प्रबंधन का अति उच्च प्रकार तथा गहन प्रकार है मात्र प्रबध्ंान । अनुसूया के द्वार पर तीन ऋषि पहुंचे। उन ऋषियों की विचित्र मांग थी कि अनुसूया उन्हें नग्न होकर भोजन कराये । अनुसूया एक महान माता थी। अनुसूया का अर्थ ही यह होता है कि जैसा चाहे वैसा बालक वह स्वयं जन्म सके तथा बना सके । ऋषियों की इच्छा अनुसूया ने पूरी की । कथा भाग है कि अनुसूया के तीनों ऋषियों को नन्हें बालक बना दिया और नग्न होकर उन्हें भोजन करा दिया । यथार्थ भाग है कि अनुसूया ने उन ऋषियों को अपना मातृत्व स्वरूप समझा दिया और स्वयं मातृत्व भाव ओत प्रोत होकर उन्हें शिशुवत समझकर भोजन करा दिया । कथा सारांश है – माता बुजुर्गो से बड़ी होती है । मातृत्व जैसा चाहे वैसा बालक गढ़ सकता है ।
ये दोनों तत्व माृत्व प्रबंधन के सार तत्व हैं । (1) बड़प्पन (2) कर्मचारी गढ़न बड़प्पन से ही कर्मचारी गढ़न हो सकता है । यह तथ्य ”विश्व प्रबंधन“ आज कुछ सीख रहा है । सच्चा प्रबंधक या प्रशासक या नेता – जैसा चाहे वैसा सहयोग गढ़ सकता है शर्त यह है कि वह संपूर्ण का शत प्रतिशत मालिक हो । अनुसूया अपनी व्यवस्था की शत प्रतिशत मालिक थी ।
अनुसूया शब्द का अर्थ कि पुरोहित । शिशु को अंतः पुर में निकटतम रखते उसे सुनिर्माण की हितपूर्वक सोचते जो माता उसके जन्मन लालन पालन की व्यवस्था करती है वह पुरोहितम होती है । ऐसी सुनारी ही माता होती है । उपरोक्त परिभाषा में मातृत्व प्रबध्ंान का सार दिया हुआ है –
- अंतः पुर में निकट रखते इसमें कर्मचारी को भी यह अहसास होना आवश्यक है कि वह माता के निकट है ।
वर्तमान प्रबंधन के कई गुर इस तथ्य की पुष्टि करते हैं यथा (1) कभी कभी सहायकों के साथ बैठ गप शप करनी चाहिए । (2) सबको प्रथम नाम लेकर बुलाना चाहिए । (3) उनकी पीठ थपथपानी चाहिए। (4) उनके परिवारी संबंधी पूछताछ रखें । (5) बिरादरी पन आदि ।
वे प्रबंधक सफल होते हैं जो अपने मातहतों को यह विश्वास दिला देते हैं कि वे उनके बहुत निकट हैं । मातहत वर्षों तक नहीं जान पाते हैं कि कुशल प्रबंधक किसके निकट हैं । कुशल प्रबंधक मात्र अहसास दिलाते हैं – लेकिन निकट होते नहीं है । माता वास्तव में निकट होती है ।
- सुनिर्माण: हर कर्मचारी एक नियम समय पर एक विभाग में जन्म लेता है । उसके विभाग में जन्म लेते समय प्रबंधक को सर्वाधिक सावधान रहना चाहिए ।
जिस प्रकार माँ बच्चों की प्रारम्भिक दिनों में अधिक देखभाल करती है उसी प्रकार प्रारंभिक अवस्था में कर्मचारी का निर्माण सुनिर्माण होता है । दूसरी बात मातृ प्रबंधन में यह ध्यान देने की है कि कर्मचारी का निर्माण सतत होता ही रहता है ।
- सुरक्षितम: माता अपने शिशु (गर्भस्थ को भी) अधिकतम सुरक्षितम रखती है – इस प्रकार प्रबंधन का दायित्व है कि अपने मातहतों को वाह्य के असुरक्षित तत्वों से सुरक्षित रखें तथा कहीं कोई भी वाह्य उसे नुकसान न पहुंचा सके ।
- हित पूर्वक: व्यवस्था में कार्य करते समकक्षों से कर्मचारी यदि कहीं भी अधिक है तो हर स्थिति में लाभ मिलना ही चाहिए । हक लाभ तत्काल मिलना चाहिए । बच्चे को दूध मिलना चाहिए । हित पूर्वक एक अति कठिन प्रबंधन अंग है ।
- जन्मन, लालन पालन: विभाग में जन्मन दाता प्रबंधक ही है । इसके पश्चात, कर्मचारी का लालन पालन विभाग में ही होना चाहिए । कर्मचारी को अपनी आवश्यकता पूर्ति के लिए वाह्य विभागों में न भटकना पड़े ।
- बड़प्पन पूर्वक गठन में एक तत्व सर्वाधिक प्रभावशाली रूप में कार्य करता है यह तब होता है जबकि कर्मचारी आश्वस्त हो जाता है इस विभाग में कार्य करना सुखद अनुभव है । ”माँ के पग तले स्वर्ग है“ आश्वस्ति भावना आदर्श स्थिति है । ”विभाग मे सहज सरल संतोष“ आश्वस्ति भावना कार्य वातावरण बदल देती है ।
मेरे विभाग में कार्याधित्य से उत्पन्न असंतोष के कारण एक उथल पुथल हुई । महाप्रबंधक (परियोजनाओं) से इस पर चर्चा हुई । उन्होंने कहा: मैंने तो कम धर्म पढ़ा है पर रामकृष्ण को पढ़ा है इन्होंने कहा है माँ जैसे अपने विभिन्न रूचि के विभिन्न प्रकार के बच्चों को उनकी भावना देखते संतुष्टि देने का प्रयास करती है वैसा प्रयास करना चाहिए ।
यह महाप्रबंधक (परियोजनाएं) की बड़ी उदात्त सदभावना है । कार्यलयीन कार्यों में इसे व्यवहार स्तर तक लघु करना आवश्यक है क्योंकि यह नियत विभिन्न परिवर्तित लक्ष्यों को समय बद्ध रूप में पूरा करने की आवश्यकता है । गृह में परिवार व्यवस्था में ऐसा नहीं है । वहां लक्ष्य सीमित नियत असमय बद्ध कार्य तथा उद्देश्य दोनों की दृष्टि से हैं ।
”मातृ-प्रबंधन“
- प्रबंधन क्षेत्र के लोग सांस्कृतिक सामाजिक हों ।
- निहित स्वार्थों में न बंधें हो । कम से कम नौकरी पेशा होने पर उनके वाहय व्यवसाय न हों ।
- लोग परिष्कृति उत्सुक हों ।
- लोग कृतघ्न न हों । अहसान फरामोशी मातृत्व प्रबंधन को टुकड़े टुकड़े करके रख देती है ।
- लोग देश और कार्य से उतना प्यार तो कम से कम करें जितना उन्हें हाथ में वेतन या मूल वेतन मिलता है ।
मेरे व्यक्तिगत जीवन के नौकरी के पैंतीस वर्ष विभागाध्यक्ष रहने के अनुसार में उन्नीस सौ तिरसठ में दौ सौ सत्तर के करीब स्टाफ तथा सबसे कठिन चुनौती राजहरा में जल प्रदाय का कार्य मैंने अनजाने में मातृ प्रबंधन सहारे सर्वोत्तम रूप में तथा उन्नीस सौ सड़सठ – सत्तर (करीब) में पी.एम.डी.सी. का कार्य, तथा उन्नीस सौा छियासी – पन्चासी – सुरक्षा विभाग का कार्य – मातृ प्रबंधन के तत्वों के अनुरूप चलकर ही उत्तम रूप में किया ।
सामाजिक जीवन में प्रसांत संसद के, शिविरों के, तथा कमी आर्य कुमार सभा के कार्यों की सफलता का रहस्य उनमें मातृ प्रबंधन अंश ही है ।
ममत्व का साकार रूप माता है, मां पग तले स्वर्ग है, माता कुमाता नहीं होती, मातृ प्रथम पुरोहितम है, मातृ देवा भव, त्वमेव माता, माता धरा से भी महत्वपूर्ण है, मां आंचल में दूध हस्तों में नेट तरला है – ये सब मातृत्व प्रबंधन के गुण हैं जिनसे प्रबंधन पाक होता है ।
(यह आलेख श्री दीपक कुमार पाल महाप्रबन्धक (परियोजनाएं) के मातृ प्रबंधन इंगन से उद्भूत है – उनका आभार)
स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)