स्वभाव प्रबन्धन

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‘स्व’ के मूल ‘भाव’ को ‘स्वभाव’ कहते हैं। विश्व के सारे प्रबन्धनों का उद्देश्य है ”स्व-भाव“ परिवर्तन। प्रबन्धन में लक्ष्य परिवर्तन आयोजन परिवर्तन कर देता है। अतः खांचे ढला आदमी कार्योपयुक्त नहीं रह जाता है। इसलिए स्वभाव परिवर्तन आवष्यक होता है। स्वभाव परिवर्तन के दो प्रकार अनुभव में देखे जाते हैं। 1. त्वरित या सहसा, 2. क्रमशः या धीरे धीरे।

त्वरित या सहसा के इतिहास प्रसिद्ध उदाहरण वाल्मीकि, अंगुलीमाल, तुलसीदास, अमीचन्द, सम्राट अशोक, श्रद्धानन्द आदि हैं। इनमें त्वरित परिवर्तन हुए और इनके जीवन 1800 विपरित परिवर्तित हो गए। संस्कृति इनका कारण संस्कार स्वरूप सहसा उन्मेष मानती है। वर्तमान विज्ञान को इसके मनोवैज्ञानिक कारण ढूँढने होंगे।

शरीर विज्ञान क्षेत्र में यह जरूर पाया गया है कि मानव के मस्तिष्क क्षेत्र के मौन क्षेत्र- माथे के क्षेत्र में अचानक तीव्र जख्म होने पर (दुर्घटनाओं से) मानव का स्वभाव विपरित क्रम में परिवर्तित हो जाता है। कुछ तन्त्रिकाओं के कृत्रिम उद्वेलन से अस्थाई स्वभाव परिवर्तन पाया गया है।

हृदय प्रत्यारोपणादि शल्यक्रिया पश्चात व्यक्ति के स्वभाव में परिवर्तन के प्रमाण अभी तक नहीं मिले हैं। सहसा स्वभाव परिवर्तन के वाल्मीकि, अंगुलिमाल, तुलसीदास, अशोक, श्रद्धानन्द, अमीचन्द आदि के उदाहरण हैं। ये सब सहसा विचाराघात या वैचारिक दुर्घटना के उन्मेषकारी प्रभाव हैं। वैचारिक उन्मेष द्वारा मैं कई व्यक्तियों से सिगरेट, तम्बाखू सम्बन्धी स्वभाव परिवर्तन कराने में सफल रहा हूँ।

स्वभाव परिवर्तन पर भक्तिकालीन सन्तों की राय है कि यह परिवर्तित नहीं होता है। उत्तम प्रकृति का कुसंग कुछ नहीं कर सकता। जैसे जल का स्वभाव नहीं बदलता, वह नीचे ही बहता है वैसे ही मनुष्य का स्वभाव नहीं बदलता। कुत्ता गर्दन तक पानी डूबा होने पर भी जीभ से चाट चाट कर पानी पीता है। गोपियों के प्रसंग में सूरदास ने गोपियों से कहलवाया है ”विष का कीडा विष ही खात या जहाज का पंछी (मन) जहाज पे ही लौट आता है।

क्रमशः स्वभाव परिवर्तन के भी कई उदाहरण हैं। गौतम बुद्ध, दयानन्द, नानक, कबीर, रविन्द्रनाथ ठाकुर आदि। क्रमशः स्वभाव परिवर्तन में विद्या (श्रुत, पठित या लिखित) का सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान रहता है। क्रमशः स्वभाव परिवर्तन एक मद्धिम जीवनभर चलनेवाली प्रक्रिया है।

स्वभाव परिवर्तन प्रबन्धन एक अतिकठिन प्रक्रिया है। प्रजातन्त्र व्यवस्था में तो यह और भी जटिल कठिन हो गई है कि हर कोई कहता है- अपनी अपनी जगह सब ठीक है। यानी कि हाथी हाथी नहीं है; सूप, रस्सी, दीवाल, खम्भा आदि है।

स्वभाव सम्बन्धी मनोभावों की लम्बी शृङ्खला इस प्रकार है- स्वभाव → विपाक (संस्कार) → विचार → आदत → मनोवृत्ति → प्रवृत्ति → रुचि → व्यवहार। उपरोक्त शृङ्खला से ”आदत द्वितीय स्वभाव है“ का अर्थ स्पष्ट हो जाता है।

इमॅन्युएल काण्ट की आदतें थीं सुबह निश्चित समय उठना, काफी पीनी, विशिष्ट मार्ग से विशिष्ट समयानुसार टहलना। विशिष्ट समय पढ़ना यह उसका स्वभाव नहीं था। उसका स्वभाव था अद्वैत। स्वभाव विचार के निकट होता है। स्वभाव आत्म के निकट अव्यक्तावस्था में होता है।

विचार → आदत → मनोवृत्ति → प्रवृत्ति → रुचि → व्यवहार में उत्तरोत्तर सम्बन्ध है। उपरुचि को अभिरुचि भी कहते हैं। आकस्मिक स्वभाव परिवर्तन विचार अतितीव्र प्रकम्पनों द्वारा संस्कार जागृति द्वारा होता है। शब्द विचारों का वाहक है। आकस्मिक स्वभाव परिवर्तन में शब्दों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है।

स्वभाव यदि व्यक्तिविशेष के सन्दर्भ में न देखा जाए तो आनन्द भाव को कहते हैं। परमात्मा आनन्द परिपूर्ण है। परमात्मा भाव आत्मा का स्वभाव है। यह स्वभाव का आदर्षतम प्रारूप है। इस प्रारूप से क्रमशः निकटतम, निकटतर, निकट; दूर, दूरतर, दूरतम कई प्रारूप स्वभाव के हैं। स्वभाव प्रबन्धन का उद्देष्य स्व खुद का हर कार्य करने में आनन्द भाव हो जाना है। हर कार्य में आनन्दावस्था उस समय में प्राप्त होता है जब हर कार्य मात्र श्रेष्ठ ही श्रेष्ठ मानकों के अनुरूप होता चला जाए। वेद उपनिषदादि के अंश, कुरान के अंश, बाइबिल के अंश, बौद्ध जैन ग्रन्थों के अंश, (अंश जो सुबीज हैं) मूलतः बीज मानक हैं। इनके अनुरूप कार्य करना, कार्य करने में आनन्द भाव हो जाना या मूल भाव प्राप्त करना है।

यथार्थ में कार्य में आनन्द आह्लाद आना दूसरे को कार्य में आनन्द आह्लाद का अहसास कर कार्यानन्द द्वारा अधिक कार्य कराना स्वभाव प्रबन्धन है।

मेरी माताजी लाजवन्ती सखूजा स्वभाव प्रबन्धन दक्ष थीं। रूढ़ भजनों का आनन्द उन्होंने अपने अनथक कार्यों में पिरो लिया था। चुल्हा-चौका ने बेबिजली घर में बिना नौकरानी बीस लीटर कुण्डी में दही मथना, मक्खन निकालना, घी बनाना, खाना बनाना, पिन्नी बनाना, टिक्की बनाना, बर्तन मलना, झाडू-पोंछा करना, कपडे़ धोना-सुखाना, निवार बुनना, खेस बुनना, गेहूँ चुनना, गेहूँ धोना, गेहूँ पिसाना, अचार ड़ालना, नल (पहले कुआ था) चला पानी भरकर रखना… माताजी वास्तव में उन भजनों की आह्लाद सांस थीं जो वे गाती थीं। इस आह्लाद सांस से उत्पन्न उनका कार्य स्वभाव था जो कार्य प्रबन्धन का उच्च प्रारूप था। माताजी के एकछत्र राज्य में हमारे घर ने होटेल का मुह भी नहीं देखा था। और तो और डलडे और तेल ने भी घर का मुह नहीं देखा था। स्वभाव प्रबन्धन के अंष मैंने माताजी से ही प्राप्त किए हैं।

डोंगरगढ़ से बीस किलोमीटर दूर एक रानी गांव है। वहां हमारा कॅम्प लगा है। तीन परियोजनाओं में तीसरी है बांध परियोजना। बांध को आधारखण्डों में बांटने के लिए लम्बी लाइनें बांध में खींचनी हैं। आचार्य प्राध्यापक के साथ मैं बहुत दूर एक पेड़ का किनारा बांध में मध्य रेखा से नब्बे कोण पर चुनता हूँ। हाथ या आवाज से वहां किसी को सिग्नल देना सम्भव नहीं है। मैं आचार्य से कहता हूँ कि वे देखते रहें। मैं वहां रैजिंग रॉड लगा के आता हूँ। मै रैजिंग रॉड ले पानी कीचड़ सूखे बांध गीता डूबा दौड़ता हूँ। एक जगह मेरा एक पांव कीचड़ में ढाई फुट चला जाता है। अगला पैर रखा होता तो मेरा शायद कीचड़ में पता ही न चलता। योगासन स्वभाव ने मेरी रक्षा की। मैंने पैर खींच निकाला पर चप्पल वहीं रह गई। बडी मुष्किल हाथ डाल निकाली। फिर दौड़ना षुरु। मैं आंखों में जो पेड भरा था उसके पास पहुंचा। रैजिंग रॉड मैंने खुशी खुशी गढ़ा दी। फिर उल्टे पांव वापस दौड़ा खुशी भरा आह्लाद भरा दस किलोमीटर कुल दौड़ बांध पर थ्योडोलाइट के पास। मेरे पहुँचते ही आचार्य सर का झल्लाया स्वर मेरे कानों में पड़ता है- ”तुमने सब कबाडा कर दिया, गलत जगह रॉड लगा दी है।“

”ऐसा क्या? ठीक है सर“ मै बिना परेषानी के कहता हूँ ”मैं दुबारा चला जाऊंगा“
”क्या क्या कहा? दस किलोमीटर दौडने दुबारा चले जाओगे“- उनके स्वर में आश्चर्य था।
”हां सर“ (तब मैं सर का प्रयोग करता था) ”मैं गीता डुबा दुबारा चला जाऊंगा“पर मुझे भी थ्योडोलाइट से राड देख लेन दीजिए।“ मैंने थ्योडोलाइट देखा रॉड ठीक लगी थी। मैंने दूसरा पेड चुना था आचार्य जी ने दूसरा। पर मुझे ”अनथक“ नाम तो मिल ही चुका था।

कार्य, अभिरुचि, रुचि, प्रकृति, मनोवृत्ति, आदत, विचार, संस्कार, स्वभाव एक लक्ष्य आनन्द हो जाए इसे कहते हैं स्वभाव प्रबन्धन।

स्वभाव की अपेक्षा से दूसरे के सुख दुःख की सोच उसे कार्य करने की प्रेरणा दे देकर उसके मन बिना लालच भय लोभ के कार्यानन्द के भाव बोना स्वभाव प्रबन्धन है।

यह विज्ञान सिद्ध तथ्य है कि स्व-भाव से अर्थात मानवता से संस्कार, विचार, आदत, मनोवृत्ति, प्रवृत्ति, रुचि, कार्य सभी श्रेष्ठ होते जाते हैं। दानवता से संस्कार, विचार, आदत, मनोवृत्ति, प्रवृत्ति, रुचि, कार्य सभी घटिया होते जाते हैं। स्व-भाव आधारतथ्य है। इक्कीस मिनट तक सतत एक विचारमय रहने पर वह विचार संवेदन तंतुओं के माध्यम से कोषिका झिल्ली पर आण्विक विधि प्रक्षेपित होकर जीनेटिक कोड को प्रभावित कर मानवता या दानवतानुरूप चयापचय कार्यषक्ति उत्सर्जन को सुव्यवस्थित या कुव्यवस्थित या सु या कु करता है। शुभ अशुभ आचार तथा व्यवहार विचार की ही उपज है।

स्वभाव आत्मतत्व युजित है। आत्मतत्व का हृत्प्रदेश- अव्याहत स्थल केन्द्र है। आत्म से पर आत्म संबंधी भावों का मूल निवास यही केन्द्र है। यही स्थल स्मरण केन्द्र भी है। भारतीय संस्कृति में ब्रह्म जाप या ”श्रेष्ठ नाम जाप“ या श्रेष्ठ चरित्र पठन का स्वभाव श्रेष्ठता से सीधा संबंध जोडा गया है। यह तथ्य विज्ञान सिद्ध है। अतिआत्म साधना विचार माध्यम से श्रेष्ठता का सम्पूर्ण स्तरीकरण होने से स्वभाव प्रबन्धन की वैज्ञानिक विधि है।

वर्तमान प्रबंधन में स्वभाव प्रबंधन का मद्धिम गति से प्रवेश हो रहा है। योग एवं आत्मविज्ञान क्रमषः प्रबंधन कोर्स में शामिल किए जा रहे हैं।

सांतसा (सांस्कृतिक तकनीक सामाजिक) या भारतीय प्रबन्धन का मूलाधार ही स्वभाव प्रबन्धन है। भारतीय संस्कृति में श्रेष्ठता की तकनीक स्व-प्रतिष्ठित कर दी गई है। इसमें जीवन दषरूपकम् या जीवन पर्ट सोलह संस्कारों, चार आश्रमों, चार पुरुषार्थों, ज्ञान त्रयी, चार वेदों से संस्लिष्ट, सुगंफित, पूर्णतः वैज्ञानिक है। ‘स्वभाव’ निर्माणावस्था है। ब्रह्मचर्यावस्था इसका नाम ही श्रेष्ठचर्यावस्था हैै। विष्व के श्रेष्ठतम नाम संज्ञा ब्रह्म का सतत आचरण ही ब्रह्मचर्य है। ऋजुतापूर्वक, सहजता सरलतापूर्वक ब्रह्मचर्य का अनुपालन एक व्यक्ति को समावर्तनी अवस्था जीवन प्रवेष समय दैदीप्यमान श्रेष्ठता आगार स्वभावमय कर देगा।

ऐसे दैदीप्यमान व्यक्तियों का समूह वेद के संगठन, श्रद्धा, धरा, पुरुष, यज्ञ, अघमर्षण, ऋत, शृत आदि सूक्तों के यथार्थ भाव से हम युजित होंगे और धरा स्वर्ग हो जाएगी। वह सच्ची प्रजतन्त्र व्यवस्था होगी।

स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)

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