भ्रष्टाचार कारण व निवारण

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”पचीस-पचहत्तर“ एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है। यह सिद्धान्त औद्योगिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, व्यक्तिगत समस्याओं के निदान के लिए उपयोग में लाया जा सकता है। इस सिद्धान्त का सार यह है कि ”समस्त समस्याओं का यदि आकलन किया जाए तो हम पाते हैं कि उसमें से पच्चीस प्रतिशत समस्याएं पचहत्तर प्रतिशत महत्वपूर्ण होती हैं। तथा पचहत्तर प्रतिशत समस्याएं पच्चीस प्रतिशत महत्वपूर्ण होती है।“ स्पष्ट है कि यदि पच्चीस प्रतिशत समस्याओं का निराकरण कर लिया जाए तो पचहत्तर प्रतिशत समस्या क्षेत्र का निराकरण हो जाएगा।

भारतीय संस्कृति में यह सिद्धान्त सकारात्मक रूप में विद्यमान है। धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष के चार पुरुषार्थों में धर्म का पच्चीस प्रतिशत पचहत्तर प्रतिशत महत्वपूर्ण है। यम, नियम का पच्चीस प्रतिशत पचहत्तर प्रतिशत महत्वपूर्ण है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास आश्रमों में सोलह संस्कार निर्धारित हैं उनमें से बारह ब्रह्मचर्याश्रम में ही निर्धारित हैं। उम्र के प्रथम पच्चीस वर्ष मानव जीवन के परिपेक्ष में पचहत्तर प्रतिशत महत्वपूर्ण हैं। पच्चीस पचहत्तर एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है। तथा इस सिद्धान्त को अनेक जीवन क्षेत्रों में लागू किया जा सकता है। विद्यार्थी इसे परीक्षा पास करने के क्षेत्र में, मॅकेनिक तथा सुरक्षा अधिकारी इसे ’चेक-लिस्ट‘ के रूप में प्रायः प्रयोग में लाते हैं।

इस सिद्धान्त का प्रयोग कर हम वर्तमान के नैतिक सामाजिक, राजनैतिक, प्रशासनिक, अवमूल्यन, भ्रष्टाचार तथा घटिया पन की तह तक भी पहुंच सकते हैं। व्यवस्था के चार भाग है। 1) विधायी व्यवस्था, 2) न्याय व्यवस्था,, 3) कार्यकारी व्यवस्था, 4) सामान्य व्यवस्था। इनमें विधायी व्यवस्था पच्चीस प्रतिशत पचहत्तर प्रतिशत महत्वपूर्ण है। विधायी व्यवस्था (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में धर्म की तरह) बाकी व्यवस्थाओं में भी है। न्याय व्यवस्था, कार्यकारी (स्थाई) व्यवस्था तथा सामान्य व्यवस्था योग्यता अनुभव आधारित पद क्रम आधारित है। विधायी व्यवस्था भी पद क्रम आधारित है। पर योग्यता अनुभव आधारित नहीं है।

व्यवहार जगत का हम एक उदाहरण लें सर्वोच्च न्यायाधीश के पद दावेदार व्यक्ति पूरे भारत में करीब चार या पांच होंगे। यह पद-योग्यता, अनुभव आधारित है। पद-योग्यता, अनुभव की कसौटी सामान्य जनों को छांट देती है। इस पद के साथ उच्च अधिकार जुडे हुए हैं। न्यायालय व्यवस्था मे ंपद के योग्यता अनुभव आधारित क्रम है।

सबसे निम्न पद पर अर्दली है। अर्दली पद की योग्यता तथा अनुभव- धारी व्यक्ति सारे भारत में करीब दो करोड़ होगे। अतः इस पद के अधिकार सबसे कम हैं। अर्दली पद से भी घटिया पद योग्यता प्रधानमन्त्री राष्ट्रपति आदि की है। तथा इस पद के दावेदार करीब बीस करोड़ हैं। पर इस पद के अधिकार सर्वाधिक हैं। पद अधिकार व पद योग्यता विधायी व्यवस्था में एक भयावह थोथापन है। यह असन्तुलन चिन्तनीय है। सारी विधायी व्यवस्था इसी असन्तुलित व्यवस्था में जी रही है।

प्रधानमन्त्री पद पर यदि संसार के सबसे बोदे पर सिद्धान्त हीन व्यक्ति को अगर प्रजातन्त्र व्यवस्था में बैठा दिया जाए तो अधिकारों के कारण, दबाव समूह (निहित घिनौने स्वार्थों के लिए एकजूट होना ही दबाव समूह या प्रजातन्त्री राजनैतिक दल हैं) के घटिया पन के स्वीकार के कारण वह व्यक्ति भी इतिहास पुरुष हो जाएगा। यह पचहत्तर प्रतिशत महत्वपूर्ण विधायी व्यवस्था की विडम्बना है।

पैरटो के ”अत्प ठोस“ ”बहुत विरल“ सिद्धान्त के अनुसार उच्च संभ्रान्त वर्ग जीवन व्यवहार, रूढ़ियों, रस्मों का नियन्ता होता है। क्योंकि संभ्रान्त वर्ग के आचरण का सामान्य तथा निम्न वर्ग अनुपालन करता है। प्रजातन्त्र व्यवस्थाओं के क्रमशः ह्रासोन्मुख होने का महत्वपूर्ण कारण विधायी व्यवस्था का लचर होना है। ”पदाधिकार-योग्यता अनुभव असन्तुलन“ के कारण विधायी व्यवस्था के पच्चीस प्रतिशत उच्चभाग (मन्त्री, उपमन्त्री, मण्डलादि) में अनिर्णयों, कुनिर्णयों, निहित स्वार्थ-निर्णयों का जन्म होता है। इनका फैलाव पूरी विधायी व्यवस्था में होता है। विधायी व्यवस्था राष्ट्र व्यवस्था का पच्चीस प्रतिशत है। अतः इस पचहत्तर प्रतिशत महत्वपूर्ण सर्वोच्चाधिकार प्राप्त संभ्रान्त के दुर्निर्णय (भ्रष्ट निर्णय एवं व्यवहार) अन्य सुव्यवस्थित पर संविधानानुसार कम महत्वपूर्ण (मात्र पच्चीस प्रतिशत महत्वपूर्ण) व्यवस्थाओं में फैल जाते हैं। और पूरा प्रजातन्त्री राष्ट्र (यदि वह समूह नहीं है तो बहुत अधिक तेजी से) भ्रष्ट हो जाता है। विश्व प्रजातन्त्र इतिहास गवाह है। भ्रष्टाचार, नैतिकपतन, आर्थिक-राजनैतिक तथा सामाजिक पतन की जड़े प्रजातन्त्र की विधायी व्यवस्था का (अ) सर्वोच्च अधिकार सम्पन्न होना, (ब) इसमें पद तथा योग्यता-अनुभव का औचित्य न होना, (स) इसके सदस्यों के क्रमशः अधिकार बढ़ते जाना, (द) अन्य तीन व्यवस्थाओं में विधायी व्यवस्था की घुसपैठ होना आदि में निहित है। इन जडों को यह विधायी व्यवस्था कभी नहीं काटेगी क्योंकि यह इससे श्रेष्ठ न तो हो सकती है न तो सोच सकती है। विधायी व्यवस्था में अयोग्यता घटियापन औसतनपन मताधिकार होना आदि संविधान में ही दिए गए हैं। अतः यहां आमूलचूल परिवर्तन द्वारा ही भ्रष्टाचार, कदाचार, पतन को समाप्त किया जा सकता है।

स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)

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