“निकटतम का द्वैत”
(तर्ज :- कहां जा रहा है तू ऐ जानेवाले)
ब्रह्म से बिछडकर कहां रह सकेगा।
यहां रह सकेगा, न वहां रह सकेगा।। टेक।।
सदा साथ है तेरे सदा साथ रहेगा।
तू कब तक सच से यूं अनजान रहेगा।
अज्ञान अपना न क्या कम करेगा।। 1।।
हर तेरे कर्म का साक्षी वो एक है।
तेरा उसका सम्बन्ध निकटतम का द्वैत है।
द्वैत से एक तक सफर तय करेगा।। 2।।
23. “जीवन ही उपनिषद”
ब्रह्म में सिमटकर यहां भी रह सकेगा।
यहां भी रह सकेगा वहां भी रह सकेगा।। टेक।।
ज्ञान साथ तेरे ब्रह्म साथ रहेगा।
तू सदा ही उसके पास-पास रहेगा।
जीवन में सदा तू उपनिषद जीएगा।। 1।।
जीवन तेरा ये ब्रह्मपद उठेगा।
हर क्षण इसमें आनन्द ही झरेगा।
थमन योग चढ़कर ये ब्रह्म में थमेगा।। 2।।
नर के सच में नारायण बसेगा।
तन के गहन में अब ब्रह्म सजेगा।
अब ही अब जीएगा समय सिद्ध सधेगा।। 3।।