रस-आयन चिकित्सा

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दुनिया धन, ऋण का खेल है। धन, ऋण मिलकर यौगिक बनाते हैं। धन, ऋण सूक्ष्म आवेश ही सारी रासायनिक क्रियाओं, जैविक क्रियाओं का आधारभूत तथ्य है। ये सूक्ष्म आवेश ही सार हैं। ये सूक्ष्म आवेश अभी तक आधारभूत द्रव्य से अलग नहीं किए जा सके हैं। ये इलेक्ट्रानों पर तैरते रहते हैं। ये आवेश ही दुनिया बनाते, बिगाड़ते, संवारते, उजाड़ते रहते हैं। ये शक्तियों की शक्ति हैं। स्नायु कोशिकाओं में सोडियम, पोटेशियम आवेश असन्तुलन विचार प्रवहण का आधार है। विचार प्रवहण दो प्रकार का होता है। शुभ-अशुभ विचार संवेदन तरंगें आयनों के माध्यम से कोशिका झिल्ली में परमाणु, अणु उपग्रहों से प्रक्षेपित हो, जिनेटिक कोड़ पर टंकित हो, चय-अपचय शक्ति उत्सर्जन को सम-विषम बनाती है। शुभ विचार से सौम्य शक्ति उत्सर्जन पुंज उत्पन्न होता है। अशुभ विचार से अस्त-व्यस्त शक्ति उत्सर्जन पुंज उत्पन्न होता है। जीवन रस आयन प्रभावित होता है। यही रसायन विज्ञान का बीज है। इसी पर आधारित है आयुर्वेद की रसायन चिकित्सा।

रसायन के दो क्षेत्र हैं- एक आयन शक्ति से सूक्ष्म शुभ-अशुभ विचार, दो आयन शक्ति से स्थूल दवाई व्यवस्था। आयन शक्ति को प्रभावित करनेवाली चिकित्सा का नाम रसायन है। जिस साधन से निरोग व्यक्ति की चैतन्यता, भाव, प्रबोध, प्रतिबोध, बोध, मेधा, प्रज्ञा, संवेदन, वाक्, मन, प्राण, ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय सशक्त होकर दशरूपकीय, अथर्वीय, सामीय, ऋजीय, वेदीय, ऋतीय, शृतीय, तपीय, ऋद्धीय, सिद्धिय, ऋजीय, सत्यीय एवं स्वीय होते हैं उसे रसायन कहते हैं। यह सर्वांग सम्पूर्ण रसायन है। चरक संहिता के अनुसार रसायन सेवन के गुण इस प्रकार दिए गए हैं- 1. दीर्घायु, 2. स्मरण शक्ति, 3. धारण शक्ति, 4. आरोग्य शक्ति, 5. तरुणावस्था शक्ति, 6. प्रभावर्ण, 7. वाक्श्रेष्ठता, 8. इन्द्रियों  में उत्तम बल, 9. वाक् आप्तता, 10. नम्रता और 11. कान्ति। ये सब विधिपूर्वक रसायन सेवन से प्राप्त होते हैं। इसमें स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकार के रसायनों का अनुपान अपेक्षित है।

रसमय हो जाए स्थूल-सूक्ष्म आयन व्यवस्था जिससे वह है रसायन। ”ब्रह्म है रस“ तथ्य रसायन की आत्मा है। स्व-स्वास्थ्य-रसायन सेवन स्वस्थ व्यक्ति यदि नियमित करेतो सदा ही निरोग रहे। स्व-स्वास्थ्य-संस्थान सशक्त करने के रसायन ये हैं- 1. अगाओ रसायन, 2. ओऽम् रसायन, 3. ब्रह्म रसायन, 4. यमलोक रसायन, 5. एकी रसायन, 6. अति स्पर्शन रसायन, 7. अशोक रसायन, 8. रेकी रसायन, 9. प्राकृतिक रसायन और 10. दाब रसायन।

आदि अगाओ- सारे परमेश्वर नाम भावों के पार तक का परमेश्वर। अव्यक्त, संकल्प, कारण, सूक्ष्म, स्थूल शरीरों का क्रमबद्ध वितान इस प्रकार का उभरता है- 1. समस्त परमेश्वर नाम भाव ‘त्म’, 2. वेद परमेश्वर नाम भाव ”अति-आत्म“, 3. एकाधिक परमेश्वर नाम भाव ‘पारब्रह्म’, 4. ब्रह्म, 5. अव्याहत परमेश्वर सन्निधि ब्रह्मान, 6. संकल्प-विकल्प आधार ज्ञान ”वेद हो तुम“। 7. विज्ञान- विचार शरीर, 8. मनन शरीर, 9. इन्द्र संसाधन- अति सूक्ष्म संवेदन शरीर, 10. इन्द्र साधन- सूक्ष्म इन्द्रिय भाव- सूक्ष्म भूत- रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द; 11. वाज- अयन- विचार संवहन व्यवस्था, 12. परमाणु- अणु तत्व यौगिक आयनिक अवस्था- सूक्ष्म शक्ति असन्तुलन (प्राकृतिक शक्तियों पर), 13. स्फुर शरीरी वितान तथा जिनेटिक कोड- सूक्ष्म, 14. कोशिका-कोशिका रक्त प्राणमय, 15. अन्नमय- तन। क्रम संख्या 13, 14, 15 का आयुर्वेदिक विभाजन प्रारूप इस प्रकार है- रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र। क्रम संख्या 12 को ओज भी कहा जा सकता है। इस तथ्य को सुश्रुत सूक्त 14/10 में इस प्रकार कहा गया है- 1. भुक्ताहार से रस, 2. रस से रक्त, 3. रक्त से मांस, 4. मांस से मेद, 5. मेद से अस्थि, 6. अस्थि से मज्जा, 7. मज्जा से शुक्र उत्पन्न होता है। 8. शुक्र से ओज की उत्पत्ति होती है। ओज पूरे तन में तिल में तेल के समान व्याप्त रहता है।

रस से आयन तक के बाह्य से भीतर तथा भीतरतम से बाह्य तक के सुसफर का नाम रसायन है। यह सफर क्रम संख्या 1 से 15 तक भीतरतम से बाहर तक का सुसफर है और भुक्ताहार से ओज (आयन) तक बाहर से भीतर तक का है। द्वि परिशुद्धि सच्चा रसायन है। भुक्त आहार का स्वरूप सुहविषा होना चाहिए तथा भीतरतम से सुसफर सर्व ब्रह्म भाव से होना चाहिए। यह दुःखद तथ्य है कि वर्तमान विश्व में दवा व्यवस्था बीमारियों से नीची रहकर कार्य करती हैं तथा बीमारियों के आधार पर कार्य करती हैं। इसी कारण से वर्तमान चिकित्सा बीमारियों को जीत नहीं सकी है। रस-आयन (रसायन) चिकित्सा में स्व-स्वास्थ्य संस्थान के शक्तिकरण के द्वारा रोग जीतने के विधान भी हैं।

वेद में सव-स्वास्थ्य-संस्थान सशक्त करने के कई मूल भाव छोटे-छोटे बीज सूत्रों में दिए हुए हैं। वेद में ‘औषध’ शब्द का प्रयोग ‘शान्ति’ अर्थात स्थैर्य सन्तुलनदाता रूप में हुआ है। औषध का वेदार्थ है- एक बार होनेवाली उपज- जिन फसलों को दुबारा काटा नहीं जा सकता वे औषध हैं। अर्थात अनाज तथा सब्जियां औषध हैं। ”शान्ति औषधयः“ महान रसायन चिकित्सा सूत्र है। इसका अर्थ है अनाज सब्जियां तन के माध्यम से आतमा हेतु सुहविष हैं तथा जीवन हेतु स्थिरता एवं सन्तुलन देती हैं। औषध रसायन रूप में अनाज एवं सब्जियों के यथा उचित गुण व्यवहार प्रयोग आयुर्वेद में दिए हुए हैं। ”शान्ति वनस्पतयः“ सूत्र का अर्थ है- वे खाद्य पदार्थ जो वर्ष-दर-वर्ष वृक्षों से प्राप्त होते हैं। आम, संतरा, सेव, कटहल, अमरूद आदि फलों का गुण व्यवहार प्रयोग आयुर्वेद में दिया गया है। फलों का रस हमारे लिए स्थैर्य एवं सन्तुलनमय हो। वेद का एक और सूत्र है ”शान्तिः पृथिवी“ पृथिवी लवणों का घर है। शरीर में अत्यधिक कम मात्रा में लवण- धातु-अधातु के क्लोराइड, कार्बन-ऑक्साइड, हाइड्रॉक्साइड आदि में विभक्त आयन रूप में रहते हैं। लवण रक्त में प्रवहणशील रहते हैं। रक्त में रस के माध्यम से भिदते हैं। रस में वायु, आपः, औषधी, वनस्पतियां आदि रहती हैं। शान्ति पृथिवी के रूप में ये लवण सौ हजार से अधिक एन्झाइमों को सूक्ष्म आण्विक स्तर संदेश देते हैं जिनके आधार पर शरीर ग्रहण-त्याग करता है। तनिक क्षारीय खून से अम्लीय कार्बन-द्विओषिद निष्कासन में कार्बोनिक एनहाइड्रेस किण्व (एन्झाइम) कार्य करता है। यह तभी कार्य करता है जब इसमें एक परमाणु जिन्क का जुड़ाव इसे सन्तुलन निर्देश करता है। शान्ति आपः -प्रवहणशील शान्त प्राप्त हों। जल, प्राण, संवेदन, विचार, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द, अन्न, वाज, आनन्द, अयन, तेज (शुक्र) अस्तित्व में ये सब प्रवहणशील हैं। यह सब ब्रह्म हैं। रस ब्रह्म है, ब्रह्म है जल, ब्रह्म है प्राण, ब्रह्म है प्रज्ञान, ब्रह्म है रूप, ब्रह्म है गन्ध, ब्रह्म है शब्द, ब्रह्म है अन्न, ब्रह्म है आनन्द, ब्रह्म है तेज आदि महासूत्र वाक्यों और स्थैर्य एवं सन्तुलनमय आयुर्वेद है। यह सब आयु का ही ज्ञान है। इस आयु के ज्ञान में सकल साधनाएं संयुक्त हैं जो आयुर्वेद के गहन चरण हैं।

शरीर में पांच प्रमुख संस्थान हैं जो पांच ज्ञानेन्द्रियों पर आधारित हैं। 1. रसान संस्थान, 2. गंधान संस्थान, 3. रूपान संस्थान, 4. शब्दान संस्थान, 5. स्पर्शान संस्थान। इन संस्थानों के सशक्तिकरण का रसायन इन संस्थान तत्वों की सूक्ष्म धरातलीय साधनाएं हैं। इनमें एक रस का साधना प्रारूप सम्पूर्ण दिया जा रहा है।

रस है ब्रह्म

अ) 1. स्थिरं सुखम् आसनम्, .2 स्व आकलन, 3. तीन बार आती-जाती श्वास देखना, 4. नाड़ी शोधक प्राणायाम, 5. अजपाजप।

ब) 1. अगाओ, 2. त्म, 3. अतिआत्म, 4. पार ब्रह्म, 5. ब्रह्म, 6. अव्याहत, 7. कार्य ब्रह्म।

स) 1. रस है ब्रह्म, 2. सर्व रस, 3. अनुगुणित तैंतीस रस, 4. तैंतीस रस, 5. तैंतीसेक रस, 6. एक रस, 7. रसान, 8. अरस।

द) 1. आदि रस, 2. अति रस, 3. अंगी रस, 4. अन्तर् रस, 5. स्व रस, 6. आत्म रस, 7. ब्रह्म है रस।

ई) 1. कार्य ब्रह्म, 2. अव्याहतम्, 3. ब्रह्म, 4. पार ब्रह्म, 5. अति आत्म, 6. त्म, 7. अगाओ।

फ) अगाओ भाव का मानसिक जाप।

य) 1. अजपाजप, 2. नाड़ी शोधक प्राणायाम, 3. आती जाती श्वास को देखना, 4. स्व आकलन, 5. शान्तिः शान्तिः शान्तिः।

रस है ब्रह्म (2)

अ), ब) पूर्ववत।

स), द) 1. रस है ब्रह्म, 2. सर्व रस, 3. अभिव्यक्ता रस, 4. वैखरी रस, 5. मध्यमा रस, 6. पश्यन्ती रस, 7. परा रस, 8. परापार रस, 9. अव्यक्तम्, 10. ब्रह्म है रस।

ई), फ), य) पूर्ववत।

रस है ब्रह्म (3)

अ), ब) पूर्ववत।

स), द) 1. रस है ब्रह्म, 2. सर्व रस, 3. प्राण रस, 4. अपान रस, 5. समान रस, 6. व्यान रस, 7. उदान रस, 8. इड़ा रस, 9. पिंगला रस, 10. सुषुम्णा रस, 11. अनहदम्, 12. ब्रह्म है रस।

ई), फ), य) पूर्ववत।

इन तीनों प्रारूपों को अलग-अलग रूपों में किया जा सकता है। उच्च कोटि के साधक रस है ब्रह्म रसायन का प्रयोग करते हैं।

रस साधना प्रारूप के समान स्पर्श, गन्ध, रूप और शब्द साधना के प्रारूप हैं। इन प्रारूपों में रस के स्थान पर स्पर्श, गन्ध, रूप और शब्द का प्रयोग होता है। साधना रसायन में सूक्ष्मभूत शब्द नहीं ‘भाव’ अधिक महत्वपूर्ण है।

इस रसायन से हर व्यक्ति को लाभ होता ही है तथा किसी को भी किसी तरह का कोई नुकसान नहीं होता है। हर व्यक्ति इससे लाभान्वित इसलिए होता है क्योंकि हर व्यक्ति के स्तर के साधना भावों का समावेश है तथा अति-क्रमशः का स्तरीकरण (बेंच मार्किंग) है।

स्व.डॉ.त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय

पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)

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