गंगातीरे हिमगिरिशिला-बद्धपद्मासनस्य,
ब्रह्मध्यानाभ्यसनविधिना योगनिद्रां गतस्य।
किं तैर्भाव्यं मम सुदिवसैर्यत्र ते निर्विशंकाः,
कण्डूयन्ते जरठहरिणाः स्वांगमंगे मदीये।।
(भर्तृहरिकृत- नीतिशतक, श्लो. ३७)
भावार्थ- प्राचीन काल में लोगों का जीवन, लक्ष्य तथा चिन्तन आज से सर्वथा भिन्न होता था। उस समय व्यक्ति विचारता था किद्ध मेरे ऐसे सुदिनों से बढ़कर और क्या दिन होंगे, जब मैं गंगा के किनारे, हिमालय पर्वत की किसी शिला पर, पद्मासन लगाकर, योग की क्रियाओं के अनुष्ठान पूर्वक ब्रह्म के स्वरूप का ध्यान करते हुए समाधि में लीन हो जाऊंगा और बूढ़े हिरण निर्भयता पूर्वक मेरे शरीर से अपने शरीर को खुजाने का आनन्द लेंगे।
घृष्टं घृष्टं पुनरपि पुश्चन्दनं चारु गन्धं,
छिन्नं छिन्नं पुनरपि पुनः स्वादु चैवेक्षुदण्डम्।
दग्धं दग्धं पुनरपि पुनः का९चनं कान्तवर्णं,
प्राणान्तेऽपि प्रकृतिविकृतिर्जायते नोत्तमानाम्।।
भावार्थ- चन्दन को ज्यों-त्यों घिसेंगे, त्यों-त्यों वह मधुर सुगन्ध प्रदान करेगा। ईख (गन्ने) को ज्यों-ज्यों पेलेंगे, त्यों त्यों वह अधिक मीठा रस देगा। सोने को ज्यों-ज्यों तपायेंगे, त्यों त्यों वह अधिक चमकता जायेगा। ठीक ऐसे ही जो महान् आत्माएं हैं, उनको कोई कितना ही अपमानित करे, पीड़ा दे, बाधा पहुंचावे, वे अपने सत्य, न्याय, परोपकार, प्रसन्नता, नम्रता एवं प्रेम युक्त स्वभाव को कभी भी नहीं छोड़ते हैं, चाहे प्राण भी क्यों न चले जाएं।