भारत, उद्योग पर्व, प्रजागट पर्व अ. 32
मृत शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्ठसमं क्षितौ।
विमुखा बान्धवा यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति।। 5 ।।
– मनु. 5 । 241
ताँते धर्म करहु नित प्यारे, धर्म लोक परलोक सुधारे।
जिमि दीमक बल्मीक बनावे, शनै शनै तिमि धर्म कमावे।
जीव जन्तु को दुख नहीं देवे, संग्रह सदा पुण्य कर लेवे।
धर्म एक परलोक सहायी, वहाँ न माता पिता अरु भाई।
बेटा बेटी बन्धु नारी, यह सब नाते हैं संसारी।
आय अकेला जाय अकेला, दुनियां चार दिवस का मेला।
पाप पुण्य का उत्तरदायी, तुही अकेला और न भाई।
तु ही अकेला पाप कमावे, सब कुटुम्ब सुख भोगे खावे।
पाप दण्ड तू सहे एकाकी, छूटें सभी कुटुम के बाकी।
कुण्डलियां
इक दिन ऐसा आयगा, निकल जायँगे प्रान।
बन्धु तुझे उठाय के, ले जायें शमशान।।
ले जायें शमशन चिता पर डाल जलायें।
तेरा तिनका तोड़ छोड़ सब घर को आयें।।
ताँते जयगोपाल भजन कर ले भगवाना।।
धर्म चलेगा संग निकल जायें जब प्राना।।
तस्माद्धर्मं सहायार्थं नित्यं संचिनुयाच्छनैः।
धर्म्मेण हि सहायेन तमस्तरति दुस्तरम्।।1।।
धर्मप्रधानं पुरुषं तपसा हतकिल्विषम्।
परलोकं नयत्याशु भास्वन्तं खशरीरिणम्।।2।।
– मनु. 4 । 242 । 243
चौपाई
तांते धर्म करो नर स०िचत, जाते सुख से रहो न व०िचत।
भावी जन्म मिले सुखकारी, धर्म होय तेरा सहकारी।
दुस्तर अन्धकार अतिघोरा, धर्म सहायक केवल तोरा।
तपसों जिसने पाप जलाये, किलविश सकल समूल नशाए।
खम् ब्रह्म को पाये दर्शन, भासमन्त शुभ तेज प्रवर्षन।
दृढ़कारी मृदुर्दान्तः क्रूराचारैरसंवसन्।
अहिंस्त्रो दमदानाभ्यां जयेत्स्वर्गं तथाव्रतः।।1।।
वाच्यर्थानियताः सर्वेवाड्मूला वाग्विनिःसृताः।
तां तु यः स्तेनयेद्वाचं स सर्वस्तेयकृन्नरः।।2।।
आचाराल्लभते ह्यायुराचारादीप्सिताः प्रजाः।
आचाराद्धनमक्षय्यमाचारो हन्त्यलक्षणम्।। 3 ।।
– मनु. 4 । 246 । 156
चौपाई
दृढ़ निश्चय वत मृदुल सुभाउ, इन्द्रिय जित निज मन को राऊ।
हिंसक सों नहीं राखे प्रीति, दानी कबहुँ न त्यागे नीति।
यह नर अटल सुःख को पावहिं, दुःख दरिद्र तिन निकट न छावहिं।
नियत अर्थ वाणी को सारा, वाणी मूल सकल व्यवहारा।
करहि जो उस वाणी की चोरी, मिथ्या भाषण करत वहोरी।
महां घोर पतितन को राजा, सो डूबे सह सकल समाजा।
ताँते चौर कर्म नहीं करिये, धर्म नाव चढ़ भव जल तरिये।
सदाचार इक आयु बढ़ावे, मन वा०िछत संतति को पावे।
अक्षय धन संपति को लाभा, निर्मल बुद्धि मस्तक आभा।
सदाचार सो नशत बुराई, सच्चरित्र की महिमा गाई।
दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति निन्दितः।
दुःखभागी च सततं व्याधितोऽल्पायुरेव च ।।
– मनु. 4 । 157
दुराचार निन्दा का कारण, घृणा करे सब जन साधारण।
संतत रोगी बहु दुख भागी, दुर्व्यसनों की जिहिं लत लागी।
छोटी आयु में मर जाए, दुराचार, सर्वस्व नशाए।
यद्यत्परवशं कर्म तत्तद्यत्रेन वर्जयेत्।
यद्यदात्मवशं तु स्यात् तत्तत्सेवेत यंततः।।1।।
सर्वं परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम्।
एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः।।2।।
– मनु. 4 । 1596-10
चौपाई
पराधीन कर्मों को त्यागो, निज वश कर्मों से अनुरागो।
पराधीनता अति दुखदायी, है स्वाधीनता सुख कर भाई।
यह दोनों सुख दुख के लक्षण, जानत हैं धीमान विचक्षण।
याको भाव समझ मन माँही, यह लक्षण कोउ व्यापक नाहीं।
परवश रहें सदा नर नारी, इत परवशता है सुखकारी।
नारी गृह के काज संवारे, पुरुष जीविका लाए प्यारे।
वह लावें वह अन्न पकावें, अपना अपना काज निभावें।
मात पिता के पुत्र अधीना, बिगड़ जाँय जो हों स्वाधीना।
बाला बालक गुरुकुलवासी, गुरु वश हों विद्या के राशी।
कन्याओं को नारी पढ़ावें, नाना विद्या शील सिखावे।
सदा सिखाये पति की प्रीति, याही सद्गृहस्थ की रीति।
पुरुष पढ़ायें बालक ऐसे, सुख मय जीवन बीतें जैसे।
पुरुष देव हैं देवी नारी, सच्चरित्र मत हो व्यभिचारी।
अथ अध्यापक लक्षण
आत्मज्ञानं समारम्भस्तितिक्षा धर्मनित्यता।
यमर्था नायकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते।। 1 ।।
निषेवते प्रशस्तानि निन्दितानि न सेवते।
अनास्तिकः श्रद्दधान एतत्पण्डितलक्षणम्।। 2 ।।
क्षिप्रं विजानाति चिरं शृणोति, विज्ञाय चार्थं भजते न कामात्।
नासम्पृष्टो ह्युपयुङ्क्ते परार्थे, तत्प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य।। 3 ।।
नाप्राप्यमभिवा०छन्ति नष्टं नेच्छन्ति शोचितुम्।
आपत्सु च न मुह्यान्ति नराः पण्डितबुद्धयः।। 4।।
प्रवृत्तवाक् चित्रकथ ऊहवान् प्रतिभानवान्।
आशु ग्रन्थस्य वक्ता च यः स पण्डित उच्यते।। 5 ।।
श्रुतं प्रज्ञज्ञनुगं यस्य प्रज्ञा चैव श्रुतानुगा।
असंभिन्नार्यमर्यादः पण्डिताख्यां लभेत सः।।6।।
– म0 भारत। उद्योग पर्व विदुर प्रजागर अध्याय 32
चौपाई
आलस हीन रु आतम ज्ञानी, सदा कार्य्य रत तप को खानी।
सुख दुख हानि लाभ समाना, स्तुति निन्दा अरु मान अमाना।
हर्ष शोक सब सम कर जाने, वाको साँचा पण्डित माने।
जिसे न सृष्अि पदार्थ लुभाएं, वे साँचे पण्डित कहलायें।
श्रेष्ठ कर्म के जो अनुरागी, पाप मार्ग के जो जन त्यागी।
आस्तिक ईश्वर के श्रद्धालु, वह पूरन पण्डित किरपालु।
कठिन विषय लख पांय तुरंता, जिन को बात न कोउ दुरन्ता।
बहु श्रुत अरु बहु शास्त्र विचारा, करें ज्ञान से पर उपकारा।
बिन पूछे कोई बात न बोले, प्रथम बात का अवसर तोले।
यह पंडित का पहला लक्षण, ऐसा पंडित होय विलक्षण।
प्रापणीय जो नहीं पदारथ, जिसकी इच्छा निपट अकारथ।
उस वस्तु को जो नहीं चाहे, नष्ट द्रव्य पर नहीं पछताये।
विपति माँहि घबरावे नाँहीं, सो पंडित जानें मनमाहीं।
वाक्पटु प्रश्नोत्तर कर्ता, चित्र कथन सों शंका हर्ता।
अर्थ गहे अरु शीघ्र उचारे, सो पण्डित जो सत्य विचारे।
कुंडलिया
जाकी बुद्धि अनुसरे, सत्य श्रवण अनुकूल।
श्रवण न हो जा का कभी, निज प्रज्ञा प्रतिकूल।
निज प्रज्ञा प्रतिकूल आर्य मरजाद न तोड़े।
के ता संकट आय वेद मारग नहीं छोड़े।
सो पंडित परमान मान अरु यश को मूला।
जाकी बुद्धि चले सत्य श्रवणन अनुकूला।।
चौपाई
जंह ऐसे पंडित अध्यापक, उसी देश की उन्न्ति व्यापक।
जंह मूरख कोरे बकवादी, वंह जानो निश्चित बरबादी।
मूर्खं लक्षण
अश्रुतश्च समुन्नद्धो दरिद्रश्च महामनाः।
अर्थांश्चाऽकर्मणा प्रेप्सुर्मूढ इत्युच्यते बुधैः।। 1 ।।
अनाहूतः प्रविशति ह्यपृष्टो बहु भाषते।
अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधमः।। 2।।
– म0 भारत उद्योग पर्व, विदुर प्रजागार अ0 23
शास्त्र पढ़ा अरु सुना न कोई, निपट निरक्षर मूरख सोई।
गाँठ नहीं इक दाम छदामा, मन में चाहे श्रीपति धामा।
मन के लड्डू बैठा खावे, सो मूरख अंजान कहावे।
बिना कर्मं राखे फल आशा, उस मूरख की आश दुराशा।
बिन पूछे बोले अभिमानी, बिन बुलाय आवे अज्ञानी।
ऐसे नर को मूरख कहिये, भला चहो तो दूरहि रहिये।
जँह ऐसे जड़ शिक्षादायक, गर्दभ शंख ढपोल विनायक।
राजत वहाँ अविद्या रानी, फूट कलह बढ़ती मनमानी।
घर घर होय पाप अरु क्लेशा, अवनी गर्त गिरे वह देशा।
विद्यार्थी के दोष
आलस्यं मद
आलस्यं मदमोहौ च चापलं गोष्ठिरेव च।
स्वब्धता चाभिमानित्वं तथाऽत्यागित्वमेव च।
एते वै सप्त दोषाः स्युः सदा विद्यार्थिनां मताः।। 1।।
सुखार्थिनः कुतो विद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम्।
सुखार्थी वा त्यजेद्विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत्सुखम्।।2।।
– म0 भा0 विदुर प्रजागर अ0 39
तन में मन में जड़ता आलस, मद सेवी विषयों का लालस।
चपल व्यर्थ बातें बतरावे, रुक रुक कर जो पढ़े पढ़ावे।
अत्यागी अभिमानी छातर, सो छातर नहीं विद्या पातर।
सप्त दोष जानहु अति भारी, इनते रहित पठन अधिकारी।
सुख लिप्सु विद्या नहीं पावे, सुख विद्यारथि नहीं उठावे।
विद्यार्थी के गुण
सत्ये रतानां सततं दान्तानामूर्ध्वरेतसाम्।
ब्रह्मचर्यं दहेद्राजन् सर्वपापान्युपासितम्।।
सदा सत्य में रखे प्रवृति, झूठ पाप सों हो निवृत्ति।
इन्द्रियजित वश राखे मन को, त्याग करे चित से विषयन को।
अधो मार्ग नहीं बीज गिरावे, वीरज रेतस ऊर्ध्वं बचावे।
उनका ब्रह्मचर्य है साँचा, उनका चित विद्या में राँचा।
यत्न करे अध्यापक सज्जन, योग्य श्रेष्ठ सच्चे विद्वज्जन।
शिष्य होंय उनके सतवादी, व्यर्थ बकें नहीं हों बकवादी।
सत्य करें सत मानें मानी, सभ्य शील युत निर अभिमानी।
इन्द्रिय जित पूरन गुणवन्ता, तन सों मन सों हों बलवन्ता।
हो वेदज्ञ रु शास्त्र प्रवीना, आर्य रीति से जिनका जीना।
छात्र बनायें जीवन सुन्दर, विद्या पारग ज्ञान समुन्दर।
शान्त जितेन्द्रिय शील स्वभावा, उद्यमशील श्रमी सद्भावा।
ऐसा करहिं नित्य पुरुषारथ, जाते विद्या होय सकारथ।
धर्म आयु विद्या के पूरे, गुण पूरे नहीं रहें अधूरे।
ब्राह्मण वर्ण छात्र के धर्मा, अब सुनिये वैश्यन के कर्मा।
ब्रह्मचर्य सन पढ़े पढाए, तरुण होय जब ब्याह कराए।
सब देशों की भाषा जाने, मनो भाव उनके पहचाने।
नानाविध व्यापारिक रीति, चाल ढाल अर रीति नीति।
क्रय विक्रय सों लाभ उठाना, दीप दीपान्तर आना जाना।
पशु पालन खेती की उन्नति, धन सम्पति की सदा समुन्नति।
विद्या धर्म हेतु व्यय करना, सत्य कथन अनृत सों डरना।
निश्छल शुद्ध करे व्यापारा, झूठ कपट सों रहना न्यारा।
वस्त का संग्रह और रक्षण, यह सब वैश्यों के हैं लक्षण।
शूद्र लक्षण
शूद्र जीविका द्विज आधीना, सेवा करे परम परवीना।
सुन्दर स्वादु पचे रसोई, जो जो खाय प्रशसें सोई।
उसके घर यदि होवे शादी, खान पान गृह वस्तर आदि।
द्विज गण उनको देंय सहारा, जिससे उनका चले गुजारा।
अथवा मासिक वेतन देवें, बदले में निज सेवा लेवें।
चारहुं वर्णं रखें मिल प्रीति, यह सुन्दर जीवन की रीति।
सम सुखदुःख लाभ अरु हानि, मिल जुल सबको आयु निभानी।
राज्य प्रजा की चाहें वृद्धि, पुनः प्राप्त हो ऋद्धि सद्धि।
नारी दूषण
पानं दुर्जनसंसर्गः पत्या च विरहोऽटनम्।
स्वप्रोऽन्यगेहवासश्च नारीसन्दूषणानि षट्।। 1।।
– मनु0 9। 13
पृथक रहे नर सों नहीं नारी, रहे तो जानहु पापिन भारी।
नारी के छः दूषण भारे, इन ते नारी रहे किनारे।
सुरा भंग आदिक मद पाना, दुर्जन संगति पीना खाना।
जँह तँह डोलत फिरे अकेली, दरस परस साधुन की चेली।
कहीं मन्दिर कहीं तीरथ जात्रा, मूरख निर्लज नार कुपात्रा।
पर घर सोना और निवासा, सो नारी घर सत्यानासा।
यही दोष पुरुषों के जानो, बुरा भला इनते पहिचानो।
दोहा
जुगल जोड़ि नर नार की, मृत्यु करे विछोह।
कै जावे परदेश में, जीवित छुटे न मोह।।
चौपाई
जो परदेश कार्य को जावे, नारी को भी संग ले जावे।
अधिक समय नर रहे अकेला, अवस होय व्यसनी अलबेला।
प्रश्न
समाधान शंका करें, मोरी इक महाराज।
बहु विवाह क्यों नहीं करे, इसमें कैसी लाज।।
उत्तर
एक समय में एक ही, ब्याह करना है जोग।
बहु विवाह समुचित नहीं, यह जाति को रोग।।
प्रश्न
समयान्तर में होंय अनेका, इसमें कौन विचार विवेका।
है इसमें कोउ शास्त्र प्रमाना, कृपया उत्तर दें भगवाना।
उत्तर
या स्त्री त्वक्षतयोनिःस्वाद् गतप्रत्यागतापि वा।
पोनर्भवेन भर्त्रा सा पुनः संस्कारमर्हति।। 1 ।।
– मनु0 1 । 176
जा संग हुआ न नर संयोगा, अक्षत योनि भोग न भोगा।
केवल भाँवर लीन बेचारी, वह नारी नहीं बाल कँवारी।
अन्य पुरुष सों उसको ब्याहे, सुख सों आयु सकल निबाहे।
नर भी अक्षत वीर्य विवाहें, यदि वे ब्याह कराना चाहें।
द्विज गण हेतु नियम यह प्यारे, जाँते द्विज निज वंश सुधारे।
क्षत वीरज क्षत योनि नारी, पुन विवाह के नहीं अधिकारी।
कहा दोष हैं पुनर्विवाहे, सुनहु मीत यदि सुनना चाहे।
नर नारी में रहे न प्रीति, पुनर्विवाह की हो यदि रीति।
जब चो जो जिस को छोड़े, ऐ छोड़ दूसर में जोड़े।
मृत स्वामी की लेकर संपत, अन्य पति संग नारी चंपत।
पति कुटुम्ब तब करे लड़ाई, झगड़ों में सब धन लुट जाई।
लाखों भद्र वंश मिट जाएं, लखपति घर घर मांगे खाएं।
नारी व्रत और धर्म पतिव्रत, नष्ट होयगा पुण्य सतीव्रत।
ताँते पुनर्विवाह नहीं करिये, जीये भले भले चहे मरिये।
प्रश्न
वंश नष्ट हो जायगा, रहे न कुल में कोय।
जो नहीं पुनर्विवाहिये, कौन देयगा तोय।।
चौपाई
ताँते समुचित पुनर्विवाहा, इस के बिना न होय निबाहा।
विधवा विधुर होंय व्यभिचारी, धर्म भ्रष्ट होंगे नर नारी।
गर्भ पात होने लग जावें, जो नहीं पुनर्विवाह करावें।
बने जगत सब नरक नमूना, हो संसार धर्म से सूना।
उत्तर
भ्रम में पड़े मित्र क्यों भूले, जग में चलो वेद अनुकूले।
कोऊ उपद्रव का नहीं कारण, ब्रह्मचर्य जो कर लें धारण।
जो चाहें वे वंश चलाना, कोउ बालक ले गोद बैठाना।
दूर निकट का होवे बालक, उसे बनाए निज सुत पालक।
वंश चले, नहीं हो व्यभिचारा, पुरुष होय हो चाहे दारा।
ब्रह्मचर्य कर सकंहि न धारण, कर न सकें मन विषय निवारण।
तिन कहँ समुचित करहिं नियोगा, सन्तति हेत क्षणिक संयोगा।
दोहा
पुनर्विवाह नियोग में, पाँच बखाने भेद।
जिन ते भ्रम संशय मिटें, दूर होंय सब खेद।
चौपाई
ब्याह में कन्या पितु गृह त्यागे, टूट जायँ सम्बन्ध के तागे।
पति गृह में जा करे निवासा, पूरन होंय पति सों आसा।
वरु विधवा जब करे नियोगा, पूर्व पति घर होय संयोगा।
पति नियुक्त के घर नहीं जावे, पति नियोगी तिय घर आवे।
दुतिय भेद संतति को भारी, या को मन में लिहो बिचारी।
पति नियुक्त से जो सन्तानें, होंय सो पूर्व पति की मानें।
जाति गोत्र अरु संपति सारी, उसका गोत्रज हो अधिकारी।
मृत पति के वे सुत कहलावें, उसका ही वे वंश चलावें।
पूर्व पति के पुत्र अरु नारी, नहीं नियुक्त उनका अधिकारी।
तीसर जो हो जुगल विवाहित, दोऊ परस्पर रहें समाहित।
करें परस्पर सेवा पालन, रथ गृहस्थ का करते चालन।
वरु नियुक्त टूटे सम्बन्धा, रहे न कोऊ पुन अनुबन्धा।
चौथे ब्याह मरण पर्यन्ता, रहें परस्पर कामिनि कन्ता।
यह नियोग का अन्तर भ्राता, कार्य होय पुन रहे न नाता।
पंचम ब्याहे नर अरु नारी, एकहि गृह के दोऊ पुजारी।
नर नारी जो होंय नियोगी, वे निज निज गृह के उपभोगी।
प्रश्न
नियम नियोग ब्याह के कैसे, भिन्न भिन्न अथवा इक जैसे।
कृपा करें कहिये विस्तारा, छूटे संशय भरम हमारा।
उत्तर
कछु अन्तर ऊपर कहे, सुनहु शेष धर ध्यान।
भरम भूत जाते मिटे, होय देश कल्यान।।
चौपाई
ब्याहे सदा कुमार कुमारी, वे नियोग के नहीं अधिकारी।
विधवा विधुर नियोग किरावें, कर नियोग संतति उपजावें।
युगल विवाहित के सन्ताना, दश सों अधिक न शास्त्र विधाना।
यह नियोग प्रतिबन्ध लगावे, सन्तति चार तलक उपजावे।
यथा विवाहित नर अरु नारी, इक दूसर के हैं उपकारी।
रहें इकट्ठे खाते पीते, संग रहें जब लग हैं जीते।
यह व्यवहार न रखे नियोगी, वह केवल कुछ काल संयोगी।
गर्भ हुए पर टूटे नाता, एक वर्ष लग मिलहिं न गाता।
यदि निज हेत नियोगे नारी, तो मन राखे बात सम्हारी।
करे नियोग पुरुष हित अपने, गर्भ अनन्तर लखहि न सपने।
द्वयत्रय वर्ष शिशु को पाले, पुन बालक को पुरुष सम्हाले।
चार शिशु विधवा उपजावे, दो को निज संतान बनावे।
द्वै बालक पुन पाय नियोग, पुन न परस्पर होंय संजोगी।
इस प्रकार इक विधवा दारा, स्वयं रखे दो शिशु अधारा।
दो दो चार नरन कँह देवे, पुन नहीं कोऊ नियोगी सेवे।
जिस नर की मर जाये नारी, कबहुं न ब्याहे नार कँवारी।
विधवा के संग करे नियोगा, दो संतति हित करे सँभोगा।
दश संतति तक वेद बखानें, वेद वचन शिर पर धर मानें।
इमां त्वमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रां सुभगां कृणु।
दशास्यां पुत्राना धेहि पतिमेकादशं कृधि।।
– ऋ0 । मं0 10 । सू0 85 । मं0 45।।
इन्द्र! वीर्य्य के सिंचन हारे, पुरुष पराक्रम समरथ वारे।
सुभग करहु तुम इन नारिन को, विधवाओं को पतिवारिन को।
यह जो अहै विवाहित नारी, यह होवे दश पुत्री प्यारी।
मान ग्यारवीं इसको रानी, अहो इन्द्र नर पुंगव मानी।
हे नारी प्यारी भर्तारी, तु भी हो दश पुत्रों वारी।
यह जो पुरुष विवाहित तेरा, पिता होय दश तंति केरा।
पति नियुक्त सों ले सन्तान स से अपनी वंश चलाना।
दोहा
दश सों अधिक न बाल हों, वेदाज्ञा अनुसार।
अधिक शिशु उत्पन करे, तब जानहु व्यभिचार।।
चौपाई
दश सों अधिक जो हों सन्ताना, दुर्बल होंय रोग को खाना।
अल्पायु होवें नर नारी, दीन छीन अरु भ्रष्टाचारी।
आयु बुढ़ापा दुःख उठाएं, बत्ती सम जल गल मर जायें।
प्रश्न
पर पुरुषों को भोगे नारी, महाराज क्या बात विचारी।
क्या यह नहीं है भ्रष्टाचारा, फैल जाय जग में व्यभिचारा।
उत्तर
भोग करे बिन ब्याह के, जैसे भ्रष्टाचार।
तैसे बिना नियोग के, भोग होय व्यभिचार।।
चौपाई
नियम सहित ब्याहें नर नारीं, कौन कहे उनको व्यभिचारी।
तिमि नियोग नेमहुँ अनुकूला, नहीं अपराध पाप को मूला।
भिन्न वंश के बाला बालक, भिन्न कुटुम्ब और प्रतिपालक।
नियम सहित जब ब्याह रचावें, बाजे गाजे ढोल बजावें।
समय समागम देत बधाई, जात पातँ मँह बँटे मिठाई।
उनको तनिक लाज नहीं आवे, पुन नियोग में क्यों शरमावे।
जहाँ नियम तँह लाज न प्यारे, लाज उसे जो नियम बिगारे।
प्रश्न
साँची बात आपकी मांनू, पर यह वेश्या वृत्ति जानूं।
यह कुकर्म मन को नहीं भावे, ऐसा करते हृदय लजावे।
उत्तर
कँह कंचनि के कुत्सित कर्मा, कँह नियोग वेदोचित धर्मा।
वेश्या भोग करे जन जन से, उसे प्यार केवल पर धन से।
उसका पुरुष न निश्चित कोई, जिसका पैसा उसकी सोई।
कंचनि को नहीं सुत अभिलाखा, वंश हेत कोऊ पुरुष न राखा।
नां वह विधवा नां वह व्याही, वह करती मन चीती चाही।
नां कोई नियम नहीं प्रतिबंधा, केवल पर धन सों संबंधा।
यह नियोग मँह नियम विशेषा, टूटे नहीं नियम की रेखा।
जाको माने नियम समाजा, वहाँ कहां लज्जा को काजा।
निज कन्या की भुज पकरावे, पुरुष पराया घर पर आवे।
नेक न माता पिता लजावें, ब्याह समागम सभी करावें।
तिमि नियोग में पाप न कोई, जो वर्जे पुन पापी सोई।
स्वाभाविक नर नार सँयोगा, जो रोकहिं तो फैले भोगा।
रोक सकहिं पूरन वैरागी, साँचे योगी साधु त्यागी।
जब नियोग में पड़े रुकावट, छिप छिप होती मेल मिलावट।
गर्भ पात से होंगे पातक, युवती युवक होंय शिशु घातक।
इन पापन को पाप न मानो, बरु नियोग को पातक जानो।
रोका चाहो जो व्यभिचारा, तो नियोग उत्तम व्यवहारा।
मन इन्द्रिय जिन वश कर लीना, वे नियोग नहीं करें प्रवीना।
इन्द्रिय जित जो नहीं नर नारी, यह नियोग उनको हितकारी।
नहीं नियोग आवश्यक कर्मा, यह तो आपत्कालिक धर्मा।
नीच वरन से उत्तम नारी, वेश्यागमन कर्म व्यभिचारी।
गर्भ पात आदिक शिशुधाता, इन से ब्याह नियोग बचाता।
ताँते समुचित कर्म नियोग, दूर होंय जाति के रोगा।
प्रश्न
दयासिन्धु बतलाइये, क्या नियोग के नेम ?
वंश बढ़े संतित फले, साँचा होवे प्रेम।।
उत्तर
ब्याह नियोग को एक समाना, सब समाज देवे सन्माना।
प्रकट होय जिमि ब्याह रचाएं, तिमि नियोग की ख्याति कराएं।
जब नियोग निश्चित हो मन में, प्रकट करें परिवारिक जन में।
कहें उन्हें हम करहिं नियोगा, पुत्र हेतु करिहैं संयोगा।
जब अपनी हो आशा पूरी, पुन नहीं मिलें रहेंगे दूरी।
एक मास में एक ही बारा, गर्भाधान करें संस्कारा।
गर्भ रहे पर निकट न जाएं, एक वर्ष का नियम निभाएं।
प्रश्न
क्या नियोग निज वर्ण में, करना उचित सुजोग।
अन्य वर्ण में भी करे, अवसर पाय प्रयोग।।
उत्तर
करे सवर्णी सों संयोगू, अथवा उत्तम वर्णं सुभोगू।
वेश्या विप्र वैश्य अपनाये, क्षत्रिय सों वा सुत उपजाये।
क्षत्रिय ब्राह्मण सों क्षत्रानी, केवल विप्र भजे विप्रानी।
नीच वर्ण सों करे नियोगा, संतति उपजे नीच कुयोगा।
प्रश्न
नर मन म उपजे भला, क्यों नियोग की चाह।
एक नार की मृत्यु से, दूसर करे विवाह।।
उत्तर
द्विज गण में नहीं पुनर्विवाहा, वेद शास्त्र हमने अवगाहा।
चहें कुमार न विधवा नारी, विधुर न अबला चहे कँवारी।
बिन नियोग नहीं अन्य उपाऊ, यह वृत्ति है सहज सुभाऊ।
यथा ब्याह में वेद प्रमाना, तिमि नियोग मँह मंत्र समाना।
कुह स्विद्दोषा कुह वस्तौरविश्ना कुहांभिपित्वं करतः कुहोषतुः।
को वा शयुत्रा विधवैव देवरं मर्य्यं न योषा कृणुते सधस्थ आ।।1।।
– ऋ मं0 10 । सू0 40 । मं0 2।।
उदीर्ष्व नार्यभि जीवलोकं गतासुमेतमुप शेष एहि।
हस्तग्राभस्य दिधिषोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभि सं बभूथ।।2।।
– ऋ0 मं0 10 । सू0 18। मं0 8 ।।
हे रमणी! नर पुंगव ! प्यारे, रैन दिवस तुम कहाँ गुजारे।
संग संग पति पत्नी जैसे, विधवा संग देवर जिमि तैसे।
कहाँ रहे कँह लिये पदारथ, कहाँ तुम्हारो वास यथारथ।
कहाँ तुम्हारे शयनागारा, कोन देश को हो नर दारा।
वेदों के यह मंत्र बताएं, नारी पुरुष एकट्ठे जाएं।
जिमि पति पतनी सुत उपजायें, तिमि नियुक्ति भी वंश चलाएं।
प्रश्न
जो न कोय लघु भ्राता कोउ, किससे करे नियोग।
वंशोच्छेद न होय पुन, बिना किये संयोग।।
उत्तर
देवरः कस्माद् द्वितीयो वर उच्यते।। – निरु0 अ0 3 खं0 15
देवर के सँग वेद बखाने, देवर के तुम अर्थ न जाने।
विधवा का द्वितीया भर्तारा, उसका देवर नाम पुकारा।
ज्येष्ठ होय वा छोटा भ्राता, जासों होय नियोगी नाता।
अपने से हो उत्तम वर्णी, अथवा होवे कोऊ सवर्णी।
जासों नार नियोग करावे, वह उस का देवर कहलावे।
अर्थ मंत्र दूसर को सुनिये, कर विचार मन अन्दर गुनिये।
हे विधवे! तज मृत पति ध्याना, ढूसर सों करले सन्ताना।
जो उससे तू सुत उपजाये, उस संतति को देवर पाये।
जो तू निज हित करे नियोगू, तो संतति सुखकर उपभोगू।
याही नियम नियोगी नर का, पालहि वचन सुवेद प्रवर का।
अदेवृध्न्यपतिध्नीहैधि शिवा पशुभ्यः सुयमा सुवर्चां।
प्रजावती वीरसूर्देवृकामा स्योनेममग्निं गार्हंपत्यं सपर्य।।
– अथर्व0 । कां0 14। अनु0 2 । मं0 18
हे पति देवर की सुखदायिनि, गृह पशु हित कल्याण विधायिनि।
नेम धर्म मँह चलने वारी, शील ज्ञान अरु रूप सँवारी।
शूरवीर पुत्रों की माता, देवर अथ पति की सुख दाता।
देवर अथवा पति को पाकर, गृह के सारे धर्म निभाकर।
अग्नि होत्र सेवन नित करियो, निज गृहस्थ को सुख से भरियो।
तामनेन विधानेन निजो विन्देत देवरः।। – मनु0 9। 96
अक्षत योनि होवे विधवा, देवर व्याहि होय पुन सधवा।
प्रश्न
कितनी संख्या में करें, यह नियोग नर नार।
क्या क्या उनके नाम हों, जो नियुक्ति भर्तार।।
उत्तर
सोमः प्रथमो विविदे गन्धर्वो विविद उत्तरः।
तृतीयो अग्निष्टे पतिस्तुरीयस्ते मनुष्यजाः।।
– ऋ0 मं0 10 । सू0 85 । मं0 40
प्रथम विवाहित ‘सोम’ कहावे, दूसर को गंधर्व बतावें।
तीसर पति को ‘अग्नि’ नामा, शेष सात मानुष अभिरामा।
ग्यारह पति तक नार नियोग, इह विधि ग्यारह पुरुष सँभोगे।
प्रश्न
दश बेटे ग्यारस पति, एकादश का भाव।
सत्य अर्थ यूं मानिये, त्यागहु भाव कुभाव।।
उत्तर
तुव कथन अनुसार यदि दश बेटे लें मान।
उपर्युक्त कहँ जायेंगे वेद शास्त्र परमान।।
देवराद्वा सपिण्डाद्वा स्त्रिया सम्यङ्नियुक्तया।
प्रजेप्सिताधिगन्तव्या सन्तानस्य परिक्षये।। 1 ।।
ज्येष्ठो यवीयसो भार्य्यां यवीयान्वाग्रजस्त्रियम्।
पतितौ भवतो गत्वा नियुक्तावप्यनापदि।। 2।।
औरसः क्षेत्रजश्चैव0 ।। 3।।
– मनु0 9 । 59। 58 । 159
दोहा
छः पीढ़ी भर्तार की, अथवा पति का भ्रात।
विधवा उत्तम वर्ण मँह, ले नियोग कर तात।।
चौपाई
यदि संतति की होय अनिच्छा, तो नियोग की करे न इच्छा।
होने लगे वंश को नाशा, तो नियोग की समुचित आशा।
जब नियोग से हो संताना, पुनः समागम पतन समाना।
यदि दोनों सुत हेतु नियोगें, चौथे गर्भ तलक संयोगें।
इह विधि होवें दश सन्ताना, अधिक करें सो लंपट जाना।
पति पत्नी वा होंय नियोगी, दश सुत या मत होंय संयोगी।
अधिक भोग लंपट को कर्मा, निन्दित व्यसनी पाप अधर्मा।
संतति हेत विवाह नियोगा, काम केलि पशु गण को भोगा।
प्रश्न
जबहुं नियोगे कामिनि, पुत्र हेतु कोऊ कन्त।
जीते जी पति के करे, वा मरने उपरन्त।।
उत्तर
अन्यमिच्छस्व सुभगे पतिं मत्।। – ऋ0 । मं0 10 । सू0 10।।
चौपाई
पति संतति के होय अजोगू, समरथ हीन अशक्त संजोगू।
स्वयं कहे वह निज नारी को, कल्याणी प्रिय भर्तारी को।।
हे सुभगे ! सुन्दर! शुभ नारी, सन्तति योग नहीं मैं प्यारी।
मुझ से अन्य देख नर कोई, जासों गर्भ सपूती होई।।
तब नियोग कर ले वह नारी, पुत्रवती होवे भर्तारी।
पर निज पति सेवा में लागी, रहे पति चरणन अनुरागी।।
संतति योग न हो जब नारी, स्वयं कहे पति को सुविचारी।
स्वामिन अब कोऊ विधवा गहिये, जाते पुत्र रत्न कोऊ लहिये।।
पाण्डु नृपति की थीं दोऊ नारी, कुन्ती माद्री चतुर सयानी।
कर नियोग बेटे उपजाये, कौरव पाण्डव जो कहलाये;
चित्रवीर्य चित्राङग्द भ्राता, दोनों मरे तोड़ जग नाता।।
दोहा
अंबिका अंबालिका अंबा तीनों नार।
तीनों विधवा छाँड़ कर, चले गये भर्तार।।
उन तीनों ने ब्यास नियोगे, सन्तति हेतु भोग पुन भोगे।
विदुर पाण्डु धृतराष्ठर जाए, महावीर योधा कहलाये।।
प्रोषितो धर्मकार्यार्थं प्रतीक्ष्योऽष्टौ नरः समाः।
विद्यार्थं षड् यशोऽर्थं वा कामार्थं त्रींस्तु वत्सरान् ।। 1।।
वन्ध्याष्टमेऽधिवेद्याब्दे दशमे तु मृतप्रजाः।
एकादशे स्त्रीजननी सद्यस्त्वप्रियवादिनी।। 2।।
– मनु0 9 । 76 । 81
धर्म काज को पति यदि जावे, आठ वर्ष कोऊ सुधि नहीं आवे।
करे नियोग विवाहित नारी, होवे वा सन्तान सुखारी।
जो विद्या यश गया कमाने, पता न पाये ठौर ठिकाने।
तो छः वर्ष बाट तिस देखे, बहुरि नियोगी नर कोऊ पेखे।।
गया यदि करने व्यापारा, तीन वर्ष तक रखे सहारा।
जबहु विवाहित आवे भर्ता, छूटे तुर्त नियोगी धर्ता।।
एसे हि नियम पुरुष के जानें, शास्त्र विहित नियमो को मानें।
आठ वर्ष बंध्या को देखे, बहुरि अन्य विधवा अवलेखे।।
सन्तति होवे मर मर जावे, दशवें वर्ष नियोग करावे।
कन्या उपजे पुत्र न जाये, ग्यारस वर्ष नियोग कराए।।
जली कटी बिरथा बकवादिन, तुर्त नार त्यागहु उन्मादिन।
अन्य नार सों सुत उपजाये, ब्याह न दूसर कबहुं कराए।।
जो नर हो अति ही दुखदायी,मार पीट करता हरजाई।
वाको नारी तजे तुरन्ता, राखे अन्य नियोगी कन्ता।।
अनिक युक्ति अरु शास्त्र प्रमाना, विषय नियोग वेद ने माना।
कर नियोग अरु ब्याह स्वयंवर, कुल उन्नत करते आरज वर।।
क्षेत्रज औरस सम अधिकारी, इन की जाति न न्यारी न्यारी।
दोनों सम पितृ धन भागी, मातृ पितृ कुल के अनुरागी।।
ताँते वीर्य न खोएं अकारथ, वीरज है इक रत्न पदारथ।
पर नारी अरु वेश्या गामी, महा मूढ़ दुर्व्यसनी कामी।।
इनते अनपढ़े कृषक समाना, मूल्य बीज का उसने जाना।
“आत्मा वै जायते पुत्रः”
ब्राह्मण ग्रन्थों की यह बानी, ऋषि मुनि जन सब ने सन्मानी।।
अङग्दङगत्सम्भवज्सि हृदयादधि जायसे।
आत्मासि पुत्र मा मृथाः स जीव शरदः शतम्।।1।।
– निरु0 3 । 4
अंग अंग से तव संभूति, अहो पुत्र मम हृदय विभूति।
ताँते तू आत्मज है मेरा, शत वर्षी हो जीवन तेरा।।
ऐसे ऐसे पुरुष महाना, वीरज सों जनमे सन्ताना।
उस वीरज को व्यर्थ गँवावे, वेश्या नीच नार के जावे।।
सद्भूमि में वरज खोटा, बोना पाप भयंकर मोटा।
प्रश्न
आवश्यकता क्या ब्याह की, फँसे कीच मँह पाँय।
जीवन भार बंधन रहे, नेक न सुःख उठाँय।।
चौपाई
आजीवन बंधन दुखदायी, ब्याह में लखी न कोई भलाई।
ताँते जब लग होवे प्रीति, पूरी करें प्रेम की रीति;
जब नर नारी लड़ने लागें, अपने अपने मारग लागें।।
यह पशु पंछिन को व्यवहारा, इससे फैले दुष्टाचारा।
कोऊ काहू की करे न सेवा, रहे न कोऊ पानी देवा।।
अनाचार फैले व्यभिचारा, दुर्बल रोगी हो संसारा।
काहू को भय रहे न लाजा, होने लागे काज अकाजा।।
लाखों वंश नष्ट हो जावें, नहीं घर घाट ठौर कोऊ पावें।
रहे न कोउ सम्पति अधिकारी, लंपट होंगे सब नर नारी;
ताँते ब्याह आवश्यक प्यारे, अगनित दोष विवाह निवारे।।
प्रश्न
एक विवाह एक हूं नारी, जीवन भर दोऊ रहें दुखारी।
नार सगर्भा अथ चिर रोगी, विषय भोग हित नहीं उपयोगी।
अथवा पुरुष रोग का मारा, नहीं नार को भोगन हारा।
रह न सकें यौवन मतवारे, कहो जाँय वे किसके द्वारे।
उत्तर
जो रह सकें नहीं बिन भोगा, वे संतति हित करें नियोगा।
वेश्यादिक के निकट न जांए, पाप मांहि मत पाँव फँसाए।
मन चाहे अप्राप्त पदारथ, सो उद्यम से होंय सकारथ।
प्राप्त वस्तु की रक्षा कीजे, रक्षित की वृद्धि कर लीजे।
बढ़ी हुई संपति को प्यारे, खर्च करो नित देश उपकारे।
निज निज वर्णाश्रम व्यवहारा, तन मन धन सों करो सुधारा।
सास ससुर पितु माता सेवहु, ताँते मुंह माँगा फल लेवहु।
नरपति मित्र पड़ोसी नाना, सज्जन वैद्य और विद्वाना।
उनसे मन में राखहु सुधारा, गिरे हुओं को देहु सहारा।
निज संतति विद्वान बनाओ, सद्विद्याएं इन्हें पढ़ाओ।
साथ साथ कर मुक्ति साधन, धर्म करो त्यागो अपराधन।
इस प्रकार के श्लोक न मानें, वेद विरुद्ध जो बात बखानें।
पतितोऽपि द्विजः श्रेष्ठो न च शूद्रो जितेन्द्रियः।
निर्दुग्धा चापि गौः पूज्या न च दुग्धवती खरी।। 1।।
अश्वालम्भं गवालम्भं सन्यासं पलपैत्रिकम्।
देवराच्च सुतोत्पत्तिं कलौ प०च विवर्जयेत्।।2।।
नष्टे मृते प्रव्रजिते क्लीवे च पतिते पतौ।
प०चस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते।।3।।
दोहा
मन गढ़न्त पाराशरी झूठ पाप की खान।
पाराशर के नाम से, किया ग्रन्थ निर्मान।।
चौपाई
द्विज हो चाहे दुष्ट कुकर्मी, फिर भी वह धर्मी का धर्मी।
शूद्र करे पुन उत्तम कारज, फिर भी नीचा पतित अनारज।
क्या अन्याय घोर पखपाता, कैसी मूरखता की बाता।
जिमि ग्वाले पालत नित गैय्या, बिना दूध वा दूध की दैय्या।
तिमि कुम्हार गधही को पाले, निज संतति वत उसे सम्हाले।
गाय गधी को विषम निदर्शन, यहां न इसका उचित प्रदर्शन।
भिन्न जाति के दोनों जन्तु, विप्र शूद्र हैं मनुष परन्तु।
दोहा
मान लिहो या श्लोक में, एक देश दृष्टान्त।
फिर भी आशय झूँठ है, किमि माने सम्भ्रान्त।।
चौपाई
घोड़े अरु गैय्या को मारा, उनका माँस हवन में डारा।
नहीं वेद में यदि विधाना, तो पुन वृथा निषेध कराना।
यदि निषेध है कलियुग माँहीं, सतयुग में पुन क्यों विधि नाँहीं।
तांते यह दुष्कर्म असम्भव, नहीं किसी युग में भी संभव।
कलि में खाना माँस बुराई, युग युग बुरा न तनिक भलाई।
वेद विदित जब अहै नियोगा, उचित नार देवर संभोगा।
पुन जड़ मूरख अज्ञ समाना, तर्क कुतर्क करें क्यों नाना।
प्रश्न
पति परदेश गये ते नारी, यदि नियोग कर ले बेचारी।
अकस्मात पति घर आ जावे, तो नारी किसकी कहलावे।
पति स्वामी है अन्य न कोई, जिस ब्याहा तिस राखे सोई।
मान लिहो यह उत्तर साँचा, वेद विदित नहीं मिथ्या काँचा।
पर पाराशरि क्यों नहीं बोले, क्यों नहीं सत्य तुला सों तोले।
पांचहु आपतकाल बताए, इन में नार नियोग कराए।
क्या पांचहु हैं आपत्काला, पाराशरि का वचन निराला।
साँतें ऐसे श्लोक न माने, मनगढ़न्त इनको सब जाने।
प्रश्न
पाराशर मुनि के वचन, क्यों नहीं तुम्हें प्रमान।
ऋषि मुनियों का अज तक, करे जगत सन्मान।।
उत्तर
वेद विरुद्ध माने नहीं, वचन किसी का होय।
वेदों के अनुकूल जो, सत्य प्रमाणें सोय।
चौपाई
तुमने यह जो श्लोक सुनाए, पाराशर के नहीं बनाए।
ब्रह्मादिक लिखने की रीति, ग्रंथ कार लोगों की नीति।
‘शिव उवाच’ अथ नारद बोले, नाम देख फँसते नर भोले।
यह पुस्तक तब आदर पाएं, ग्रंथ कार जन मौज उड़ाएं।
यह दम्भी लेखक पाखण्डी, अर्थ अनर्थ लिखें उद्दण्डी।
कुछ प्रक्षित श्लोक अतिरेका, माननीय केवल मनु एका।
अन्य ग्रन्थ जंजाल रचाए, भोले जन हित जाल बिछाये।
प्रश्न (गृहस्थाश्रम महिमा)
गृह आश्रम सब सों बड़ा, अथ छोटा महाराज।
चारहु आश्रम में बड़ा, हित कर कोन समाज ?
उत्तर (चौपाई)
चारहुं आश्रम हैं अति ऊंचे, मुक्ति मार्ग के हेतु समूँचे।
गृह आश्रम वरु परम पियारा, सब सृष्टि का एक सहारा।
यथा नदीनदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम्।
तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम्।।1।।
– मनु0 6 । 90
यथा वायुं समाश्रित्य वर्त्तन्ते सर्वजन्तवः।
तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्त्तन्ते सर्व आश्रमाः।।2।।
यस्मात्त्रयोऽप्याश्रमिणो दानेनान्नेन चान्वहम्।
गृहस्थेनैव धार्य्यन्ते तस्माज्जयेष्ठाश्रमो गृही।।3।।
स संधार्य्यः प्रयत्येन स्वर्गमक्षयमिच्छता।
सुखं चेहेच्छता नित्यं योऽधार्यो दुर्बलेन्द्रियैः।।4।।
– मनु0 3 । 77-79
अस्थिर नदियां नद परनारे, चलते रहते बिना सहारे।
जब सागर का आश्रय पावें, अचल अडोल शान्त हो जाएं।
सब का एक गृहस्थ सहारा, जिमि नदियों का उदधि अधारा।
जो नहीं होवें लोग गृहस्थी, कँह से खायें बानपरस्थी।
ब्रह्मचारी साधु संन्यासी, सब गृहस्थ के अन्न उपासी।
सब के लिये गृही का द्वारा, गृही उठावे बोझा सारा।
गृह आश्रम ताँते सर्वोत्तम, सब का प्राणाधार नरोत्तम।
भुक्ति भुक्ति दोनों का दाता, सद्गृहस्थ जग में यश पाता।
दुर्बल जन कर सके न धारण, करे गृहस्थी दुःख निवारण।
जो गृहस्थ आश्रम नहीं होवे, संतति बीज कौन पुन बोवे।
संन्यासी अरु बानपरस्थी, सब को उत्पन करे गृहस्थी।
जो गृहस्थ की निन्दा करता, वह मूरख पच पच कर मरता।
जो गृह आश्रम के गुण गाए, वह नर चार पदारथ पाए।
नर नारी जँह राखें प्रीति, इक दूसर पर होय प्रतीति।
हँस मुख निरत रहें पुरुषारथ, वे गृहस्थ सुख लहें यथारथ।
यदि गृहस्थ सुख चाहो प्यारे, पहले ब्रह्मचर्य को धारे।
पुनः स्वयंवर ब्याह कराए, जीवन भर आनन्द उठाए।
इति श्री आर्य महाकवि जयगोपाल विरचिते सत्यार्थप्रकाश
कवितामृते चतुर्थंः समुल्लासः सम्पूर्णः।।4।।