भ्रूण और भूषणभूत सम्यकीकरण

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भारतीय संस्कृति जानती है कि मरण रक्षण पूर्व भ्रूण काल से प्रारम्भ हो जाता है। 11 संस्कारों द्वारा भूषणभूत सम्यक्-कृत समावर्तनी युवक एवं समावर्तनी युवती विवाह पश्चात (समावर्तन गुण, विवाह परिभाषाएं, परिवार पुस्तक में देखें) क्रमशः 40 वर्ष की उम्र तक परिपक्वता प्राप्त करते हैं। यह नियमानुसार जीवन जीने पर होता है। वर्तमान मं पाश्चात्य में यह उम्र 32 से 35 तथा भारत में 30 वर्ष के करीब है। गर्भाधान में युवक युवती सम गंण बल सामर्थ्य क्षेत्रानुसार पश्चात वैद्यक शास्त्रानुरूप वर्ष दर वर्ष धातु रज परिपक्वता एवं गुण का ध्यान रख संतान प्रारूप तय कर गर्भाधान समय निधारित किया जाता है। ऋतुकाल (रजदर्शन से चार रात्रि छोड़ अन्य रात्रि ऋतुदान दिवस है। यह सोलह रात्रि तक में ही है। अन्त्य रात्रियां उत्तम मानीं गईं हैं) से तेरह दिवस पूर्व गर्भादान प्रक्रिया तैयारी प्रारम्भ होती है। इसकाल युवक तक युवती को सवौषधि घृत युक्त अति सात्विक भोजन कर ऋत एवं शृत नियमानुकूल सप्रयास जीवन जीना चाहिएपंच यज्ञों का इसमें निश्चित्तः समावेश होगापश्चात ऋतुदान काल नियत दिवस गर्भाधान संस्कार पूर्ण होगा। यज्ञ करने के पश्चात समस्त माता पिता, आचार्य, अतिथियों का अभिवादन कर.. आर्शीवाद ले.. रात्रि प्रथम प्रहर पश्चात अंतिम पहर पूर्व गर्भाधान करे। स्त्री पुरुष का उस काल सम, सौग्य, प्रेममय, उदात्त भाव, उच्च मानसिक रहना आवश्यक है।

गर्भाधान भाव होते ही यज्ञ करे तथा इसके पश्चात सतत नियमबद्ध सात्विक एवं विशेष भू्रण स्वस्थ विकासाहार योजनाबद्ध करे। स्वाध्यायादि पंच यज्ञमय जीवन रहे। इसके दूसरे माह पश्चात जब भू्रण शरीरांग बीज बनने का समय हो तो प्रसवन संस्कार तथा चौथे माह एवं सातवें माह सीमन्तोन्नयन संस्कार करे। ये संस्कार माता के माध्यम से शिशु भू्रण में अवतरित होते हैं। इन संस्कारों मे खान पान, पठन पाठन सात्विक से रहने के भी निर्देश हैं। यह वह भू्रण विकास सकारात्मक योजना है जिसमे मरण विजय, बीमारी विजय, स्वस्वास्थ्य संस्थान सशक्ति के आधार बीज हैं। इसके पश्चात भी शिशु विकास के साथ ही साथ जातकर्म संस्कार, नामकरण संस्कार, निष्क्रमण संस्कार, अन्न प्राशन संस्कार, चूड़ाकर्म, कर्ण वेध, उपनयन, वेदारम्भ संस्कार शिशु बालक के स्वस्थ सशक्त सामाजीकरण, व्यवहार सीखना, समझ बढ़न, भूमिका सीखन-समझन के हैं। यह सूक्ष्म संस्कृति योजना है जो दिन ब दिन समस्या रूप में विकराल होते चिकित्सा क्षेत्र को सीमित कर दे सकती है। विश्व में फैलती बीमारियों, दीन दवा जिन्दा या मुर्दा जिन्दों की उपजो पर, चिकित्सा क्षेत्र के नियंत्रण के बाहर की बीमारियों पर रोक लगा सकती है।

”वैदिक जीवन प्रणाली अमृत है“

अमृत का एक अर्थ अल्प मृत्यु रोग निवारक है। वैदिक जीवन प्रणाली जो संस्कार मय, वर्णाश्रमयुक्त, ऋतु ऋतु संधि युक्त, मम चिकित्सा पथ महायज्ञ युक्त, तथा वैदिक कार्य परिस्थिति युक्त है.. अल्प मृत्यु रोग निवारक है। त्रि क्लेश मुक्ति से ऊपर यह स्वस्थ आमोद प्रमोदमय आह्लाद मय अमृत जीवन की संकल्पना है.. त्रिक्लेश हैं- एक आध्यात्मिक जो आत्मा शरीर तथा मन व इन्द्रियों की अशांति अर्थात विकार, अशुद्धि, चपलता से होते हैं। इनमें अ) भू्रण विकाराधारित.. ब) अविद्या, रागद्वेष, मूर्खता, इर्ष्या, क्रोध, अधैर्य, चिन्ता, तटस्थता विक्षेप आदि जनित मानसिक आधिरूप.. स) ज्वर, पीड़ा, शिरोवेदना, अतिसार, अर्धांग, चोट, न मम उत्पन्न शारीरिक व्याधिरूप.। दो आधिभौतिक दूसरे प्राणियांे से प्राप्त.. शत्रु, वाहन, दुर्घटना, सांप, कुत्ते आदि का काटना, चोरी, झूठारोपण, असत्यापवाद आदि। तीसरा आधिदैविक जो भूकम्प, अतिवर्षा, अनावर्षा, अतिताप, अतिशीत, विद्युतपातादि। वैदिक जीवन प्रणाली अमृत है।

अमृत शब्द के अन्य कुछ अर्थ हैं- 1) स्वरूप से नाशरहित, 2) सदामुक्त, 3) जलवत शांत स्वरूप, 4) ब्रह्मअमृतात्मक, 5) परमात्मा, 6) जलादि पदार्थ। एक से पांच तक आध्यात्मिक एवं छठवां आधिभौतिक है। छठवें में वे सब पदार्थ आते है जो ”मम चिकित्सा“में प्रयुक्त होते हैं।

”विज्ञानखोजों की अन्त्य सीमा वेदमन्त्र या उपनिषद श्लोक“

आधुनिक जीवन मृत्यु की, विज्ञान की संकल्पनाएं तथा भौतिक विज्ञान की सूक्ष्मतम होती जा रही संकल्पनाएं, वेद के मंत्रो या उपनिषद के श्लोकों के छोटे छोटे टुकड़ांे की बड़ी बड़ी व्याख्याएं है। ये ओर टुकड़े हैं- ”अणोर अणीयान महतो महीयान“का आधा प्रथम टुकड़ा.. तदेजति तन्नैजति का प्रथम आधा टुकड़ा, अक्षर शब्द की अक्ष- र इन्द्रियों का रमण। इन तनिक से सत्यों की अर्ध भौतिकी व्याख्या का भटकाव है अटकाव है, अर्ध सुलझाव है वर्तमान का विज्ञान। संस्कृति अति विश्वास पूर्वक तन शरीर, (स्थूल शरीर) सूक्ष्म शरीर, संकल्प शरीर की बात कहती समझती है.. पर विज्ञान अर्धविश्वास पूर्वक स्थूल शरीर भर की बात कहता है। वर्तमान में पदार्थ के रूपों में ठोस, द्रव, वायु, तथा प्लाजमा रूपांे के भान के साथ साथ जैव रूप की भी अवधारणा उभर रही है।

”स्वस्थता के संस्कृति-प्रारूप“

सूक्ष्म धरातलीय स्वस्थता के संस्कृति में कई प्रारूप उपलब्ध हैं.. ये प्रारूप मृत्यु को परे ढकेलने तथा रोगों से मुक्ति के हैं.. स्वस्थता के हैं। जीवात्मा पारखी मन द्वारा वाक् धारण करता है। वाक् धारणा करता अंतः गर्भ में बोलता है (परा) मन से उत्प्रेरित, (पश्यंती) प्रकट रूप में द्योतित, (मध्यमा) स्वर रूप में परिणत, (वैखरी) वाक् को ऋत् पद में गहन प्रयुक्त करते है। (ऋग्वेद 10/177/2) जीवात्मा पारखी, अंतः गर्भ (परा) पश्यंती, मध्यमा, वैखरी, अभिव्यक्ता की ऋत् आपूर्त स्वस्थता का वह प्रारूप है जो इन्द्रियों की इन्द्रियों द्वारा ढूंढा जा सकता है। इन्द्रियों निर्मित औजारों का सूक्ष्म औजार तो बड़ा ही भोथरा है। परा पश्यंती मध्यमा, वैखरी अभिव्यक्ता (वाक् सम्पूर्ण) ऋत् से प्राकृतिक नियमों नियम बीजों (अणोर अणीयान, महतो महीयान, मनसा जवीयो, अनेजदेकं, एवं ब्रह्म, तत्त्वमसि, तदेजति तन्नेजति, वातरश्ना (वायु की वायु रज्जु-सूक्ष्मतम प्राण) पारे रजसः (रजगुण से अतिपार), अछिद्रोहनीं (सूक्ष्मतम वह पात्र जिसमें छिद्र न किया जा सके) आदि से ही नहीं वरन शृत नैतिक नियमों से भी आपूर्तता की अमृत संकल्पना वेद में है यह योजना ”शिव संकल्प“यजुर्वेद 34/1-6 में दी हुई है यहां हम मात्र इंगनार्थ अर्थ दे रहे हैं। जिससे सदा कर्म धर्म निष्ठा मनस्वी मननशील, ध्यान करने वाले बुद्धिमान लोग अग्निहोत्रादि वा धर्म संयुक्त व्यवहार वा योग यज्ञ और विज्ञान संबंधी व्यवहारों मेें इष्ट कर्मों को करते हैं जो अपूर्व सामर्थ्ययुक्त अर्थात सर्वोत्तम गुण कर्म स्वभाव वाला, पूजनीय और प्राणी अन्तस रहने वाला है अथवा प्राणी मात्र के हृदय में संगत एकी भूत हो रहा है। वह मेरा मनन विचार करना रूप धर्मेष्ट अर्थात सत्य धर्म के अनुष्ठान की इच्छायुक्त होवे। मन ”अंतःकरण बुद्धि चित्त अंहकार“रूप वृत्तिवाला चार प्रकार से (ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद) भीतर प्रकाश करने वाला, समस्त कर्म साधक है। वह न्याय और सत्याचरण प्रवृत हो। (सप्त होता) पांच ज्ञानेन्द्रिय बुद्धि आत्मा यह योग विज्ञान युक्त मोक्ष रूप संकल्प वाला हो।

चिकित्सा विज्ञान को अस्वस्थता के घटिया स्तर से स्वस्थता के बढ़िया स्तर तक उठना ही होगा और यह समझना होगा की अस्तित्व मात्र औजार मापित जांचित आकार नहीं है। अस्तित्व वह स्वस्थता है सूक्ष्म धरातलीय स्वस्थता है जहां मानव में वाणी ऋग्वेद रूपी ऋृचा से रचा पचा, मन यजुर्वेद रचा पचा, प्राण सामवेद रचा पचा, इन्द्रियां अथर्ववेद रची पची हों तथा अस्तित्व प्राणमय ओजमय दिव्य हों। इस उच्च स्तर की तनिक सी क्षति से बीमारीयां मृत्यु का प्रारंभ होता है। इसकी स्वस्थता होने पर कभी मृत्यु नहीं आती है.. वरन मानव स्वयं सद्गतित मृत्यु में सहजतः प्रवेश करता है।

स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय

पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)

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