ओ३म्
सत्यार्थ प्रकाश कवितामृत
काव्यरचना : आर्य महाकवि पं. जयगोपाल जी
स्वर : ब्र. अरुणकुमार “आर्यवीर”
ध्वनिमुद्रण : श्री आशीष सक्सेना (स्वर दर्पण साऊंड स्टूडियो, जबलपुर)
प्रथम समुल्लास
ओ3म् सच्चिदानन्देश्वराय नमो नमः
सत्यार्थ प्रकाश कवितामृत
ओ3म् शन्नो मित्रः शं वरुणः शन्नो भवत्वर्यमा। शन्नऽइन्द्रो बृहस्पतिः शन्नो विष्णुरुरुक्रमः।। नमो ब्रह्मणे नमस्ते वायो त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि ऋतं वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि तन्मामवतु तद्वक्तारमवतु। अवतु माम्। अवतु वक्तारम्। ओ3म् शान्तिश्शान्तिश्शान्तिः।।1।।
दोहा
ओंकार सब सों प्रथम, मन मँह कीजे ध्यान।
जाके चिंतन किये ते, प्राप्त होय कल्यान।।
चौपाई
ओंकार सर्वोत्तम नामा,
अर्थ गंभीर श्रवण अभिरामा।
अक्षर त्रय का है समुदाया,
पार हुआ भव जिसने ध्याया।।
मिले अकार उकार मकारा,
बना नाद नाम ओंकारा।।
‘अ’ अक्षर के विस्तृत अर्था,
अग्नि विश्व विराट् समर्था।
आ पाछे शोभत अक्षर ‘उ’,
हिरण्यगर्भ तैजस अरु वायु।।
प्राज्ञादित्य ईश त्रय जानें,
यह ‘मकार’ के अर्थ पछानें।
वेदादिक सत् शास्त्र बखाना,
नाम के हैं यह नाना।।
प्रश्न –
भौतिक अग्नि आदि पदारथ,
इनके भी तो नाम यथारत।
यह इन्द्रादिक वाचक अर्था,
अनिक शक्तियाँ रखें समर्था।।
शुण्ठी आदिक वैद्यक माँही,
क्या उनके यह वाचक नाहीं।
केवल ईश अर्थ क्यों लेवें,
शेष पदारथ क्यों तज देवें।।
जो मानहिं इन्द्रादिक देवा,
फल पाएँ जो करिहें सेवा।
उत्तम हैं अरु है परसिद्धि,
पूजन ते होवई फल सिद्धि।।
उत्तर –
ईश्वर अरु प्राकृतिक पदारथ,
दोउ पक्षों में नाम सकारथ।
केवल देव अर्थ कर ग्रहना,
यह तुम्हार अनुचित है कहना।।
जो तुम कहते ‘उत्तम देवा,
हैं प्रसिद्ध सो कीजे सेवा’।
क्या उत्तम परमेश्वर नहीं,
फल नाहीं उसकी सेवा माँही।।
किसकी प्रभु से अधिक प्रसिद्धि,
छिन महँ देवहि ऋद्धि सिद्धि।
देव न उसके कोउ समाना,
सब देवन का देव महाना।
तुल्य नहीं जब उस के कोई,
पुन उस से उत्तम को होई।
पुन प्रभु के क्यों नाम न गहिये,
प्राप्त छोड़ अप्राप्त न लहिये।।
सन्मुख धरा पड़ा है भोजन,
जो ढूँढे है मूरख सो जन।
अग्नि विराट् नाम परसिद्धा,
वेद शास्त्र परमान सुसिद्धा।।
पारब्रह्म ब्रह्माण्डहु नामा,
सत्य उपस्थित सफल सकामा।
संभव और उपस्थित त्यागे,
असंभूत के पाछे भागे।।
नहिं प्रमाण इसमें नहीं युक्ति,
बुद्धिमान की नहीं यह उक्ति।
जो जैसा जँह होय प्रकरना,
उचित अर्थ वहां वैसा करना।
जैसे सैंधव शब्द द्विअर्थक,
अश्व लवण दोउ अर्थ समर्थक।
स्वामी बोले सैंधव लाओ,
भोजन करो भाग कर आओ।।
सेवक झट घोड़ा ले आवे,
वह किंकर निर्बुद्धि कहावे।
स्वामी चहे बहिर कर गवना,
सेवक सन्मुख धर दे लवना।।
सेवक समय न जाननहारा,
स्वामी घर सों बहिर निकारा।
ताते पहिले देख प्रकरना,
उचित पुनः अर्थों का करना।।
ओं खम्ब्रह्मं।।1।। – यजुर्वेद अध्याय 40। मन्त्र 17
ओमित्येतदक्षरमुद्रीथमुपासीत।।2।। – छान्दोग्य उपनिषत्।
ओमित्येतक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानम्।।3।। – माण्डूक्य।
सर्वें वेदा यत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्।।4।। – कठोपनिषदि।
प्रशासितारं सर्वेषामणीयांसमणोरपि।
रुक्माभं स्वप्नधीगम्यं विद्यात्तं पुरुषं परम्।।5।।
एतमग्निं वदन्त्येके मनुमन्ये प्रजापतिम्।
इन्द्रमेके परे प्राणमपरे ब्रह्म शाश्वतम्।।6।। – मनुस्मृति अध्याय 12 । श्लोक 122, 123।
स ब्रह्मा स विष्णुः स रुद्रस्स शिवस्सोऽक्षरस्स परमः स्वराट्।
स इन्द्रस्स कालाग्निस्स चन्द्रमाः।।7।। – कैवल्य उपनिषत्।।
इन्द्रंमित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यस्स सुपर्णों गरुत्मान्।
एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः।।8।। – ऋग्वेदे मण्डले 1। सूक्त 164। मन्त्र 46।।
भूरसि भूमिरस्यदितिरसि विश्वधाया विश्वस्य भुवनस्य धर्त्री।
पृथिवीं यच्छ पृथिवीं दृंह पृथिवीं मा हिंसीः।।9।। – यजुर्वेद अध्याय 13 । मन्त्र 18।।
इन्द्रो महान रोदसी पप्रथच्छव इन्द्रः सूर्य्यमरोचयत्।
इन्द्रे ह विश्वा भुवनानि येमिर इन्द्र स्वानास इन्दवः।।10।। – सामवेद प्रपाठक 7। त्रिक 8। मन्त्र 2।।
प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे।
यो भूतः सर्वस्येश्वरो यस्मिन्त्सर्वं प्रतिष्ठितम्।।11।। – अथर्ववेदे काण्ड 11। प्रपा0 24। अ0 2 । मं0 1।।
चौपाई
यह प्रमाण दीने इस कारण,
शंकाओं का होय निवारण।
ऐसे मन्त्रों में ओंकारा,
उत्तम नाम प्रभु का प्यारा।।
प्रभु का नाम न कोई निरर्थक,
प्रभु सत्ता के सभी समर्थक।
यथा लोक मँह नाम अनेका,
सब रूढ़ी सार्थक कोउ एका।।
भिखमंगे को नाम कुबेरा,
तन का ठिगना नाम सुमेरा।
स्वाभाविक गौणिक कुछ नामा,
कुछ कार्मिक संज्ञा गुणधामा।।
रक्षा करे सो ओ3म् कहावे,
शरण पड़े के प्राण बचावे।
व्यापक प्रभु आकाश समाना,
ताते ‘खं’ यह नाम महाना।।
सब से बड़ा महाप्रभु मेरा,
ब्रह्म नाम ताते प्रभु केरा।
ओ3म् नाम ताका है भाई,
अविनाशी, नहीं वह बिनसाई।।
उसका सकल विश्व पर शासन,
सिमरहु वाको करो उपासन।
अन्य देव की उचित न पूजा,
प्रभु समान कोउ देव न दूजा।।
कहें वेद ऋग् यजु अरु सामा,
जिस का एक ओ3म् निज नामा।
सब नामों मँह ओ3म् प्रधाना,
मन महँ करो ओ3म् को ध्याना।।
शेष नाम गौणिक हैं सारे,
अर्थन हेत प्रकरण विचारे।
चार वेद जाको यश गावें,
तपी तपीश्वर जाको ध्यावें।।
ब्रह्मचर्य जाके हित राखें,
‘ओ3म्’ नाम ताको मुनि भाखें।
सब कहँ शिक्षा देने हारा,
सब के भीतर सब से न्यारा।।
जाको रूप स्वयं परकाशा,
योगी जाकी रखते आशा।
दर्शन हेत लगायें समाधि,
जा के जाने मिटे उपाधि।।
परम पुरुष ताको तुम जानो,
मन मंदिर महँ ताहि पछानो।
अग्नि स्वप्रकाश के कारण,
अन्धकार कँह करे निवारण।।
‘मनु’ सँज्ञा विज्ञान स्वरूपा,
इन्द्र नाम भूपन के भूपा।
सकल जगत का पालन कर्ता,
अरु ऐश्वर्य सकल को धर्ता।।
प्राणि मात्र जीवन आधारा,
ताते ‘प्राण’ नाम को धारा।
‘पारब्रह्म’ ब्रह्माण्ड वियापक,
‘ब्रह्म’ नाम तिंहू पुर को मापक।।
‘ब्रह्मा’ ने ब्रह्माण्ड रचाया,
जड़ जंगम सब जगत बनाया।
व्यापक वह ‘विष्णु’ कहलाये,
घट घट व्यापी सृष्टि समाये।।
दुष्ट जनन कँह ‘रुद्र’ रुलावे,
दण्ड पाप का पापी पावे।।
मंगलमय कल्याण को कारक,
शिव संज्ञक प्रभु दुःख निवारक।
‘अक्षर’ वह ईश्वर अविनाशी,
नाम ‘विराट्’ स्वयं परकाशी।।
महाकाल कालहु को काला,
‘कालाग्नि’ कर मृत्यु भाला।
अद्वितीय प्रभु सत को धामा,
इन्द्रादिक सब उसके नामा।।
भौतिक दिव्य पदारथ जेते,
प्रभु से व्याप्त पदारथ तेते।
द्यौ मंडल सब उस की छाया,
दिव्य नाम तांते तिस पाया।।
नाम ‘सुपर्णा’ पालन धर्मा,
पालनहारा अरु शुभ कर्मा।
ताको आतम परम महाना,
‘गरुत्मान्’ नाम इमि जाना।।
‘मातरिश्वा’ वह वायु समाना,
सर्व शक्तिमन्ता बलवाना।
प्राणि मात्र होवें जिस मांही,
भूमि नाम भगवान कहाहीं।।
‘इन्द्र’ नाम से ईश्वर माना,
वेद मंत्र इस में परमाना।
यथा प्राण वश इन्द्रिय देहा,
तिमि ईश्वर के वश जग एहा।।
एहि विधिं बहुत लिखे परमाना,
जिनते सत्य अर्थ कर माना।
सकल नाम ईश्वर के प्यारे,
जान लिहो ऋषि ग्रंथ सहारे।।
आर्ष ग्रन्थ मँह ऋषि विख्यानें,
इन शब्दों से प्रभु प्रमानें।
सोरठा
इक केवल ओंकार, ईश्वर का निज नाम है।
जाप करे संसार, जन्म मरण बंधन कटे।।
चौपाई
शेष नाम मँह लखें प्रकरना,
पुन इनके अर्थों को करना।
जहाँ प्रार्थना स्तुति प्रधाना,
तहाँ ईश्वर के अर्थ लगाना।।
व्यापक शुद्ध दयालु सनातन,
सृष्टि कर्ता नित्य पुरातन।
या विध जहाँ विशेषण आवें,
पारब्रह्म के अर्थ लगावे।।
इन मन्त्रों में संज्ञा यावत,
लोक पदारथ जाने तावत।
पुरुष देव वायु से जेते,
भौतिक द्रव्य पदारथ तेते।।
उत्पति स्थिति प्रलय जड़ नामा,
भौतिक वस्तु गहें हित कामा।
सर्वज्ञादि विशेषण सारे,
ईश्वर नाम बताने हारे।।
सुख दुःख जतन जीव के कहिये,
इनते प्रभु के अर्थ न गहिये।
जीवहिं जान सदा अल्पज्ञा,
ईश विशेष है सर्वज्ञा।
ईश अजन्मा अरु अविनाशी,
नित्य सत्य अरु स्वयं प्रकाशी।
‘जन्म’ ‘विराट’ आदि यह सारे,
जगत जीव के कथने हारे।।
ततों विराडजायत विराजो अधि पुरुषः।
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत।
तेन देवा अयजन्त।। पश्चाद्भूमिमथो पुरः।।
तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः। आकाशाद्वायुः। वायोरग्निः। अग्नेरापः। अद्भयः पृथिवी। पृथिव्या ओषधयः। ओषधिभ्योऽन्नम्। अन्नाद्रेतः। रेतसः पुरुषः। स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः। – ब्रह्माः वल्ली 17
दोहा
सुनहु विराटादिक शबद, ईश अर्थ दातार।
किस विध अर्थ लगाइये, किस विध करे विचार।।
ओंकार अर्थ का विचार
चौपाई
‘राट’ ‘वि’ उपसर्ग समीपे,
चमक दमक धात्वर्थ प्रदीपे।
‘क्विप्’ प्रत्यय पुन साथ लगायें,
एहि विधि शब्द विराट् बनायें।।
विविध जगत् प्रभु ने चमकाया,
नाम ‘विराट्’ हेतु अस पाया।
‘अ०चु’ धातु गति पूजा अर्था,
गति मत अग्नि सकल समर्था।।
‘अग्’ ‘अग्नि’ ‘इण’ धातु गत्यर्थक,
अग्नि शब्द प्रसिद्ध समर्थक।
ज्ञान रूप पूजन को स्थाना,
जो सर्वत्र विभु भगवाना।।
सो जाने ‘अग्नि’ परमेश्वर,
गितिन की गति वह सर्वेश्वर।
‘विश्’ प्रवेशन अर्थ प्रसिद्धि,
याते विश्व शब्द की सिद्धि।।
सकल जगत जिस बीच प्रविष्टा,
अथवा जग मँह जो संविष्टा।
ताँते ईश्वर विश्व कहावे,
प०चभूत महँ वही समावे।।
‘अ’ अक्षर सों यह सब नामा,
ग्रहण करें प्रभु सुख को धामा।
ज्योतिष्मान् सूर्य ग्रह तारा,
लटके जाके गर्भ मँझारा।।
उसी गर्भ मँह ग्रह गण जनमें,
करहिं निवास उसी के तन में।
‘हिरण्यगर्भ’ मँह गगन पसारा,
आदि अन्त नहीं बहुत विस्तारा।।
वा धातु गति गंधे आवहि,
‘वापु’ सिद्ध चहुं दिक धावहि।
सब जग को जो करता धारण,
बली करे पालन अरु मारण।।
तांते वायु प्रभु को बोलें,
जिस के बल भूमण्डल डोलें।
‘तिज्’ धातु सों ‘तैजस’
सिद्धा, तेज रूप ईश्वर परसिद्धा।।
तेजोमय रवि आदि प्रकाशक,
तैजस प्रभु जग तम को नाशक।
यह जो नाम रु अर्थ बखाने,
‘उ’ अक्षर का ग्रहण प्रमाने।।
‘ईश’ धातु से ईश्वर बनता,
वह स्वामी, सब सेवक जनता।
यह ऐश्वर्य उसी का सारा,
उस का राखो सदा सहारा।।
वाके शील रूप अरु ज्ञाना,
धन दाता प्रभु दया निधाना।
‘दो’ धातु से सिद्ध ‘अदित्या’,
नाश हीन अविनाशी नित्या।।
‘ज्ञा’ धातु वाचक अवबोधन,
‘प्राज्ञ’ शबद ईश्वर का बोधन।
जड़ जंगम के जिते व्योहारा,
प्राज्ञ प्रभु सब जानन हारा।।
यह नामार्थ मकार गृहीते,
ओ3म् शब्द के अर्थ प्रतीते।
‘मित्र वरुण’ आदिक प्रभुवाची,
भुप्र के रँग में बुद्धि राचीं।।
स्तुति प्रशंसा और उपासन,
प्रभु के करें भक्त थित आसन।
जिंह उत्तम गुण कर्म स्वभावा,
तिंह पर उपजे श्रद्धा भावा।।
पारब्रह्म सर्वोत्तम ईश्वर,
सब सों ऊँचा वह जगदीश्वर।
उसके तुल्य न कोई देवा,
विश्व करे उस प्रभु की सेवा।।
गुण अनन्त ईश्वर मँह जेते,
नहीं जीव प्रकृति में तेते।
ईश्वर दाता अरु सत्कर्मा,
तांते ईश्वर पूजन धर्मा।।
अन्य देव ब्रह्मादिक सारे,
ईश उपासक प्रभु के प्यारे।
शेष बहुत से दैत्य रु दानव,
ऊँच नीचे सब विधि के मानव।।
सबने कीनी ईश्वर पूजा,
अन्य देव पूजा नहीं दूजा।
पुण्य पाप के फल का दाता,
सो ईश्वर ‘अर्यमा’ कहाता।।
‘ऋ’ गति प्रापण अर्थ विधाता,
‘यत्’ प्रत्यय तिस पाछे आता।
एहि विधि शब्द अर्थ बन जावे,
धातु पाछे माङ् लगावे।।
लगे ‘कनिन्’ प्रत्यय जब भाई,
सिद्ध ‘अर्यमा’ पद हो जाई।
‘इदि’ धातु है ‘परमैश्वर्ये’,
‘रन्’ प्रत्यय तिस पाछे धरिये।।
‘इन्द्र’ शब्द ईश्वर का वाचक,
वह दानी दुनियाँ सब याचक।
‘पा’ रक्षण ‘डति’ प्रत्यय लागे,
राखहु बृहत् शब्द के आगे।।
होय बृहत् के ‘त्’ को लोपा,
‘सुट्’ का आगम संग अरोपा।
शब्द बृहस्पति यूँ निर्माना,
सब सों बड़ा प्रभु भगवाना।।
‘विषलृ’ धातु अर्थ वियापति,
‘विष्णु’ शब्द की सिद्धि प्रापति।
व्यापक जगत चराचर अन्दर,
सकल विश्व विष्णु को मंदर।।
बल विक्रम मंह ईश महाना,
नाम ‘उरुक्रम’ प्रभु का जाना।
परम पराक्रम युत भगवाना,
सब का सखा सहायक प्राना।।
सुख स्वरूप सुखदायक स्वामी,
सर्वोत्तम न्यायी हितकामी।
सुख संचारक सब का दाता,
परमैश्वर्यवान् सुख नाता।।
अधिष्ठान अरु महा महाना,
व्यापक विष्णु नित कल्याण।
करे प्रभु कल्याण हमारा,
जिसका जग में सकल पसारा।।
‘बृह’ ‘बृहि’ वृद्धौ दो धातुन का,
ब्रह्म शब्द वाचक निर्गुन का।
जाको बल ओर शक्ति अनन्ता,
जिसका पावें आदि न अन्ता।।
पारब्रह्म प्राणों से प्यारा,
नमस्कार तोहि बारम्बारा।
तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म परमेश्वर,
हे अन्तर्यामी सर्वेश्वर।
तोहे ब्रह्म प्रतक्ख बखानूं,
ओत प्रोत व्यापक तोहे जानूं।
वेद कथित आज्ञा जो तोरी,
वह जीवन की चर्या मोरी।।
जग में उसका करूँ प्रचारा,
त्योंही अपना रखूं आचारा।।
सत्य करूँ मनसा और वाचा,
रहूं भक्ति मंह तोरी राचा।।
हे प्रभु! मेरी रक्षा कीजे,
सदा सत्य बोलूं वर दीजे।
तेरी आज्ञा पालन धर्मा,
नहीं पाले तो होय अधर्मा।।
रक्षा कर रक्षा कर मेरी,
यही प्रार्थना तव जन केरी।
ओ3म् शांति शांति प्रभु शांति,
देहु शांति मोको सब भाँति।।
आत्मिक दैहिक भौतिक सारे,
तोरि दया त्रय ताप निवारे।
आत्मिक अरु शारीरिक तापा,
यह जानहु आध्यात्मिक पापा।।
राग द्वेष आदिक अज्ञाना,
ज्वर पीड़ा जैसे दुःख नाना।
दूसर है आधिभौतिक क्लेशा,
सिंह व्याघ्र रिपु कुपित नरेशा।।
अधिदैविक दुःख दैव अधीना,
दैव कोप सों दूभर जीना।
अनावृष्टि अतिवृष्टि तापा,
मन इन्द्रिय को हो संतापा।।
त्रिविध ताप से प्रभु बचाए,
तेरो भक्त शरण मँह आए।
शुभ कर्मों में मुझे लगाओ,
दया करो निज हाथ उठाओ।।
तुम हो प्रभु कल्याण सरूपा,
तुम हो सब भूपन के भूपा।
करो प्रकाश हमारे मन में,
जो तुम चाहो तारो क्षण में।।
प्रश्न
संज्ञा ‘मित्र’ सखा को कहिये,
ईश अर्थ मंह क्यों पुन गहिये।
इन्द्रादिक देवन के कर्मा,
जग विख्यात सबहुं के धर्मा।
ग्रहण करें साधारण अर्था,
ईश अर्थ मँह अर्थ अनर्था।
उत्तर
अहो मित्र यह भूल तुम्हारी,
बात न तुमने उचित उचारी।
मित्र वही जो सब का प्यारा,
सब के कष्ट निवारण हारा।
जग मँह साँचा मित्र न कोई,
आज मित्र कल शत्रु सोई।
इस का मित्र अपर का वैरी,
केवल एक प्रभु निर्वैरी।
ताँते ग्रहण करो भगवाना,
उसके बिना मित्र नहीं आना।
‘०िामिदा’ धातु अर्थ सनेहा,
औणादिक ‘क्त्र’प्रत्यय एहा।
‘मित्र’ शब्द एवं विध सिद्धा,
‘ईश्वर’ सखा अर्थ परसिद्धा।
दोहा
जो सब से प्रीति करे, सब सों राखे प्यार।
वह सांचा प्रभु मित्र है, स्वारथ का संसार।।
चौपाई
‘वृ०ा्’ वरणे ‘वर’ इप्सा जानो,
प्रत्यय ‘उनन्’ उणादि पछानो।
‘वरुण’ शब्द एहि भाँति बनाया,
योगी जन तब ध्यान लगाया।
योगाभ्यासी जाको वरहीं,
मुक्ति हेतु तपस्या करहीं।
अथवा वरहि जो भक्त जनन को,
शान्त करे भक्तन के मन को।
वह जगदीश्वर ‘वरुण’ कहावे,
जो ध्यावे सो मुक्ति पावे।
दोहा
अन्यायी जो नर नहीं, सब सों करते न्याय।
वे मानो प्रभु अर्यमा, करते सदा सहाय।।
चौपाई
स्वारथ जंगम जग को आतम,
सूर्य प्रकाश रूप परमातम।
‘अत’ धातु सातत्य गमन में,
‘आतम’ शब्द सुअर्थ रमन में।।
जीव प्रकृति आकाश समूचे,
इन सब ते परमातम ऊचे।
अति सूक्षम वह अन्तरयामी,
सो परमातम सब का स्वामी।
परमैश्वर्यवान परमेश्वर,
सकल समर्थवान सर्वेश्वर।
‘सविता’ प्राणि मात्र उत्पादक,
‘षु०ा्’ अभिषवे अर्थ प्रतिपादक।
‘ष्ङ्’ धातु से सविता जाने,
गर्भ विमोचन अर्थ प्रमाने।
गर्भ विमोचहि अरु उपजावहि,
जांते प्रभु सविता कहलावहि।
दोहा
‘दिवु’ धातु व्याकरण मँह, राखे अर्थ अनेक।
सुनिये ध्यान लगाय के, अर्थ कहें प्रत्येक।।
चौपाई
क्रीड़ा विजगीषा व्यवहारा,
द्युति स्तुति मोदहु देने वारा।
गति कान्ति मद स्वप्नहु प्यारे,
जानहु अर्थ ‘दिवु’ के सारे।
अद्भुत प्रभु ने खेल रचाया,
नाँही भेद किसी ने पाया।
जय चाहे वह धर्मी जन की,
विजगीषा ईश्वर के मन की।
कर्म हेत सब साधन दाता,
ज्योतिर्मय परकाश प्रदाता।
स्तुति योग आनन्द स्वरूपा,
मद भंजन भूपन को भूपा।
प्रलयंकर और रात्रि कर्ता,
सुख सुलाय सब दुःख को हर्ता।
ज्ञान रूप सुन्दर कमनीया,
वह भगवान देव रमणीया।
प्रभु खेले निज आनँद माँही,
जीव जन्तु उससे सुख पाँही।
सब कँह जीते स्वयं अजेया,
अगम अगोचर अरु अज्ञेया।
पाप पुण्य कँह जाननहारा,
सब व्यवहार बताने वारा।
विश्व प्रकाशक शंसा योगा,
सुख स्वरूप देवहि मुद भोगा।
नाशहि जगत प्रलय जब आवे,
कारण जग मँह सबहिं सुलावे।
जो कमनीय काम्य इक देवा,
जाकी ऋषि मुनि करते सेवा।
सो प्रभु सब का जाननहारा,
उसी देव का सकल पसारा।
‘कुबि’ आच्छादन बना कुबेरा,
छाया विश्व माँहि प्रभु मेरा।
‘पृथु’ विस्तारे ‘पृथिवी’ गहिये,
विस्तारक ईश्वर कँह कहिये।
‘जल्’ धातु धातन के अर्था,
दुष्ट हने प्रभु कल समर्था।
अणुओं का करता संवाता,
मिलित अणु को जल विलगाता।
‘का९ाृ’ दीतौ शब्द आकाशा,
दिगदिगन्त प्रभु कीन्ह प्रकाशा।
‘अद्’ भक्षण अर्थहु मँह आवे,
सो परमेश्वर ‘अन्न’ कहावे।
स्थावर जंगम सब संसारा,
सब कहँ ग्रहण करे प्रभु प्यारा।
उसके भीतर विश्व समावे,
उपजे जीवे अरु बिनसावे।
जिमि उपजे कृमि गूलर माँही,
खावें पीवें पुन मन जाहीं।
‘अत्ता’ ‘अन्न’ वही भगवाना,
सोई ‘अन्नाद’ नाम तिस नाना।
अद्यतेऽत्ति च भूतानि तस्मादन्नं तदुच्यते। अहमन्नमहमन्नमहमन्नम्।
अहमन्नादोऽहमन्नादोऽहमन्नादः।। – तैति0 उपनि0 (अनु0 2। 10)
अत्ता चराऽचरग्रहणात्।। (वेदान्तदर्शने अ0 1। पा0 2। सू0 9)
‘वसु’ निवास वसु शब्द प्रसाधे,
व्यापक वसु कँह विश्व अराधे।
‘रुदिर्’ रुलावन अर्थे ‘रुद्रा-,
विकट रूप प्रभु कोप समुद्रा।
दुष्ट जनन को रुद्र रुलावे,
क्रुद्ध होय सब मार खपावे।
यन्मनसा ध्यायति तद्वाचा वदति यद्वाचा वदति तत् कर्मणा करोति
यत् कर्मणा करोति तदभिसम्पद्यते।।
यो कुछ मन मँह जीव विचारे,
वाणी सों पुन वही उचारे।
जिमि बोले तिमि कर्मंन कर्ता,
जैसा करता वैसा भरता।
वैसा काटे जैसा बोए,
फल पाए तब बैठा रोए।
जल रु जीव में रहे नारायण,
सकल विश्व है उसका आयन।
आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः। ता यदस्यायनं पूर्वं तेन
नारायणः स्मृतः।। – मनु0 (अ0 1 । श्लो0 10)
‘चदि’ आल्हादे ‘चंद्र हु सिद्धि,
चंद्र शब्द की अर्थ प्रसिद्धि।
सुख दाता आनन्द सरूपा,
चन्द्र नाम परमेश अनूपा।
‘मगि’ गत्यर्थे मंगल नामा,
मंगलकारक वह भगवाना।
‘बुध्’ अवबोधन अर्थ सुहावन,
ज्ञान रूप प्रभु बोध करावन।
‘ईशुचिर्’ है पूतीभावे,
पावन परम पवित्र सुहावे।
जीव शुद्ध हो जाके संगा,
मलिन नीर जिमि मिल कर गंगा।
‘चर’ धातु गति भक्षण योगे,
उपपद अव्यय ‘शनै’ प्रयोगे।
सहज प्राप्त सब मँह धीरज धर,
उस प्रभु को सब कहें शनीचर।
‘रह’ त्यागे सों निर्मित ‘राहु’,
ऋषि कैवल्य रूप तिंन आहु।
सो प्रभु दुष्ट जनन कँह त्यागे,
शरण हीन नर बड़े अभागे।
‘कित्’ निवास अरु रोग निवारण,
केतु करे सब व्याधि विदारण।
वह जग जिसमें नित्य निवासी,
कटे केतु व्याधि की फाँसी।
‘पूज’ धातु के अर्थ लगाने,
‘देवन पूजा संगति दाने।’।
यज्ञ शब्द की होवे सिद्धि,
यज्ञपुरुष देवहि नवनिद्धि।
अखिल वस्तु संयोजक ईश्वर,
पूजनीय व्यापक जगदीश्वर।
‘हू’ सों होता पद निर्माना,
पारब्रह्म होता भगवाना।
दान हेतु वस्तु सब देवहि,
ग्रहण योग्य वस्तु नित लेवहि।
बंध, धातु है बंधन माँहीं,
प्रभु सम बन्धु दूसर नाँहीं।
नियम माँहि बाँधा संसारा,
वह बंधु प्रभु परम पियारा।
मर्य्यादा कृत सब का बंधन,
किस की समरथ करहि उंलघन।
पिता सिद्ध ‘पा’ धातु केरा,
परमपिता परमेश्वर मेरा।
हम सब हैं उसकी सन्ताना,
वह रक्षक सब का भगवाना।
पिता पिताओं का परमेश्वर,
पिता महा जग का सर्वेश्वर।
‘मान करे’ जिमि मात दयालु,
ताँते ‘माता’ प्रभु कृपालु।
‘चर’ गति भक्षण अर्थे आये,
पद ‘आचार्य्य’ सिद्ध हो पाए।
सदाचार को ग्रहण करावे,
गुरु सब सब विद्या सिखलावे।
सो आचार्य प्रभु रखवारा,
वह रक्षक प्राणहुं ते प्यारा।
सत्य धर्म प्रतिपादन कर्ता,
सकल वेद विद्या को धर्ता।
वेद ज्ञान जिस प्रभु ने दीना,
जाको आश्रय मुनिगण लीना।
अग्नि वायु ब्रह्मादिक जेते,
जगद्गुरु कहलाये तेते।
उन गुरुओं का गुरु भगवाना,
वा को परम गुरु हौं माना।
‘अज्’ गति अरु क्षेपण के भावे,
‘जनी’ धातु इक प्रादुर्भावे।
सिद्ध करहिं ‘अज’ धातु दोऊ,
जन्म न ले जो सो ‘अज’ होऊ।
प्रकृति के जो अंग मिलावे,
जीव देह संबंध करावे।
जनमाए पर स्वयं न जनमें,
सो प्रभु ‘अज’ जानहु निज मन में।
‘बृहि’ वृद्धौ ‘ब्रह्मा’ भगवाना,
वाको कारज सृष्टि रचाना।
रचना रच संसार बढ़ाए,
ताँते ब्रह्मा संज्ञा पाए।
सत्य, ज्ञान और ब्रह्म अनन्ता,
वाको नहीं आदि अरु अन्ता।
तैतिरि ऋषि यह वचन बखाना,
नाम अनन्त प्रभु गुणा गाना।
सकल पदारथ मँह ‘सत्’ कहिये,
सत मँह रहे ‘सत्य’ प्रभु गहिये।
जड़ जंगम जाने भगवाना,
ताँते प्रभु को संज्ञा ‘ज्ञाना’।
जाको नहीं आदि अरु अंता,
अपरिमेय भगवान ‘अनंता’।
जिस ईश्वर का नहीं कोई आदि,
वाको ऋषि मुनि कहे ‘अनादि’।
‘टुनदि’ धातु अर्थ समृद्धि,
आनंदमय की होवे सिद्धि।
मुक्त जीव जँह पाये अनंदा,
सो परमेश्वर शास्त्र प्रवचना।
जाको नाश न होय त्रिकाला,
सो प्रभु है ‘सत’ संज्ञा वाला।
‘चित’ पद सिद्धी ‘चिति’ ‘संज्ञाने’,
चित स्वरूप प्रभु वेद बखाने।
वह चेतन सब जगत चेतावे,
सत्य झूठ का मान करावे।
ब्रह्म सच्चिदानन्द स्वरूपा,
अगम अगोचर रूप अनूपा।
सो परमातम नित्य कहावे,
जन्म न धारे नहीं बिनसावे।
‘शुध’ धातु शुद्धि का बोधक,
शुद्ध ब्रह्म सब जग का शोधक।
‘बुध’ अवगमन अर्थ मँह जानहु,
बुद्ध रूप परमेश्वर मानहु।
बुद्ध विश्व का जानन हारा,
बुद्ध प्रभु का सकल पसारा।
‘मुच्लृ’ धातु सों ‘मुक्त’ बनाया,
जाँका यश वेदों ने गाया।
बंधन रहित मुक्त प्रभु मेरा,
भव बन्धन काटे जन केरा।
शुद्ध बुद्ध नित मुक्त सुभाऊ,
पारब्रह्म राउन को राऊ।
‘मुच्लृ’ धातु अर्थ विमोचन,
मुक्त प्रभु है भवभय मोचन।
निज भक्तन कहँ मुक्ति दाता,
जन रक्षक निर्भय भयत्राता।
निर् आ डुकृ०ा् पूरव आवें,
निराकार पद शब्द बनावें।
निराकार ईश्वर कँह कहिये,
जाकी रूप रेख नहीं पहिये।
‘अ०चु’ धातु सों निर्मित अज्जन,
निर पूर्वक पुनमया निरंजन।
ईश्वर इन्द्रिय गोचर नाँहीं,
तातें नाम निरज्जन आहीं।
‘गण’ धातु जानहु संख्याने,
गणपति ईश्वर वेद बखाने।
जड़ अरु चेतन सबका स्वामी,
सो गणेश प्रभु अन्तरयामी।
विश्वपति प्रभु है विश्वेश्वर,
विश्वनाथ पूरन परमेश्वर।
दोहा
रह कर अचल अडोल वह, करे सकल व्यवहार।
कहें ताहि कूटस्थ प्रभु, ईश्वर जगदाधार।
दोहा
देव शब्द के अर्थ जो, उहि देवी के जान।
तीन लिंग में ना है, त्रैलिङ्गी भगवान।।
चौपाई
जैसे ‘ब्रह्म’ ‘चिति’ अरु ‘ईश्वर’,
तीन लिंग संज्ञी जगदीश्वर।
जँह ईश्वर पद का अवबोधन
‘देव’, शब्द से तंह सम्बोधन।
‘चिति’ पद नारी लिंग आधारा,
ताँते देवी उसे पुकारा।
‘शक्लृ’ धातु ‘शक्ति’ का अर्थक,
‘शक्ति’ ईश्वर नाम समर्थक।
निज शक्ति सों जगत रचाया,
ताँते ‘शक्ति’ नाम है पाया।
‘श्रि०ा्’ धातु ‘सेवा में’ जानें,
श्रि०ा् सो ‘श्री’ पद बना बखाने।
सकल विश्व जसु करिहै सेवा,
सो प्रभु ‘श्री’ देवन को देवा।
‘लक्ष’ अर्थ दर्शन अरु अंकन,
सो लक्ष्मी प्रभु पालहिं रंकन।
देखे सारा जगत चराचर,
भूचर जलचर और दिवाचर।
जग की रूप रु रेख बनावे,
ताँते ‘लक्ष्मी’ नाम कहावे।
नाना रंग भरे बहुरंगी,
रची सृष्टि चित्रित बहुरंगी।
सागर पर्वत चाँद सितारे,
लक्ष्मी के हैं सकल पसारे।
योगी वाके पावहिं दर्सन,
प्रेम भरा वाका आकर्सन।
दोहा
सृ धातु सों सरस्वती, ईश्वर ज्ञान सरुप।
प्रभु विद्या का स्त्रोत है, सुन्दर रूप अनूप।।
चौपाई
सर्व शक्तिमत् वाको नामा,
ईश्वर सर्व शक्ति को धामा।
शक्ति मान सब काम विधायक,
आवश्यक नहीं उसे सहायक।
णी०ा् प्रापणे ‘न्याय’ प्रसिद्धा,
न्याय शब्द या विधि हो सिद्धा।
दोहा
प्रत्यक्षादि प्रमाण सों, सत्य सिद्ध जो होय।
वा को न्याय बखानिये, पक्षपात नहीं कोय।।
चौपाई
न्यायवान ताँते प्रभु कहिये,
वाको न्याय जगत में पहिये।
दय धातु दानादिक वाचक,
प्रभु की ‘दया’ सकल जग याचक।
भय नाशक वह परम कृपालु,
सज्जन रक्षक दीन दयालु।
दुष्टन दण्ड देय तत्काला,
भक्तन को करिहैं प्रतिपाला।
द्वैत भाव प्रभु में नहीं आवे,
ताँते वह ‘अद्वैत’ कहावे।
वह कैवल्य रूप एकाकी,
कहूं द्विता दीखे नहीं ताकी।
नाँहीं उसका कोई सजाति,
नाँहीं कोई अन्य विजाति।
सत रज तम गुण जिसमें नाँहीं,
रागादिक नांहीं प्रभु माँहीं।
ताँते निर्गुण प्रभु को कहिये,
निर्गुण प्रभु पूजे सुख लहिये।
सर्वज्ञादिक गुण हैं जेते,
पारब्रह्म में हैं सब तेते।
गुण होने ते सगुण कहावे,
तरे भक्त वाके गुण गावे।
जीव रु जग गुण प्रभु में नाहीं,
एही हेत वे निर्गुण कहाहीं।
सर्वज्ञादिक बहु गुण वाके,
इह विध सगुण रूप भी ताके।
ओत प्रोत व्यापक जग माँही,
वाते रिक्त नहीं कोऊ ठाहीं।
मन के अन्दर मन का स्वामी,
वाकी संज्ञा अन्तरयामी।
होय धर्म सों जासु प्रकासा,
पाप रहित सद्धर्म निवासा।
धर्म करे धर्महिं प्रगटावे,
धर्मराज सो ‘ईश’ कहावे।
‘यमु’ धातु सों यम पद सिद्धि,
दण्ड क्रिया वाकी परसिद्धि।
पाप पुण्य के फल का दाता,
न्याय डोर यम कर मँह धाता।
भज् धातु से है भगवाना,
सुख दाता संपति की खाना।
भजन योग्य स्वामी भगवन्ता,
नवनिधि दाता ईश अनन्ता।
‘मन’ ‘ज्ञाने’ ‘मनु’ पद की रचना,
करहिं ऋषि मुनि शब्द प्रवचना।
ज्ञान शील अरु मानन लायक,
सो ‘मनु’ परमेश्वर सुखदायक।
पूर रहा जड़ चेतन माँही,
कोउ ठौर वा के बिनु नाहीं।
एहि कारण प्रभु ‘पुरुष’ कहावे,
सकल विश्व मँह स्वयं समावे।
‘डुकृ०ा्’ धारण पोषण अर्था,
सबको पालहि सकल समर्था।
‘कल’ संख्याने रचिये ‘काला’,
सबकी गणना करने वाला।
‘शिष्लृ’ सों निर्मित पद ‘शेषा’,
रहे शेष प्रभु नशहि अशेषा।
‘आप्लृ’ व्यातौ ‘आप्त’ बनाया,
पारब्रह्म प्रभु आप्त कहाया।
सत उपदेशक विद्या पूरन,
निश्चल छल को करता चूरन।
जाको केवल धर्मी पावे,
सो परमेश्वर ‘आप्त’ कहावे।
‘शम्’ पूरव मँह ‘डुकृ०ा्’ करणे,
शंकर पोत अवर्णव तरणे।
शंकर प्रभु कल्याण का दाता,
भज शंकर सब जग का नाता।
‘देव’ शब्द के महत् सुपूरव,
महादेव पद रच्यौ अपूरव।
दोहा
पूजहू नर महाँदेव कहँ, सब देवन की देव।
चोर पदारथ पाइगो, करहु जो वाकी सेव।।
चौपाई
‘प्री०ा्’ अर्थ कान्ति अरु तर्पण,
‘प्रिय’ प्रभु के मन करहु समर्पण।
‘प्रिय’ परमेश्वर सब को प्यारा,
धर्मी जन मन रंजन हारा।
‘स्वयं’ पूर्व ‘भू’ ‘सत्ता’ अर्था,
प्रभु स्वयम्भू सकल समर्था।
आपहि आप स्वयम्भू होवे,
वाको बीज नहीं कोऊ बोवे।
जग का कारण स्वयं अकारण,
सब ब्रह्माण्ड करत वह धारण।
‘कु’ धातु ‘कवि’ पद निर्माता,
चतुर्वेद ‘कवि’ ईश विधाता।
सब विद्याओं का उपदेशक,
सकल ज्ञान का है निर्देशक।
‘शिव’ पद ‘शिवु’ धातु कल्याणे,
शिव कल्याणी सब कोई माने।
शिव का जिसने सिमरन कीना,
मोक्ष धाम उसको प्रभु दीना।
नाम शतक हौं किया बखाना,
इन ते भिन्न नाम हैं नाना।
पारब्रह्म के नाम अनन्ता,
तुच्छ जीव पावे नहीं अन्ता।
गुण अनन्त कोउ अन्त न आवे,
कहां कीट सागर थाह पावे।
कर्म स्वभाव भाव हैं नाना,
हैं अनन्त नामी भगवाना।
वेद शास्त्र पढ़िये हो ज्ञाना,
नाम अनन्त किये विख्याना।
जो वेदों के जानन हारे,
जानें वही पदारथ सारे।
प्रश्न
महाराज इक संशय भारी,
यह शंका मम करो निवारी।
ग्रन्थारम्भ आपने कीना,
प्रथम मंगलाचरण न दीना।
ग्रन्थकार हौं देखे जेते,
मंगलचार लिखें सब तेते।
ग्रन्थ आदि मध्य रु अवसाने,
सब मँह मंगलाचरण लखाने।
उत्तर
मगङलाचरणं शिष्टाचारात् फल दर्शनाच्छुतितश्चेति। – सांख्य दर्शन। अ. 5। सू. 1
सांख्य शास्त्र ने ऐसा गाया,
प्रथम सूत्र पंचम अध्याया।
उचित नहीं यह मंगलचारा,
भेड़ चाल सा यह व्यौहारा।
आदि मध्य अरु अन्त स्थाने,
मंगलचार उचित जो माने।
तो उनके जो मध्य ठिकाना,
उन मँह आदि मध्य अवसाना।
उन ठौरन मँह रहे अमंगल,
इन बातों से होय न मंगल।
सुनहु तात हौं तोहे समझाऊँ,
सांख्य शास्त्र का भाव बताऊँ।
सत्य न्याय अरु वेदनुकूला,
पक्षपात को कर निर्मूला।
प्रभु आज्ञा अनुकूलाचारा,
जो आचरहि सो मंगलचारा।
इस विश्व आदि अन्त परयन्ता,
लिखे ग्रंथ साँचा श्री मन्ता।
ऐसा मंगलाचरण कहावे,
जो जन लिखे सो सिद्धि पावे।
तैत्तिरेय ऋषि की यह बानी,
क्या सुन्दर उपयुक्त बखानी।
“यान्यनवद्यानि कर्माणि तानि सेवितव्यानि नो इतराणि” – तैत्तिरीयोपनिषत् प्र. 7। अनु. 16
सुनहु कर्म जो धर्मनुसारा,
नित्य करहु उनका व्यवहारा।
कबहुं अन्य करे नहीं काजा,
याते लगे धर्म को लाजा।
आज कल्ह के लिखने हारे,
वेद शास्त्र नहीं पढ़ें बेचारे।
आदौ गुरु गणेश कँह ध्यावहिं,
कोउ शिव राधाकृष्ण मनावहिं।
कोऊ सिमरें दुर्गा हनुमाना,
सरसुति सों चाहें कल्याना।
यह सब वेद शास्त्र विपरीते,
निष्फल सगरे फल ते रीते।
आर्ष ग्रंथ बहु हमने देखे,
ऐसे मंगलचार न पेखे।
‘अथ शब्दानुशासनम्’ अथेत्ययं शब्दोऽधिकारार्थः प्रयुज्यते, इति व्याकरण महाभाष्ये।
‘अथातो धर्मजिज्ञासा’ अथेत्यानन्तर्ये वेदाध्ययनानन्तरम् इति पूर्व मीमांसायाम्।
‘अथातो धर्मं व्याख्यास्यामः’। अथेति धर्मकथनानन्तरं धर्मलक्षणं विशेषेण व्याख्यास्यामः – वैशेषिक दर्शने।
‘अथ योगानुशासनम्’। अर्थत्ययमधिकारार्थः – योग शास्त्रे।
‘अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृतिरत्यन्तपुरुषार्थः।’ सांसारिकविषयभोगानन्तरं त्रिविधदुःशात्यन्तनिवृत्यर्थः प्रयन्तः कर्त्तव्यः। – सांख्य शास्त्रे
‘अथातोब्रह्मजिज्ञासा’। चतुष्टयसाधनसंपत्त्यनन्तरं ब्रह्म जिज्ञास्यम्। – इदं वेदान्त सूत्रम्।
‘ओमित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत’। – इदं छान्दोग्योपनिषद्वचनम्
‘ओमित्येतदक्षरमिद सर्वं तस्योपव्याख्यानम्’। – इदं च माण्डूक्योपनिषद्वचनम्
यह आरम्भिक पद हैं सारे,
इनते अन्य ग्रंथ हैं न्यारे।
कहीं न देखा मंगलचारा,
यह आधुनिक मूढ़ व्यौहारा।
‘अथ’ अरु ओ3म् शब्द दो आए,
ग्रंथारम्भे मुनिन लगाए।
दोहा
‘ये त्रिषप्ता परियन्ति’, आदौ वाक्य सुहाय।
‘अग्नि’ ‘इट्’ अरु ‘अग्नि’ यह, चारहु वेद लखाय।।
गुरु गणपति आदिक कहुं नाँही,
वेदशास्त्र ग्रंथन के माँही।
‘हरि ओ3म्’ यह वाक्य प्रयोगा,
नहीं आदि में रखने योगा।
यह तांत्रिक पौराणिक रीति,
वेद विरुध यह निपट अनीति।
अथ अरु ओ3म् आदि मँह ध्यावहिं,
जो ध्यावहि निश्चय फल पावहिं।
।। इति श्री आर्य महाकवि जयगोपाल रचिते
सत्यार्थप्रकाशकवितामृते
प्रथमः समुल्लासः समाप्तः।।