महर्षि कणाद

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परमात्मा, विश्व का निर्माण, और संचालन की प्रक्रिया के विषयों में हमारे देश में अनादि काल से चिन्तन होता रहा है। इस चिन्तन द्वारा महर्षियों को अनुभूति हुई, उसे ही ‘दर्शन’ का नाम दिया गया है। भारतीय वैदिक दर्शन के छः अंग हैं- न्याय, मीमांसा, वैशेषिक, सांख्य, योग और वेदान्त। उनमें से वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक महर्षि कणाद थे।

वायु पुराण के अनुसार महर्षि कणाद द्वारका के समीप प्रभासपाटन में जन्मे थे और सोमशर्मा के शिष्य थे। आपका सच्चा नाम ऊलूकमुनि था ऐसा माना जाता है। आप कश्यप गोत्र के थे। विद्वानों के अनुसार महर्षि कणाद का समय ईसा से 400 वर्ष पूर्व का माना जाता है। यद्यपि कुछ विद्वान् आप को बुद्ध के पूर्व हुए मानते हैं। आप खेत में गिरे हुए अन्न के कण (दाने) चुन-चुन कर अपनी भूख का निवारण करते थे। इस प्रकार अनाज के कण-कण के भी सदुपयोगकर्ता होने से आप ‘कणाद’ नाम से विख्यात हुए। दूसरे अर्थों में कण = अणु, अणु के सिद्धान्त के प्रवर्तक होने से आप ‘कणाद’ कहे गए।

आपका वैशेषिक सूत्र ही वैशेषिक दर्शन का मूल ग्रन्थ है। प्रशस्तपाद ने उसके ऊपर ‘पदार्थ धर्मसंग्रह’ नामक भाष्य लिखा था। वैशेषिक दर्शन का आधार परमाणुवाद है। किसी झरोखे की जाली में से आनेवाले धूप के सूर्यकिरणों में उड़ते हुए दीखनेवाले सूक्ष्मकण का साठवां भाग परमाणु कहलाता है। यह परमाणु नित्य है। अपनी विशेषता के कारण प्रत्येक पदार्थ में उसका भिन्न-भिन्न अस्तित्व होता है। इन विशेषताओं का विवेचन करने के कारण इस दर्शन को वैशेषिक दर्शन कहा गया।

वैशेषिक दर्शन के अनुसार विश्व सात पदार्थों में विभक्त है- द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव। महर्षि कणाद के मत में विश्व का निर्माण नौ द्रव्यों से हुआ है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा, मन और आत्मा।

इस ब्रह्माण्ड में 24 गुण हैं- रूप, रस, गन्ध, शब्द, स्पर्श, सुख, दुःख, इच्छा द्वेष, प्रयत्न, संख्या, परिमाण, पृथकत्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व, बुद्धि, स्नेह, संस्कार, धर्म और अधर्म। कर्म के पांच प्रकार हैं- उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुंचन, प्रसरण और गमन। अनेक वस्तुओं में समानता के आधार से उत्पन्न एकत्व बुद्धि के आश्रय को ‘सामान्य’ कहते हैं, जैसे कि ‘मनुष्यत्व’।

इस ग्रन्थ में कणाद ऋषि ने धर्म का लक्षण इस प्रकार दर्शाया है- यतो ऽ भ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः। अर्थात् जिसमें अभ्युदय (इस लोक के सुख व समृद्धि) तथा निःश्रेयस (पारमार्थिक = मोक्ष) दोनों की सिद्धि प्राप्त की जाए वह धर्म है।

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