02. अग्निहोत्र प्रक्रिया

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अथ देवयज्ञः

अथाचमन-मन्त्राः

3म् अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।। 1।। इससे एक

3म् अमृतापिधानमसि स्वाहा।। 2।। इससे दूसरा

3म् सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा।। 3।।

                        (तैत्तिरीय आरण्यक प्र. 10/अनु. 32, 35)

       इससे तीसरा आचमन करके तत्पश्चात् जल लेकर नीचे लिखे मन्त्रों से अंगों को स्पर्श करें।

अथ अङ्गस्पर्श-मन्त्राः

ओं वाङ्म आस्ये ऽ स्तु। इस मन्त्र से मुख

ओं नसोर्मे प्राणो ऽ स्तु। इस मन्त्र से नासिका के दोनों छिद्र

ओं अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु। इस मन्त्र से दोनों आंख

ओं कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु। इस मन्त्र से दोनों कान

ओं बाह्नोर्मे बलमस्तु।इस मन्त्र से दोनों बाहु

ओम् ऊर्वोर्म ओजो ऽ स्तु। इस मन्त्र से दोनों जंघा

ओम् अरिष्टानि मे ऽ ङ्गानि तनूस्तन्वा मे सह सन्तु। इस मन्त्र से दाहिने हाथ से जल स्पर्श करके मार्जन करना।

                        (पारस्कर गृ.का.2/क.3/सू.25)

अथ-ईश्वर-स्तुति-प्रार्थनोपासनामन्त्राः

3म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।

यद् भद्रन्तन्न ऽ आसुव।। 1।। (यजु अ.30/मं.3)

       हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके हमारे सम्पूर्ण दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए; जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं वह सब हमको प्राप्त कीजिए।

सकल जगत के उत्पादक हे, हे सुखदायक शुद्ध स्वरूप।

हे समग्र ऐश्वर्ययुक्त हे, परमेश्वर हे अगम अनूप।।

दुर्गुण-दुरित हमारे सारे, शीघ्र कीजिए हमसे दूर।

मंगलमय गुण-कर्म-शील से, करिए प्रभु हमको भरपूर।।

हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक ऽ आसीत्। स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।। 2।। (यजु.अ.13/मं.4)

       जो स्वप्रकाश स्वरूप और जिसने प्रकाश करनेहारे सूर्य चन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किए हैं। जो उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का प्रसिद्ध स्वामी एक ही चेतन स्वरूप था। जो सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्व वर्तमान था। सो इस भूमि और सूर्यादि का धारण कर रहा है। हम लोग उस सुखस्वरूप शुद्ध परमात्मा के लिए ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अतिप्रेम से विशेष भक्ति किया करें।

छिपे हुए थे जिसके भीतर, नभ में तेजोमय दिनमान।

एक मात्र स्वामी भूतों का, सुप्रसिद्ध चिद्रूप महान्।।

धारण वह ही किए धरा को, सूर्यलोक का भी आधार।

सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।

य ऽ आत्मदा बलदा यस्य विश्व ऽ उपासते प्रशिषं यस्य देवाः। यस्य छाया ऽ मृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। 3।। (यजु.अ.25/मं.13)

        जो आत्मज्ञान का दाता, शरीर, आत्मा और समाज के बल का देनेहारा है। जिसकी सब विद्वान लोग उपासना करते हैं। जिसके प्रत्यक्ष सत्यस्वरूप शासन, न्याय अर्थात् शिक्षा को मानते हैं। जिसका आश्रय ही मोक्ष सुखदायक है। जिसका न मानना अर्थात् भक्ति इत्यादि न करना ही मृत्यु आदि दुःख का हेतु है। हम लोग उस सुखस्वरूप, सकल ज्ञान के देनेहारे परमात्मा की प्राप्ति के लिए आत्मा और अन्तःकरण से भक्ति अर्थात् उसी की आज्ञा पालन करने में तत्पर रहें।

आत्मज्ञान का दाता है जो, करता हमको शक्ति प्रदान।

विद्वद्वर्ग सदा करता है, जिसके शासन का सम्मान।।

जिसकी छाया सुखद सुशीतल, दूरी है दुःख का भंडार।

सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।

यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक ऽ इद्राजा जगतो बभूव। य ऽ ईशे ऽ अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। 4।।

      जो प्राणवाले और अप्राणिरूप जगत् का अपनी अनन्त महिमा से एक ही विराजमान राजा है। जो इस मनुष्यादि और गौ आदि प्राणियों के शरीर की रचना करता है। हम लोग उस सुखस्वरूप सकल ऐश्वर्य के देनेहारे परमात्मा की उपासना अर्थात् अपनी सकल उत्तम सामग्री को उसकी आज्ञापालन में समर्पित करके उसकी विशेष भक्ति करें।

जो अनन्त महिमा से अपनी, जड़-जंगम का है अधिराज।

रचित और शासित हैं जिससे, जगतिभर का जीव समाज।।

जिसके बल विक्रम का यश का, कण-कण करता जयजयकार।

सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।

येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढ़ा येन स्वः स्तभितं येन नाकः। यो ऽ न्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। 5।। (यजु.अ.32/मं.6)

        जिस परमात्मा ने तीक्ष्ण स्वभाव वाले सूर्य आदि और भूमि को धारण किया है, जिस जगदीश्वर ने सुख को धारण किया है और जिस ईश्वर ने दुःख रहित मोक्ष को धारण किया है। जो आकाश में सब लोक-लोकान्तरों को विशेष मानयुक्त अर्थात् जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं वैसे सब लोकों निर्माण करता और भ्रमण कराता है, हम लोग उस सुखदायक कामना करने के योग्य परब्रह्म की प्राप्ति के लिए सब सामर्थ्य से विशेष भक्ति करें।

किया हुआ है धारण जिसने, नभ में तेजोमय दिनमान।

परमशक्तिमय जो प्रभु करता, वसुधा को अवलम्ब प्रदान।।

सुखद मुक्तिधारक लोकों का, अन्तरिक्ष में सिरजनहार।

सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।

प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव। यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्।। 6।। (ऋ.म.10/सू.121/मं.10)

        हे सब प्रजा के स्वामी परमात्मा आप से भिन्न दूसरा कोई उन इन सब उत्पन्न हुए जड़-चेतनादिकों को नहीं तिरस्कार करता है, अर्थात् आप सर्वोपरी हैं। जिस-जिस पदार्थ की कामनावाले हम लोग आपका आश्रय लेवें और वांच्छा करें, वह कामना हमारी सिद्ध होवे, जिससे हम लोग धनैश्वर्यों के स्वामी होवें।

जड़ चेतन जगति के स्वामी, हे प्रभु तुमसा और नहीं।

जहां समाए हुए न हो तुम, ऐसा कोई ठौर नहीं।।

जिन पावन इच्छाओं को ले, शरण आपकी हम आएं।

पूरी होवें सफल सदा हम, विद्या-धन-वैभव पाएं।।

स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा। यत्र देवा ऽ अमृतमानशानास्तृतीये धामन्न– ध्यैरयन्त।। 7।। (यजु.अ.32/मं.10)

        हे मनुष्यों वह परमात्मा अपने लोगों का भ्राता के समान सुखदायक, सकल जगत् का उत्पादक, वह सब कामों का पूर्ण करनेहारा, सम्पूर्ण लोकमात्र और नाम-स्थान-जन्मों को जानता है। जिस सांसारिक सुख-दुःख से रहित नित्यानन्दयुक्त मोक्षस्वरूप धारण करनेहारे परमात्मा में मोक्ष को प्राप्त होके विद्वान् लोग स्वेच्छापूर्व्रक विचरते हैं वही परमात्मा अपना गुरु, आचार्य, राजा और न्यायाधीश है। अपने लोग मिलके सदा उसकी भक्ति किया करें।

भ्राता तुल्य सुखद् वह ही प्रभु, सकल जगत् का जीवन प्राण।

मानव के सब यत्न उसी की, करुणा से होते फलवान।।

सदानन्दमय धाम तीसरा, सुख-दुःख के द्वन्द्वों से दूर।

करके प्राप्त उसे ज्ञानी जन, आनन्दित रहते भरपूर।।

अग्ने नय सुपथा राये ऽ अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्। युयोध्यस्मज्जुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम ऽ उक्तिं विधेम।। 8।। (यजु.अ.40/मं.16)

        हे स्वप्रकाश, ज्ञानस्वरूप, सब जगत् के प्रकाश करनेहारे सकल सुखदाता परमेश्वर ! आप जिससे सम्पूर्ण विद्यायुक्त हैं, कृपा करके हम लोगों को विज्ञान वा राज्यादि ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए अच्छे धर्मयुक्त आप्त लोगों के मार्ग से सम्पूर्ण प्रज्ञान और उत्तम कर्म प्राप्त कराइये और हमसे कुटिलतायुक्त पापरूप कर्म को दूर कीजिए। इस कारण हम लोग आपकी बहुत प्रकार से नम्रतापूर्वक स्तुति सदा किया करें और आनन्द में रहें।

स्वयं प्रकाशित ज्ञानरूप हे ! सर्वविद्य हे दयानिधान।

धर्ममार्ग से प्राप्त कराएं, हमें आप ऐश्वर्य महान्।।

पापकर्म कौटिल्य आदि से, रहें दूर हम हे जगदीश।

अर्पित करते नमन आपको, बारंबार झुकाकर शीश।।

अग्न्याधानम्

ओं भूर्भुवः स्वः। (गोभिल.गृ.प.1/खं.1/सू.11)

ओं भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा। तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठे ऽ ग्निमन्ना दमन्नाद्यायादधे।।

                                            (यजृ.अ.3/मं.5)

ओम् उद् बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते स ँ् सृजेथामय०च। अस्मिन्त्सधस्थे ऽ अध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्चसीदत।। (यजु. 15 / 54)

समिदाधानम्

ओम् अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्द्धस्व चेद्ध वर्द्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसे नान्नाद्येन समेधय स्वाहा। इदमग्नये जातवेदसे – इदन्न मम।। 1।।

(आश्वलायन गृ.सू. 1/10/12) इस मन्त्र से घृत में डुबोकर पहली..

ओं समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम्।

आस्मिन् हव्या जुहोतन स्वाहा।।

इदमग्नये – इदन्न मम।। 2।। (यजु. 3/1) इससे और..

सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन।

अग्नये जातवेदसे स्वाहा।।

इदमग्नये जातवेदसे – इदन्न मम।। 3।। (यजु.3/2)

इस मन्त्र से अर्थात् दोनों मन्त्रों से दूसरी और..

तं त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्द्धयामसि।

बृहच्छोचा यविष्ठ्या स्वाहा।।

इदमग्नये ऽ ङ्गिरसे – इदन्न मम।। 4।। (यजु. 3/3.)

इस मन्त्र से तीसरी समिधा समर्पित करें। उक्त मन्त्रों से समिधाधान करके नीचे लिखे मन्त्र को पांच बार पढ़कर पांच घृताहुतियां दें।

प०चघृताहुतिमन्त्रः

ओम् अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्द्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्बह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा। इदग्नये जातवेदसे – इदन्न मम।।

                                            (आश्व.गृ.सू. 1/10/12)

जलसि०चनमन्त्राः

ओम् अदिते ऽ नुमन्यस्व।। 1।। इससे पूर्व में

ओम् अनुमते ऽ नुमन्यस्व।। 2।। इससे पश्चिम में

ओम् सरस्वत्यनुमन्यस्व।। 3।। इससे उत्तर दिशा में

ओं देव सवितः प्र सुव यज्ञं प्र सुव यज्ञपतिं भगाय। दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु।। 4।। (यजु.अ. 30/मं. 1)

       इस मन्त्रपाठ से वेदी के चारों ओर जल छिड़काएं।

आघारावाज्यभागाहुतिमन्त्राः

ओम् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये – इदन्न मम।। 1।।

              इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग अग्नि में

ओं सोमाय स्वाहा। इदं सोमाय – इदन्न मम।। 2।।

        (गो.गृ.प्र.1/खं.8/सू.24) इससे दक्षिण भाग अग्नि में

ओं प्रजापतये स्वाहा। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। 3।।

                                          (यजु. 22 / 32)

ओम् इन्द्राय स्वाहा। इदमिन्द्राय – इदन्न मम।। 4।।

        (यजु.22/27) इन दोनों मन्त्रों से वेदी के मध्य में दो आहुतियां दें। उक्त चार घृत आहुतियां देकर नीचे लिखे चार मन्त्रों से प्रातःकाल अग्निहोत्र करें।

प्रातःकालीन-आहुतिमन्त्राः

ओं सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः स्वाहा।। 1।।

ओं सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा।। 2।।

ओं ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा।। 3।। (यजु. 3/9)

ओं सजूर्देवेन सवित्रा सजूरुषसेन्द्रवत्या।

जुषाणः सूर्यो वेतु स्वाहा ।। 4।। (यजु. 3/10)

अब नीचे लिखे मन्त्रों से प्रातः सांय दोनों समय आहुतियां दें।

प्रातः सांयकालीनमन्त्राः

ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा। इदमग्नये प्राणाय – इदन्न मम।। 1।। (गोभिगृह्यसूत्र0प्र.1/खं.3/यू. 1-3)

ओं भुवर्वायवे ऽ पानाय स्वाहा।

इदं वायवे ऽ पानाय – इदन्न मम ।। 2।।

ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।

इदमादित्याय व्यानाय – इदन्न मम।। 3।।

ओं भूर्भुवः स्वरग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा। इदमग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः इदन्न मम।। 4।। (तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनैकीकृता ऋ.भा.भू. पंचमहा.)

ओम् आपो ज्योतीरसो ऽ मृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा।। 5।। (तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनरचितः प०चमहायज्ञ.)

ओं यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते।

तया मामद्य मेधया ऽ ग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा।। 6।।                                                     (यजु.32/14)

ओं विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।

यद्भद्रन्तन्न ऽ आसुव स्वाहा।। 7।। (यजु.30/3)

ओम् अग्ने नय सुपथा राये ऽ अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्। युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम ऽ उक्तिं विधेम स्वाहा।। 8।। (यजु.40/16)

सायंकालीन-आहुतिमन्त्राः

       ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा।। 1।।

ओम् अग्निर्वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा।। 2।।

ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा।। 3।।

इस मन्त्र को मन में बोल कर आहुति दें। (यजु. 3/9 के अनुसार)

ओं सजूर्देवेन सवित्रा सजू रात्र्येन्द्रवत्या।

जुषाणो ऽ अग्निर्वेतु स्वाहा।। 4।। (यजु.3/मं.9, 10)

ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा।। 1।।

        (गोभिगृह्यसूत्र0प्र.1/खं.3/यू. 1-3)

ओं भुवर्वायवे ऽ पानाय स्वाहा।। 2।।

ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।। 3।।

ओं भूर्भुवः स्वरग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा। (तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनैकीकृता ऋ.भा.भू. पंचमहा.)

ओम् आपो ज्योतीरसो ऽ मृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा।। 5।। (तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनरचितः प०चमहायज्ञ.)

3म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।। इस मन्त्र से तीन आहुतियां दें। (यजु.36/3)

पूर्णाहुति मन्त्राः

ओं सर्वं वै पूर्ण ँ् स्वाहा।  इस मन्त्र से तीन बार केवल घृत से आहुतियां देकर अग्नि होत्र को पूर्ण करें।

यज्ञ-प्रार्थना

पूजनीय प्रभो हमारे भाव उज्जवल कीजिए।

छोड देवें छल कपट को मानसिक बल दीजिए।।

वेद की बोलें ऋचाएं सत्य को धारण करें।

हर्ष में हों मग्न सारे शोक सागर से तरें।।

अश्वमेधादिक रचाएं यज्ञ पर उपकार को।

धर्म मर्यादा चलाकर लाभ दें संसार को।।

नित्य श्रद्धा भक्ति से यज्ञादि हम करते रहें।

रोग पीड़ित विश्व के संताप सब हरते रहें।।

भावना मिट जाए मन से पाप अत्याचार की।

कामनाएं पूर्ण होवें यज्ञ से नर-नारि की।।

लाभकारी हो हवन हर प्राणधारी के लिए।

वायु जल सर्वत्र हों शुभ गन्ध को धारण किए।।

स्वार्थ भाव मिटे हमारा प्रेम पथ विस्तार हो।

इदन्न मम का सार्थक प्रत्येक में व्यवहार हो।।

हाथ जोड़ झुकाएं मस्तक वन्दना हम कर रहे।

नाथ! करुणारूप करुणा आपकी सब पर रहे।।

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।।

हे नाथ सब सुखी हों, कोई न हो दुखारी।

सब हों निरोग भगवन, धन-धान्य के भंडारी।

सब भद्रभाव देखें, सन्मार्ग के पथिक हों।

दुःखिया न कोई होवे, सृष्टि में प्राणधारी।

शान्ति पाठः

3म् द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष ँ् शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व ँ् शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि। (यजु.36/17)ओम् शान्तिः शान्तिः शान्तिः।

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