शिखरिणी छन्दः …

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यदा किञ्चिज्ज्ञोऽहं  द्विप इव मदान्धः समभवम्,

      तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः।

      यदा कि९िचत् कि९िचद् बुधजनसकाशादवगतं,

      तदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इन मदो मे व्यपगतः।।

                  (भर्तुहरिकृत- नीतिशतक, श्लो. ७)

       भावार्थ- जब मैं बहुत थोड़ा जानता था तब मदोन्मत्त हाथी की भांति घमण्ड से अन्धा हो गया था और अपने मन में यह समझता था कि ‘‘मैं सब कुछ जानता हूं’’, परन्तु जब बुद्धिमानों की संगति से कुछ-कुछ ज्ञान हुआ, तब पता चला कि ‘‘मैं तो मूर्ख हूं’’, उस समय मेरा अभिमान ज्वर की भांति उतर गया।

      क्वचिद् भूमौ शय्या क्वचिदपि च पर्यङ्कशयनं,

      क्वचिच्छाकाहारी क्वचिदपि च शाल्योदनरुचिः।

      क्वचित्कन्थाधारी क्वचिदपि च दिव्याम्बरधरो,

      मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःखं न सुखम्।।

                  (भर्तृहरिकृत- नीतिशतक, श्लो. ७७)

       भावार्थ- कभी सुन्दर शय्याओं पर शयन करते हैं तो कभी भूमि पर ही सो जाते हैं। कभी अच्छे-अच्छे स्वादिष्ट पकवानों का आनन्द लेते हैं तो कभी शाक-पात खाकर ही निर्वाह कर लेते हैं। कभी सुन्दर वस्त्रों को धारण करते हैं, तो कभी गुदड़ी से ही शरीर को ढक लेते हैं। विचारशील- विवेकी व्यक्ति अपने लक्ष्य की ओर से ही दृष्टि रखे होते हैं, मार्ग में आने वाले सुख-दुःख की परवाह नहीं किया करते।

      मही रम्या शय्या विपुलमुपधानं भुजलता,

      वितानं चाकाशं व्यजनमनुकूलोऽयमनिलः।

      स्फुरद्दीपश्चन्द्रो विरति वनिता संगमुदितः,

      सुखं शान्तः शेते मुनिरतनुभूतिर्नृप इव।।

                  (भर्तृहरिकृत- नीतिशतक, श्लो. ७१)

       भावार्थ- मुनियों के लिए भूमि ही रमणीय शय्या है, अपनी भुजा ही तकिया है, आकाश ही उनकी चादर है, अनुकूल वायु ही उनका पंखा है, चन्द्रमा ही प्रकाशमान दीपक है, विरक्ति ही उनकी स्त्री है। इन समानों के साथ ही मुनिजन, ऐश्वर्यशाली राजा के समान सुखपूर्वक शयन करते हैं।

      अजानन् दाहिर्तिं पतति शलभो दीपदहने,

      स मीनोप्यज्ञानाद् बडिशयुतमश्नाति पिशितम्।

      विजानन्तोऽप्येते वयमिह विपज्जालजटिलान्,

      न मु९चामः कामानहह ! गहनो मोहमहिमा।।

                    (भर्तृहरिकृत- वैराग्यशतक, श्लो. २०)

       भावार्थ- अग्नि के जलाने वाले स्वभाव को न जानता हुआ ही पतंगा दीपक पर गिर कर अपने प्राण गंवा देता है, मूर्ख मछली भी मांस से लिपटे कांटे को निगल कर मृत्यु को प्राप्त हो जाती है। किन्तु मनुष्य तो जानते हुए भी विपत्तियों से युक्त जाल को नहीं छोड़ते। अहो ! मोह की महिमा महान् है। अर्थात् अविद्या का प्रभाव कितना अधिक है !!

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