समय प्रबन्धन

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भरथरी ने समय का सूक्ष्म एवं व्यापक भी अध्ययन मनन किया था। उसने यह भी देखा था कि लोग समय प्रबन्धन तो प्रबन्धन समय से भी अनभिज्ञ हैं। ”समय बाध“में लोग उलझे हुए हैं। समय का दर्शक है आदित्य। इस प्रबन्धन के महत्वपूर्ण तथ्य इस प्रकार है।

1) आदित्य:- सूर्य के सम्बन्ध से समय परिवर्तनीय है। सूर्य परिवर्तन से सूर्योदय, सूर्यास्त, दिवस शीर्ष रवि, रात्रि शीर्ष रवि समय आयोजन के महत्वपूर्ण आधार हैं।

सूर्य प्रातः दिवस शीर्ष छायावत संबंध- अमित्र संबंध आरंभ घनिष्ठ क्रमशः कम होता है तथा दोपहर सांझ छायावत मित्र संबंध आरम्भ- लघु क्रमशः बृहत्तर होता है।

चन्द्र सूर्य सुषुम्ण स्वर परिवर्तन क्रम के साथ कार्यप्रकार भी आदित्य समय प्रबन्धन तत्व है।

2) गतागतैरहरहः:- समय कि विशिष्टता है कि वह ऐसा अभिकल्पित है कि वह सूर्य के साथ आता जाता आता जाता है। सूर्य रोज रात की झोली में एक दिवस डाल दिया करता है। सतत बिलानागा यह होता ही रहता है।

समय कि विशिष्टता है गत अगत संबंध। यह गत होता है फिर आगत होता है- ठहरता नहीं है। जो व्यक्ति आगत होता है वह इसके गत को पूर्व में ही पकड़ लेता है। उसके पास समय अधिक होता है और जो व्यक्ति गत होता है वह समय के पीछे भागता रहता है। समय उसे कम पड़ता है। दिवस दिवस यही मानव के साथ घटता रहता है। केवल समझदार साधक को यह सब समझता है।

दिन, सप्ताह, पक्ष, माह, वर्ष, शतवर्ष, जन्म-मरण, युग, देवयुग, परान्तकाल तक समय ”गतागतैरहरहः“है। इस सबका ध्यान रखते जीवन तथा कार्य का प्रबन्धन ”गतागतैरहरहः“है।

3) संक्षीयते:- सम क्षय होनेवाला है समय। समय की गति मनुष्य की अपेक्षा से सम सम क्षरण गति है। मनुष्य की कार्य गति विषम है। वह कम अधिक भी होती है तथा की भी जा सकती है। और यही समय आयोजन का सार है। चलन गति में अनेक परिवर्तन कर मानव ने समय- दूरी मूल संबंध में काफी परिवर्तन किया है। इसी प्रकार भार उठाना, भार वहन आदि क्षेत्रों में भी मनुष्य ने बुद्धि कौशल से समय तीव्र चलने के नए मापदण्ड बनाए हैं। फिर भी संक्षीयते के महत्ता समयायोजन में अत्यधिक है।

4) जीवनं:- समय जीवनं है। समय में चैतन्यता आभर होनी चाहिए। समय जीवन की अपेक्षा से है न कि जीवन समय की अपेक्षा से है। जीवन विशिष्टता है चैतन्यता। चैतन्यता किसी भी जड़ की अपेक्षा घटती बढ़ती नहीं है। समय गति की अपेक्षा घटता बढ़ता है। भरथरी जीवन प्रबन्धन जो अर्धजागरण, अर्धशयन, अवधि, अर्धअवधि, अर्धार्ध अवधि है भी समय प्रबन्धन का ही भाग है।

5) समय बाध:- व्यापारैर्बहुकार्यभार गुरुभिः ‘समय बाध’है। भरथरी का यह सूत्र अत्यधिक महत्वपूर्ण है कि व्यापार, बहुत से कार्य, कार्यों का भारी भार समय बाध है। इनके कारण समय का अहसास ही नहीं होता इनके कारण से ही समय का प्रबन्धन करना आवश्यक है। व्यापार के बहुत कार्य हैं जो कमाधिक वजनी- महत्वपूर्ण है। भरथरी का यह कथन परियोजना की परिभाषा याद दिलाता है। परियोजना  अन्तर्संबंधित छोटे बड़े कार्यों तथा चुनौतियों युक्त बृहत कार्य (व्यापार) का नाम है।

अनियोजित व्यापार समय बाध (समय रोक) है। नियोजित व्यापार समय बाध (समयानुसार कार्यायोजन) है। प्राचीन व्यापार वर्तमान व्यापार में एक मूलभूत अन्तर है। प्राचीन व्यापार में दूसरे की आवश्यकता पहचान उसकी सदिच्छा से उपकृतांश (उसके उपकृत होने के कारण त्याग भाग) प्राप्त करना व्यापार था। वर्तमान व्यापार में दूसरे को आवश्यकता जता आवश्यकता बढ़ा चढ़ा उसकी मजबूरी का लाभ उठाते उससे अधिकाधिक निहित स्वार्थों की पूर्ति करना है। शिक्षा, चिकित्सा, परामर्श, प्राचीन काल व्यापार सीमा बाहर थे। वर्तमान में ये तीनों सबसे घिनौने व्यापार हैं। प्राचीन व्यापार आधार परउपकार था। वर्तमान व्यापार आधार पर अपकार है।

भरथरी समय प्रबन्धन की मांग है कि व्यापार बहु कार्य जो भारी है में भी समय का अवश्य ही ध्यान रखना चाहिए। इसका आदर्श नियोजन प्रारूप ‘दशरूपकम् परियोजना प्रबन्धन’में देखा जा सकता है।

6) समय बोधक:- अ) जन्म:- व्यक्ति जन्मतिथि दिवस याद रखना चाहता है। बुधवारी, इतवारी, सोमवारी आदि नाम जन्मदिवसाधारित होती है। जन्मसमय पर ज्योतिष अन्धविश्वास का महाकाला समुन्दर आकाश फैला दिया गया है। जन्म दिवस मनाना समय आयोजन बोध है।

वैदिक जीवन समय प्रारूप में गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म संस्कार, सुजन्म प्रबन्धन है। यह जन्मते तथा जन्मपूर्व का समय प्रबन्धन है।

ब) जरा:- बुढ़ापा भी समय बोधक है। वानप्रस्थ या सेवानिवृत्ति और सन्यास संस्कार एवं कार्य नियोजन जरा समय प्रबन्धन के श्रेष्ठ प्रारूप हैं। जिनके सम्मुख वर्तमान का पीटर सिद्धान्त पानी भरता नजर आता है।

स) विपत्ति:- आपत्ति आकस्मिक अवरोध को कहते हैं। विपत्ति विशिष्ट अवरोध को कहते हैं। विपत्ति वह अवरोध है जो तनिक दीर्घकालीन उपचार चाहता है। आपात प्रबन्धन विपत प्रबन्धन (अभी प्रारूप विकसित नहीं किया गया है) विपत्ति समय प्रबन्धन के प्रारूप हैं। विपत्ति में कष्ट तथा रोग दोनों का समावेश है। दोनों समय बोधक हैं। आम आदमी भी इन्हें तूफान, भूकम्प, रोग, दुर्घटना के रूप में समय बोधक पहचानता है।

द) मरण:- मृत्यु समय बोधक बड़ा उपदेशक है। मृत्यु समय बोध ने दयानन्द, गौतम बुद्ध बना दिए। चिकित्सा विज्ञान मृत्यु बोध की उपज है।

भारतीय संस्कृति में मरण ही नवजन्म है। यह श्रेष्ठ मृत्यु प्रबन्धन योजना है। प्रायश्चित्त (कुमारिल भट्ट), सती आदि व्यवस्थाएं मृत्यु समय नियोजन के प्रकार हैं। सर्वोत्तम मृत्यु प्रबन्धन भावना वह वैदिक भावना है जो कहती है कि मृत्यु को फुटबॉलवत किक् करते खेलते बढ़े चलो।

जन्म, जरा, विपत्ति, मरण इन चारों को भरथरी ”त्रास“कहता है। इन चारों के लिए समय प्रबन्धन ”त्रास प्रबन्धन“कहा जा सकता है। इन सबको देखकर एक चिन्तन उत्पन्न होता है उस चिन्तन से समय प्रबन्धन की अवधारणा पैदा होती है।

वर्तमान युग का प्रथम समय प्रबन्धन विधाता भरथरी छोटे से चार पंक्ति श्लोक में समय प्रबन्धक अयोग्यता का विवरण भी देता है।

7) समय प्रबन्धन अयोग्य:-

अ) मोहग्रस्त:- मोह मदिरा का पान कर लिया है जिसने। मोह मदिरा ग्रस्त माताएं अपने बच्चों की लाशों से लिपट लिपट कर रोती हैं। धन मोही व्यक्ति हाय पैसा, हाय खेती कहकर दम तोड़ते हैं। मोह मदिरा ग्रस्त पत्नियां पति की मुद्रा लाशों के ओठों पर चुम्बन अंकित करती मैंने देखीं हैं। आपसी मोही प्रिया प्रिय कई बार अज्ञानपूर्वक आत्महत्या करते पाए गए हैं। धन, यश, पुत्त मोही समय प्रबन्धन ही नहीं हर प्रबन्धन के अयोग्य होते हैं।

ब) प्रमादग्रस्त:- प्रमाद कहते हैं अज्ञान के आवेग को, अभिनति के आवेग को। अज्ञान के पकड़े रहने पर अज्ञान छुड़ाने वाले के प्रति प्रमादी आवेगपूर्ण विचार करेगा ही। अज्ञानी को, ज्ञानी को सहजतः कुछ भी समझाया जा सकता है पर प्रमादी को कुछ भी समझाना असंभव है। स्वयं ब्रह्मा भी प्रमादी को नहीं समझा सकता।

स) भूत जगतसना:- मात्र भौतिकता सना या बीसवीं सदी का अर्थलोलूप मनुष्य। मोह, प्रमाद, भूत जगत ग्रस्त व्यक्ति उन्मत्त होगा ही। तीनों या दो या एक ग्रस्त व्यक्ति समय को नहीं जान सकता है। समय प्रबन्धन भी नहीं जान सकता है। क्यों कि वह मदिरा पीए व्यक्ति के समान होता है।

भरथरी का समय प्रबन्धन उसकी समय पर गहन, सूक्ष्म, व्यापक समझ की उपज है। इसे उद्योग जगत अपनाकर अपने व्यापार की स्वस्थ वृद्धि कर सकते हैं।

स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय

पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)

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