वेद स्वयं एक बेंच मार्क है। वेद का हर शब्द ‘तरलता’गुण के कारण एक-एक व्यवस्था को दर्शाता है । इन ‘शब्द’परिभाषाओं के साथ ही साथ वेदों में विशिष्ट सूक्त हैं। ये सूक्त भी सर्वोच्च माप समूह प्रदर्शित करते हैं। कुछ मंत्र भी बेंच मार्क के रूप में प्रयुक्त हैं। आधुनिक उद्योग बेंच मार्कों की तलाश कर रहा है। क्या वैदिक साहित्य आधुनिक उद्योग को उन्नयन बेंच दे सकता है ?
(1) औद्योगिक स्वास्थ्य सर्वोच्च-माप
”तच्छुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं शुणुयाम शरदः शतम्प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतम्भूयश्च शरदः शतात्।“(यजुर्वेद 36/24)
हम कम से कम शतवर्ष स्वस्थ तथा स्वनिर्भर रहते, ब्रह्म गुणों से आपूर्त स्वयं को करके जियें, देखें, सुने, बोलें, होवें।
सारे विश्व के औद्योगिक स्वास्थ्य मानकों का लक्ष्य उपरोक्त सर्वोच्च माप है। जिसकी ओर मानव जाति प्रयास कर रही है।
(2) ”पर्यावरण सर्वोच्च माप“
”द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष š शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्वं š शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि। (यजुर्वेद 36/17) ओम् शान्तिः शान्तिः शान्तिः।“
समस्त द्युतिशील पदार्थ- ”सूर्य, चांद, तारे, मोमबत्ती, बल्ब आदि, संपूर्ण अंतरिक्ष- वातायन, समस्त आधार तल, समस्त प्रवहणशील पदार्थ (ताप, तरलता गुणयुक्त, इलेक्ट्रान, किरणें आदि, समस्त औषधि व्यवस्था, वनस्पति व्यवस्था, द्यु अंतरिक्ष एवं भूदेव व्यवस्था, ज्ञान व्यवस्था, सर्व सामंजस्य, स्थैर्य एवं संतुलन व्यवस्था, संपूर्ण तत्व मिलकर, संपूर्ण सामंजस्य में प्राकृतिक स्थैर्य एवं संतुलन मानव को सहजतः सरलतः उपलब्ध हो।
पर्यावरण का उपरोक्त बेंच मार्क सारे उद्योगों, नगरों, नदियों, वातायन, ओजोन परत, वनस्पतियों, औषधियों आदि को स्वयं में समेटे हुए है ।
(3) ”गुणवत्ता सर्वोच्च माप“
श्रमेण तपसा सृष्टा, ब्रह्मणा वित्तर्ते श्रृता।
सत्येनावृता श्रिया प्रावृता यशसा परिवृता।।
श्रम, तप, नियम, शाश्वत, ज्ञान, सत्य
से की गई रचना शोभामयी होती है।
(4) ”सुरक्षा सर्वोच्च माप“
बोधश्च त्वा प्रतीबोधश्च रक्षतामस्वप्नश्च त्वानवद्राणश्च रक्षताम्। गोपायंश्च त्वा जागृविश्च रक्षताम्।। (अथर्ववेद 1/8/13) बोध (प्रत्यक्ष ज्ञान), प्रतीबोध्ा (अवचेतन ज्ञान, तथा सहज क्रियाएं) या विज्ञान द्वारा तू रक्षित। अस्वप्न = न देखना, दिवा स्वप्न या स्फूर्ति या उत्साह तथा अनवद्राण (अविचलन, स्थिरता, नियम दृढ़ता) द्वारा तू रक्षित।
जागृतिः जागने वाले = जागृत इन्द्रियां तथा गोपायनः = (शक्तियाँ) रक्षक हैं तथा हमेशा बचाते हैं।
(5) ”मानव मूल्य सर्वोच्च माप“
ऋचं वाचं प्र पद्ये मनो यजुः प्र पद्ये साम प्राणं प्र पद्ये चक्षुः श्रोत्रं प्र पद्ये। वागोजः सहौजो मयि प्राणापानौ।। (यजुर्वेद 36/1)
वाणी में ऋग्वेद, मन में यजुर्वेद, प्राणों में सामवेद तथा इन्द्रियों में अथर्ववेद रचा पचा हो । संपूर्ण अस्तित्व, ऋत की नाभि (ब्रह्म) से सहज संयुक्त हो।
(6) ”अघोर-अपाप-सर्वोच्च माप“
पृथिवी शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिर्द्यौः शान्तिरापः शान्तिरोषध्ायः शान्तिर्वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे मे देवाः शान्तिः शान्तिः शान्तिः शान्तिभिः। ताभिः शान्तिभिः सर्व शान्तिभिः शमया मोऽहं यदिह घोरं यदिह क्रूरं यदिह पापं तच्छान्तं चाच्छिवं सर्वमेव शमस्तु नः। (अथर्ववेद 19/9/14) हमारे लिए पृथ्वीलोक, अंतरिक्ष लोक, द्युलोक स्थैर्य संतुलन से भरपूर हों। जल, औषधियां, वनस्पतियां पूर्ण सुखदा स्थैर्य संतुलन पूर्ण हों। संपूर्ण देव व्यवस्था एवं दिव्य गुणव्यवस्था, विद्वान, शांति भी उपद्रव रहित हों। स्थैर्य एवं संतुलन से (पर्यावरण के) अज्ञान का, भय का, घोर का, क्रूर का, पाप का शमन तथा नष्टीकरण हो, तथा कल्याण स्वरूप अघोर, अपाप, ज्ञान, अक्रूर हमें प्राप्त हों।
(7) ”कार्य समूह सर्वोच्च माप“
सं समिद्युवसे वृषन्नग्ने विश्वार्न्यय आ।
इळस्पदे समिध्यसे स नो वसून्या भर।। 1।।
सङ्गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते।। 2।।
समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सहचित्तमेषाम्।
समानं मन्त्रमभि मन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि।। 3।।
समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति।। 4।।
(ऋग्वेद 10/191)
{अ} (1) शक्तिमय, (2) श्रेष्ठ, (3) तेजोमय, (4) निश्चय युक्त, सम्मलित एकत्रित, (5) वाक्- (परा, पश्यंती, मध्यमा, वैखरी) प्रकाशित, (6) रहन-सहन समृद्ध। {ब} (7) एकत्व प्रगति, (8) उत्तम संवाद, (9) संज्ञानी मन संस्कारित, (10) पूर्व स्थापित के समान श्रेष्ठ आचरण। {स} (11) एक विचार, (12) एक सभा, (13) एक विचार युजित मन, (14) एक चित्त, (15) एक उद्देश्य दीक्षित, (16) एक हविषमय (अन्न-उपयोगमय)। {द} (17) एक ध्येय, (18) एक हृदय, (19) मन-सम, (30) उत्तम शक्ति, (31) समान भाव।
(8) ”सुखं रथम् सर्वोच्च माप“
”आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च।।
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विविषयाँस्तेषु गोचरान्।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः।।“(कठोपनिषद्)
आठ चक्र नौ द्वार मयी अयोध्या पुरी सुखं रथम् है। इस रथ के रास्ते सत तम रज विषयों के हैं। घोड़े इन्द्रियों के हैं। मन लगाम है। बुद्धि सारथी है तथा आत्मा रथी है। आदर्श रथ वह है जिसका आत्मा रूपी सारथि चैतन्य ज्ञानी है। बुद्धि, मन, घोड़े क्रमशः उत्तरोत्तर में हैं। विषय पथ है। मोक्ष पथ है सत पथ।
(9) ”किंकर्तव्य विमूढ़ता- सर्वनिम्न माप“
वि मे कर्णा पतयतो वि चक्षुर्वी3दं ज्योतिर्हृदय अहितं यत् । वि मे मनश्चरति दूर आधीः किं स्विद्वक्ष्यामि किमु नू मनिष्ये।। (ऋग्वेद 6/9/6)
मेरे दोनों कान दूर-दूर गिर रहे हैं । मेरे नयन इध्ार-उधर भटकते हैं, हृदय-ज्योति दूर भाग रही हैं, अति दूर स्थानं लगा मन भी दूर-दूर भटक गया है। क्या कहूं ? क्या चिन्तन करूं ?
(10) ”माधुर्य सर्वोच्च माप“
मधुवाता ऋतायते मधुक्षरन्ति सिन्धवः।
माध्वीर्णः सन्त्वोषधीः।।
मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिवं रजः।
मधु द्यौरस्तु नः पिता।
मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमाँ अस्तु सूर्यः।
माध्वीर्गावो भवन्तु नः। (ऋग्वेद 1/9/6-8 )
वायु समूह मधुमय है, सरिताएं मधुमय हैं। शालि, गेहूँ, जौ, कौद्रव, श्यामाक, मुद्ग आदि खाद्य पदार्थों में मधु भरा है, वायु सरिताएं मधुवर्षण करती हैं, रात्रि मधु है, प्रातः मधु है, धरा रज मधु है, आकाश से झरती बूंदे मधुमय हैं, द्युलोक मधुमय है, वनस्पति मधुमयी, सूर्य मधुमय, कार्य प्रेरणा मधुमय है, इन्द्रियां, वाणियां, धेनुएं हैं मधुमय कि ऋतायन (ऋत का घर या संपूर्ण सत्य) सुशोभित हूँ यह मैं।
(11) ”अभयता- सर्वोच्च माप“
यथा द्यौश्च पृथिवी च न बिभीतो न रिष्यतः।
यथाहश्च रात्री न बिभीतो न रिष्यतः।
यथा सूर्यश्च चन्द्रश्च न बिभीतो न रिष्यतः।
यथा ब्रह्म च क्षत्रं न बिभीतो न रिष्यतः।
यथा सत्यं चानृतं च न बिभीतो न रिष्यतः।
यथा भूतं च भव्यं न बिभीतो न रिष्यतः।
एवा मे प्राण मा बिभेः।। (अथर्ववेद 2/15/1-6)
द्यौ, पृथिवी, दिन-रात्रि, सूर्य-चन्द्र, ज्ञान-शौर्य, ऋत-अनृत, भूत-भविष्य डरते नहीं है, नष्ट नहीं होते हैं। इसी प्रकार मेरे प्राण अभय हैं।
(12) नौकरी प्रवेश-पात्रता सर्वोच्च माप (समावर्तनी युवक)
युवा सुवासाः परिवीत आगात्स उ श्रेयान् भवति जायमानः। तं धीरासः कवय उन्नयन्ति स्वाध्यो 3 मनसा देवयन्तः।। (ऋ.3/8/4)
(1) परिवीत – त्रिऋण उऋण भावमय, नियम सेवित, विद्या शिक्षा सुशोभित। (2) सुवासाः – उत्तम त्रि-शरीरमय सुवस्त्र ध्ाारित। (3) युवा – पूर्ण युवा। (4) द्विजन्म: आचार्य आश्रम गर्भ में आचार्य निकटतम रह, अधिकतम हित योग्य – पुरोहितम् – दक्ष किया। (5) श्रेयान् – अतिशय शोभायुक्त- मंगलकारी। (6) स्वाध्यः – उत्तम ध्यान युक्त। (7) विज्ञान द्वारा विद्या वृद्धि भावना मय। (8) धैर्य युक्त। (9) कवि- क्रांतदर्शी। (10) उन्नतिशील- समावर्तनी- नौकरी क्षेत्र में समरूपता से प्रवेश करता है। अस्तित्व पहचान संकट मुक्त, सटीक पहचान युक्त।
(13) ”नेतृत्व – सर्वोच्च माप“
शर्धं शर्धं व एषां व्रातं व्रातं गणं गणं सुशस्तिभिः। अनुक्रामेम धीतिभिः। (ऋग्वेद 5/23/11)
व्यक्तिगत शौर्य-आदर्श, व्यक्तिगत शौर्य व्यवहार, आदर्श लक्ष्य, व्यवहार लक्ष्य, आदर्श समूह व्यक्तिगत समूह (जान आफ्टर एडेयर के एचीव टास्क तथा बिल्ड टीम से तुलनीय) का प्रशंसनीय बुद्धियों- ऊंगलियों के क्रम अनुक्रम अनुरूप प्रयोग से नेतृत्व होता है। पांच ऊंगलियां पंच समूह (1) अंगूठा = ज्ञान समूह। (2) तर्जनी = शौर्य समूह। (3) मध्यमा = संसाधन समूह। (4) अनामिका = सिद्ध समूह। (5) छोटी = सेवा समूह का कार्य कल्पना में चुटकी, कार्यारम्भ में लिखना, यत्नावस्था में चुनना, प्राप्ताशा (मध्य) अवस्था में लड्डू बनाना, नियताप्ति में घुग्घू बजाना तथा फलामय में गिलास पकड़ना उपयोग। क्रमशः कार्यारम्भ में धीर प्रशांत, यत्नावस्था में धीर ललित, प्राप्तांशा में धीर उद्धत, नियताप्ति में धीरोद्वात्त, फलागम में धीर प्रशांत नायक द्वारा प्रयोेग नेतृत्व है।
”शिक्षा सर्वोच्च माप“
”पुरौहितम्“- ऋग्वेद 1.1.1 – पुरः = अंतस में घिरा हुआ सुरक्षित निकट। हितम् = श्रेष्ठ कल्याण। जो निकटतम सुरक्षितम् रखते हुए अधिकतम भला करे। प्रथम पुरोहितम् है माता। गर्भावस्था में शिशु को निकटतम सुरक्षितमय रखते उसको स्वनाल से आहार-वायु देती, मन ही मन उसकी सुख कल्पना बुनती, उसका भला करती। द्वितीय पुरोहितम् है आचार्य। आश्रम गर्भ में शिशु को धारण कर आश्रम व्यवस्था से उसका पोषण कर, उसे निकटतम रखना समावर्तनी के रूप में उसे दूसरा जन्म देना। वर्तमान शिक्षा व्यवस्था पीरियड शिक्षक बदलती अपुरोहितम् है।
”कार्यपरिस्थितिकी सर्वोच्च माप“
ऋत्विजं। ऋग्वेद 1.1.1 ऋतु-ऋतु की संधियों का ज्ञाता एवं उसके अनुसार यथावत व्यवहार नियोजक वैज्ञानिक ऋत्विजम्। निमेण, काष्ठा, मुहूर्त, प्रातः, सन्ध्या, दिवस, सप्ताह, पक्ष, मास, वर्ष, शतवर्ष, युग, ब्राह्म दिन-रात, परान्त तक समय विभाजन संधियां हैं। इन संधियों पर विशेष यज्ञ विधान है तथा इष्टियां हैं तथा कार्य प्रवृति है। दैनिक कार्य प्रवृति इड़ा, पिंगला, सुषुम्णा चलने के आधार पर हैं। बदन संधियों हेतु आसन है। चक्र संधियों हेतु ध्यान प्रक्रिया है। यज्ञेन आयु कल्पना है। यह ऋत्विज विज्ञान परिस्थिति का सर्वोच्च माप है।
स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)