विवाह से सुसन्तानोत्पत्ति करके, पूर्ण ब्रह्मचर्य से, पुत्र के विवाह उपरान्त पुत्र की भी एक सन्तान हो जाए, तब व्यक्ति को वानप्रस्थ अर्थात् वन में जाकर, तप और स्वाध्याय का जीवन व्यतीत करने के लिए यह संस्कार किया जाता है। गृहस्थ लोग जब अपने देह का चमडा ढीला और श्वेत केश होते हुए देखे और पुत्र का भी पुत्र हो जाए तो वन का आश्रय लेवे।
वानप्रस्थ करने का समय 50 वर्ष के उपरान्त का है। जब व्यक्ति नाना-नानी या दादा-दादी हो जाए तब अपनी स्त्री, पुत्र, भाई, बन्धु, पुत्रवधु आदि को सब गृहाश्रम की शिक्षा करकेवन की ओर यात्रा की तैयारी करे। यदि स्त्री चले तो साथ ले जावे। नहीं तो ज्येष्ठ पुत्र को सौंप जाए। और उसे कहे कि इसकी यथावत सेवा करना। और अपनी पत्नी को शिक्षा कर जावे कि तू सदा पुत्रादि को धर्म मार्ग में चलाने के लिए और अधर्म से हटाने के लिए शिक्षा करती रहना।
गृहस्थ आश्रम में सन्तानों के पालन, उद्योग, गृहकार्य एवं सामाजिक दायित्वों के चलते आत्मोन्नति के कार्यों के लिए व्यक्ति विशेष समय नहीं निकाल पाता। वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करके व्यक्ति साधना, स्वाध्याय एवं सेवा द्वारा जीवन के चरम लक्ष्य की ओर गतित होने के लिए पूर्ण अवसर मिल जाता है।
भारतीय संस्कृति त्यागमय जीवन का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। वैसे भी जब तीन-तीन पीढ़ियां एक ही घर में रहती हैं तब विचारभेद के चलते झगड़े स्वाभाविक ही हैं। वानप्रस्थ इस समस्या का सटीक उपाय है।