“हम न केवल विश्व व्यापी सहिष्णुता में विश्वास रखते हैं बल्कि सभी धर्मों को सत्य मानते हैं ।” विवेकानन्द के शिकागों में पहले भाषण का यह अंश सर्व धर्म समभाव की आत्मा है । ”विश्व व्यापी सहिष्णुता“ वह तत्व है जो धर्मों का धर्म है । महात्मा गांधी ने कुरान, बाईबिल, गीता पढ़ने के बाद मजहबों में समभाव ढूंढने की कोशिश की । गांधी जी का ”ईश्वर अल्लाह तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान“ भजन ”विश्व व्यापी सहिष्णुता“ की सन्मति की ओर महान कदम है । इसी कदम में कदम मिलाकर सर्व धर्म समभाव प्रार्थना बिनाबा भावे ने कही – ”ओम् तत् सत श्री नारायण तू“ इस प्रार्थना में ओम्, अहुरमज्द, ईष पिता, ताओ आदि के गुणों के माध्यम से विश्वव्यापी सहिष्णुता बोने के गृहत प्रयास हैं । महात्मा भगवान दीन का ”मानवता मंदिर“ भी इसी ओर एक चरण था ।
मजहबों में मानवता एक सतत सहज प्रवहण है । मानवता ‘खुद’ से शुरु होती है । जो स्वयं के खुद को दूसरे के ‘खुद’ से जोड़ लेता है वह ”खुदा“ के निकटतम हो जाता है । ”आत्मैवाभूत विजानतः“ आत्मवत सबको जानना ही ”एकत्वम“ देखने का रास्ता है । वेद से आज तक यही धारा विश्व व्यापी सहिष्णुता के रूप में सतत प्रवाहित है । ”धर्म जगत“ मानव ब्रहम का योजक है । हम आज से प्रारंभ करके वेद तक इस अविरल बहती धारा को देखें ।
”मानवता अपनी देवी है,
ज्ञान हमारा भैया है,
मेहनत अपनी बहना है ।
धरती मां की गोदी में,
सत्य जीवन साथी संग,
जय विश्व जीते रहना है ।।“
कवि नीरज कहता है –
क्या करेगा प्यार वह ईमान को,
क्या करेगा प्यार वह भगवान को ।
होकर के एक इन्सान जो,
कर न सका प्यार एक इन्सान को ।।
गांधी प्रिय भजन –
वैष्णव जन तो तैने कहिए जे पीर पराई जाणे रे ।
पर दुःखे उपकार करे रे मण अभिमाण न जाणे रे ।।
सकल लोक मा सहुणे रे बंदे निंदा करे न रे ।
वाच काछ मन निश्चल राखे घण घण जननी तेरी रे ।।
वर्तमान में उपरोक्त तीनों पद विश्व व्यापी सहिष्णुता की मानो परिभाषा हैं ।
कम्युनिज्म सार –
एक सबके लिए, सब एक के लिए ।
तुलसी –
राम के मुख जनता को संदेश –
परहित सरिस धर्म नहीं भाई
पर पीड़ा सम नहिं अध माई
पर हित हैं जिनके मन माहीं
तिन कह जग कछु दुलर्भ नाहीं
कबीर –
दाया राखे धर्म को पालै जग सूं रहे उदासी,
अपना सा जिव सबका जानै ताहि मिलै अविनाशी ।।
नानक –
सब मयि रवि रहियो प्रभु एको,
पेखि पेखि नानक बिग साई ।
अव्वल अल्ला नूर उपाया, कुदरत दे सब बन्दे ।
एक नूर ते सब जग उपजया कौन भले कौन मन्दे ।
सारे संदेशों में विश्व व्यापी सहिष्णुता आत्मवत सबको जाने सबसे व्यवहार करो भाव है ।
कुरान की एक आयत है-
”अफजलुल इमानि उत ताहिब्बो लिनन से आ तोहिब्बो व तक्र हु लहुम ले नफसेका“
अर्थात सबसे अफजल सबसे उम्दा मजहब यह है कि जिसे आप अपने लिए तकलीफ देह समझते हो वह व्यवहार किसी के प्रति भी मत करो ।
बाईबिल में लिखा है-
Do unto others as would do unto you this is the whose of prophet end best of religion
दूसरों से जैसा व्यवहार तुम चाहते हो वैसा ही व्यवहार उनके साथ करो ।
बौद्ध धर्म सार:-
सब्वेे तसन्ति दंडस्य सब्वे मायंति मच्चुना । अत्थानं उपमंक कत्वा न हन्ये न घातये ।
सब्बे तसन्ति दंडस्य सब्बे सं जीवित पिबं । अत्थानं उपमं कत्वा न हन्ये न घातये ।
सबको दंड से भय लगता है, मृत्यु से भय लगता है, जीवन प्रिय है, ऐसी उपमा करते किसी को आघातमत देा मृत्यु मत दो ।
जैन धर्म सार:-
”आया तले प्रयासु“ इष्टो यथात्मनः देहः सर्वेषां प्राणिनां ही तथा एवं हिज्ञात्वा सदा दाया कारि सर्व सुधारिणां –
जिस प्रकार आपकी आत्मा आपकी इष्ट है उसी प्रकार सबको सबकी आत्मा इष्ट है । ऐसा जनकार सब प्राणियों पर अमल रखो ।
महाभारत सार –
भीष्म द्वारा शर शैया पर दिया गया उपदेश – ”श्रूयतां धर्मस्य सारं श्रुत्वा चैव धारताम आत्मानः प्रतिकूलानि पेरषो न समाचारेत यद् इच्छत च आत्मानि तद् परस्यपि चिन्तयेत ।“ धारणीय धर्म सार यह है कि आत्म प्रतिकूल का आचरण दूसरों के प्रति मत करेा, आत्म अनुकूल आचरण सबके प्रति रखें ।
कन्फयूशस धर्म सार भी दूसरों के साथ आत्मवत व्यवहार है ।
लाओत्से का आधार संदेश –
”जीभ के समान रस पूर्ण नम्र होना तथा दांतों समान कठोर न होना है ।“
”विश्व व्यापी सहिष्णुता“ भाव चीन से लेकर अरब तक पाश्चात्य तक समरूप फैला हुआ है । इसमें न समय का न देश का, न राजनीति का बाध है । यह ही धर्म शाश्वत है ।
भागवत का भाव के साथ शब्द चयन भी उत्तम है –
”द्वय अक्षरम मृत्यु भवति त्रय अक्षरम ब्रह्म शाश्वतम्। ममेति च मृत्यु भवति न मम् ब्रह्म शाश्वतम् ।“ ”मम“ मेरा मृत्यु है और न मम ”न मेरा“ ब्रह्म शाश्वत है।
गीता कहती है:-
”आत्म उपमेन हि पश्यति यो र्जुन, सुखम वा दुखम स योगी परमामेत ।“ यह परम मत है कि आत्मा की उपमा से देखने वाला सुख और दुख में भी योगी है ।
पुराण:-
अठारह पुराण सार दो वचनों में है । ”अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनं द्वंय“
परोपकार पुण्य है हरपीड़न पाप है । परोपकाराय पुण्यं पापाय पर पीड़िनम् ।
उपनिषद :-
वेद का उपनिषद अंग – मंत्र उपनिषद – इशावास्योपनिषद कहता है ।
यास्मिन सर्वाणि मूतानि आत्मव भू द्विजानतः जो व्यक्ति संसार के प्राणियों को आत्मवत जानता है
तंत्र को मोहः कः शोकः एकत्वं हि अनुपश्यतः । उनसे आत्मवत व्यवहार करता है उसे मोह शोक नहीं वह एक ही एक देखता है ।
वेद भाग:-
यो विद्यात सूत्रं विततं यस्मिनोताः इमा प्रजाः।
सूत्रस्य सूत्रं स विद्यात सविधान ब्रह्मण महत ।
(प्रजाओं में पिरोये सूत्र के सूत्र को जो जानता है वह ब्रह्म महत को जानता है ।)
यह अविरल बहती वह सर्वधर्म समभाव धारा है जो अक्षर (अ-क्षर = नष्ट नहीं) जो अक्षर (अक्ष -र) = आंखों के माध्यम से मनुष्य जीवन में रमणीय उतरनी विश्व को सुखद रमणीय कर दे सकती है । इसे प्रार्थना माध्यम से स्कूलों में रोपकर विश्व सुखद किया जा सकता है ।
स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)