स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती

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वैदिक धर्म, वैदिक संस्कृति, और आर्य जाति की रक्षा के लिए, मरणासन्न अवस्था से उसे पुनः प्राणवान एवं गतिवान बनाने के लिए और उसे सर्बोच्च शिखर पर पहुंचाने के लिये आर्य समाज ने सैंकड़ों बलिदान दिए हैं और उसमें प्रथम पंक्ति के प्रथम पुष्प हैं स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती, जिनका आज बलिदान दिवस है| स्वामी श्रद्धानंद का नाम देश, धर्म और संस्कृति की रक्षा करने वाले उन महान बलिदानियों में बहुत ही आदर के साथ लिया जाता है जिन्होंने अपनी जान की परवाह किए बगैर खुद को देश-समाज के लिये समर्पित कर दिया। धर्म, संस्कृति और देश पर बलिदान होना सबसे बड़ा कर्म माना जाता है और यह तब और भी बड़ा हो जाता है जब ये महान कार्य बगैर किसी स्वार्थ के किए जाएं।

स्वामी श्रद्धानंद ऐसे ही निस्वार्थ कार्य करने वाले महान धर्म और कर्म योद्धा थे। उनका श्रद्धानंद नाम उनके काम के मुताबिक पूरी तरह सही बैठता है। उन्होने स्वराज्य हासिल करने, देश को अंग्रेजी दासता से छुटकारा दिलाने और विधर्मी बने हिंदुओं का शुद्धिकरण करने, दलितों को उनका अधिकार दिलाने और पश्चिमी शिक्षा की जगह वैदिक शिक्षा प्रणाली गुरुकुल के मुताबिक शिक्षा का प्रबंध करने जैसे अनेक कार्य करने मे स्वयं को तिल तिल गला दिया। 18वीं शती में हिंदू और मुसलमानों का यदि कोई सर्वमान्य नेता था तो वे स्वामी श्रद्धानंद ही थे। 4 अपैल, 1919 को मुसलमानों ने स्वामी जी को अपना नेता मानकर भारत की सबसे बड़ी ऐतिहासिक जामा मस्जिद के बिम्बर पर बैठाकर स्वामी जी का सम्मान किया था। दुनिया की यह महज एक घटना है जहां मुसलमानों ने गैर मुसलिम को मस्जिद की बिम्बर पर उपदेश देने के लिए कहा। स्वामी जी ने अपना उपदेश त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता शत् क्रतो बभूविथ वेद मंत्र से शुरु किया और शांति पाठ के साथ अपने उपदेश को खत्म किया।

महर्षि दयानंद सरस्वती के अनन्य भक्त और उनके उद्देश्यों के प्रति पूर्णतः समर्पित, क्रांतिकारी विचारों के निष्ठावान समाज-सुधारक श्रद्धानंद का जन्म २२ फरवरी सन् १८५६ (फाल्गुन कृष्ण त्र्योदशी, विक्रम संवत् १९१३) को पंजाब प्रान्त के जालंधर जिले के पास बहने वाली सतलुज नदी के किनारे बसे प्राकृतिक सम्पदा से सुसज्ज्ति तलवन नगरी में हुआ था। उनके पिता, लाला नानक चन्द, ईस्ट ईण्डिया कम्पनी द्वारा शासित यूनाइटेड प्रोविन्स (वर्तमान उत्तर प्रदेश) में पुलिस अधिकारी थे। उनके बचपन का नाम वृहस्पति और मुंशीराम था, किन्तु मुन्शीराम सरल होने के कारण अधिक प्रचलित हुआ। वे पड़ने में मेधावी परन्तु बड़े ही उदंड स्वभाव के थे| पिता का ट्रान्सफर अलग-अलग स्थानों पर होने के कारण उनकी आरम्भिक शिक्षा अच्छी प्रकार नहीं हो सकी। काशी विश्वनाथ मंदिर के कपाट सिर्फ रीवा की रानी के लिए खोलने और साधारण जनता के लिए बंद किए जाने व एक पादरी के व्यभिचार का दृश्य देख मुंशीराम का धर्म से विश्वास उठ गया और वह बुरी संगत में पड़ गए और हर किस्म की बुरी आदतों का शिकार हो गये| सच तो ये है कि स्वामी श्रद्धानंद उर्फ मुंशीराम उन महापुरुषों में से एक हैं जिनका जन्म ऊंचे कुल में होने के बावजूद प्रारंभिक जीवन की बुरी लतों के कारण बहुत ही निकृष्ट किस्म का था।

बालक के नास्तिक होने के कारण पिता जी बड़े ही असहज महसूस करते थे और इस चिंता मे रहते थे कि कैसे पुत्र को बुराइयों से दूर कर धर्म के मार्ग पर लाएं| सम्बत १९३६ में महर्षि दयानंद सरस्वती बरेली पधारे तो नानकचन्द भी अपने पुत्र मुंशीराम को आग्रहपूर्वक साथ लेकर स्वामी दयानन्द का प्रवचन सुनने पहुंचे। उनके उपदेशो को सुनकर मुंशीराम प्रभावित ही नहीं हुए बल्कि उनके प्रति श्रद्धा भाव उत्पन्न हो गया| स्वामी दयानन्द जी के तर्कों और आशीर्वाद ने मुंशीराम को दृढ़ ईश्वर विश्वासी तथा वैदिक धर्म का अनन्य भक्त बना दिया और वे आर्यसमाज के निकट आ गए| स्वामी दयानंद सरस्वती के साथ बरेली में हुए सत्संग ने उन्हें जीवन का अनमोल आनंद दिया, जिसे उन्होंने सारे संसार को वितरित किया।

अपनी जीवन गाथा कल्याण मार्ग का पथिक में उन्होंने लिखा था- ऋषिवर! तुम्हें भौतिक शरीर त्यागे 41 वर्श हो चुके, परंतु तुम्हारी दिव्य मूर्ति मेरे हृदय पटपर अब तक ज्यों-की-त्यों है। मेरे निर्बल हृदय के अतिरिक्त कौन मरणधर्मा मनुष्‍य जान सकता है कि कितनी बार गिरते-गिरते तुम्हारे स्मरणमात्र ने मेरी आत्मिक रक्षा की है। तुमने कितनी गिरी हुई आत्माओं की काया पलट दी, इसकी गणना कौन मनुष्‍य कर सकता है? परमात्मा के बिना, जिनकी पवित्र गोद में तुम इस समय विचर रहे हो, कौन कह सकता है कि तुम्हारे उपदेशों से निकली हुई अग्नि ने संसार में प्रचलित कितने पापों को दग्ध कर दिया है। परंतु अपने विषय में मैं कह सकता हूं कि तुम्हारे सत्संग ने मुझे कैसी गिरी हुई अवस्था से उठाकर सच्चा लाभ करने के योग्य बनाया।’’ मुंशी राम से स्वामी श्रद्धानन्द बनाने तक का उनका सफ़र पूरे विश्व के लिए प्रेरणादायी है। स्वामी दयानंद सरस्वती से हुई एक भेंट और पत्नी शिवादेवी के पतिव्रत धर्म तथा निश्छल निष्कपट प्रेम व सेवा भाव ने उनके जीवन को क्या से क्या बना दिया।

वकालत के साथ आर्य समाज के जालंधर जिला अध्यक्ष के पद से उनका सार्बजनिक जीवन प्रारम्भ हुया| महर्षि दयानंद के महाप्रयाण के बाद उन्होने स्वयं को स्वदेश, स्व-संस्कृति, स्व-समाज, स्व-भाषा, स्व-शिक्षा, नारी कल्याण, दलितोत्थान, स्वदेशी प्रचार, वेदोत्थान, पाखंड खडंन, अंधविश्‍वास उन्मूलन और धर्मोत्थान के कार्यों को आगे बढ़ाने मे पूर्णत समर्पित कर दिया। गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना, अछूतोद्धार, शुद्धि, सद्धर्म प्रचार पत्रिका द्वारा धर्म प्रचार, सत्य धर्म के आधार पर साहित्य रचना, वेद पढने व पढ़ाने की ब्यवस्था करना, धर्म के पथ पर अडिग रहना, आर्य भाषा के प्रचार तथा उसे जीवीकोपार्जन की भाषा बनाने का सफल प्रयास, आर्य जाति के उन्नति के लिए हर प्रकार से प्रयास करना आदि ऐसे कार्य हैं जिनके फलस्वरुप स्वामी श्रद्धानंद अनंत काल के लिए अमर हो गए|

उन्होने गुरुकुल प्रारंभ करके देश में पुनः वैदिक शिक्षा को प्रारंभ कर महर्षि दयानंद द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार किया व उन्हें कार्यरूप में परिणित किया और उनके जरिए देश, समाज और स्वाधीनता के कार्यों को आगे बढ़ाने का युगांतरकारी कार्य किए। शुद्धि आंदोलन के जरिए विधर्मी जनों को आर्य(हिंदू) बनाने के लिए आंदोलन चलाए। दलितों की भलाई के कार्य को निडर होकर आगे बढ़ाया, साथ ही कांगेस के स्वाधीनता के आंदोलन का बढ़-चढ़कर नेतृत्व भी किया।कांग्रेस में उन्होंने 1919 से लेकर 1922 तक सक्रिय रूप से अपनी महत्त्वपूर्ण भागीदारी की। 1922 में अंग्रेजी सरकार ने गिरफ्तार किया, लेकिन उनकी गिरफ्तारी कांग्रेस के नेता होने की वजह से नहीं हुई बल्कि सिक्खों के धार्मिक अधिकारों की रक्षा के लिए सत्याग्रह करते हुए बंदी हुए थे। कांगेस में तुष्टीकरण के महात्मा गांधी के विचारों से मतभेद होने की वजह से उन्होंने त्यागपत्र दिया था। लेकिन देश की स्वतंत्रता के लिए कार्य वे लगातार करते रहे। हिंदू-मुसलिम एकता के लिए स्वामी जी ने जितना कार्य किए, उस वक्त शायद ही किसी ने अपनी जान जोखिम में डालकर किया हो। वे ऐसे महान युगचेता महापुरुष थे जिन्होंने युग की धड़कन को पहचानकर समाज के हर वर्ग में जनचेतना जगाने का कार्य किया। धर्म के सही स्वरूप को महर्षि दयानंद ने जनता में जो स्थापित किया था, स्वामी श्रद्धानंद ने उसे आगे बढ़ाने का निडरता के साथ कदम बढ़ाया।

महर्षि दयानंद ने राष्ट्र सेवा का मूलमंत्र लेकर आर्य समाज की स्थापना की। कहा कि ‘ हमें और आपको उचित है कि जिस देश के पदार्थों से अपना शरीर बना, अब भी पालन होता है, आगे होगा, उसकी उन्नति तन मन धन से सब जने मिलकर प्रीति से करें ‘ । स्वामी श्रद्धानन्द ने इसी को अपने जीवन मूलाधार बनाया। समाज सुधारक के रूप में उनके जीवन का अवलोकन करें तो पाते हैं कि उन्होंने प्रबल विरोध के बावजूद स्त्री शिक्षा के लिए अग्रणी भूमिका निभाई। स्वयं की बेटी अमृत कला को जब उन्होंने ‘ ईस-ईसा बोल, तेरा क्या लगेगा मोल ‘ गाते सुना तो घर – घर जाकर चंदा इकट्ठा कर गुरुकुल कांगडी विश्वविद्यालय की स्थापना हरिद्वार में कर अपने बेटे हरीश्चंद्र और इंद्र को सबसे पहले भर्ती करवाया। स्वामी जी का विचार था कि जिस समाज और देश में शिक्षक स्वयं चरित्रवान नहीं होते उसकी दशा अच्छी हो ही नहीं सकती। उनका कहना था कि हमारे यहां टीचर हैं, प्रोफ़ेसर हैं, प्रिसिंपल हैं, उस्ताद हैं, मौलवी हैं पर आचार्य नहीं हैं। आचार्य अर्थात् आचारवान व्यक्ति की महती आवश्यकता है। चरित्रवान व्यक्तियों के अभाव में महान से महान व धनवान से धनवान राष्ट्र भी समाप्त हो जाते हैं।

जात-पात व ऊंच-नीच के भेदभाव को मिटाकर समग्र समाज के कल्याण के लिए उन्होंने अनेक कार्य किए। प्रबल सामाजिक विरोधों के बावजूद अपनी बेटी अमृत कला, बेटे हरिश्चद्र व इंद्र का विवाह जात-पात के समस्त बंधनों को तोड कर कराया। उनका विचार था कि छुआछूत को लेकर इस देश में अनेक जटिलताओं ने जन्म लिया है तथा वैदिक वर्ण व्यवस्था के द्वारा ही इसका अंत कर अछूतोद्धार संभव है।

वह हिन्दी को राष्ट्र भाषा और देवनागरी को राष्ट्रलिपि के रूप में अपनाने के पक्षधर थे। सतधर्म प्रचारक नामक पत्र उन दिनों उर्दू में छपता था। एक दिन अचानक ग्राहकों के पास जब यह पत्र हिंदी में पहुंचा तो सभी दंग रह गए क्योंकि उन दिनों उर्दू का ही चलन था। त्याग व अटूट संकल्प के धनी स्वामी श्रद्धानन्द ने यह घोषणा की कि जब तक गुरुकुल के लिए 30 हजार रुपए इकट्ठे नहीं हो जाते तब तक वह घर में पैर नहीं रखेंगे। इसके बाद उन्होंने भिक्षा की झोली डाल कर न सिर्फ़ घर-घर घूम 40 हजार रुपये इकट्ठे किए बल्कि वहीं डेरा डाल कर अपना पूरा पुस्तकालय, प्रिंटिंग प्रेस और जालंधर स्थित कोठी भी गुरुकुल पर न्योछावर कर दी।

उनका सर्बाधिक महानतम कार्य था, वह शुद्धि सभाओं का गठन| उनका विचार था कि अज्ञान, स्वार्थ व प्रलोभन के कारण धर्मांतरण कर बिछुड़े स्वजनों की शुद्धि करना देश को मजबूत करने के लिए परम आवश्यक है, इसलिये जहाँ-जहाँ आर्य समाज थे, वहाँ-वहाँ शुद्धि सभाओं का गठन कराया गया और धीरे धीरे शुद्धि के इस प्रयास ने आन्दोलन का रूप ले लिया| स्वामी जी ने पश्चिम उत्तर प्रदेश के 89 गांवों के हिन्दू से हुए मुसलमानों को पुनः हिन्दू धर्म में शामिल कर आदि गुरु शंकराचार्य के द्वारा शुरू की परंपरा को पुनर्जीवित किया और समाज में यह विश्वास उत्पन्न किया की जो विधर्मी हो गए हैं, वे सभी वापस अपने हिन्दू धर्म में आ सकते हैं| देश में हिन्दू धर्म में वापसी के वातावरण बनने से इस तरह के प्रयासों की एक लहर सी आ गयी| एक बार शुद्धि सभा के प्रधान को उन्होंने पत्र लिख कर कहा कि ‘ अब तो यही इच्छा है कि दूसरा शरीर धारण कर शुद्धि के अधूरे काम को पूरा करूं ‘| उन्होने भारतीय हिंदू शुद्धि सभा की स्थापना कर दो लाख से अधिक मलकानों को शुद्ध किया और यही उनके लिये घातक सिद्ध हो गया| कुछ कट्टरपंथी मुसलमान इनके शुद्धिकरण के कार्य के खिलाफ हो गए थे और उनके बनाये दूषित माहौल के चलते एक धर्मांध मुस्लिम युवक अब्दुल रशीद ने छल से 23 दिसम्बर, 1926 को चांदनी चौक दिल्ली में गोलियों से भूनकर हत्या कर दी। इस तरह धर्म, देष, संस्कृति, शिक्षा और दलितोत्थान का यह युगधर्मी महामानव मानवता के लिए शहीद हो गया।

वह निराले वीर थे। लौह पुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल ने कहा था ‘ स्वामी श्रद्धानन्द की याद आते ही 1919 का दृश्य आंखों के आगे आ जाता है। सिपाही फ़ायर करने की तैयारी में हैं। स्वामी जी छाती खोल कर आगे आते हैं और कहते हैं- ‘ लो, चलाओ गोलियां ‘ । इस वीरता पर कौन मुग्ध नहीं होगा? ‘ महात्मा गांधी के अनुसार ‘ वह वीर सैनिक थे। वीर सैनिक रोग शैय्या पर नहीं, परंतु रणांगण में मरना पसंद करते हैं। वह वीर के समान जीये तथा वीर के समान मरे ‘ ।

राष्ट्र धर्म को बढ़ाने के लिए वे चाहते थे कि प्रत्येक नगर में एक ‘ हिंदू-राष्ट्र मंदिर ‘ होना चाहिए जिसमें 25 हजार व्यक्ति एक साथ बैठ सकें और वहां वेद, उपनिषद, गीता, रामायण, महाभारत आदि की कथा हुआ करे। मंदिर में अखाड़े भी हों जहां व्यायाम के द्वारा शारीरिक शक्ति भी बढ़ाई जाए। प्रत्येक हिन्दू राष्ट्र मंदिर पर गायत्री मंत्र भी अंकित हो।

देश की अनेक समस्याओं तथा हिंदोद्धार हेतु उनकी एक पुस्तक ‘ हिंदू सॉलिडेरिटी-सेवियर ओफ़ डाइंग रेस ‘अर्थात् ‘ हिंदू संगठन – मरणोन्मुख जाति का रक्षक ‘ आज भी हमारा मार्गदर्शन कर रही है। राजनीतिज्ञों के बारे में स्वामी जी का मत था कि भारत को सेवकों की आवश्यकता है लीडरों की नहीं। श्री राम का कार्य इसीलिए सफ़ल हुआ क्योंकि उन्हें हनुमान जैसा सेवक मिला। स्वामी दयानन्द का कार्य अधूरा पड़ा है जो तभी पूरा होगा जब दयानन्द रूपी राम को भी हनुमान जैसे सेवक मिलेंगे। वह सच्चे अर्थों में स्वामी दयानन्द के हनुमान थे जो राष्ट्र की सेवा के लिए तिल-तिल कर जले। महर्षि दयानन्द के इस अपूर्व सेनानी को शत शत नमन एवम् विनम्र श्रद्धांजलि|

~ लेखक : विशाल अग्रवाल
~ चित्र : माधुरी

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