शुभ.अशुभ प्रबन्धन के कई कई आयाम हैं जो अति व्यापक रूप से भरथरी नीति श्लोकों में देता है। मैं बैंक गया वहां ठेठ भाषा में लिखा था श्अवर मोटो फ्रॉफिटश् हमारा उद्देश लाभ ही लाभ पढ़कर ही मेरा मन खट्टा खट्टा सा हो गया। मुझे वह लाभ ही लाभ शब्द स्वार्थ ही स्वार्थ बोलते लगा। और बैंक प्रबन्धन अशुभ प्रबन्धन लगा। मैं उस बैंक का ग्राहक होने में शर्म महसूस करने लगा।
पाश्चात्य प्रबन्धन वस्तुए धनए संसाधन केन्द्रित है। पर भारतीय प्रबन्धन व्यक्तिए धर्मए संवेदनए संबंध केन्द्रित है। भारतीय प्रबन्ध्ान मंे लचीला पन है। दुःखद तथ्य यह है कि कुछ प्राश्चात्य प्रशिक्षित लोगों ने जो भारतीय संस्कृति अनभिज्ञ हैं भारतीय प्रबन्धन के लचीलेपन को लिज़लिज़ा कर दिया है।
भरथरी शुभ.अशुभ प्रबन्धन लचीली पर ठोस प्रबन्धन मान्यताओं पर आधारित है। इसमें अशुभ चित्रण भी अशुभ से बचाव के रूप में है और शुभ चित्रण शुभ से लगाव के रूप में है।
अ) अशुभ बचाव प्रबन्धन.
1) लोभ है तो अन्य दुर्गुणों की क्या आवश्यकताघ्रू. लाभ ही लाभ लोभ स्वर है। फिर वह प्रबन्ध्ान कबाड़ा प्रबन्धन होगा ही।
2) चुगलखोरी है तो और पतन क्या होगाघ्रू. वर्तमान प्रबन्धन में तो उच्च प्रबन्धकों ने अपने सूचनादाता रखे हैं। ये सूचनादाता चुगलखोरी का ही काम करते हैं। भद्र पुरुष कभी किसी का सूचनादाता बनना पसंद नहीं करेगा।
3) अपयश है तो मरण और क्या होगाघ्रू. भिलाई इस्पात संयंत्र की घटिया गुणवत्ता रेलों की रिपोर्ट पेपर में छप गई। वह चर्चा विषय बन गई। काश किसी ने इसे भरथरी के सूत्रानुसार मरणवत लिया होताण्ण् प्रबन्धन सुधर जाता।
4) मूर्खों का संग है तो दुःख और क्या हैघ्रू. भारतीय व्यवस्था में इनेगिने अफसर हैं जो व्यवस्था के सन्दर्भ में सोचते हैं। अन्यथा सारे ष्मैंष् के सन्दर्भ में सोचते हैं। इसका कारण संविधान पर संविधान से बड़े किन्तु परन्तु प्रावधान लाद देना है। यह दुःख की बात है कि प्रमोशन न होने पर एमण्डीण् से चर्चा होने पर वह उससे कहे कि अगली बार मैं तुम्हें प्रमोशन दे दूंगा। यह प्रबन्ध्ान मृत्यु स्वर है। सीधी भाषा में मूर्ख स्वर है।
5) हानी क्या हैघ् समय से पतनरू. कृषि सूखने पर वर्षा से क्या लाभघ् विलम्ब से मीटिंग शुरु होना या कार्यक्रम शुरु होने की हानी का अगर सटीक आकलन किया जाए तो आयोजन कार्यक्रम रखना ही छोड़ दें। इस विलम्ब से अनास्थाए मनोवैज्ञानिक उत्साहभंगादि बड़े बड़े नुकसानए छोटे छोटे धन हानी समय हानी के साथ होते हैं। जापान में समय नियोजक का आदेश प्रधानमन्त्री को भी पालना पड़ता है।
लोभ, चुगलखोरी, अपयश, मूर्खों का संग, समयच्युति ये पांच महा अशुभ हैं इन्हें प्रबन्धन में न्यून से न्यून करते जाना चाहिए।
ब) शुभ लगाव प्रबन्धन.
1) सत्य हैय और तपस्या क्या हैघ्रू. सत्य सबसे बड़ी तपस्या है। श्रम, सत्य, तप से सुरचना होती है। शृत तथा सत्य तप से सृष्टि रचना हुई है। सच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप नहीं। सत्यवादी के हृदय ब्रह्म निवास है। कबीर के कथन में भी भरथरी के कथन का सच है। सत्य कहनाए सत्य आचरनाए सत्य हर स्थिति करना यदि किसी प्रबन्धन हो जाए तो एक दिवस में प्रबन्धन अभय हो जाए।
2) पवित्र मनय तीर्थ की क्या आवश्यकता हैघ्रू. वर्तमान की तीर्थ यात्राओं को टूर कहते हैं। अधिकांश टूर अपवित्र मनों की उपज होते हैं। महाप्रबन्धक अधिशासी निदेशक स्तर के लोगों को मैंने सप्ताह सप्ताह भर टूरों पर अपने बच्चों के साक्षात्कारए प्रवेश या विवाह हेतु जाते देखा है। ये सारी तीर्थ यात्राएं अपवित्र मन की उपजें हैं। इतनी तात्कालिक फोन सुविधा और कार्य की प्रगति जांच के लिए तीर्थ यात्रा या टूर जाना अपवित्र मनों की ही उपज हो सकती है।
3) सज्जन है तो अन्य गुण क्या जरूरी हैघ्रू. सात्विकता मानव में भर जाए तो तम रज का प्रवेश कहां होगाघ् सज्जनता एक व्यापक सात्विकता का नाम है। इसमें सत्य काए पवित्रता का भी संयुक्त समावेश है।
4) यश है तो आभूषणों का क्याघ्रू. बी स्मार्ट! ड्रेस स्मार्ट! लुक स्मार्ट! आज का प्रबन्धन नारा है। चेअरमैन विजिट में मैंने लोगों के कपड़े तेल फुलैल देखे हैं। भिलाई को भी रंगरोगन कर सजाया जाता है। इसका प्रभाव भी पड़ता है। इसी रंगरोगन से भिलाई इस्पात संयन्त्र को पांच बार स्वर्ण ट्रॉफि प्रधानमन्त्री की मिल चुकी है। इन टॉफियों पर सबसे बड़ा आश्चर्य है इसके कमचारियों कोघ् काश! भिलाई का यश होता तो दरारित रेलों का अपयश नहीं होता।
5) उत्तम विद्या हो तो धन का क्याघ्रू. उत्तम विद्या स्वयमेव धनार्जिता है। अविद्या धन नष्टता है। विद्या का कोई विकल्प नहीं है। उत्तम विद्या श्रेष्ठतम धन है। भारतीय प्रबन्धन की बरबादी विद्या के अपमान के कारण है। आम भारतीय यह तथ्य भूल जाता है कि नब्बे प्रतिशत से अधिक पढ़े लिखे अशिक्षितों से बेहतर होते हैं। अशिक्षितों में दस प्रतिशत अतिबहुत श्रुत पढ़े लिखों से बेहतर होते हैं।
6) लाभ व्यवस्थारू. श्रेष्ठों का संगए श्रेष्ठों की संगतए श्रेष्ठों की तुलना ही लाभ है। इसे ही आज की व्यवस्था में बेंच मार्किंग या स्तरीकरण कहते हैं। गुणी कार्य संस्थानवत होना स्तरीकरण है।
7) सुख व्यवस्थारू. प्राज्ञ से भी उच्चों की संगति सुख है। प्रज्ञावान एवं ऋतावान संगति ही सुख है। ऋत तथा शृत ही उत्तम इन्द्रियों में आधारभूत तथ्य है। इन्द्रियां ही कार्यवाहक हैं। उत्तम इन्द्रियां उत्तम कार्यए निकृष्ट इन्द्रियां निकृष्ट कार्य। इन्द्रियां श्रेष्ठ संगत से उत्तम होती हैं।
8) निपुणता क्या हैघ् धर्मतत्व में रत रहनारू. धर्मतत्व की गति गहन है। आजिविका अर्जन हेतु नियत कार्य धर्म है। प्राचीन संस्कृति में धर्म था ब्राह्मणत्वए क्षत्रियत्वए वैश्यत्वए शिल्पत्व या सेवाभाव। अपने अपने धर्म को निष्ठापूर्वक जीने से एक ही फल अलग अलग धर्मी को प्राप्त होता था। नियत समय नियत कार्य नियत धर्म सममूल्य थे। कालांतर में ये व्यवस्थाएं विकृत होती चली गईं। आज व्यवस्थाएं विकृततम हैं। जिसमें श्रमिक प्रधानमन्त्री कार्यफल में सर्वाधिक अन्तर है। यह अन्तर सुरक्षा व्यवस्था से लेके सुविधाओं तक का लाखगुना से भी अधिक है।
अपने अपने कार्य में रत रहते उसे लगनपूर्वक करना धर्म है तथा धर्म में रत रहना निपुणता है।
वेद में कार्य निपुणता के लिए (शुद्धमपापविद्धम्) शब्द मानों इसकी परिभाषा है। श्अपापविद्धम्श् का अर्थ है कार्य में कहीं भी मानक उल्लंघन न हो। या कार्य में कहीं भी पाप न हो। पाप कहते हैं अधर्म को। कार्य धर्म मानक है। मानक च्युति अनिपुणता के कारण हैं। मानक च्युति का परिणाम है त्रुटि। अपापविद्धम् का अर्थ है त्रुटिरहित कार्य या शून्य त्रुटि कार्य या पूर्ण निपुणता।
शुद्ध का अर्थ है अर्हता अनुरूप या धर्म अनुरूप। यह ग्राहक संतुष्टि प्रत्यय है। अ से क्ष तक में निर्माण से लेके पॅकिंग ग्राहकता पहुंचाने तक अर्हताओं के अनुपालन को शुद्धता धर्म या निपुणता के सन्दर्भ में कहते हैं। अनिपुण अवजारों को दोष देते हैं। यह भरथरी निपुणता प्रबन्धन है।
9) कार्य शूरवीर कौन हैघ् विजित इन्द्रिय है जोरू. इन्द्रिय अविजय क्या हैघ् अद्ध मन की लगाम का ढीला होना। या मन की मूढ़ए क्षिप्तए विक्षिप्तावस्था। बद्ध इन्द्रियांे के घोडों का विषयों के रास्ते दौड़ना। दोनों अवस्थाओं में व्यक्ति कार्य शूरवीर नहीं हो सकता है।
कार्य सम्बन्ध में विषय क्या हैघ् 1. अनावश्यक गपशप, 2. चाय, 3. नाश्ता, 4. तम्बाखू, 5. शराब, 6. अश्लील, 7. रेजाएं। मन की लगाम का सटीक होना क्या हैघ् मन की चौथी या पांचवी अवस्था. एकाग्रता तथा निरुद्धावस्था। कार्यपूर्ति लक्ष्ययुक्त होना कार्य सन्दर्भ में निरुद्धावस्था है। तथा कार्य मानकगुणयुक्त रहना एकाग्रतावस्था है। इन्द्रिय विजित ही सटीक कार्य कर सकता है।
नाम था उसका राम मिलन। काम था राजा रानी मार्का ईंटा एलीवेटर में रखना। वह कार्यरत था। कार्य एकाग्रता चाहता है। ऊपर से आवाज आई श्राजा मार्का ईंटा नहीं चाहिए।श् उसने आवाज दी. श्राजा मार्का ईंटा नहीं चाहिए।श् ईंटा बन्द पर एलीवेटर बन्द नहीं हुआ कि राम मिलन काम मिलन हो गया। और साथियों से रानी विषय पर रेजा चर्चा में मगन हो गया। मन की ढीली लगाम बात ही बात उसका हाथ एलीवेटर के पास ही चलते पहिए पर पड़ गया और उसमें पिच गयाए वह एलीवेटर में खिंच गया। तीन ऊंगलियां गंवा बैठा।
10) कार्य प्रियतमा कौनघ् अनुव्रता है जोरू. कार्य प्रियतमा वह व्यवस्था है जो कार्य अनुव्रता है। अनुव्रत का मूल शब्द है अणुव्रत। अणुव्रत का अर्थ है सूक्ष्म धरातल का पक्का रिश्ता जो स्थाइत्व दे सके। कार्य का अणु ढांचा है दशरूपकम् कार्यचित्र। इस अणुचित्र का अनुगामी होना है अणुव्रता गुण। वह कार्य व्यवस्था अनुव्रता है जो दशरूपकम् चित्र या पर्ट की अनुगामी है। और यह व्यवस्था प्रियतमा होती है जहां वहां का प्रबन्धन भरथरी प्रबन्धन है।
11) कार्यसुख क्या हैघ् अप्रवासरू. कार्यसुख यही है कि कार्य क्षेत्र में रहो। कार्य क्षेत्र का चप्पा चप्पा अगर राजदां हो जाता है तो सच्चा कार्य सुख मिलता है। परियोजना सुरक्षा संगठन अचिन्हीं असुरक्षित स्थितियों के भी निवारण के कारण कार्य सुखी रहा।
12) उत्तम कार्य राज्य क्या हैघ् जहां आज्ञा पालन होरू. कार्य आज्ञाएं मात्र वैधानिक हों तथा उनका सहजतः कार्य में पालन हो तो वह कार्य राज्य उत्तम कहा जाएगा।
व्यवस्था कही कर्मचारी ने मानी।
कार्य राज्य व्यवस्था कितनी सुहानी।
व्यवस्था कर्मचारी भी लाभी ज्ञानी।।
यह भरथरी शुभ.अशुभ प्रबन्धन सार है। जो भारतीय कार्य व्यवस्था को विश्व श्रेष्ठ कर दे सकता है।
स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)