आज मराठा सम्राट और छत्रपति शिवाजी के उत्तराधिकारी सम्भाजी राजे भोसले का जन्मदिवस है पर हम में से शायद ही कोई इस महान योद्धा को याद रख पाया|। उस समय मराठाओं के सबसे प्रबल शत्रु मुगल बादशाह औरंगजेब एवं बीजापुर और गोलकुण्डा का शासन हिन्दुस्तान से समाप्त करने में उनकी प्रमुख भूमिका रही। संभाजी ने अपनी अल्प आयु में ही जो अलौकिक कार्य किये, उसके लिए हिन्दुओं को सदैव उनका ऋणी होना चाहिए| उन्होंने जिस साहस और निडरता से औरंगजेब को दक्षिण में ही फंसे रहने पर मजबूर किया, ये उसी का परिणाम था कि उत्तर भारत में अनेकों हिन्दू राज्य खड़े हो सके| पुर्तगालियों को हमेशा उनकी औकात में रखने वाले सम्भाजी को धर्म परिवर्तन कर मुस्लिम बन गए हिन्दुओं का शुद्धिकरण कर उन्हें फिर से स्वधर्म में शामिल करने वाले राजा के रूप में भी याद किया जायेगा, एक ऐसे राजा जिन्होंने एक स्वतंत्र विभाग की ही स्थापना इस उद्देश्य हेतु की थी|
”होनहार विरवान के होत चीकने पात’ जैसी चकहावत को यदि यथार्थ देखना हो तो छत्रपति शिवाजी महाराज के पुत्र संभाजी को देखा जा सकता है। धरती पर कदम रखते ही संघर्षो का जिसका साथ रहा हो, जिसने 5-6 वर्ष की आयु से ही पिता के कंधे से कन्धा मिलाकर संघर्ष किया हो, जिसके पास हिन्दू पद्पादशाही से छत्रपति तक का अनुभव रहा हो, जिसने शिवाजी राजे की संघर्षशील छत्रछाया में प्रशिक्षण प्राप्त किया हो, जिसके ऊपर उसके अपने अष्ट प्रधानों द्वारा ही अपने निजी स्वार्थों या अन्य कारणों के चलते हमले कर लांछित करने का प्रयास किया जा रहा हो, एक तरफ औरंगजेब की पांच लाख की सेना का आक्रमण, तो दूसरी तरफ साम्राज्य की अंतरकलह, ऐसी विकट परिस्थिति में जिस महापुरुष ने 22 वर्ष की अल्प आयु में छत्रपति जैसे दायित्व का भार सुशोभित किया और जिसने नौ वर्षो तक सफलता पूर्वक शासन ही नहीं किया बल्कि हिन्दवी साम्राज्य का विस्तार भी किया, ऐसे महान देशभक्त धर्मवीर सम्भाजी राजे ही हो सकते है।
संभाजी का जन्म 14 मई 1657 में हुआ था। माता का देहांत उनकी अल्प अायु में ही हो गया और फिर उनका पालन पोषण दादी जीजाबाई ने किया। आठ वर्ष की आयु में पिता की आज्ञा से मुग़ल दरबार में पांच हजारी लेकर राजा की उपाधि ग्रहण की, लेकिन वे तो हिन्दवी स्वराज्य संस्थापक शिवाजी महाराज के पुत्र थे, उन्हें यह नौकरी बर्दाश्त नहीं थी, लेकिन पिता की आज्ञा मानकर मराठा सेना के साथ छह वर्षो तक औरंगजेब के यहाँ रहे। 14 साल की आयु में उन्होंने तीन ग्रंथ बुधाभुषणम, नखशिख-नायिकाभेद तथा सातशातक यह तीन संस्कृत ग्रंथ लिखे, जो बताता है कि वे कितने मेधावी थे।
उन्होंने बचपन में ही शिवाजी महाराज जैसे पिता के नेतृत्व में राजनीति, संघर्ष और स्वाभिमान के साथ जीना सीखा था, परन्तु वे विमाता द्वारा किये जा रहे राजभवन के षड्यंत्रों से बच नहीं सके। उनके ऊपर तमाम अनर्गल प्रकार के आरोप लगाकर शिवाजी के अन्तरंग लोग जाने- अनजाने साम्राज्य को कमजोर करने का षडयंत्र करते रहे, परन्तु संभाजी ने इस सबको पार किया। छत्रपति शिवाजी महाराज की मृत्यु (20 जुलाई 1680) के बाद कुछ लोगों ने संभाजी के अनुज राजाराम को सिंहासनासीन करने का प्रयत्न किया, किन्तु सेनापति मोहिते के रहते यह कारस्तानी नाकामयाब हुयी और 10 जनवरी 1681 को संभाजी महाराज का विधिवत् राज्याभिषेक हुआ।
इसी वर्ष औरंगजेब के विद्रोही पुत्र अकबर ने दक्षिण भाग कर संभाजी का आश्रय ग्रहण किया। राजाराम को छत्रपति बनाने में असफल रहने वाले राजाराम समर्थकों ने औरंगजेब के पुत्र अकबर से राज्य पर आक्रमण कर के उसे मुग़ल साम्राज्य का अंग बनाने की गुजारिश करने वाला पत्र लिखा। किन्तु छत्रपति संभाजी के पराक्रम से परिचित और उनका आश्रित होने के कारण अकबर ने वह पत्र छत्रपति संभाजी को भेज दिया। विमाता के षड्यंत्रों और स्वराज के कई सरदारों के कारनामों ने उनका भावुक मन पहले ही चोटिल था। उस पर ये राजद्रोह। क्रोधित छत्रपति संभाजी ने अपने अनेकों सामंतो को मृत्युदंड दिया। तथापि उन में से एक बालाजी आवजी नामक सामंत की समाधि भी उन्होंने बनायीं, जिनके माफ़ी का पत्र छत्रपति संभाजी को उस सामंत की मृत्यु के पश्चात मिला।
छत्रपति बनने के पश्चात् लगातार 12 वर्षो तक मुग़ल सम्राट औरंगजेब, पुर्तगालियो, दक्षिण के मुस्लिम शासकों तथा इष्ट इण्डिया कंपनी से संघर्ष करने के साथ-साथ हिन्दू साम्राज्य का विस्तार कर संभाजी राजे ने यह सिद्ध कर दिया की वे हिन्दू पदपादशाही के कुशल उत्तराधिकारी हैं। वे संकल्प शक्ति के धनी थे और उन्हें अपने महान पिता व माता जीजा बाई का सदैव स्मरण रहता था। वे केवल संकल्पवान ही नहीं, वीर योद्धा और कुशल सेनापति भी थे, जिसका प्रमाण ये तथ्य है कि अपने नौ वर्षो के कम समय के शासन काल में उन्होंने 120 युद्ध किये , और इनमें से एक में भी उनकी सेना पराभूत नहीं हुई । वे एक कर्मठ और योग्य हिन्दू धर्म रक्षक थे जिन्होंने हिन्दू समाज, अपने पिता सहित गुरु समर्थ रामदास की मर्यादा की भी रक्षा की। यदि ये कहा जाय तो गलत नहीं होगा कि अपने समकालीन वीरबन्दा वैरागी के समान वे भी एक क्रांतिकारी और धर्म रक्षक थे।
इतिहास में भले ही उनकी छवि एक उद्दंड एवं बेकार शासक की बनायीं गयी हो पर उनकी वीरता, उनका बलिदान, हिंदुत्व पर मर मिटने का उनका जज्बा कुछ और ही कहानी कहता है| पुर्तगालियों को पराजित कर किसी राजनैतिक कारण से वे संगमनेर में रहने लगे थे। जिस दिन वो रायगढ़ के लिए प्रस्थान करने वाले थे, उसी दिन कुछ ग्रामीणों ने अपनी समस्या उन्हें बतानी चाही, जिसके चलते उन्होंने अपने साथ केवल 200 सैनिक रख के बाकी सेना को रायगढ़ भेज दिया। ऐसे में सम्भाजी का साला गणोजी शिर्के, जिसको उन्होंने वतनदारी देने से इन्कार किया था, मुग़ल सरदार इलियास खान के साथ गुप्त रास्ते से 5000 की फ़ौज के साथ वहां पहुंचा। यह वह रास्ता था जो सिर्फ मराठों को पता था, इसलिए संभाजी महाराज को कभी नहीं लगा था कि शत्रु इस ओर से भी आ सकेगा। उन्होंने वीरता से लड़ने का प्रयास किया किन्तु इतनी बड़ी फ़ौज के सामने 200 सैनिकों का प्रतिकार काम कर न पाया और अपने मित्र तथा एकमात्र सलाहकार कविकलश के साथ वह 1 फरवरी, 1689 को बंदी बना लिए गए।
मुगलों को उनका सबसे प्रबल शत्रु मिल चुका था। दोनों के मुँह में कपड़ा ठूंसकर घोड़े पर लादकर उन्हें मुग़ल छावनी लाया गया। दोनों को मुसलमान बनाने के लिए औरंगजेब ने कई कोशिशें की, किन्तु वीर पिता के धर्मवीर पुत्र छत्रपति संभाजी महाराज और कवि कलश ने धर्म परिवर्तन से इनकार कर दिया। इसके बाद शुरू हुआ उनपर अकथनीय अत्याचारों का सिलसिला। मुग़ल छावनी में उन्हें बाँस में बांधकर घसीटा गया और अपमानपूर्वक जुलूस निकाला गया। औरंगजेब ने दोनों की जुबान कटवा दी, आँखों में गरम सलाखें डाल दीं किन्तु छत्रपति शिवाजी महाराज के इस शेर सुपुत्र ने अंत तक धर्म का साथ नहीं छोड़ा।
11 मार्च 1689 हिन्दू नववर्ष के दिन दोनों के शरीर के टुकडे टुकड़े कर के औरंगजेब ने हत्या कर दी। उनका सर भाले की नोक पर रखकर सब जगह घुमाया गया और अपमानित किया गया। ये हत्याकांड इतिहास के वीभत्स हत्याकांडों में माना जाता है। ऐसा कहते है कि हत्या पूर्व औरंगजेब ने छत्रपति संभाजी महाराज से कहा के मेरे 4 पुत्रों में से एक भी तुम्हारे जैसा होता तो सारा हिन्दुस्थान कब का मुग़ल सल्तनत में समाया होता। उन टुकड़ों को तुलापुर की नदी में फेक दिया तो किनारे रहने वाले लोगों ने वो इकठ्ठा कर के सिल के जोड़ दिए (इन लोगों को आज ” शिवले ” इस नाम से जाना जाता है), जिस के उपरांत उनका विधिपूर्वक अंतिम संस्कार किया।
औरंगजेब को लगता था कि छत्रपति संभाजी के समाप्त होने के पश्चात् हिन्दू साम्राज्य भी समाप्त हो जायेगा या जब सम्भाजी मुसलमान हो जायेगा तो सारा का सारा हिन्दू मुसलमान हो जायेगा, लेकिन वह नहीं जनता था कि वह वीर पिता का धर्म वीर पुत्र विधर्मी होना स्वीकार न कर मौत को गले लगाएगा। वह नहीं जनता था कि सम्भाजी किस मिट्टी के बना हुए हैं। सम्भाजी मुगलों के लिए रक्त बीज साबित हुये। सम्भाजी की मौत ने मराठों को जागृत कर दिया और सारे मराठा एक साथ आकर लड़ने लगे। यहीं से शुरू हुआ एक नया संघर्ष जिसमें इस जघन्य हत्याकांड का प्रतिशोध लेने के लिए हर मराठा सेनानी बन गया और अंत में मुग़ल साम्राज्य कि नींव हिल ही गयी और हिन्दुओं के एक शक्तिशाली साम्राज्य का उदय हुआ| अंततः औरंगजेब को दक्खन में ही प्राणत्याग करना पड़ा। उसका दक्खन जीतने का सपना इसी भूमि में दफन हो गया।
सम्भाजी का जीवन बहुत अल्प था। केवल 31 वर्ष की आयु में वे चले गए, लेकिन हिंदुत्व के लिए उन्होंने एक ऐसा उदहारण प्रस्तुत किया, जैसा वीरबंदा बैरागी ने किया। इन्हीं धर्मवीरो ने भारत और हिन्दू धर्म की रक्षा की है। आज हमें उनसे प्रेरणा लेने की आवश्यकता है। छत्रपति संभाजी महराज हिन्दू इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ हैं। एक दिन आएगा जब इतिहास उन्हें गुरु गोविन्द सिंह, वीरबन्दा बैरागी, राणाप्रताप तथा शिवाजी की अग्रिम पंक्ति में खड़ा करेगा और सम्पूर्ण हिन्दू समाज उन पर गर्व करेगा। संभाजी महाराज की वीरता का वर्णन करने वाली एक रचना को यहाँ साझा करने से मैं खुद को नहीं रोक पा रहा हूँ|
देश धरम पर मिटने वाला।
शेर शिवा का छावा था।।
महापराक्रमी परम प्रतापी।
एक ही शंभू राजा था।।
तेज:पुंज तेजस्वी आँखें।
निकल गयीं पर झुका नहीं।।
दृष्टि गयी पण राष्ट्रोन्नति का।
दिव्य स्वप्न तो मिटा नहीं।।
दोनो पैर कटे शंभू के।
ध्येय मार्ग से हटा नहीं।।
हाथ कटे तो क्या हुआ?।
सत्कर्म कभी छुटा नहीं।।
जिव्हा कटी, खून बहाया।
धरम का सौदा किया नहीं।।
शिवाजी का बेटा था वह।
गलत राह पर चला नहीं।।
वर्ष तीन सौ बीत गये अब।
शंभू के बलिदान को।।
कौन जीता, कौन हारा।
पूछ लो संसार को।।
कोटि कोटि कंठो में तेरा।
आज जयजयकार है।।
अमर शंभू तू अमर हो गया।
तेरी जयजयकार है।।
मातृभूमि के चरण कमलपर।
जीवन पुष्प चढाया था।।
है दुजा दुनिया में कोई।
जैसा शंभू राजा था?।।——— शाहीर योगेश
धर्मवीर संभाजी महाराज को शत शत नमन|