वह विधि जिसके अनुसार विश्लेषण व्यवस्था लागू करके किसी भी विषय को विज्ञान की श्रेणी मे लाया जा सकता है, वैज्ञानिक विधि है। आधुनिक विज्ञान की यह एक महत्वपूर्ण अवधारणा है। इस अवधारणा के प्रयोग के ही कारण सामाजिक विषयों को भी आज वैज्ञानिक विषय समझा जाने लगा है। विज्ञान विषय वस्तु में नहीं वरन पद्धति में निहित है। यह वह अवधारणा है, जिसने महान क्रांतिकारी परिवर्तन शिक्षा के क्षेत्रा में किया है।
आधुनिक वैज्ञानिक विधि का स्वरूप इस प्रकार है।
सामाजिक प्रघटनाओं तथा अवधारणाओं में जटिलता होने के कारण इनका वैज्ञानिक अध्ययन अत्यन्त कठिन है। सामाजिक प्रघटनाओं का स्वरूप इस प्रकार है।
(1)तथ्यों की जटिलता:- “ कदाचित मानव समूह के व्यवहार से संबधित वास्तविक विज्ञान की सबसे बारम्बार की बड़ी बाधा उसकी विषय सामग्री की जटिलता है। “ ( जी. ए. लुण्डबर्ग-सोशल रिसर्च पृष्ठ 17)
(2)अमूर्त प्रकृति:- इन्द्रियों का विषय नहीं होने से।
(3)गुणात्मक प्रकृति:-“ सामाजिक विज्ञान की अधिकतर सामग्री गुणात्मक है, और गणनात्मक व्याख्या को स्थान नहीं देती है।” ( जी. ए. लुण्डबर्ग-सोशल रिसर्च पृष्ठ 16)
(4)सजातियता का अभाव।
(5)निश्चिंतता का अभाव:- व्याख्या करने में अनिश्चित।
(6)गतिशील प्रकृति:- सरलता युक्त।
(7)कारण:- कार्य सम्मिश्रता।
(8)रस्मों परम्पराओ आदि के प्रभाव।
इन जटिलताओं के कारण इनका वैज्ञानिक अध्ययन एक कठिन कार्य है, पर वैज्ञानिक विधी से यह अपेक्षा कृत सरल हो जाता है।
विज्ञान का सामान्य अर्थ क्रमबद्ध ज्ञान है। ज्ञान का अर्थ है विषय वस्तु संबंधी विवरण। एल. जे. कार अपनी पुस्तक एनालिटिकल सोशियालाजी के पृष्ठ 1 पर लिखते हैं कि “प्रथम दृष्टि से हर विज्ञान संसार के प्रति एक एक दृष्टिकोण, एक धारणा तथा जांच पर सच उतरने वाले सुव्यवस्थित और सुक्रम और खोज करने वाले पथ का नाम है।” ज्ञान विषय में निहित होता है। उसे प्राप्त करने के लिए क्रम या व्यवस्था का अनुपालन करना होता है। ज्ञान या विषय वस्तु वैज्ञानिक या आध्यात्मिक या भौतिक नहीं होते, परन्तु उनके अध्ययन या प्राप्त करने या उन्हे प्रस्तुत करने के तरीके वैज्ञानिक या अवैज्ञानिक हो सकते हैं।
स्टुअर्ट चैज अपनी पुस्तक दी प्रापर स्टडी आफ मेनकांइड पृष्ठ 6 पर लिखता है कि विज्ञान पद्धति के साथ है, विषय वस्तु के साथ नहीं। कार्ल पियर्सन के शब्दों में ‘‘समस्त विज्ञानों की एका तरीके में निहित है, विषय वस्तुओं मेें नहीं।” ( दी ग्रामर ऑफ साइंस पृष्ठ 10)। अपनी पुस्तक सोशियालाजी के पृष्ठ 2 पर ए. डब्लू. ग्रीन विज्ञान को अनुसंधान की पद्धति कहते हैं। कार्ल प्रियर्सन अपनी उपरोक्त पुस्तक में ही कहते हैं ‘‘सत्य तक पहुंचने का कोई संक्षिप्त मार्ग नहीं है । इसका एक मात्रा तरीका वैज्ञानिक पद्धति है, जिससे सारे ब्रह्मांड का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।’’
एल.एल.बर्नाड वैज्ञानिक पद्धति की आठ प्रति क्रियांए दर्शाते हैं। परीक्षण, सत्यापन, परिभाषा, वर्गीकरण, संगठन, निर्धारण – जिनमें पुर्वानुमान एवं उपयोग भी शामिल हैं ( दी फील्ड एंड मेथड आफ सोशियालाजी-पृष्ठ 234) । वैज्ञानिक पद्धति में निम्नलिखित विशेषताएं जरुरी हैं। (1) सत्यापन शीलता, (2) तटस्थता, (3) वैषयिकता, (4)निश्चयात्मकता, (5) सामान्यता, (6) पुर्वानुमान क्षमता, (7) व्यवस्था, (8) क्रम।
वर्तमान उद्योग शास्त्र प्रोद्योगिकी के साथ-साथ सामाजिकता में भी प्रवेश कर रहा है । समाजिकता की विशिष्टताएं हैं- (1) मनुष्य से संबंधित, (2) मनुष्य व्यवहार से उत्पन्न, (3) मनोवैज्ञानिक तत्व, (4) मानसिक, सामाजिक, आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक आदि तत्व संमिश्र, (5) इन तत्वों को अलग करना असंभव, (6) कम यथार्थ, (7) पुर्वानुमान अत्यन्त कठिन, (8) तटस्थता कायम रखना मुश्किल, (9) मापन सटीक नही,ं (10) विशिष्ट प्रयोगशालाएं नहीं, (11) स्वाभाविक सहज ज्ञान मात्रा प्राणी जगत में अत्यंत कम, (12) रूढी, रस्म, भाषा, राष्ट्र आदि के संकीर्ण घेरों से आवृत । इन विशिष्टताओं के कारण समाज विज्ञान के विषयों में वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग करना एक जटिल कार्य है।
वैज्ञानिक पद्धति के जान आर्थर थामसन इन्ट्रोडक्शन टू साईंस पृष्ठ 57, जार्ज. ए. लुण्डबर्ग शोसल रिसर्च पृष्ठ 9 पर तथा श्रीमति पी. वी. यंग साइंटिफिक एवं सोशल रिसर्च पृस्ठ 130 पर पूर्णतः निम्नलिखित चरण दर्शाते हैं।
(1) कामचलाउ प्रकल्पना, (2) आलोचनात्मक एवं सतर्क अवलोकन, (3) सामग्री संकलन, (4) मापन, (5) वर्गीकरण एवं संगठन, (6) वैज्ञानिक सामान्यीकरण तथा सामाजिक नियमों का निर्माण।
छठे चरण का विस्तार इस प्रकार है।
(अ) तार्किक विधी, (1) समानता अंतर विधि, (2) सम्मिलित विधि।
(ब) सांख्यिकी प्रक्रियाएं, (1) सह संबंध, (2) सह विचलन,(3) गुण संबंध, (4) तथ्य विवेचन।
(स) (1) आगमन- एक से अनेक, (2) निगमन- अनेक से एक। यह संक्षेप में वैज्ञानिक विधि है, जो आधुनिक युग मे प्रचलित है। भारतीय संस्कृति में क्या कोई वैज्ञानिक विधि है, जिसके आधार पर इस संस्कृति के ग्रंथों का निर्माण हुआ है? यह प्रथम प्रश्न है। द्वितीय प्रश्न यह है कि क्या भारतीय संस्कृति शास्त्र वैज्ञानिक विधि के अनुरूप लिखे गए हैं? इसकी हम विवेचना करें।
हर भारतीय ग्रंथ में अनुबंध चतुष्टय पाया जाता है। अनुबंध का अर्थ है ‘‘जो हमारे किसी ज्ञान से प्रवृत होने की प्रवृत्ति के प्रयोजक ज्ञान का विषय है।’’ परिभाषा जटिल है । इसके चार चरण हैं –
(1) ज्ञान में प्रवृत्त होना।
(2) ज्ञान प्राप्ति की प्रवृत्ति।
(3) ज्ञान की प्रायोजकता – प्रवृत्ति के कारण।
(4) ज्ञान की विषय वस्तु।
सरल शब्दों मे इन चार चरणों का क्रम है –
(1) विषय, (2) अधिकारी, (3) संबंध, (4) प्रयोजन।
संस्कृत सूक्ति में ये इस प्रकार दिए गए हैं। “ प्रवृत्ति प्रयोजक ज्ञान विषयत्वम् अनुबन्धत्वम् ”। इन चारों मे विषय और प्रयोजन अधिक महत्वपूर्ण हैं।
अनुबंध चतुष्टय के पूर्व हर भारतीय ग्रंथ में मंगलाचरण पाया जाता है। जो शुभारंभ आधा काम संम्पन्न का जन्मदाता है।
ग्रंथ का लक्षण “पंचांगकं वाक्यं ग्रंथः” – अर्थात पांच अवयवों से युक्त वाक्य समूह को ग्रंथ कहते हैं । इन्हें पंचाधिकरण – पांच अधिकरण भी कहते हैं।
विषयो विषयश्चैव पूर्वपक्षस्तथोत्तरम्। निर्णयश्चेति पंचांगम् शास्त्रो ऽ धिकरणं विदुः । (1) विषय, (2) विषय के संबंध में विषय सामग्री, पक्ष – विपक्ष संकलन या संशय, (3)पूर्व पक्ष, (4) उत्तर पक्ष, (5) निर्णय ये पांच अधिकरण हैं।
वेद संस्कृत साहित्य के आदि ग्रंथ हैं। उनकी रचना में उनका विभागीकरण एक वैज्ञानिक क्रम दर्शाता है।
अष्टक ः जिसमें आठ अध्याय हों वह अष्टक है।
अध्याय ः जितनें में विशेष विषय का प्रतिपादन हो उसे अध्याय कहते हैं।
वर्ग ः विभागीकरण हेतु सुगमता पूर्वक विभाजन जहां हो।
मण्डल: प्रकरण विशेष को अंलकृत करें उसे मण्डल कहते हैं।
अनुवाकः अनुक्रम से जहां विषय कहा जाए वह अनुवाक है।
सूक्त ः विषय का पूर्ण विवरण जिसमें हो वह सूक्त है।
मन्त्र ः मनन करने पर गुह्यार्थ दर्शाए वह मंत्रा है।
विज्ञान पद्धति में निहित है। पूरे संस्कृत साहित्य को रचने की प्रक्रिया वैज्ञानिक क्रमबद्ध अनुशासन पूर्ण रही है। अतएव यह स्वाभाविक निष्कर्ष है कि ये सब वैज्ञानिक ग्रंथ हैं-इनमे रुढ़ियां या परम्पराएं या साम्प्रदायिकता का नामोनिशान नहीं है। हमारी सांस्कृतिक विरासत इतनी महत्वपूर्ण है कि इसमें इतिवृत (कथा) भी चाहे वह रामायण, महाभारत हो या वेणी संहार या रत्नावली या मृच्छिकटिकमादि अनुबंध चतुष्टय, पंच अधिकरण पांच प्रकृतियां, पांच अवस्थाओं, पांच साधियों और चौसठ संधि अंगो की वैज्ञानिकता मे निबद्ध हो लिखे गए हैं। यही कारण है कि यह अमर साहित्य है । अमर या शाश्वत साहित्य का वैज्ञानिक होना लाजिमी है ।
न केवल रचना प्रक्रिया वरन विषयवस्तु एवं पठन प्रक्रिया में भी हमारी संस्कृति में वैज्ञानिकता है।
विद् धातु के चार अर्थ हैं । (1) ज्ञान के लिए, (2) सत्ता के लिए, (3) लाभ के लिए, (4) विचार के लिए ये दर्शन के चार प्रतिपाद्य विषय हैं ।
(1) हेय:- त्याज्य – दुःख स्वरूपतः ही। (2) हेय हेतु: त्याज्य – छोड़ने योग्य के न छूटने या उत्पत्ति का कारण। (3) हान: दुःख का नितांत अभाव, या आनंद की नितांत प्राप्ति। (4) हानोपाय: नितांत आनंद प्राप्ति के उपाय।
इन चारों रहस्य पूर्ण प्रश्नों को सुलझाने /समझाने के लिए छः दर्शनो में तीन तत्वों ( जीव, प्रकृति, ब्रह्म) का छोटे-छोटे सरल परिभाषा सूत्रों मे युक्ति युक्त वर्णन है।
षड् दर्शन हैं – (1) मीमांसा, (2) वेदांत, (3) न्याय, (4) वैशेषिक, (5) सांख्य, (6) योग । ये वेदो के उपांग हैं।
ये अदभुत वैज्ञानिक ग्रंथ हैं । आठ एम.ए. , बी. ई. , डी. एच. बी. , ला (कानून) के सारे कोर्स मिला देने पर भी उनमें इतनी परिभाषांए नहीं हैं जितनी इन वेदों के उपांगों में हैं। इनका हर सूत्र एक युक्ति युक्त परिभाषा है। तथा हर परिभाषा तार्किक प्रक्रिया, सांख्यिकी प्रक्रिया, तथ्य प्रक्रिया, तथ्य विवेचन, तथा निगमन के सर्व से अंश नियमों के अनुसार क्रमबद्ध है।
वेद मंत्र के अर्थ के लिए वेद के अंग निर्धारित हैं।
(1) शिक्षा: वर्ण, स्वर, मात्रा का पवित्र बोध।
(2) कल्प: श्रौत सूत्र, गृह्य सूत्र, धर्म सूत्र, जिसमें याग के प्रयोग तथा मंत्र विनियोग विधियां हैं।
(3) व्याकरण: प्रकृति और प्रत्यय के विज्ञान से पद के स्वरुप तथा अर्थ के निश्चयार्थ ज्ञान।
(4) निरुक्त: पद विभाग, मंत्र का अर्थ और देवता निरुपण द्वारा एक एक पद के सम्भावित और अवयवार्थ का निश्चय करने का विज्ञान।
(5) छन्द: लौकिक और वैदिक पादों की अक्षर संख्या को नियमित करने पाद, यति, विरामादि की व्यवस्था करने का विज्ञान।
(6) ज्योतिष: काल, ऋतु, संवत्सर, वय की समय संधियों के अनुसार जीवन प्रक्रियाओं एवं उपादेयता निर्धारित करने वाला विज्ञान ये छः वेद के अंग हैं। वेद
मंत्रो के अर्थों का यथार्थबोध करने आवश्यक है। वेद के पांच विषय हैं।
(1) विधि: पालनीय नियम, (2) मंत्रा: चिन्तनात्मक मननात्मक – अर्थ स्मारक (3) नामधेय:- त्याग यथावत ज्ञान संगठन नियम,
(4) निषेध: अनुचित से विरत करते नियम, (5) अर्थवाद: प्रदार्थ के यथार्थ गुणों को दर्शाते नियम।
यह पूरा उपक्रम एक वैज्ञानिकता से ओत – प्रोत है। वैज्ञानिक विधि के अनुपालन का अप्रतिम उदाहरण है। न्यायदर्शन में वैज्ञानिक विधि को वाद द्वारा अभिव्यक्त किया गया है। वाद की परिभाषा इस प्रकार है।
” प्रमाण तर्क साधनोपालम्भ: सिद्धान्त विरुद्ध पंचावयवोपपन्न पक्ष प्रतिपक्ष परिग्रहो वादः।’’
(1) प्रमाण साधन से सिद्ध करने योग्य।
(2) तर्क साधन का उपयोग।
(3) सिद्धान्त:-शास्त्रा (शासनात् शास्त्रां, शंसनात् शास्त्रां अर्थात् प्रस्थापित विधि नियम, प्रस्थापित विश्लेषण विवेचन) के अर्थ की संस्थिति (निर्णय किए अर्थ) के अनुकूल।
(4) प्रतिज्ञा: साध्य का कथन।
(5) हेतु: उदाहरण के वैधर्म्य से भी साध्य साधने।
(6) उदाहरण: (1) साध्य के साध्य समानता से, साध्य का धर्म जिसमें हो ऐसे ( भौतिक और सैद्धान्तिक अर्थ समानता ) दृष्टांत को उदाहरण कहते हैं।
(7) उपसंहार का उपनय: ‘तथा’ अथवा ‘न तथा’ इस रूप से साध्य के उपसंहार को उपनय कहते हैं। साधर्म्य के दृष्टांत (उदाहरण 1 ) के साथ ‘‘तथा’’ या वैधर्म्य के दृष्टांत ( उदाहरण 2) के साथ ‘‘न तथा’’ उपसंहार होगा।
(8) निगमन: प्रतिज्ञा हेतु, उदाहरण और उपनय इन सबका एकत्रा समन्वय समर्थन निगमन है।
यह आठ चरणों का वाद भारतीय वैज्ञानिक विधि है। इस विधि से निसृत हमारे शास्त्रा शासन – शंसन के आदर्श प्रारूप के निकटतम ठहरते हैं।
श्रवण चतुष्टय वह वैज्ञानिक विधि है जिसके द्वारा श्रोता ज्ञान प्राप्त करता है। इसके चार चरण हैं – (1) दर्शन श्रवणादि, (2) मनन, (3) निदिध्यासन, (4) साक्षात्कार, निदिध्यासन गहन, व्यापक, परिशुद्ध, तटस्थ अवस्था का (समाधि अवस्था का ) चिन्तन निष्कर्ष है।
दर्शन, श्रवणादि, मनन, निदिध्यासन, साक्षात्कार की विधि द्वारा, ज्ञान के लिए, सत्ता के लिए, लाभ के लिए, विचार के लिए, दर्शन के प्रतिपाद्य विषयों { हेय, हेय हेतु, हान, हानोपाय} के रहस्यपूर्ण प्रश्नों का वेदो से हल पाकर प्रमाण तर्क द्वारा सिद्धान्तानुरूप प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय, निगमन से जीवन यापन हेतु वाद तथ्यों की स्थापना एवं अनुपालन वैदिक वैज्ञानिक विधि है।
पूरी भारतीय संस्कृति वैज्ञानिक है, क्योंकि यह क्रमबद्ध है। हम यहां कुछ और उदाहरण दे रहे हैं। बाकी उदाहरण इसी पुस्तक के अन्य अध्यायों में दिए गए हैं।
स्मृति वह विधा है जो आज की शिक्षा व्यवस्था का आधार है। एक भी परिक्षा याददाश्त की जांच से आजाद नहीं है । बाह्य परीक्षा की विधि के बारे में यू. जी. सी. विश्वविद्यालय शिक्षा के मानक निर्धारण समिति का कहना है कि ‘‘बाह्य परिक्षा की व्यवस्था करीब करीब पूर्णतः बारम्बार पढ़ने तथा याद करने के बाद उसे उतार देने पर आधारित है।’’ उपरोक्त समिति इस व्यवस्था से अंसतुष्ट है तथा अपनी रिपोर्ट में कहती है – ‘‘ज्ञान का संचय या ज्ञान का व्यवहारिक उपयोग इस व्यवस्था के द्वारा जांचा नहीं जा सकता’’ ( यू. जी. सी. 1965-80)। समिति की यह राय होने पर भी शिक्षा पद्धति याददाश्त पर ही आधारित है ।
यहां पर तीन तथ्य विचारणीय हैं। (1) क्या समीति की राय सही है ? (2) क्या आंतरिक परिक्षण विध्ाि जो शिक्षकांे द्वारा दिए गए व्यवहारिक अंको पर आधारित है सफल है ? (3) क्या ज्ञान आकलन का कोई वैज्ञानिक तरीका है ?
‘‘स्मरण’’ पर वैज्ञानिक चिन्तन जो भारतीय संस्कृति में उपलब्ध है उपरोक्त उहापोह को समाधान देता है। हम बुद्धि का पूर्ण विवरण यहां विस्तार भय से नहीं दे रहे हैं। मात्रा स्मरण विवरणांश दे रहे हैं।
बुद्धि आत्मा की पहचान है। ज्ञात का स्वभाव होने से स्मरण भी आत्मा का धर्म है। अर्थो का भोगना अर्थात अनुभव करना बुद्धि है। प्राणिधान आदि निमित्तों से स्मृति उत्पन्न होती है।
(1) प्राणिधान: स्मरण की इच्छा से मन को किसी एक विषय में लगा लेना प्राणिधान है। इससे स्मृति उत्पन्न होती है।
(2) निबन्ध: एक ग्रंथ के अनेक अर्थो के परस्पर युक्ति युक्त संबंध को निबंध कहते हैं। जिससे एक अर्थ का ज्ञान दूसरे अर्थ की स्मृति का हेतु होता है।
(3) अभ्यास: किसी विषय का चार बार बोध होने से तद् विषयक संस्कार उत्पन्न होते हैं, उसको अभ्यास कहते हैं। यह भी स्मृति का कारण है।
(4) लिंग: लिंग धुंए को देखने से अग्नि लिंगी का स्मरण होता है।
(5) लक्षण: कपिध्वज से अर्जुनरथ, गेरुए वस्त्र से साधु स्मरण।
(6) सदृश्य: समता से चित्रा से चित्रस्थ व्यक्ति का स्मरण।
(7) परिग्रह: स्वामीभाव – स्वामी से सेवक, सेवक से स्वामी।
(8) आश्रय: परस्पर निर्भयता से स्मरण।
(9) आश्रित: परस्पर निर्भयता से स्मरण।
(10) संबंध: रिश्ते नातों से, गुरु शिष्य, घराना आदि से।
(11) आनन्तर्य: क्रम से एक दूसरे की पीछे आने से। ब्रह्मयज्ञ स ेदेवयज्ञ का, नौकरी से प्रमोशन, रिटायर्मेंट का।
(12) वियोग: वियोग से संयोग का।
(13) एक कार्य: परियोजना निर्माण कार्य में सह कर्मियों का।
(14) विरोध: सांप से नेवले का, नेवले से सांप का।
(15) अतिशय: बाहुल्य से, रिकार्डों से, सर्वाधिक रनों से गावस्कर का, विकेटों से कपिल का आदि।
(16) प्राप्ति: जिससे, जिसको, जिसकी प्राप्ति होती है या होने वाली है। नौकरी से वेतन का, पुस्तकों से ज्ञान का।
(17) व्यवधान: म्यान से तलवार का, घूंघट से रूप का।
(18) सुख: सुख से इसके हेतु का।
(19) दुःख: दुःख से इसके हेतु का।
(20) इच्छा: पूर्ति अपूर्ति से साधन व्यवधान का।
(21) द्वेष: इष्ट का, अनिष्ट का।
(22) भय से: जिससे भय हो उसका।
(23) आर्थित्व: दाता का।
(24) क्रिया: कर्ता का, अकर्ता का, सुकर्ता का, कुकर्ता का।
(25) राग: चाहना है जिसकी, ना चाहना है जिसकी।
(26) धर्म: सुख, दुःख उसके अदृष्ट कारणों का।
(27) अधर्म: सुख, दुःख उसके अदृष्ट कारणों का।
बुद्धि शब्दवत् उत्पत्ति तथा विनाश वाली है। आत्मा उत्पत्ति विनाश सीमा से परे हैं। (न्यायदर्शनानुसार)
उपरोक्त तीन तथ्यों पर विचार करने के बाद स्पष्ट होता है कि – (1) समिति की राय स्मरण की अधूरी बाह्य संकल्पना पर आधारित है। (2) आंतरिक परीक्षण विधि जो वर्तमान में लागू है भी वैज्ञानिकता के अभाव में अधूरी है। (3) यदि ज्ञान की विषय वस्तु सार वैज्ञानिक हो तो कोर्स काफी कम किया जा सकता है। तब आकलन प्रणाली के वैज्ञानिक विधि पर आधारित होने से आकलन सटीक हो सकता है।
बुद्धि के बारे में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि बुद्धि ज्ञान का नाम है। यह जीवात्मा का गुण है इसके दो भेद हैं। (1) अनुभव, (2) स्मृति।
ज्ञान की विषयवस्तु सार वैज्ञानिक करने का एक तरीका यह है कि जैसे पदार्थो का गुण विवेचन मात्रा इंगन द्वारा अभिव्यक्त हो।। विस्तार विद्यार्थी पर छोड़ दिया जाए। जो प्रतीति से सिद्ध हो उसे पदार्थ कहते हैं।
वैशेषिक का अर्थ है पदार्थों के भेदों का बोधक। छः पदार्थ हैं। (1) द्रव्य, (2) गुण, (3) कर्म, (4) सामान्य, (5) विशेष, (6) समवाय। द्रव्य, गुण, कर्म, मुख्य पदार्थ हैं। शेष तीन उप पदार्थ हैं।
द्रव्य नौ हैं। (1) पृथिवी, (2) जल, (3) अग्नि, (4) वायु (5) आकाश, (6) काल, (7) दिशा, (8) आत्मा, (9) मन। गुण चौबीस हैं। रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथकत्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, शब्द, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार।
इनमें रूप, रस, गंध, स्पर्श, स्नेह, स्वाभाविक हैं। द्रव्यत्व, बुद्धि, सुख, दुख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, भावना, संस्कार और शब्द विशेष गुण हैं। ये एक द्रव्य से दूसरे द्रव्य को निखेरते हैं, और संख्या, परिभाषा, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, नैमित्तिक द्रवत्व,वेग संस्कार ये सामान्य गुण हैं। हम केवल कुछ गुणों की संक्षिप्त विवेचना करेंगे।
संख्या: एक में एकत्व सदा ही रहता है। परन्तु द्वित्व, त्रित्वादि संख्या अपेक्षा बुद्धि से पैदा होती है, और अपेक्षा बुद्धि के नष्ट होने पर नष्ट हो जाती है।
संयोग: तीन प्रकार का होता है। (1) अन्यतर कर्मज, (2) उभय कर्मज, (3) संयोगज कर्मज।
अन्यतर कर्मज (अ) अभिघात, (ब) नोदन।
उभय कर्मज (अ) अभिघात, (ब) नोदन।
विभाग: भी उपरोक्त की तरह तीन प्रकार का है।
संस्कार: तीन प्रकार वेग, भावना, स्थिति स्थापक।
कर्म: पांच हैं – (1) उत्क्षेपण – ऊपर फेंकना, (2) अवक्षेपण – गिरना तथा फेंकना, (3) आकुंचन, (4) प्रसारण, (5) गमन,
वैशेषिक में तीन सौ सत्तर परिभाषाएं हैं। जो पदार्थ संबंधी हैं। यह संकेत केवल वैज्ञानिकता दर्शाने हेतु किए गए हैं।
ज्ञान के रूप हैं (1) अनुभव, (2) स्मृति। स्मृति आधारित अनुभव इसका एक और रूप है। स्मृति सूचनात्मक ज्ञान का रूप है। यह अत्याधिक विस्तृत नहीं करना चाहिए इसको विस्तृत कर देने से शिक्षा व्यवस्था लड़खड़ा जाती है। जैसी कि वर्तमान में हैं।
स्मरण तथा गुण के जो रूप यहां दिए गए हैं वे सर्व से अंश के नियम को दर्शातें हैं। वे सार रूप हैं। इनसे व्यवहार रूप जगत विस्ततृ हुआ है। ’सार संक्षेप’ बृðि की आत्मा है। सार संक्षेप वैज्ञानिक विधि अनुसार होगा ही।
वैज्ञानिकता में एक और समस्या है अभिनति या एक तरफ झुकाव या पक्षपात। वर्तमान विज्ञान इसकी चुनौती को सहन नहीं कर पा रहा है यह दुःखद तथ्य है। प्रजातंत्रा की आत्मा पक्षपात है। यह राजनैतिक दल तथा दबाव समूह आधारित है, जो BIAS या एक तरफा झुकाव आधारित है। एक तरफ झुकाव के कारण ही पद के स्थान पदासीन व्यक्ति महत्वपूर्ण होता है तथा व्यवस्था चरमरा जाती है। वर्तमान में हम चरमराई व्यवस्था में जी रहे हैं।
इस पक्षपात के छब्बीस प्रकार विप्रतिपत्ति (विरुद्ध समझना) और अप्रतिपत्ति (न समझना) रूप में न्याय दर्शन 5/2/2/1 में दिए गए हैं। इसी प्रकार जाति के भेद भी पक्षपात पक्षों का विश्लेषण है। (न्यायदर्शन 5/2/1/1) में दिए हैं। ये संचार संप्रेषण भंग का कारण भी हैं। संप्रेषण अध्याय में इनके नाम दिए जा चुके हैं। सूत्र प्रकार है ‘’प्रतिज्ञा हानिः प्रतिज्ञान्तर प्रतिज्ञा विरोध प्रतिज्ञा संन्यास हेत्वन्तरमथातो निरर्थकमविज्ञातार्थमपार्थकमप्राप्तकालं न्यूनमधिकं पुनरुक्तमननुभाषणमज्ञानम प्रतिभा विक्षेपोमतानुज्या पर्य्यनुयोज्योपेक्षणं निरनुयोज्यानुयोगौ ऽ पसिद्धांतो हेत्वाभासश्च निग्रह स्थानानि।’’ इनका निग्रह स्थान अर्थात पक्षपात या दुराव है।
जाति की परिभाषा है ‘’ समानप्रसवात्मिका’ (जिसमें समान प्रसवपना पाया जाए) भेद सूत्रा इस प्रकार है – ’साधर्म्य वैधर्म्योत्कर्षापकर्षवर्ण्यावर्ण्य विकल्प साध्य प्राप्त्य प्राप्ति प्रतिदृष्टान्तानुत्पत्ति संशय प्रकरणहेत्वर्थापत्य विशेषोपत्युपलब्धि नित्यानित्यकार्य समाः’’।
इनके अतिरिक्त वितंडा, जल्प, छल, व्यभिचार, प्रकरण भी पक्षपात या दुराव कारण हैं।
भ्रांति दोष के तीन कारण हैं – (1) विषय दोष, (2) इन्द्रिय दोष, (3) मनोदोष। इनके कारण भी अभिनति हो सकती है।
अभिनति या पक्षपात या दुराव पर इतने संक्षेप में, इतना अधिक, इतना व्यापक चिंतन विश्व में अन्यत्रा दुर्लभ है। अभिनति का शून्य होना, अभिनति निवारण वैज्ञानिकता की पहली आवश्यकता है। पाश्चात्य विज्ञान इसके निवारण के साधनों को अधिक महत्वपूर्ण समझता है। हमारी संस्कृति इसके निवारण में साध्य को अधिक महत्वपूर्ण समझना है। दोनों का समन्वय आवश्यक है।
वेद की वैज्ञानिकता दर्शनों से भी अधिक है। वेद का प्रथम मंत्रा जिसकी व्याख्या प्रथमम् में की गई है इसका ज्वलंत प्रमाण है। बाकी वेद मंत्रा जो इस लेखन में उद्धृत किए गए हैं वे क्रम, सांख्यिकी, तर्क, ज्ञान की दृष्टि से वैज्ञानिक हैं।
आधिदैविक, अध्यात्मिक, आधिभौतिक सम्मिश्र वैज्ञानिक विधि की संपूर्ण व्याख्या दयानंद की कृत परीक्षा की परिभाषा में दी हुई है।
परीक्षा पांच प्रकार की है:-
(1) जो ईश्वर उसके गुण, कर्म, स्वभाव और वेद विद्या।
(2) प्रत्यक्षादि आठ प्रमाण।
(3) सृष्टि क्रम – (ऋत शाश्वत नियम)।
(4) आप्तों का व्यवहार।
(5) आत्मा की पवित्राता, विद्या। इन पांच परीक्षाओं से सत्यासत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना चाहिए।
आप्त: जो यथार्थवक्ता, धर्मात्मा, सबके सुख के लिए प्रयत्न कर्ता है वह आप्त है।
प्रमाण: (1) प्रत्यक्ष, (2) अनुमान, (3) उपमान, (4) आगम, (5)अर्थापत्ति, (6) संभव, (7) अभाव, (8) ऐतिह्य।
अनुमान प्रमाण के तीन भेद है:- (1) पूर्ववत – कारण से कार्य, (2) शेषवत – कार्य से कारण, (3) सामान्यतोदृष्ट।
आत्मा की पवित्रता: मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य का जानने वाला है। तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह, और अविद्यादि दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है।
इस प्रकार सांस्कृतिक वैज्ञानिक विधि का स्वरूप बड़ा व्यापक क्षेत्रा अपनाता है। इसे वर्तमान संदर्भ में अपनाने की महती आवश्यकता है। जैसा कि सर्वमान्य सत्य है कि ‘विज्ञान पद्धति में निहित है’ विषय वस्तु में नहीं। तथा समस्त सांस्कृतिक साहित्य (एक दो अपवाद छोड़) की रचना वैज्ञानिक पद्धति के आधारों पर की गई है। अतः यह साहित्य वैज्ञानिक है। इसे आज जीवन में, शिक्षा पद्धति में अपनाने के महती प्रयासों की जरूरत है।
स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)