तिलका मांझी

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स्वाधीनता संग्राम का प्रथम शहीद : तिलका मांझी
(Courtesy: प्रीतीश एक देशप्रेमी विद्रोही (with minor edits))

भारत में स्वाधीनता संग्राम की प्रथम मशाल सुलगाने वाली बिहार की संथाल परगना, भागलपुर छोटा नागपुर के अंचल की जंगली आदिवासी जातियां भले ही इतिहास के पन्ने में ना मिलती हो, लेकिन अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें हिला देने वाली इन जातियों को कभी भुलाया नहीं जा सकता।

इन्हीं आदिवासी जातियों में तिलका मांझी का नाम प्रथम विद्रोही के रूप में लिया जाता है। 1857 के भारतीय स्वाधीनता संग्राम के 90 वर्ष पूर्व अंग्रेजी शासन की बर्बरता के जघन्य कार्यों के विरूद्ध उसने आवाज उठायी थी। उसे महान क्रान्तिकारी का अध्याय-काल 1750 से लेकर 1784 तक माना जाता है।

तिलक मांझी का जन्म बिहार राज्य के भागलपुर के निकट तिलकपुर में एक आदिवासी परिवार में हुआ था। बचपन से ही वह जंगली सभ्यता की छाया में तीर धनुष चलाता, जंगली जानवरों का शिकार करता। कसरत-कुश्ती करना बड़े-बड़े वृक्षों पर चढ़ना-उतरना, बीहड़ जंगलों, नदियों भयानक जानवरों से छेड़खानी, घाटियों में घूमना उसका रोजमर्रा का काम था। जंगली जीवन ने उसे वीर बना दिया था। किशोर जीवन से ही अपने-अपने परिवार जाति पर अंग्रेजी सत्ता का अत्याचार देखा था। अनाचार देखकर उसका खून खौल उठता और अंग्रेजी सत्ता से टक्कर लेने के लिए उसके मस्तिष्क में विद्रोह की लहर पैदा होती। गरीब आदिवासियों की भूमि, खेती, जंगली वृक्षों पर अंग्रेजी शासक अपना अधिकार किये हुए थे। जंगली आदिवासियों के बच्चों, महिलाओं, बूढ़ों को अंग्रेज तरह-तरह से यातनाएं देते थे।

आदिवासियों के पर्वतीय अंचल में पहाड़ी जनजाति का शासन था। वहां पर बसे हुए पर्वतीय सरदार भी अपनी भूमि खेती की रक्षा के लिए अंग्रेजी सरकार से लड़ते थे। पहाड़ों के इर्द-गिर्द बसे हुए जमींदार अंग्रेजी सरकार को धन के लालच में खुश किये हुए थे। आदिवासियों और पर्वतीय सरदारों की लड़ाई रह-रहकर अंग्रेजी सत्ता से हो जाती थी और पर्वतीय जमींदार वर्ग अंग्रेजी सत्ता का खुलकर साथ देता था।

अंततः वह दिन आ गया, जब तिलक मांझी ने बनैचारी जोर नामक स्थान से अंग्रेजी के विरूद्ध विद्रोह शुरू कर दिया। वीर तिलका मांझी के नेतृत्व में आदिवासी वीरों के विद्रोही कदम भागलपुर, सुल्तानगंज तथा दूर-दूर तक जंगली क्षेत्रों की तरफ बढ़ रहे थे। राजमहल की भूमि पर पर्वतीय सरदार अंग्रेजी सैनिकों से टक्कर ले रहे थे। स्थिति का जायजा लेकर अंग्रेजी ने क्लीवलैंड को मैजिस्ट्रेट नियुक्त कर राजमहल भेजा। क्लीवलैंड अपनी सेना और पुलिस के साथ चारों ओर देख रेख मे जुट गया। हिन्दू मुस्लिम में फूट डालकर शासन करने वाली ब्रिटिश सत्ता को तिलका मांझी ने ललकारा। विद्रोही तिलका मांझी अंग्रेजों के विरूद्ध अपने सैन्य दल के साथ विद्रोह कर उठा।

जंगर तराई में गंगा, ब्रहम्मी आदि नदियों की घाटियों में मांझी अपनी सेना के साथ अंग्रेजी सरकार के सैनिक अफसरों के साथ लगातार संघर्ष करते-करते मुंगेर भागलपुर, संथाल परगना के पर्वतीय इलाकों में छिप-छिप कर लड़ाई लड़ता रहा। क्लीवलैंड एवं सर आधर कूट की सेना के साथ वीर तिलका की कई स्थानों पर जमकर लड़ाई हुई। तिलका सैनिकों से मुकाबला करते-करते भागलपुर की ओर बढ़ गया। वहीं से उसके सैनिक छिप-छिपकर अंग्रेजी सेना पर अस्त्र प्रहार करने लगे। समय पाकर एक ताड़ के पेड़ पर चढ़ गया ठीक उसी समय घोड़े पर सवार क्लीव लैंड उस ओर आया। मांझी ने बिना किसी देरी के तीर धनुष का निशाना उस पर लगाया। धनुष से छूटा तीर क्लीवलैंड की छाती में लगा और वहीं उसका प्रणान्त हो गया। क्लीवलैंड की मृत्यु का समाचार पाकर अंग्रेजी सरकार डांवाडोल हो उठी। सत्ताधारियों, सैनिकों अफसरों में भय का वातावरण छा गया।

एक रात तिलका मांझी और उसके क्रान्तिकारी साथी जब एक उत्सव में नाच गाने की उमंग में खोए थे कि अचानक सरदार जाउदाह ने संथाली वीरों पर आक्रमण कर दिया। इस अचानक हुए आक्रमण से तिलका मांझी तो बच गये किन्तु अनेक देश भक्तवीर शहीद हुए। कुछ को बन्दी बना लिया गया। तिलका मांझी ने वहां से भागकर सुल्तानगंज के पर्वतीय अंचल में शरण ली। भागलपुर से लेकर सुल्तानगंज व उसके आसपास के पर्वतीय इलाकों में में सेनाओं ने मांझी को पकड़ने के लिए जाल बिछा दिया।

वीर तिलका मांझी एवं उसकी सेना को अब पर्वतीय इलाकों में छिप-छिपकर संघर्ष करना कठिन जान पड़ा, अन्न के अभाव में उसकी सेना भूखों मरने लगी। अब तो वीर मांझी और उसके सैनिकों के आगे एक ही युक्ति थी कि छापामार लड़ाई लड़ी जाये। मांझी के नेतृत्व में संथाल आदिवासियों ने अंग्रेजी सेना पर प्रत्यक्ष रूप से धावा बोल दिया। युद्ध के दरम्यान मांझी को अंग्रेजी सेना ने घेर लिया। अंग्रेजी सत्ता ने उस महान विद्रोही देशभक्त को बन्दी बना लिया। अंत में एक वटवृक्ष में रस्से से बांधकर उसे फांसी दे दी। भारत को गुलामी से मुक्त कराने के लिए अंग्रेजों के विरूद्ध उसने पहली आवाज उठायी थी, जो 90 वर्ष बाद 1857 में स्वाधीनता संग्राम के रूप में पुनः फूट पड़ी थी।

क्रान्तिकारी तिलका मांझी की स्मृति में भागलपुर में कचहरी के निकट, उनकी एक मूर्ति स्थापित की गयी है, जिसे देखकर उन दिनों की याद ताजा हो आती है जब हम दूसरे के हाथों की कठपुतली बनकर नाचा करते थे।

तिलक मांझी भारत माता के अमर सपूत के रूप में सदा याद किये जायेंगे।

~ लेखक : विशाल अग्रवाल
~ चित्र : माधुरी

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