स्वस्ति का अर्थ शुभ तथा कल्याण कर होता है । स्वस्ति रास्तों पर मानव को चलना चाहिए । स्वस्ति रास्तों पर मानव कैसे चल सकता है ? क्या शुभ रास्तों पर चलने का कोई रास्ता है ? कोई उदाहरण है ? बिल्कुल व्यवहारिक रास्ता है । वह है सूर्य और चन्द्रमा के समान, सूर्य और चन्द्रमा (1) नियमबद्ध चलते हैं। (2) सतत चलते हैं । (3) ज्योतित हैं । (4) सन्ध्या समय भी दिवस रात्रिवत उत्पन्न करते हैं । (5) ये समय आयोजन का आधारभूत सत्य हैं । (6) सूर्य की, प्रकृति उग्र है चन्द्रमा की प्रकृति सौम्य है । (7) सूर्य आग्नेय पुरुष का और चन्द्रमा सोम पुरुष का प्रतीक है । (8) ”स्वस्ति पया मनु चरेम सूर्याचन्द्रमा सातिव मानव चलो शुभ कल्याणकारक पथ पर जैसा सूर्य तथा चन्द्रमा दोनों चलते हैं वैसा ही चलो । इस मंत्र का अगला चरण है ”पुर्नददाघृता जानता संगमेमहि“। (8) चन्द्रमा कलाओं में परिवर्तित होता है । (9) सूर्य चन्द्र हमारे श्वास स्वर भी है इसके समान ही पुनः पुनः हम सब मिलकर चलें ।
आज का युग तनाव का युग है । हृदय के प्रसिद्ध डाक्टर जो नियमित कसरत करते ही रहे, नियमित हल्का चर्बी रहित भोजन करते रहे – लंदन के डाक्टर लोग स्वयं ही हृदय रोग का शिकार हो गये । उनकी सोच में परिवर्तन आया कि मात्र दवा, स्वस्थ भोजन तथा नियमित कसरत मानव स्वस्थता के लिए पर्याप्त नहीं है । इसके साथ मानसिक, सामाजिक आध्यात्मिक सौम्यता भी आवश्यक हैं, अर्थात् शुभ तथा कल्याण पथ की आवश्यक है ।
सूर्य और चन्द्रमा अंगीरस भी है । अंगों में रस उत्पन्न कर्ता की अंगीरस कहते हैं । तीन स्वर हैं, स्वर का अर्थ है, श्वास = प्रश्वास-तथा संयुक्त, श्वास प्रशवास संयुक्त का आधार है, सूर्य स्वर, चन्द्र स्वर, सूर्य चन्द्र सह स्वर या पिंगला स्वर, ईड़ा स्वर सुषन्मा स्वर । ये स्वर सूर्योदय अमावस्या पूर्णिमा की प्राकृतिक संधियों के आधार पर परिवर्तित होते हैं । पिंगला स्वर कठिन श्रम तथा कार्यों हेतु, ईड़ा स्वर सौम्य कार्यों हेतु तथा सुषुम्ण स्वर आध्यात्मिक कार्यों हेतु, नियम है, सन्ध्या कालों सुषुम्न स्वर प्रबल रहता है । इन्हें पूर्व ब्रह्म पश्चिम ब्रह्म काल कहा जा सकता है । ये साधना काल हैं । इन कालों में इक्कीस मिनट से अधिक समय तक अति आत्म साधना एवं स्वास्थ्य संस्थान पर सर्वांगणीय स्वस्थ प्रभाव टंकित कर हृदयाघात तथा अनेकानेक रोगों से दूर कर देती है । यह स्वस्ति पंथा मनु चरेम सूर्याचन्द्रमुसांतिव का एक व्यवहारिक उदाहरण है ।
आज भारत के कुछ अभियंता तनाव मुक्ति हेतु सूर्योंदय से लेकर साढे सत्तावन मिनट बाद पांच मिनट की साधना सुषुम्ण स्वर काल में करके तनाव मुक्ति सहजतः प्राप्त कर रहे हैं तथा अपनी कार्यक्षमताऐं भी बढ़ा रहे हैं ।
इस साधना का सरलतम प्रारूप इस प्रकार है:
(1) आसनम – जिस भी स्थिति में हों तनिक स्थिरमति हों ।
(2) श्वसनम – तीन बार सांस की आती जाति गति को देखना तथा अगाओ भाव करना ।
(3) चेतना विस्तरण – हृदय गहन गुहा में अगाओ अगाओ अगाओ अगाओ अगाओ अगाओ अगाओ सप्त बार गुंजन बार गुंजन भावना ।
(4) श्वसनम्
सूर्य चन्द्र के समान कार्य साधना का प्रारूप यह है कि दायीं नासिका चलते कठिन कार्यों का विधान करें । बायीं नासिका चलते समय सौम्य कर्मो का विधान करें। दोनों चलते समय अध्यात्मक कर्मों का विधान करें ।
स्वस्ति पन्धा मनु चरेम – का एक दूसरा विचार सिद्धान्त पक्ष भी है, वह है त्रुटिकरण अर्थात अधमर्षण, अध कहते हैं घटिया को, त्रुटि को या पाप को, मर्षण कहते हैं मथ मथ करके सूक्ष्म या कम करते नष्ट कर देने को या परिवर्तित कर देने को । सूर्य और चन्द्र के ब्रह्म धारण के नियम तप, श्रम, ऋत, सत्य हैं ।
श्रम नियम: मेहनत नहीं करोगे तो मेहनत का हक ही तुमसे छीन लिया जायेगा । यह परमात्मा का देवस्य काव्य शरीर नियम है । जो मेहनत नहीं करते उच्च रक्तदाब (बी.पी.) हो जाता है । जिन्हें बी.पी. हो जाता है खून में कोलेस्ट्रोल बढ जाता है । वे तनिक मेहनत से थक जाते हैं । डाक्टर उन्हें सलाह देते हैं मेहनत करो । आदमी सलाह मान घूमने लगता है, रोज पांच किलोमीटर निरर्थ घूमता है । मूर्ख आदमी सौदा सब्जी लेने स्कूटर से जाता है, ऊँची मंजिल लिफ्ट से चढ़ता उतरता है और पांच किलोमीटर निरर्थ चलकर श्रम करता है । बाहर कार, स्कूटर इसकी शान हैं, घर में इसने निरर्थ दौड़ यंत्र, बैल कर्मक यंत्र, दाब आदि लगा रखे हैं । महिलाएं निरर्थ दौड़ती हैं – हाथ दाब, बैल कर्मक यंत्रों का प्रयोग करती हैं और आटोमैटिक वाशिंग मशीन कपड़े धोती है, मशीन से ही बेलतीं, आटा गुंधती हैं।
हंसी भी क्या चीज है,
मूर्खता ही इसका बीज है ।
मानव स्वस्ति पन्था मनु चरेम… हो, सहज श्रम जीवन की ओर लौट, डाल तक पहुंचने पर फल मिलते हैं, पसीने से राह पर्वत पिघलते हैं चलने वाले का भाग्य चलता है, पसीना तन नमक घटाता है रक्त चाप कम करता है । कल विज्ञान सिद्ध करेगा कि स्व पसीने की महक के एंजाईम (किण्व) सूक्ष्म स्तर मानव शक्ति कृत करते हैं ।
मशीनें जो सब्जियां काटती हैं, आटा गूंथती हैं, सलाद काटती हैं, मानव श्रम लाभ या हानि तो करती ही हैं – महक इन्जाईम हानि भी करती है । आण्विक संरचना की तन्तु व्यवस्था (स्ट्रिंग सिद्धान्त) की उपज है । महक अति सूक्ष्म धरातल मानव परिशुद्ध शक्तिकृ करती हैं । सूर्य चन्द्र सतत चलते श्रम करते हैं । मानव तू भी चल, नियम: ऋत श्रृत द्वन्दों का सहन करना तप है, ऋत द्वन्द है, दिनरात, गर्मी-सर्दी, बारिश-धूप, इड़ा पिंगला, आदि
श्रृत द्वन्द हैं – सुख दुख, हानि लाभ, मित्रता – अमित्रता, मानवता – दानवत्व, सच झूठ, त्याग लालच, प्रेम-घृणा आदि ।
द्वंद सहन तप है । द्वन्द मानव को बड़ा करते हैं उसकी सीमा की अभिवृद्धि करते हैं । मानव क्षमता वृद्धि करते हैं ।
तपतपा आदमी ब्रह्म निखार पाता है । योग का पहला चरण ”स्थिर सुखमं आसनम“पर आधारित है । ऋतु संधियों अनुरूप नियमबद्ध कर्म तप है, सिद्धान्तों का व्यवहार की प्रयोगशाला में प्रयोग अनुभव तप है, ध््राुव प्रहलाद तप सिद्ध सार्थक थे, पिसनहारी की भड़िया (जबलपुर) तप स्मारक है, अध्यात्म सत्य धुन का नाम है तप ।
”तपहना“कभी भी शाश्वत सुख को प्राप्त नहीं होता है । ताड़कासुर ने छः ऋतुओं पर कब्जा कर लिया था । हवाओं को गुलाम बना लिया था । जंगलों को कमरा बंद कर दिया था । वह धरती के लिए घातक पातक अमंगलसूचक दैत्य था । पंखा, फ्रिज, वातानुकूलन व्यवस्था तारकासुरी अस्त्र शस्त्र है । मान तथा धरा को क्षतविक्षत करने के मानव बड़ी कीमत चुका इनसे छोटे लाभ ले रहा है । ये सब निहित सुख लालसा का स्वार्थ है ।
अघमर्षण: इसके दो रूप हैं:
(1) भौतिक (अ) शारीरिक (ब) प्राकृतिक
(2) नैतिक (अ) योग (ब) प्रायश्चित (स) तप
(1) भौतिक (अ) शारीरिक: शारीरिक अध है मम, न मम का सरल अर्थ है जो मेरा नहीं है, आत्मा, अर्थ, मेघा, प्रज्ञा, बुद्धि, चिद्ज्ञान, मन, ज्ञानेन्द्रियां, शरीर यह संपूर्ण है जीवात्मा, शरीर को जीवित रखने अन्न, वायु, जल, प्रकाश, आकाश, धरा का सेवन, प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष करता है आदमी । इन भौतिकों के ग्रहण में दो भाग होते हैं । एक ग्रहणीत तथा दो अग्रहीत, ग्रहणीत हैं मम अग्रहणीत है न मम, अग्रहणीत का निष्कासन है जरूरी है, अग्रहणीत का तन में रह जाना है ”न मम“रोग, सारे रोगों की जड़ यह ”न मम“है, इन ”न मम“का मर्षण जीवात्मा प्राकृतिक करता है व मर्षण पश्चात इसका निष्कासन वायु, उपायु (गुदा शिश्न), अति उपायु (त्वक छिद्र), श्वसन घर्षण द्वारा होता है ।
वातानुकूलन, कृत्रिम हवा, असूर्यावस्था, वेदहवा अमर्षण, अति न मम ग्रहण मर्षण तथा निष्कासन को दुष्प्रभावित करते हैं या ये सब अधरोधक हैं तन पाप या तन अध या तन त्रुटि कारक हैं ।
तन में ”अघ निष्कासन“व्यवस्था भी सदुपयोग व्यवस्था है, अति उपायु या त्वक छिद्रों से श्वेद निष्कासन अति उत्कृष्ट सम आवश्यकतानुसार तन शीतलन अध निष्कासन दोनों हैं । पंखों तथा वातानुकूलन इस व्यवस्था तथा व्यवस्था सुख का आहतीकरण है । यह तारकासुरी अद्य व्यवस्था होता है । मद्धिम जहर है जो आदमी को क्रमशः ”अघसना“बड़ा धीरे धीरे करता जाता है । तन में कई नमक हैं । अतिरिक्त नमक, अतिरिक्त शक्कर, अतिरिक्त खाद्य पदार्थ, अतिरिक्त भाप, अतिरिक्त जल, अतिरिक्त वायु (विशेषतः अपान, व्यानादि), मृत कोशिकाएं, आदि, इनका तन में एकत्रित हो जाना ”अध सना“होता है । शरीर को नमम सना होना मृत्यु की ओर कदम है ।
प्राकृतिक अघमर्षण: सूर्य प्रकाश आदमी के लिए लाभप्रद है । अन्य सारे बल्ब प्रकाश, ट्यूब लाइट प्रकाश, नियान बल्ब प्रकाश आदि सूर्य प्रकाश से घटकर हैं । सूर्य प्रकाश सूक्ष्म धरातल पर अधमर्षण हैं । कर्म प्रेरक है:
सूर्य ज्योति है, ज्योति सूर्य है,
सूर्य है, ज्योति है,
आइए इसे हम स्व अर्पित करें । इस ज्योति में स्नान करें । सारा शिक्षित वर्ग जानता है सूर्य ज्योति विटामिन ”डी“हड्डियों की हरितिमा का आधार सत्य है । सारा विश्व जानता है कि हड्डियों के मध्य अति जैव द्रव्य (बोन मारो) भरा है । बोन मारो रक्त कण निसृत करता स्त्रोत है, स्व स्वास्थ्य केन्द्र – अनाहत केन्द्र – रक्तकण उत्सर्ग केन्द्र हृदय के आस पास हैं ।
कृत्रिम प्रकाश में लगातार रहने वाले ध्रुव प्रदेशी लोगों में पाया गया है कि वे बौदे हो जाते हैं चिड़चिड़े हो जाते हैं – स्पष्ट कारण है असूर्यप्रकाशावस्था हड्डियाँ बोन मारो स्व स्वास्थ्य संस्थान व्यवस्था को धूमिल करती है । आदमी तरोताजा नहीं रहता है । सुमानस नहीं रहता – स्व आधार से कट जाता है ।
यही कारण है कि विश्व के सारे राजनेता, प्रधानमन्त्री, राष्ट्रपति तथा बड़े संस्थानों के चेयरमैन, एम.डी. आदि ”बोदों“के समान व्यवहार करते हैं तथा कृत्रिम ताजगी के लिए शराब पीते हैं, ये सब कृत्रिम प्रकाश से बाहर निकलते हैं तो कार ”असूर्य“में कैद हो जाते हैं ।
अघमर्षण है जल, अधमर्षण प्राकृतिक औषध, अनाज तथा वनस्पति रस, अधमर्षण है अंतरिक्ष और वायु, वायु प्राण के साथ जाता है । औषजन तन का अध कार्बन, भाप, दुर्गंध संचित करता है, प्रश्वास, डकार, उबासी, अपान के माध्यम से अधमर्षण प्रक्रिया पश्चात निकालता है, शक्ति उत्सर्जन भी करता है ।
प्राकृतिक अघमर्षण का रूप ब्रह्म के प्रकृति नियमों के अनुरूप स्वमार्जन भी है ।
नैतिक अघमर्षण: (अ) भोग: एक पक्षी प्रति दिवस पांच बजकर सैंतीस मिनट पर बिना नागा मेरी खिड़की के पास महीनों से बोलता है । एक दिवस प्रातः मैं उठा, घड़ी में सवा चार बजे थे तब वो पक्षी खिड़की के पास उसी स्वर में बोला – मैं चौंक गया, आज पक्षी से भूल कैसे हो गयी ? कहीं उसका स्वास्थ्य गड़बड़ तो नहीं है ? कहीं किसी बाज, गिद्ध, चील आदि ने उसे तंग तो नहीं किया है ? मैं आशंका में पड़ गया । मेरे घर की खिड़की हीं नहीं वही पक्षी अपने आधिपत्य क्षेत्र के कई कोनों पर जाकर रोज ठीक उसी समय आधिपत्य आवाज लगाता था । एक दिवस व्यतिक्रम क्यों ? मैं सोचता राह । अस्तु मेरा लिखना समाप्त हुआ। निचित सुदेशजी उठे । मैंने उन्हें पक्षी वाली बात बताई । निचित ने कहा – भइया पक्षी गलत नहीं था । असल में तो घड़ी ही पीछे चल रही है, उसका सेल कमजोर हो गया है ।
सारे सरकारी कर्मचारी जानते हैं, सारे उत्तरदायी जाते हैं कि ठीक समय कार्यालय पहुंचना, मीटिंग में पहुंचना कितना कठिन तप साध्य कार्य है । भोग योनि पक्षी को अधरहित करने बांध दिया गया है समय से। मानव श्रेष्ठ है पक्षी से, समय बाध्य नहीं है – समय उच्च या समय निम्न हो सकता है । ऋत संवत्स प्रबंधन में मानव श्रृत भाव जोड़ उसे और श्रेष्ठ कर सकता है तभी तो मानव को संदेश है सूर्य चन्द्रवत स्वस्ति पंथ चलो । शून्यत्रुटि बनो ।
प्रायश्चित्त अघमर्षण: स्वेच्छया त्रुटिफल भोगने के बाद उस त्रुटि को जीवन में न करने का संकल्प प्रायश्चित है । वेद न्याय के अनुरूप स्व निम्न कर्म का स्वयं को दंड दे कर्म फल क्षय करना प्रायाश्चित है। वेदज्ञता ज्ञान तक ही मानव को यह दर्शन समझ आ सकता है ।
स्वस्ति पथ है, मानव द्वारा प्राकृतिक और नैतिक नियमों का पालन ”ज्ञा“धातु में प्र लगने से बनता है प्रज्ञा । ”ज्ञा“का अर्थ ”अवबोधना“होता है । प्रकृष्टम रूप में चराचर जगत का ऋत स्वस्थ जानना प्रज्ञा को ऋता करना है । ऋता पथ स्वस्ति पथ है । ऋत का एक संदर्भ ऋतु रक्षित, समस्त अतीत रक्षित, समस्त भविष्य रक्षित, वर्तमान में सुकर्मित मृत्यु पार, त्रुटि पार, चतुर्वेदी वेदधारा में कर्म हाथों तैरता है, वेद स्वस्ति पंथा काप्रांजल रूप देता है ।
”अवबोधना“का धारण स्थल मेधा है, ऋत सूक्ष्म श्रुत है । हित ही हित धारण करना मेधा है ।
यह अति उच्च नैतिक नियम समूह है, मेधा, श्रृतम भरा, मानव को प्रिय मेधास कर देती है । श्रृतंभरा मेधा युक्त नैतिक व्यक्ति ”प्रिय मेधास“है । अव्याहती उच्च स्वस्ति पन्थ है यह । यह प्रबंधक सटीक सही हर बार सर्वहित सकारात्मक शुभ ही शुभ होता है । ऋतंभरा प्रज्ञा व्यक्ति विमल होता है । ऋतंभरा मेधा व्यक्ति उज्जवल होता है । विमलता त्रुटि हीनता है । उज्जवलता ब्रह्म गुण भरता है । ऋताबः होना आवश्यक नहीं है पर श्रृतास का श्रृतास होना आवश्यक है ।
”स्वस्ति पंथा“, प्रबंधन का अत्यन्त रस सहजतः सर्व शक्तिमय ब्रह्म प्रबंधन है ।
स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)