लोकशक्ति एवं प्रजातन्त्र

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प्रजातन्त्र के तीन आधारस्तम्भ माने जाते हैं। 1. न्याय व्यवस्था, 2. प्रशासन व्यवस्था, 3. विधायी व्यवस्था। समाचार पत्र व्ययं को प्रजातन्त्र का चौथा आधारस्तम्भ कहते हैं। यह अति दुःखद तथ्य है कि ‘लोकशक्ति’ को प्रजातन्त्र में प्रत्यक्षतः चुनाव के अतिरिक्त सुव्यवस्थित तरीके से कोई स्थान नहीं दिया गया है। प्रजातन्त्र का चौथा आधारस्तम्भ है लोकशक्ति। न्याय, प्रशासन, विधायी एवं लोकशक्ति के आधारस्तम्भ में लोकशक्ति का पच्चीस प्रतिशत आधार पचहत्तर प्रतिशत महत्वपूर्ण है। अन्य तीन न्याय, प्रशासन, विधायी पचहत्तर प्रतिशत होते हुए भी पच्चीस प्रतिशत महत्वपूर्ण है। यह अति दुःखद तथ्य है कि वर्तमान प्रजातन्त्र में विधायी शक्ति का तैंतीस एक बटे तीन प्रतिशत पचहत्तर प्रतिशत महत्वपूर्ण हो गया है। तथा लोकशक्ति को चुनावों के अतिरिक्त कोई महत्ता प्राप्त ही नहीं है। वर्तमान प्रजातन्त्र में ‘विधाई शक्ति’ पार्टियों, आपसी विरोधों, सस्ती मुहावरेबाजियों, गालियों लड़ाई-झगडों, सत्तालोलुपता, वंशवाद, धनलोलुपता, कुर्सीलालसाओं, यशेषणाओं आदि में तितिर बितिर बिखरी हुई अपने मूल दाईत्वों से हीन भटकी भटकी लावारिस हो गई है। भतृहरी (राजा भरथरी) ने राजनीति को वेश्या कहा था। उसने कहा था कि कभी सच्ची कभी झूठी (अवसरवादिता), कभी कठोर वचन बोलती कभसी मधुर वचन बोलती (अनिश्चित), कहीं मारनेवाली कहीं दया करने वाली (ऊलजलूल), कहीं लोभ भरी कहीं दान में दक्ष (ड़ांवाडोल), कभी बहुत संग्रह करनेवाली कभी प्रचुर व्यय करनेवाली (अविवेकी) इस प्रकार वेश्या के समान राजनीति अनेकरूपा है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी नें प्रजातन्त्र को बांझ और वेश्या अर्थात वेश्या से भी बदतर वेश्या कहा था। वह ऐसा है भी वर्तमान विधायी शक्ति पांच वर्षांे तक लोकशक्ति का मटियामेट करती रहती है। तथा न्यायशक्ति एवं प्रशासन शक्ति का घटियाकरण करती रहती है। ऐसा क्यों होता है?

प्रजातन्त्र में जनता द्वारा जननायकों के हाथों मतपत्रों द्वारा सत्ता का हस्तान्तरण होता है। इस हस्तान्तरण का प्रभावी प्रभाव सत्ता पर मात्र 22-20 प्रतिशत ही होता है। औसत पचास प्रतिशत मत पड़ते हैं। इनमें 40-45 प्रतिशत मत प्राप्त राजनैतिक दल जीत जाता है और विधायी व्यवस्था सत्ता हथिया लेता है। यह सत्ता हस्तान्तरण का मजाक है। कहा जाता है प्रजातन्त्र प्रजा का, प्रजा द्वारा, प्रजा के लिए है। लेकिन वास्तव में पजातन्त्री चुनाव प्रक्रिया ही इस सिद्धान्त की मूल रूप में हत्या करती है। लोकशक्ति का पचहत्तर प्रतिशत महत्वपूर्ण आधारस्तम्भ प्रजातन्त्र प्रक्रिया में आधारहीन ढह जाता है। प्रजा का, प्रजा द्वारा, प्रजा के लिए वास्तव में बीस प्रतिशत का बीस प्रतिशत द्वारा यथार्थतः बीस प्रतिशत के लिए पर नाटक प्रजा के लिए रह जाता है। और इस नाटक का जनता को कोई लाभ नहीं मिलता है।

बीमार लोकशक्ति व्यवस्था प्रजातन्त्र को प्रजातन्त्र ही नहीं रहने देती है। इसका समाधान प्रजातन्त्र के किसी भी संविधान के पास नहीं है। इसका समाधान प्रजतन्त्र के पास है। किसी भी राष्ट्र के समस्त व्यक्तियों को अनुभव तथा शिक्षा के संयुक्त अंकों के आधार पर स्तरीकरण द्वारा सोपानबद्ध कर सोपानानुसार महत्ता और समस्त व्यक्तियों की हर विधाई व्यवस्था में सर्वेक्षण भागीदारी प्रजतन्त्र है। सोपानानुसार श्रेणीबद्धता न्याय व्यवस्था है। सर्वेक्षण भागीदारी सतत पूर्ण सत्ता हस्तान्तरण है। सर्वेक्षण भागीदारी अनिवार्य होगी। विधायी प्रारूप या समस्या के पक्ष तथा विपक्ष में सुझाव रायों को इकत्रित कर पक्ष विपक्ष के मुद्दों का पच्चीस पचहत्तर सिद्धान्तानुसार विश्लेषण करके तितली चित्र द्वारा निष्कर्ष निकाल विधायी निर्णय लिए जाएंगे। विश्लेषणकर्ता विधायी निर्णय लेनेवाले सर्वोच्च सोपानासीन पांच सौ पच्चीस व्यक्ति सत्यज्ञ होंगे। विधायी सत्यज्ञ न्याय, शिक्षा एवं प्रशासन क्षेत्रों के सर्वोच्च अंक प्राप्त व्यक्ति मात्र साठ वर्ष तक की उम्र तक के होंगे। विधायी निर्णयों के लिए प्रतिमाह दो दिवस सत्यज्ञों की बैठक होगी। प्रजतन्त्र चुनाव रहित, बकवासी राजनीति रहित, अनावश्यक सुरक्षा व्यवस्था रहित अति व्ही.आय.पी. रहित, प्रजानन (दशानन से अधिक घातक) रहित, हर व्यक्ति (प्रज) को इज्जत सहित, हर व्यक्ति को उसकी आय के निश्चित प्रतिशत रूप में केवल एक ही कर सहित बाकी सारे उन्मुक्त, प्रजा की विधायी व्यवस्था में शत प्रतिशत सतत भागीदारी सहित, परिवर्तनीय सत्यज्ञों की, मात्र शाश्वत प्राकृतिक एवं शाश्वत नैतिक शिक्षामयी व्यवस्था होगी। यह योग्यतम सत्यज्ञों, प्रजों द्वारा प्रजा को प्रजा के लिए व्यवस्था होगी।

स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)

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