आठ चक्र नौ द्वार का हठ दुर्ग है अयोध्या अजेय इस दुर्ग की अधिपत्या है दुर्गा। इस दुर्गा का नाम आत्मा। इस पुरी में दो गुप्त द्वार भी हैं। यह पुरी अजेय है क्योंकि यह दुर्ग दुर्गा-आत्मा रक्षित है। इस दुर्ग के रक्षण के गुण जग में जीवन प्रबंधन या कार्य प्रबंधन के भी है। शरीर के भीतर ये अष्टचक्र नव द्वार स्वस्थन करते हैं। शरीर के बाहर ये कार्य सिद्धि करते हैं। इन गुणों के अनुपात में मानव अपने जीवन में सफल होते हैं। इन 18 सिद्धिदा गुणों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
1) अणिमा:- अणोरणीयान स्तर पर चिन्तन क्षमता का नाम है अणिमा। संसार का सूक्ष्म से सूक्ष्म औजार ‘धी’है जो आत्मा का साधन है। अणिमा सम्पन्न आत्मा 1. पदार्थ के संघीभूत ऊर्जा रूप। 2. पदार्थ के स्फुरण (क्वांटम) उर्जा प्रारूप तथा 3. पदार्थ के वर्च या कल्पनातीत (वर्चुअल) ऊर्जा स्वरूप तथा इनके रहस्यों को तथा उपयोगों को जानता है। वहां 4. ऊर्जा के इससे भी सूक्ष्म पदार्थ-अपदार्थ-नपदार्थ, सपदार्थ रहस्यों तथा उपयोगों और 5. ऊर्जा के चैतन्य स्फुरणों जो सर्वाधिक सूक्ष्म है को भी पहचानता है तथा उनका उपयोग करता है। अणिमा सिद्ध परम ज्ञानी होने के कारण हर बात भाव, अर्थ, शब्द, रूप में सटीक तत्काल पहचान लेता है।
2) लघिमा:- गुरुत्व का रहस्य पहचान लेना लघिमा है। गुरुत्वाकर्षण ऊर्जा का सर्वाधिक कम भार या लघु तरंग ऊर्जा रूप है। इस तरंग कणिका का माप विज्ञान को अभी मालूम नहीं है। दुर्गा-आत्मा इस रहस्य को तथा ऊर्जा के वितान स्वरूप को पहचानता है। इस कणिका का नाम गुरुत्वान हैै। यह कणिका फोटान से सूक्ष्म है तभी तो यह फोटान गति को परिवर्तित कर देती है। फोटान गुरुत्वान कणिकाओं निर्मित है। दुर्गा प्रबंध्ाक इस सिद्धि का प्रयोग भौतिक शक्ति उपयोग के क्षेत्रों में करता हुआ इससे भी सूक्ष्म चैतन्य शक्ति का लघिमा ज्ञान के कारण सदुपयोग करता है।
3) प्राप्ति:- प्राप्ति हमेशा इष्ट लक्ष्य की होती है। लक्ष्य के स्वरूप को अच्छे से पहचानते हुए उसके लिए दशरूपकम् आयोजन के द्वारा ‘प्राप्ति’सिद्ध सिद्धिदा प्रबंधक होता है।
4) प्राकाम्य:- इच्छित की प्राप्ति प्राकाम्य है। जो प्रबंधक अपनी क्षमताओं तथा योग्यताओं का अपेक्षाओं से सटीक सामंजस्य जानता है वह प्राकाम्य है। प्राकाम्य असिद्धि आज देश बर्बाद कर रही है। देश के सर्वोच्च तकनीकी संस्थानों में एक पद पर चयन पांच सौ अप्रकाम्यों में से एक का होता है। मोटी भाषा में 499 परीक्षक प्राकाम्य आकलन गलत लगाते हैं अर्थात उनमें अपनी योग्यता तथा क्षमता एवं पद का साम्य ज्ञात नहीं है। वे अपना श्रम, मेहनत बर्बाद करते हैं। प्राकाम्य समझ न होने के कारण देश के करोड़ों युवकों के करोड़ों श्रमवर्ष तथा परिवहन संसाधन (यात्रा व्यय) एवं अर्थ संसाधन (फीस आदि) एवं सहकारी व्यवस्था बर्बाद हो रहे हैं। जिनका सरंक्षण आवश्यक हैै।
5) इशित्व:- व्यवस्था पर सहजता पूर्वक अप्रयास पूर्ण अधिपत्य इशित्व हैै। पलक झपकने के समान सहज प्रयास द्वारा व्यवस्था का संचालनादि ईशित्व है।
6) वशिता:- पंच इन्द्रिय युक्त चल संसाधनों, पंच तत्व निर्मित भौतिक संसाधनों का त्रिसप्त निर्मित, त्रिपंच नियमित स्वयं के अस्तित्व पर अधिकार रख इनका लक्ष्य प्राप्ति सदुपयोग वशित्व दुर्गापन है।
7) कामवासयितृत्वः- कामनाओं के पार संकल्पों की आपूर्ति करने को कामवासयितृत्व कहा जाता है। संकल्प पूर्ति के लिये मानव को तीव्र गति संचरित होकर गति प्रबन्धन करना पड़ता है। सकल्प का सीध सम्बन्ध गति से है। ब्रह्म संकल्प सिद्धि के क्षेत्र में मानव संकल्प शरीर के माध्यम से अव्याहत गति से ब्रह्म गुण आल्हाद भोगता है।
8) महिमा:- महत्व का विस्तार करना महिमा है। महिमा सिद्धि का अर्थ है व्यवस्था के हर कर्मचारी में कार्य की महता या गुरुता तथा अपने कन्धों की भार वहन क्षमता का ठीक-ठीक ज्ञान हो जाना।
9) सर्वज्ञत्व:- अपने अधिकार क्षेत्र के हर संसाधन, हर क्षेत्र, हर कर्मचारी, हर त्रुटि, हर सटीकता, हर कार्य, हर अर्हता, हर नियम, हर नियमोल्लंघन, हर दंड विधान, हर इनाम विध्ाान को जानना और कार्य सिद्धि के क्षेत्र में उसका उपयोग करना सर्वज्ञत्व, दुर्गापन या आत्मापन है।
10) दूरश्रवण:- अतीत की आवाज तथा भविष्य की पदचाप अतिमद्धिम होती है। अतीत की त्रुटियोें की, अतीत की उन्नति के कारणों की आवाज समय-समय पर सुनकर उससे सावध्ाान होकर भविष्य की पग ध्वनि को समझते जो ज्यादातर आज जीता है वह दूर श्रवण दक्ष है। यह दूरश्रवण सिद्धि या दुर्गापन है।
11) परकाय प्रवेशन:- हर व्यक्ति की काया की एक आध्ाार भावलय होती है, एक स्तर होता है। दूसरे व्यक्ति उसे उस भावलय से तथा स्तर से कम या अधिक आंक उससे व्यवहार रखते हैं। परकाय प्रवेशन में सिद्ध व्यक्ति उसे ठीक-ठीक भावलय तथा स्तर में पहचान कर (अ) उसकी मदद करता है। (ब) उससे कार्य देता है। (स) उससे व्यवहार करता है यह परकाय प्रवेशन है।
12) वाक् सिद्धि:- परा, पश्यन्ती, मध्यमा, वैखरी एक ही अर्थ की सम भाषा में अभिव्यक्ति वाक् सिद्धि है। वाक् सिद्ध व्यक्ति असत्य भाषण कर ही नहीं सकता है। वह जितना भी जानता है निश्चयात्मक जानता है तथा उतना ही कहता है जितना निश्चयात्मक जानता है।
13) कल्पवृक्षत्व:- कल्पवृक्षत्व का अर्थ है अन्त्य सन्तुष्टि। एक पूर्ण सन्तुष्ट व्यक्ति के लिये कल्पवृक्ष बेकार है। कल्पवृक्ष सिद्धिदा प्रबन्धन का वह तत्व है जो कर्मचारियों को तुष्टि कारक है। तुष्टिकरण का अर्थ है कि बिना मांगे ही सब कुछ मिल जाने की स्थिति। कई परिवारों में बच्चे जो संयमित होते हैं माता-पिता से काल्पवृक्षत्व पाते हैं।
14) सृष्टिः- इष्ट को साकार रूप में साक्षात उतारकर यथार्थ कर लेना सृष्टि है। यथावत बिना त्रुटि के हर बार वही की वह पूर्ण रचना करना ऋष्टि है। इसकी आधार शर्त है हर कुछ निमार्णक त्रुटि रहित ही रहना। आजकल सृष्टि तत्व पाने के लिए निश्चित समय में पूरी मशीनरी को बदल देने की परिपाटी भी कई उद्योग संस्थानों में लागू है।
15) संहारकरण समर्थ:- एक सीमा के बाहर त्रुटि पूर्ण हो जाने पर व्यवस्था सम्पूर्ण संहारणीय होती है। इसका सम्पूर्ण नवीनीकरण आवश्यक होता है। वह सामर्थ्य भी दुर्गा प्रबन्धन के पास होनी चाहिए।
16) अमरत्व:- भू, आकाश, मशीनों के मूल पदार्थ आदि अमरत्व तत्वों की समझ अमरत्व प्रबन्धन का कार्य है। मनुष्य के लिए शत तथा शताधिक वर्ष स्वस्थ तथा अदीन ही जीना अमरत्व है।
17) सर्वन्यायकत्व:- पूर्ण कार्यव्यवस्था में विभिन्न तरीकों से सर्वव्यापक होना तथा हर नियम उल्लंघन का सटीक दंड तथा नियम पालन का यथोचित मूल्य देना सर्वन्यायकत्व है।
18) भावना:- भावना का दो अर्थों में प्रयोग होता है। 1. दूसरे के शब्दों, हावभावों से अभिव्यक्त अर्थ को ठीक-ठीक समझना। 2. सबके प्रति अपने मधुमय व्यवहार से कहीं कोई भी त्रुटि न होने देना।
इन अट्ठारह तत्वों से युक्त प्रबन्धन ही सिद्धिदा प्रबन्धन है। इन अट्ठारह तत्वों की प्राप्ति का पथ है तितिक्षा। अभौतिकीय इन्द्रियों, प्राण, वाक्, मन, बुद्वि, धी, चित तथा अंह के सम्पूर्ण संयमन, स्थैर्य सन्तुलन तथा विक्षेप रहितता पर तितिक्षा सिद्धि मानी जाती है।
स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)