महर्षि चरक

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चरक महान् आयुर्वेदाचार्य थे। आप कुषाण सम्राट् कनिष्क प्रथम के राजवैद्य थे। कनिष्क प्रथम का काल सन 200 का है। आप का जन्म शल्यक्रिया के जनक महर्षि सुश्रुत तथा व्याकरणाचार्य महर्षि पत´्जलि के भी पूर्व हुआ है। आपका प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘चरक संहिता’ है। इस ग्रन्थ का मूल पाठ वैद्य अग्निवेश ने लिखा था। चरक जी ने उसमें संशोधन कर तथा उसमें नए प्रकरण जोड़ कर उसे अधिक उपयोगी एवं प्रभावशाली बनाया।

आपने आयुर्वेद के क्षेत्र में अनेक शोध किए तथा अनेकों संशोधन आलेख लिखे, जो बाद में चरक संहिता नाम से प्रसिद्ध हुई। चरक संहिता मूल में संस्कृत भाषा में लिखी गई है। वर्तमान में उसका हिन्दी अनुवाद भी उपलब्ध होता है। आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त करने के लिए यह ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी होने से इसे पाठ्यक्रम में भी स्थान दिया गया है।

चरक संहिता के आठ विभाग हैं। 1) सूत्रस्थान, 2) निदानस्थान, 3) विमानस्थान, 4) शरीरस्थान, 5) इन्द्रियस्थान, 6) चिकित्सास्थान, 7) कल्पस्थान एवं 8) सिद्धिस्थान। इन आठ विभागों में शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों की बनावट, वनस्पतियों के गुण तथा परिचय आदि का वर्णन है।

महर्षि चरक की यह मान्यता थी कि एक चिकित्सक के लिए महज ज्ञानी या विद्वान् होना ही पर्याप्त नहीं है अपितु उसे दयालु और सदाचारी भी होना चाहिए। चिकित्सक बनने से पूर्व ली जानेवाली प्रतिज्ञाओं का उल्लेख चरक संहिता में मिलता है। वैदिक काल में इन प्रतिज्ञाओं का पालन करना सभी वैद्यों के लिए आवश्यक माना जाता था।

चरक संहिता का अनुवाद अरबी तथा युरोपीय भाषाओं में भी हो चुका है। उन-उन भाषाओं के विद्वानों ने इस ग्रन्थ पर टीकाएं भी लिखी हैं। आयुर्वेद में महर्षि चरक अभूतपूर्व योगदान के लिए ही आपको आयुर्वेद चिकित्सा विज्ञान के महान् सम्राट् की उपाधी से सम्मानित किया गया था।

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