विश्व इतिहास, कई सारी महान सभ्यताओं के उत्थान और पतन का गवाह रहा है। अपने दीर्घकालीन इतिहास में हिंदू सभ्यता ने दूसरों द्वारा अपने को नष्ट करने के लिए किये गये विभिन्न आक्रमणों और प्रयासों को सहा है। यद्यपि इसके चलते इसने वीरों और योद्धाओं की एक लंबी शृंखला उत्पन्न की है, जो आक्रान्ताओं से अपनी मातृभूमि की रक्षा करने के लिए समय-समय पर उठ खड़े हुए हैं। भारत के इतिहास में एक ऐसे ही महान योद्धा और हिंदू धर्म के संरक्षक के रूप में प्रख्यात नाम है- 18वीं शताब्दी में उत्पन्न बाजीराव पेशवा। अपने अद्वितीय पराक्रम द्वारा ‘राव के नाम से सभी को डराने वाले’ ऐसी धाक निर्माण करनेवाले, बीस वर्ष की कार्यकाल में धुआंधार पराक्रम के नए–नए अध्याय रचने वाले, विविध अभियानों में लगभग पौने दो लाख किलोमीटर की घुडदौड करने वाले, ‘देवदत्त सेनानी’ ऐसी लोकप्रियता प्राप्त करने वाले, तथा मराठा साम्राज्य की धाक संपूर्ण हिंदुस्थान पर निर्माण करने वाले इन्हीं ज्येष्ठ बाजीराव पेशवाजी का 28 अप्रैल को निर्वाण दिवस है।
जैसा कि हम जानते हैं कि विजयनगर राज्य के बाद छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा व्यवस्थित तरीके से स्थापित हिंदू पद पादशाही के अंतर्गत एक नवीन हिंदू राज्य का पुनर्जन्म किया गया, जिसने पेशवाओं के समय में एक व्यापक आकार ले लिया। इसी “पेशवा” पद को एक नई उँचाई तक ले जाने वाले कोंकण क्षेत्र के प्रतिष्ठित और पारंपरिक चितपावन ब्राह्मण परिवार के बालाजी विश्वनाथ राव के सबसे बड़े पुत्र के रूप में बाजीराव का जन्म 18 अगस्त 1700 ई. को हुआ था। बालाजी विश्वनाथ (बाजीराव के पिता) यद्यपि पेशवाओं में तीसरे थे लेकिन जहाँ तक उपलब्धियों की बात है, वे अपने पूर्ववर्तियों से काफी आगे निकल गये थे।
इस प्रकार बाजीराव जन्म से ही समृद्ध विरासत वाले थे। बाजीराव को उन मराठा अश्वारोही सेना के सेनापतियों द्वारा भली प्रकार प्रशिक्षित किया गया था, जिन्हें 27 वर्ष के युद्ध का अनुभव था। माता की अनुपस्थिति में किशोर बाजीराव के लिए उनके पिता ही सबसे निकट थे, जिन्हें राजनीति का चलता-फिरता विद्यालय कहा जाता था। अपनी किशोरावस्था में भी बाजीराव ने शायद ही अपने पिता के किसी सैन्य अभियान को नजदीक से न देखा हो जिसके चलते बाजीराव को सैन्य विज्ञान में परिपक्वता हासिल हो गई। बाजीराव के जीवन में पिता बालाजी की भूमिका वैसी ही थी, जैसी छत्रपति शिवाजी के जीवन में माता जीजाबाई की। 1716 में जब महाराजा शाहू जी के सेनाध्यक्ष दाभाजी थोराट ने छलपूर्वक पेशवा बालाजी को गिरफ्तार कर लिया, तब बाजीराव ने अपने गिरफ्तार पिता का ही साथ चुना, जब तक कि वह कारागार से मुक्त न हो गए। बाजीराव ने अपने पिता के कारावास की अवधि के दौरान दी गई सभी यातनाओं को अपने ऊपर भी झेला और दाभाजी के छल से दो-चार होकर नितांत नए अनुभव प्राप्त किये।
कारावास के बाद के अपने जीवन में बालाजी विश्वनाथ ने मराठा-मुगल संबंधों के इतिहास में नया आयाम स्थापित किया। किशोर बाजीराव उन सभी विकासों के चश्मदीद गवाह थे। 1718 ई. में उन्होंने अपने पिता के साथ दिल्ली की यात्रा की जहाँ उनका सामना अकल्पनीय षडयंत्रों से हुआ, जिसने उन्हें शीघ्र ही राजनीतिक साजिशों के कुटिल रास्ते पर चलना सीखा दिया। यह और अन्य दूसरे अनुभवों ने उनकी युवा ऊर्जा, दूरदृष्टि और कौशल को निखारने में अत्यन्त सहायता की, जिसके चलते उन्होंने उस स्थान को पाया जिसपर वह पहुँचना चाहते थे। वह एक स्वाभाविक नेता थे, जो अपना उदाहरण स्वयं स्थापित करने में विश्वास रखते थे। युद्ध क्षेत्र में घोड़े को दौड़ाते हुए मराठों के अत्यधिक वर्तुलाकार दंडपट्ट तलवार का प्रयोग करते हुए अपने कौशल द्वारा अपनी सेना को प्रेरित करते थे।
वो 2 अप्रैल 1719 का दिन था, जब पेशवा बालाजी विश्वनाथ ने अपनी अंतिम साँसे ली। ऐसे में सतारा शाही दरबार में एकत्रित विभिन्न मराठा शक्तियों के जेहन में केवल एक ही प्रश्न बार-बार आ रहा था कि क्या दिवंगत पेशवा का मात्र १९ वर्षीय गैर-अनुभवी पुत्र बाजीराव इस सर्वोच्च पद को सँभाल पाएगा? वहाँ इस बात को लेकर आलोचना-प्रत्यालोचनाओं का दौर चल रहा था कि क्या इतने अल्प वयस्क किशोर को यह पद दिया जा सकता है? ऐसे में मानवीय गुणों की परख के महान जौहरी महाराजा शाहू ने इस प्रश्न का उत्तर देने में तनिक भी देर नहीं लगाई और तुरंत ही बाजीराव को नया पेशवा नियुक्त करने की घोषणा कर दी जिसे शीघ्र ही एक शाही समारोह में परिवर्तित कर दिया गया।
17 अप्रैल 1719 को तलवारबाजी में दक्ष, निपुण घुड़सवार, सर्वोत्तम रणनीतिकार और नेता के रूप में प्रख्यात बाजीराव प्रथम ने मात्र बीस वर्ष की आयु में शाही औपचारिकताओं के साथ पेशवा का पद ग्रहण किया। उन्हें यह उच्च प्रतिष्ठित पद आनुवंशिक उत्तराधिकार या उनके स्वर्गीय पिता के द्वारा किये गये महान कार्यों के फलस्वरूप नहीं दिया गया, अपितु उनकी राजनैतिक दूरदर्शिता से युक्त दृढ़ मानसिक और शारीरिक संरचना के कारण सौपा गया। इसके बावजूद भी कुछ कुलीन जन और मंत्री थे, जो बाजीराव के खिलाफ अपने ईर्ष्या को छुपा नहीं पा रहे थे परन्तु बाजीराव ने राजा के निर्णय के औचित्य को गलत ठहराने का एक भी अवसर अपने विरोधियों को नहीं दिया, और इस प्रकार अपने विरोधियों का मुँह को बंद करने में वह सफल रहे।
बाजीराव का शिवाजी महाराज के हिंदवी स्वराज्य या “हिंदू पद पादशाही” के उदात्त स्वप्न में अटूट विश्वास था और इस स्वप्न को मूर्त रूप देने हेतु अपने विचारों को छत्रपति शाहू के दरबार में रखने का उन्होंने निश्चय किया। उन्होंने मुग़ल साम्राज्य की कमज़ोर हो रही स्थिति का फ़ायदा उठाने के लिए शाहू महाराज को उत्साहित करने के लिए कहा कि – ‘आइये हम इस पुराने वृक्ष के खोखले तने पर प्रहार करें, शाखायें तो स्वयं ही गिर जायेंगी, हमारे प्रयत्नों से मराठा पताका कृष्णा नदी से अटक तक फहराने लगेगी।’ इसके उत्तर में शाहू ने कहा था कि, ‘निश्चित रूप से ही आप इसे हिमालय के पार गाड़ देगें, क्योंकि आप योग्य पिता के योग्य पुत्र हैं।’
छत्रपति शाहू ने धीरे धीरे राज-काज से अपने को क़रीब-क़रीब अलग कर लिया और मराठा साम्राज्य के प्रशासन का पूरा काम पेशवा बाजीराव पर सौंप दिया। उन्होंने वीर योद्धा पेशवा को अपनी सेना का नेतृत्व करते हुए आगे बढ़ने की अनुमति दे दी और छत्रपति शिवाजी के स्वप्न को पूरा करने के लिए उन्हें हर मार्ग अपनाने की पूरी स्वतंत्रता प्रदान की। बाजीराव की महान सफलता में, उनके महाराज का उचित निर्णय और युद्ध की बाजी को अपने पक्ष में करने वाले उनके अनुभवी सैनिकों का बड़ा योगदान था। इस प्रकार उनके निरंतर के विजय अभियानों ने पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में मराठा सेना की वीरता का लोहा मनवा दिया जिससे शत्रु पक्ष मराठा सेना का नाम सुनते ही भय व आतंक से ग्रस्त हो जाता था।
बाजीराव का विजय अभियान सर्वप्रथम दक्कन के निजाम निजामुलमुल्क को परास्त कर आरम्भ हुआ जो मराठों के बीच मतभेद के द्वारा फूट पैदा कर रहा था। 7 मार्च, 1728 को पालखेड़ा के संघर्ष में निजाम को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा और ‘मुगी शिवगांव’ संधि के लिए बाध्य होना पड़ा जिसकी शर्ते कुछ इस प्रकार थीं-शाहू को चौथ तथा सरदेशमुखी देना, शम्भू की किसी तरह से सहायता न करना, जीते गये प्रदेशों को वापस करना एवं युद्ध के समय बन्दी बनाये गये लोगों को छोड़ देना आदि। 1731 में एक बार पुनः निज़ाम को परास्त कर उसके साथ की गयी एक सन्धि के द्वारा पेशवा को उत्तर भारत में अपनी शक्ति का प्रसार करने की छूट मिल गयी। बाजीराव प्रथम का अब महाराष्ट्र में कोई भी प्रतिद्वन्द्वी नहीं रह गया था और राजा शाहू का उनके ऊपर केवल नाम मात्र नियंत्रण था।
दक्कन के बाद गुजरात तथा मालवा जीतने के प्रयास में बाजीराव प्रथम को सफलता मिली तथा इन प्रान्तों में भी मराठों को चौथ एवं सरदेशमुखी वसूलने का अधिकार प्राप्त हुआ। ‘बुन्देलखण्ड’ की विजय बाजीराव की सर्वाधिक महान विजय में से मानी जाती है। मुहम्मद खां वंगश, जो बुन्देला नरेश छत्रसाल को पूर्णतया समाप्त करना चाहता था, के प्रयत्नों पर बाजीराव प्रथम ने छत्रसाल के सहयोग से 1728 ई. में पानी फेर दिया और साथ ही मुगलों द्वारा छीने गये प्रदेशों को छत्रसाल को वापस करवाया। कृतज्ञ छत्रसाल ने पेशवा की शान में एक दरबार का आयोजन किया तथा काल्पी, सागर, झांसी और हद्यनगर पेशवा को निजी जागीर के रूप में भेंट किया।
बाजीराव लगातार बीस वर्षों तक उत्तर की तरफ बढ़ते रहे, प्रत्येक वर्ष उनकी दूरी दिल्ली से कम होती जाती थी और मुगल साम्राज्य के पतन का समय नजदीक आता जा रहा था। यह कहा जाता है कि मुगल बादशाह उनसे इस हद तक आतंकित हो गया था कि उसने बाजीराव से प्रत्यक्षतः मिलने से इंकार कर दिया था और उनकी उपस्थिति में बैठने से भी उसे डर लगता था। मथुरा से लेकर बनारस और सोमनाथ तक हिन्दुओं के पवित्र तीर्थयात्रा के मार्ग को उनके द्वारा शोषण, भय व उत्पीड़न से मुक्त करा दिया गया था। बाजीराव की राजनीतिक बुद्धिमता उनकी राजपूत नीति में निहित थी। वे राजपूत राज्यों और मुगल शासकों के पूर्व समर्थकों के साथ टकराव से बचते थे, और इस प्रकार उन्होंने मराठों और राजपूतों के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंधों को स्थापित करते हुए एक नये युग का सूत्रपात किया। उन राजपूत राज्यों में शामिल थे- बुंदी, आमेर, डूंगरगढ़, उदयपुर, जयपुर, जोधपुर इत्यादि।
खतरनाक रूप से दिल्ली की ओर बढ़ते हुए खतरे को देखते हुए सुल्तान ने एक बार फिर पराजित निजाम से सहायता की याचना की। बाजीराव ने फिर से उसे घेर लिया। इस कार्य ने दिल्ली दरबार में बाजीराव की ताकत का एक और अप्रतिम नमूना दिखा दिया। मुगल, पठान और मध्य एशियाई जैसे बादशाहों के महान योद्धा बाजीराव के द्वारा पराजित हुए। निजाम-उल-मुल्क, खान-ए-दुर्रान, मुहम्मद खान ये कुछ ऐसे योद्धाओं के नाम हैं, जो मराठों की वीरता के आगे धराशायी हो गये। बाजीराव की महान उपलब्धियों में भोपाल और पालखेड का युद्ध, पश्चिमी भारत में पुर्तगाली आक्रमणकारियों के ऊपर विजय इत्यादि शामिल हैं।
बाजीराव ने 41 से अधिक लड़ाइयाँ लड़ीं और उनमें से किसी में भी वह पराजित नहीं हुए। वह विश्व इतिहास के उन तीन सेनापतियों में शामिल हैं, जिसने एक भी युद्ध नहीं हारा। कई महान इतिहासकारों ने उनकी तुलना अक्सर नेपोलियन बोनापार्ट से की है। पालखेड का युद्ध उनकी नवोन्मेषी युद्ध रणनीतियों का एक अच्छा उदाहरण माना जाता है। कोई भी इस युद्ध के बारे में जानने के बाद उनकी प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकता। भोपाल में निजाम के साथ उनका युद्ध उनकी कुशल युद्ध रणनीतियों और राजनीतिक दृष्टि की परिपक्वता का सर्वोत्तम नमूना माना जाता है। एक उत्कृष्ट सैन्य रणनीतिकार, एक जन्मजात नेता और बहादुर सैनिक होने के साथ ही बाजीराव, छत्रपति शिवाजी के स्वप्न को साकार करने वाले सच्चे पथ-प्रदर्शक थे।
मशहूर वॉर स्ट्रेटिजिस्ट आज भी अमरीकी सैनिकों को पेशवा बाजीराव द्वारा पालखेड में निजाम के खिलाफ लड़े गए युद्ध में मराठा फौज की अपनाई गयी युद्धनीति सिखाते हैं| ब्रिटेन के दिवंगत सेनाप्रमुख फील्ड मार्शल विसकाउंट मोंटगोमेरी जिन्होने प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मन्स के दाँत खट्टे किए थे, वे पेशवा बाजीराव से ख़ासे प्रभावित थे उनकी तारीफ वे अपनी किताब ‘ए कन्साइस हिस्टरी ऑफ वॉरफेयर’ में इन शब्दों में करते हैं —–The Palkhed Campaign of 1728 in which Baji Rao I out-generalled Nizam-ul-Mulk , is a masterpiece of strategic mobility —–British Field Marshall Bernard Law Montgomery, The Concise History of Warfare, 132
अप्रैल 1740 में, जब बाजीराव अपने जागीर के अंदर आने वाले मध्य प्रदेश के खरगौन के रावरखेडी नामक गाँव में अपनी सेना के साथ कूच करने की तैयारी कर रहे थे, तब वे गंभीर रूप से बीमार हो गये और अंततः नर्मदा के तीर पर 28 अप्रैल 1740 को उनका देहावसान हो गया। एक प्रख्यात अंग्रेज इतिहासकार सर रिचर्ड कारनैक टेंपल लिखते हैं, “उनकी मृत्यु वैसी ही हुई जैसा उनका जीवन था- तंबूओं वाले शिविर में अपने आदमियों के साथ। उन्हें आज भी मराठों के बीच लड़ाकू पेशवा और हिंदू शक्ति के अवतार के रूप में याद किया जाता है।”
जब बाजीराव ने पेशवा का पद सँभाला था तब मराठों के राज्य की सीमा पश्चिमी भारत के क्षेत्रों तक ही सीमित थी। 1740 में, उनकी मृत्यु के समय यानि 20 वर्ष बाद में, मराठों ने पश्चिमी और मध्य भारत के एक विशाल हिस्से पर विजय प्राप्त कर लिया था और दक्षिण भारतीय प्रायद्वीप तक वे हावी हो गये थे। यद्यपि बाजीराव मराठों की भगवा पताका को हिमालय पर फहराने की अपनी प्रतिज्ञा पूरी नहीं कर पाए, लेकिन उनके पुत्र रघुनाथ राव ने1757 ई. में अटक के किले पर भगवा ध्वज को फहराकर और सिंधु नदी को पार कर के अपने पिता को स्वप्न को साकार किया।
निरंतर बिना थके 20 वर्षों तक हिंदवी स्वराज्य स्थापित करने के कारण उन्हें (बाजीराव को) हिंदू शक्ति के अवतार के रूप में वर्णित किया गया है। उनके पुत्रों बालाजी उर्फ नाना साहेब, रघुनाथ, जनार्दन, उनकी मुस्लिम प्रेमिका मस्तानी से शमशेर बहादुर और छोटे भाई चिमाजी अप्पा के पुत्र सदाशिवराव भाऊ ने भगवा पताका को दिग-दिगंत में फहराने के उनके मिशन को जारी रखते हुए 1758 में उत्तर में अटक के किले पर विजय प्राप्त करते हुए अफगानिस्तान की सीमा को छू लिया, और उसी समय में भारत के दक्षिणी किनारे को भी जीत लिया। लोगों में स्वतंत्रता के प्रति उत्कट अभिलाषा की प्रेरणा द्वारा और आधुनिक समय में हिंदुओं को विजय का प्रतीक बनाने के द्वारा वे धर्म की रचनात्मक और विनाशकारी शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते थे। पेशवा बाजीराव प्रथम अपने जीवन काल में महानायक के रूप में प्रख्यात थे और मृत्यु के बाद भी लोगों के मन उनकी यह छवि उसी प्रकार विद्यमान थी। उनकी उपस्थिति हिंदू जन मानस पर अमिट रूप से अंकित हो चुकी है और इसे समय के अंतराल द्वारा भी खंडित नहीं किया जा सकता।
बाजीराव के बारे में “History of the Marathas” में जे. ग्रांट डफ कहते हैं: “सैनिक और कूटनीतिज्ञ के रूप में लालित और पालित बाजीराव ने कोंकण के ब्राह्मणों को विशिष्ट बनाने वाली दूरदर्शिता और पटुता के माध्यम से शिष्ट तरीके से मराठा प्रमुख के साहस, जोश और वीरता को संगठित रूप दिया। अपने पिता की आर्थिक योजना से पूर्ण परिचित बाजीराव ने एक सामान्य प्रयास द्वारा महाराष्ट्र के विभिन्न जोशीले किन्तु निरुद्देश्य भटकने वाले समुदायों को संगठित करने के लिए उन योजनाओं के कुछ अंशों को प्रत्यक्ष रूप से अमली जामा पहनाया। इस दृष्टिकोण से, बाजीराव की बुद्धिमता ने अपने पिता की अभीप्सित योजनाओं का विस्तार किया; उनके बारे में यह सत्य ही कहा गया है- उनके पास योजना बनाने हेतु एक मस्तिष्क और उसे कार्यान्वित करने हेतु दो हाथ थे, ऐसी प्रतिभा विरले ही ब्राह्मणों में पायी जाती है।
“Oriental Experiences” में सर आर. टेम्पल कहते हैं: “बाजीराव एक उत्कृष्ट घुड़सवार होने के साथ ही (युद्ध क्षेत्र में) हमेशा कार्रवाई करने में अगुआ रहते थे। वे मुश्किल हालातों में सदा अपने को सबसे आगे कर दिया करते थे। वह श्रम के अभ्यस्त थे और अपने सैनिकों के समान कठोर परिश्रम करने में एवं उनकी कठिनाइयों को अपने साथा साझा करने में स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते थे। राजनैतिक क्षितिज पर बढ़ रहे उनके पुराने शत्रुओं मुसलमानों और नये शत्रुओं यूरोपीय लोगों के खिलाफ उनके अंदर राष्ट्रभक्तिपूर्ण विश्वास के द्वारा हिंदुओं से संबंधित विषयों को लेकर राष्ट्रीय कार्यक्रमों की सफलता हेतु एक ज्वाला धधक रही थी। अरब सागर से लेकर बंगाल की खाड़ी तक पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में मराठों के विस्तार को देखना ही उनके जीवन का ध्येय था। उनकी मृत्यु वैसी ही हुई जैसा उनका जीवन था- तंबूओं वाले शिविर में अपने आदमियों के साथ। उन्हें आज भी मराठों के बीच लड़ाकू पेशवा और हिंदू शक्ति के अवतार के रूप में याद किया जाता है।
“Peshwa Bajirao I and Maratha Expansion” की प्रस्तुति में जदुनाथ सरकार कहते हैं: “बाजीराव दिव्य प्रतिभा संपन्न एक असाधारण घुड़सवार थे। पेशवाओं के दीर्घकालीन और विशिष्ट प्रभामंडल में अपनी अद्वितीय साहसी और मौलिक प्रतिभा और अनेकानेक अमूल्य उपलब्धियों के कारण बाजीराव बल्लाल का स्थान अतुलनीय था। वह एक राजा या क्रियारत मनुष्य के समान वस्तुतः अश्वारोही सेना के वीर थे। यदि सर राबर्ट वालपोल ने इंग्लैंड के अलिखित संविधान में प्रधानमंत्री के पद को सर्वोच्च महत्ता दिलाई तो बाजीराव ने ऐसा ही तत्कालीन समय के मराठा राज में पेशवा पद के लिए किया।”
यह बाजीराव ही थे जिन्होंने महाराष्ट्र से परे विंध्य के परे जाकर हिंदू साम्राज्य का विस्तार किया और जिसकी गूँज कई सौ वर्षों से भारत पर राज कर रहे मुगलों की राजधानी दिल्ली के कानों तक पहुँच गयी। हिंदू साम्राज्य का निर्माण इसके संस्थापक शिवाजी द्वारा किया, जिसे बाद में बाजीराव द्वारा विस्तारित किया गया, और जो उनकी मृत्यु के बाद उनके बीस वर्षीय पुत्र के शासन काल में चरम पर पहुँचा दिया गया। पंजाब से अफगानों को खदेड़ने के बाद उनके द्वारा भगवा पताका को न केवल अटक की दीवारों पर अपितु उससे कहीं आगे तक फहरा दिया गया। इस प्रकार बाजीराव का नाम भारत के इतिहास में हिंदू धर्म के एक महान योद्धा और सर्वाधिक प्रसिद्ध शासक के रूप अंकित हो गया| उनके निर्वाण दिवस पर कोटिशः नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि|
~ लेखक : विशाल अग्रवाल
~ चित्र : माधुरी