3 जुलाई ‘नौशेरा के शेर’ कहे जाने वाले शहीद ब्रिगेडियर मुहम्मद उस्मान का बलिदान दिवस है, जिन्होंने मातृभूमि के लिए स्वयं को न्योछावर कर ये बतला दिया कि आत्मोत्सर्ग किसी विशेष जाति, धर्म या वर्ग की मिल्कियत नहीं। वे स्वतंत्र भारत के सर्वाधिक प्रेरणादायक सैन्य अधिकारियों में से एक हैं। उन्होंने सेना की सर्वश्रेष्ठ परंपराओं को निभाते हुए असाधारण साहस, कर्तव्य के प्रति समर्पण, मात्रभूमि के प्रति अगाध प्रेम का प्रदर्शन किया था।
मोहम्मद उस्मान का जन्म 15 जुलाई 1912 को आजमगढ़ बीबीपुर गाँव के निवासी खान बहादुर मोहम्मद फारुख के घर हुआ था, जो एक पुलिस अधिकारी थे और बनारस के कोतवाल भी रहे थे। इनकी मां जमीरून्निसां घरेलू महिला थी। तीन बड़ी बहनों के लाडले उस्मान की प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा स्थानीय मरदसे में हुई और आगे की पढ़ाई हरिश्चंद्र स्कूल वाराणसी तथा इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में हुई। वह न सिर्फ अच्छे खिलाड़ी थे बल्कि प्रखर वक्ता भी थे। साहसी इतने थे कि 12 साल की आयु में ही अपने एक मित्र को बचाने के लिए कुएं में कूद पड़े और उसे बचा भी लिया।
पिता पुलिस की नौकरी ही करवाना चाहते थे पर उस्मान ने सेना में जाने का मन बनाया और उन्हें ब्रिटेन की रायल मिलिटरी एकेडमी, सैंडहस्ट में चुन लिया गया। वह भारतीय सैन्य अधिकारियों के उस शुरुआती बैच में शामिल थे, जिनका प्रशिक्षण ब्रिटेन में हुआ था और भारत से चुने गये 10 कैडेटों में से वे एक थे। 1 फरवरी 1934 को प्रशिक्षण पूरा कर ब्रिटेन से आने के बाद तेईस वर्षीय मोहम्मद उस्मान को 19 मार्च 1935 में 10 बलूच रेजिमेंट में तैनाती दी गयी |
उस्मान साहब को द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेजी हुकूमत द्वारा मलेशिया भेजा गया और कालान्तर में उन्हें बलूच रेजिमेंट से द्वितीय एयरबार्न पैरा टूपर में तैनात कर दिया गया | इस दौरान अफ़ग़ानिस्तान और बर्मा तक वे गये और अपने नेतृत्व के लिए प्रशंसा पायी। विभिन्न पदों पर जिम्मेदारी का कुशलता पूर्वक निर्वहन करते करते कम उम्र में ही वे शीघ्र ब्रिगेडियर जैसे उच्च पद तक पहुँच गये |
भारत-पाक बँटवारे के समय पाकिस्तानी नेताओं मोहम्मद अली जिन्ना और लियाकत अली खान ने इस्लाम और मुसलमान होने की दुहाई देते हुए पाकिस्तानी सेना में शामिल होने के लिए लालच दिया- नियम तोड़ कर (आउट ऑफ टर्न) पाकिस्तानी सेना का चीफ बना दिया जायेगा। पर, वतनपरस्त उस्मान ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और साफ कह दिया कि जब तक जिंदगी है हिन्दुस्तान की हिफाजत करता रहूंगा। बलूच रेजीमेंट बंटवारे में पाकिस्तानी सेना के हिस्से चली गयी और उन्होंने डोगरा रेजीमेंट को ज्वाइन कर लिया।
ब्रिगेडियर उस्मान ने देश के विभाजन के दौरान लोगों के दिल और दिमाग जीत लिये थे। उस समय वे मुल्तान के गैरिजन कमांडर के रूप में 50 हजार हिंदू और सिख शरणार्थियों की जिम्मेदारी निभा रहे थे। वे हमेशा शांत रहते थे और धार्मिक रूप से गांधीजी के सिद्धांतों का अनुपालन करते हुए गांधीजी से उपहार में दिये गये चरखे पर कातते हुए खुशी का अनुभव करते थे। जब वे वर्दी नहीं पहनते थे, तो गांधीजी की रचनाओं को पढ़ा करते थे।
पाकिस्तान का तो जन्म ही भारत से शत्रुता के चलते हुआ है तो अलग देश बनते ही उसने अघोषित लड़ाई छेड़ दी और कबाइलियों की आड़ में भारत में घुसपैठ कराने लगा। कश्मीर घाटी तो घाटी, जम्मू तक अशांत हो गया। उस्मान पैराशूट ब्रिगेड की कमान संभाल रहे थे.और उनकी झांगर में तैनाती थी। झांगर का पाक के लिए सामरिक महत्व था क्योंकि मीरपुर और कोटली से सड़कें आकर यहीं मिलती थीं। साथ ही नौशेरा भी दोनों देशों के लिए बहुत महत्वपूर्ण था।
25 दिसंबर 1947 को पाकिस्तानी सेना ने झांगर को कब्जे में ले लिया। जब झांगर का पतन हुआ, तो ब्रिगेडियर उस्मान ने यह शपथ ली थी कि जब तक वे झांगर को पुन: जीत नहीं लेंगे, चारपाई पर नहीं सोएंगे। उन्होंने अपने वचन का अनुपालन किया और 1947-48 की सर्दियों के महीने में वे चटाई पर सोए। लेफ्टिनेंट जनरल के. एम. करिअप्पा तब वेस्टर्न आर्मी कमांडर थे। उन्होंने जम्मू को अपनी कमान का हेडक्वार्टर बनाया और उनका लक्ष्य था – झांगर और पुंछ पर कब्जा करना।
उनके मार्गदर्शन में ब्रिगेडियर उस्मान के नेतृत्व वाली 50 पैराशूट ब्रिगेड जब घमासान युद्ध के बाद 18 मार्च, 1948 को झांगर पर दोबारा जीत हासिल की, तभी उन्होंने अपना वचन तोड़ा। ब्रिगेडियर उस्मान के कुशल नेतृत्व के कारण, इस लड़ाई में भारत के केवल 36 सैनिक शहीद हुए जबकि पाकिस्तान के 1000 से ज्यादा सैनिक मारे गए। अपने अदम्य साहस की बदौलत उन्होंने नौशेरा क्षेत्र को बचा लिया| इस जीत के बाद लेफ्टिनेंट जनरल करिअप्पा ने उनको नौशेरा का शेर कहकर संबोधित किया।
पाकिस्तानी सेना झांगर के छिन जाने और अपने सैनिकों के मारे जाने से परेशान थी। उसने घोषणा कर दी कि जो भी उस्मान का सिर कलम कर लायेगा, उसे 50 हजार रुपये दिये जायेंगे। इधर, पाक लगातार झांगर पर हमले करता रहा पर कब्जा करने में विफल रहा। अपनी बहादुरी के कारण पाकिस्तानी सेना की आंखों की किरकिरी बन चुके थे उस्मान। पाक सेना उनकी घात में बैठी थी। 3 जुलाई 1948 की शाम, पौने छह बजे होंगे उस्मान जैसे ही अपने टेंट से बाहर निकले कि उन पर 25 पाउंड का गोला पाक सेना ने दाग दिया, जिसकी जद में आकर उनका प्राणान्त हो गया। उनके अंतिम शब्द थे -“हम तो जा रहे हैं, पर जमीन के एक भी टुकड़े पर दुश्मन का कब्जा न होने पाये।”
उस्मान अलग ही मिट्टी के बने थे। वह 12 दिन और जिये होते तो 36वां जन्मदिन मनाते। उन्होंने शादी नहीं की थी। अपने वेतन का हिस्सा गरीब बच्चों की पढ़ाई और जरूरतमंदों पर खर्च करते थे। नौशेरा में 158 अनाथ बच्चे पाये गये थे, उस्मान उनकी देखभाल करते, उनको पढ़ाते-लिखाते थे। झांगर को पाक से छीनने के लिए उस्मान ने अपने सैनिकों के नाम जिस फरमान पर हस्ताक्षर किया था, उसकी एक एक पंक्ति आज भी देशवासियों के लिए प्रेरणास्रोत है।
मोहम्मद उस्मान भारत की आज़ादी के महज 11 महीने बाद पाकिस्तानी घुसपैठियों से जंग करते हुए शहीद हो गए। पहले अघोषित भारत-पाक युद्ध (1947-48) में शहीद होने वाले वे पहले उच्च सैन्य अधिकारी थे। राजकीय सम्मान के साथ उन्हें जामिया मिलिया इसलामिया क़ब्रगाह, नयी दिल्ली में दफनाया गया। अंतिम यात्रा में गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन, प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और उनके कैबिनेट सहयोगी भी मौजूद थे। यह वह सम्मान है जो इसके बाद किसी भारतीय फौजी को नहीं मिला। मरणोपरांत उन्हें महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।
उनकी याद में बनाया गया उस्मान मेमोरियल एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है जो झांगर में स्थित है। वर्तमान समय में झांगर की इंफेन्टरी यूनिट, उस्मान मेमोरियल की देखरेख कर रही है। हर साल 3 जुलाई को इस मेमोरियल में ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान की याद में विशेष प्रार्थना की आयोजन किया जाता है और उन्हे याद किया जाता है। इस दिन को क्षेत्र में झांगर दिवस के नाम से जाना जाता है। इस अप्रतिम योद्धा को कोटिशः नमन एवं विनम्र श्रद्दांजलि।
~ लेखक : विशाल अग्रवाल
~ चित्र : माधुरी