क्रिकेट में इनाम है मैन ऑफ द मैच, सुपर सिक्सर, सुपर कैचर आदि। इनाम करीब हजार-हजार डालर के हैं। नाम सुन मुंह में पानी भर आता है। और क्रिकेटर इन्हीं इनामों, डालरों पर नजर जमा अपना ऊलजलूल खेल दिखाता है। ”धन-मदारी“ का बंदर ”कुलटियाँ“ खाता है। धनमदारी बड़ा होता जाता है। अश्व दौड़ सट्टा तक बढ़ जाता है। आल रांऊडर महानतम क्रिकेट पर्याय भालू कुलाटियां खाता है। देश का युवा किशोर कोमल मानव अनैतिकता की तपती भट्टी में झोंक दिया जाता है। महान बैटर कहता है टिकिट लाभांश, टी.व्ही. लाभांश क्रिकेटरों को दो और समस्या सुलझा लो। क्या क्रिकेटरों के पास अभी कम पैसा है ? वे तो जिधर हाथ मारते हैं, पैसे झारते हैं। यह धन कार्यावस्था का प्रारूप है। नचिकेता जो कुमार बालक था, ने कहा था- वित्त धन से मनुष्य की संतुष्टि नहीं होती है। भर्तृहरि ने कहा था- भोग नहीं भोगे जाते, हम ही भोगित होते हैं।
हर धन कार्यावस्था में कार्य पतन मानव अवमूल्यन आवश्यक है। लालन और मद पर आधारित औने-छौने सम्प्रदाय उर्फ कथित धर्म इतिहास की धूल होते जा रहे हैं। धनाधारित कार्य व्यवस्थाओं की सारी चूलें ढीली चूंचमर होती जा रही हैं। और ऐसे हम राष्ट्र भ्रष्टता की सीढ़ियां चढते जा रहे हैं। भारत ”सर्वोच्च भ्रष्ट“ लक्ष्य से मात्र सात कदम दूर था। क्रिकेट महाभ्रष्टता ने उसे शायद पांच कदम दूर पहुंचा दिया होगा। क्रिकेट कौशल खेल है, अतः वंश भ्रष्ट, यशभ्रष्ट नहीं हो पाया है।
फिल्म क्षेत्र ”धन कार्यावस्था“ के साथ ही साथ ”वंश कार्यावस्था“ की दौड़ भी दौड़ रहा है। फिल्म कार्य कौशल नहीं है। क्रिकेट से अधिक ऊलजलूल है। अतः इसमें पैसा भी अध्ािक है और वंशवाद भी अधिक है। जाटवंश, कपूर वंश, खान वंश अप्रत्यक्ष ही सही खन्ना वंश, रौशन वंश अधिक प्रसिद्ध है। यहां ”धन कार्यावस्था“ के साथ ”वंश कार्यव्यवस्था“ या ”पुत्त-कार्यव्यवस्था“ भी लागू है।
उपरोक्त के अतिरिक्त तीसरा क्षेत्र है जो सर्वाधिक प्रसिद्धि प्राप्त है, प्रजानन वर्ग का है या नेता वर्ग का है। यहां धन कार्यावस्था, वंश कार्यावस्था तथा यश (पद) कार्यावस्था तीनों का अस्तित्व है। यह क्षेत्र त्रिएषणा महाग्रस्त है। शुक्ल वंश, चौधरी वंश, रामाराव वंश, नेहरू वंश, चौटाला वंश, अर्जुन वंश, लालू वंश आदि-आदि वंशों की भरमार है। क्रिकेट कार्यावस्था से बदतर, फिल्मी कार्यावस्था से बदतर, राजनैतिक कार्यव्यवस्था है। जहां कोई योग्यता नहीं चाहिए, मात्र ऊलजलूल वक्तव्यों से काम चल सकता है। टालूमल यहाँ सफलतम नेता होता है। विधायी दौड़, सांसद, एम.एल.ए. बाकी सारे कामों में हाथ, पग, सिर अड़ाकर रखेंगे, क्योंकि वे विधायी कार्यों के सर्वथा अयोग्य हैं।
विकासशील वास्तव में अविकसित राष्ट्रों में ये तीन ही कार्यावस्थायें पाई जाती हैं। (1) धन-कार्यावस्था, (2) वंश कार्यावस्था, (3) यश-पद कार्यावस्था। इन तीनों के मिश्र रूप कार्यावस्था के भी हैं। पर इन कार्यावस्थाओं के अतिरिक्त और कार्यावस्थायें भी विश्व में हैं। (4) कानून कार्यावस्था, (5) समाज कार्यावस्था। अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी आदि राष्ट्रों में ”कानून कार्यावस्था“ का सिद्धान्त कठोरता से लागू है। अतः वहां दबावमय सुव्यवस्था है। जापान में ”समाज कार्यावस्था“ के कारण सुव्यवस्था है। असल में सारी कार्य व्यवस्थाएं हर अवस्था में अंशात्मक होती हैं, लेकिन प्रमुखता के आधार पर उन्हें नाम दिया जाता है। जापान ने प्रमुख समाज व्यवस्था के साथ तथा अमेरिका ने प्रमुख कानून व्यवस्था के साथ तकनीक व्यवस्था का भी योग किया।
व्यक्ति के कार्य करने के आधार तत्व (1) धन, (2) पद, (3) वंश, (4) कानून, (5) समाज आदि होते हैं। इन सब में भय तत्व प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में जुड़ा हुआ है। तकनीक तत्व भी इनसे जुड़ा हुआ है। उद्देश्य तत्व कहीं है, कहीं नहीं है। धन, वंश, पद के उद्देश्य क्या हैं ? धन अपने आप में कोई उद्देश्य नहीं है। पद या यश भी अपने आप में कोई उद्देश्य नहीं है। वंश भी अपने आप में कोई उद्देश्य नहीं है। वंश उद्देश्य होता तो पशु जगत आदि समृद्ध होता। ”न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यः“, धन भी उद्देश्य नहीं है। कानून तथा समाज व्यवस्थायें अपेक्षाकृत उद्देश्यपूर्ण हैं, कि इनसे मानव के भले अर्थात् ऋत-शृत की वृद्धि होती है। पहले मानव मशीनें चलाता था। फिर मशीनों में स्वचालन भर दिया। आदमी कमाल है, मशीनों को स्वचालित करने के पश्चात् स्वयं धन, वंश, यश चालित होने लगा। क्या कोई ऐसी विद्या है कि मानव स्वचालित हो ? स्व-कार्यावस्था प्राप्त कर ले ? कबीर ने कहा है-
”गोधन, गजधन, वाजिधन और रतन धन खान।
जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान।।“
यह मानव के स्वचालन की ओर एक लघु गति है। कम से कम इतना तो इस दोहे से स्पष्ट है कि संतोष धन आने पर मानव अन्य चालित नहीं रह जाता, अन्य चालक हो जाता है। अन्य जड़ चालित होने की अपेक्षा अन्य चालक होना बेहतर है। यह स्वचालन या स्व कार्यावस्था की ओर एक गति है।
सांतसा स्व कार्य की उच्चावस्था की ओर क्रमशः ले जाने की तकनीक का नाम है। आदमी ही इस रूप में परिवर्तित हो जाये कि कार्य करने से उसके कार्य जुड़े धन, पुत्र, यश आदमी को नहीं छूते हैं। ये तीनों तो रहते हैं पर इनकी एषणा मानव में नहीं रहती है। वेद के कुछ मंत्र इसकी ओर सशक्त इंगन करते हैं। कर्म करते शत वर्ष जीने की आकांक्षा कर यही कर्म में (धन, पुत्र यश एषणओं में) लिप्त न होने का तरीका है। ”मा कर्मफलेषु कदाचन“ गीता भी कभी भी कर्मफल में, (धन, पुत्र यश सम्बन्धी है कर्म फल) आधारित हो कर्म न करने का संदेश देती है। ”योग कर्म का कौशल है“ संसार में मैंने बहुत से व्यक्ति ऐसे देखे हैं, जिन्हें कर्म में आनंद आता है ।
एल्टन मेयो ने सामाजिकता से उत्पादकता वृंिद्ध का लंदन का एक उदाहरण दिया है, कि पांच लड़कियां बिल्कुल गलीच भूमि पर रक्त फैलाव, आस-पास मांस के टुकड़े, सीलन भरे कमरे में जहां प्रकाश भी उतना पर्याप्त नहीं था आल्हादपूर्वक मांस मज्जादि अलग-अलग करने का कार्य ग्रामीण लोक गीत गाती खुशी-खुशी करती थीं। यह कार्य भी एक रसावस्था है। इसमें तप भाव सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
सांतसा सुरचना करने में यश का स्थान आखिरी है और स्वयमेव वह सुरचना से जुड़ा है। व्यक्ति से नहीं, श्रम और तप से सुरचना होती है। इसमें नियम ज्ञात होने चाहिए। ऋत-ऋत, शृत-शृत से ये परिपूर्ण होनी चाहिए। इसमें सत्य होना चाहिए, तो यह सुरचना श्री-मयी तथा यशोमयी होगी। श्रम, तप, शाश्वत प्राकृतिक नियम, उनका व्यवहार प्रयोग, शाश्वत नैतिक नियम, उनका व्यवहार तथा सत्य, ये सुरचना सुशिल्प के आधार हैं। मेरी श्रीमती जी, जब-जब ऐसा होता है- भजन भाव विभोर हो गाती भोजन बनाती हैं। भोजन में अमृत स्वाद आ उतरता है। यह स्वकार्यावस्था के आल्हाद हैं। वेद कहता है ”वेदमंत्र गाते खेत में हल चलाओ“ तो वेद का भाव स्वकार्यावस्था में कार्य करना ही होता है। विज्ञान की सारी खोजें, संसार की श्रेष्ठ पुस्तकें, संसार के सारे श्रेष्ठ कार्य स्व-कार्यावस्था की ही उपज हैं। स्व कार्यावस्था प्राप्त करने का सरल तरीका सांतसा तकनीक है। सांस्कृतिक तकनीक, सामाजिक में संस्कृति उच्च धरातल से मानस जुड़ा व्यक्ति या कर्मचारी या अधिकारी सामाजिकता निभाता हुआ वैज्ञानिक विधि प्रभूत तकनीकी सिद्धान्तों के आधार पर कार्य करता है। ऐसे कर्मशील व्यक्तियों का एषणा अवमूल्यन नहीं कर सकती है। वह कर्म के आह्लाद के लिए कर्म करता है। उसे कभी भी कहीं भी कार्य करना बोझ नहीं लगता है।
”सांतसा सिद्धान्त“ स्व आधारित व्यापक परिशुद्ध सिद्धान्त है। कार्य का एक सिद्धान्त है क्रियात्मक नेतृत्व सिद्धान्त- ”शर्धं-शर्धम्, व्रातं-व्रातम्, गणं-गणम् का प्रयोग ऊँगलियों के विभिन्न तरह से सुप्रशस्तिपूर्वक क्रम-अनुक्रम से नेतृत्व धारणा उभरती है“ इस वेद भावार्थ में कई-कई अदभुत विधाएं हैं- (़1) व्यक्तिगत आदर्श शौर्य एवं व्यक्तिगत व्यवहार शौर्य समन्वय करते कार्य। (2) आदर्श कार्य निष्पन्नता तथा व्यवहार कार्य निष्पन्नता में समन्वय। (3) आदर्श कार्य समूह और व्यवहार कार्य समूह में समन्वय। मोटी भाषा में ये तीनों कार्य में लचीलापन दर्शाते हैं। कार्य में व्यक्तिगत, कार्यात्मक एवं समूहात्मक कार्य विचलन सीमाओं का पूर्व ही निर्धारण या आकलन आवश्यक है। यह स्वचालन हेतु आवश्यक है। यह स्वकार्यावस्था की एक महत्वपूर्ण शर्त है। (4) आदर्श शर्धम्, व्रातम्, गणम् प्रारूपों में समन्वय- यह त्रिवृत्तात्मक होता है। (5) व्यवहार शर्धम्, व्रातम्, गणम् में समन्वय- यह भी त्रिवृत्तात्मक होता है। (6) पंचीकरण सिद्धान्त- अंगूठे, उंगलीवत मिलकर ज्ञान, शौर्य, संसाधन, शिल्प, सेवा क्रमशः अंगूठे, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठावत प्रयोग। (7) कार्य में यत्न, आरंभ, प्राप्ताशा, नियताप्ति एवं फ्लागम अवस्थाओं में चुटकी, लिखने, चुनने, लड्डू बनाने, उंगलियां बांध घूग्घू बजाने, गिलास पकड़ने में दक्षता प्रयुक्त उंगली समूहवत कार्य योजना, (6) और (7) सिद्धान्त में पचास प्रतिशत स्व-स्व दक्षता और साढे बारह साढे बारह अन्य क्षेत्र दक्षता का पंचीकरण सिद्धान्त विशेषज्ञता की बीमारी का इलाज है यह अद्भुत वैज्ञानिक प्रयोग है।
इसी प्रकार दशरूपकम् विद्या जिसमें कार्य की पताका प्रकरी, उपपताका, उपप्रकरी आदि सह उप कार्यों में क्रमबद्ध विभाजित का संधियों, प्रकृतियों, अवस्थाओं में जमा वैज्ञानिक तरीके से करना होता है। जीवन के हर कार्य में मानव को स्व-कार्यावस्था देती है। सांतसा के अन्य विधाएं- पच्चीस पचहत्तर सिद्धांत, पुरोहितम् सिद्धान्त, संस्कार प्रबंधन, सुस्वाद सिद्धान्त आदि भी ”स्व कार्यावस्था“ की ओर मानव को ले जाते हैं।
स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)