प्रजातन्त्र की परिभाषा है लोगों का, लोगों के लिए, लोगों के द्वारा। यह परिभाषा इसलिए निरर्थ है कि यह असंभव है तथा आदर्श भी नहीं है। लोग हमेशा स्तरीकृत रहेंगे। जितने लोग उतने स्तर विश्व में रहंेगे ही। स्तरीकृत व्यवस्था में लोगों का, लोगों के लिए, लोगों के द्वारा सर्वथा असम्भव प्रत्यय है। प्रजा की सबसे छोटी इकाई परिवार है। संयुक्त परिवार तनिक बड़ी इकाई है जहां प्रजा का अस्तित्व है। संयुक्त परिवार स्तरिकृत व्यवस्था है। शिशु, बालक, कुमार, युवक, युवती, वर-वधु, पति-पत्नी, माता-पिता, दादा-दादी, सेवक-सेविका समूह द्वारा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के चार पुरुषार्थ सिद्ध करते ऊर्ध्वगति अश्ववत बढ़ना परिवार है। क्या संयुक्त परिवार पर लोगों का, लोगों के लिए, लोगों के द्वारा नियम लागू किया जा सकता है? और लागू किए जाने पर परिवार परिवार रह सकेगा?हर तनिक भी समझ रखनेवाले का इस सन्दर्भ में एक ही उत्तर होगा यह असम्भव है। परिवार के सुचारु, सुखद, शान्तिमय चलने का प्रमुख आधार लोग नहीं हैं, स्तरिकृत रिश्ते, नाते, कर्तव्य, दायित्व भरा व्यक्तित्व है। यह स्तरीकरण कृत्रिम नहीं है प्राकृतिक है। पिता-माता, पति-पत्नी, भाई-बहन, चाचा-चाची, पुत्र-पुत्री आदि सब प्राकृतिक निश्चित सम्बन्ध हैं। इन सम्बन्धों से बन्धे सब सुस्तरीकृत हैं। प्रजातन्त्र लागू करते ही सुस्तरीकरण बिखर जाएगा। परिवार तहस-नहस हो जाएगा। प्रजातन्त्र के कारण प्रशासन की कई स्तरीकृत सुव्यवस्थाएं तहस नहस हैं। विधायी व्यवस्था तो पूरी तरह से चौपट व नष्ट-भ्रष्ट है।
प्रजातन्त्री हर संविधान ठेठ चूं चूं का मुरब्बा है। इसमें ”पंथ निरपेक्ष“ शब्दों के साथ साथ ”विचार, विश्वास, उपासना, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता शब्द उद्देश्यिका में दिए गए हैं। पहले शब्दों में ही ”पंथ निरपेक्ष“ तो बाद के शब्दों में ही ”पंथ सापेक्षता“ की विरोधाभासी बात कही गई है। सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय के साथ स्वतन्त्रता के साथ समता आपसी बन्धुता को जोड़ा गया है। ये सारे भारी भरकम शब्द आपस में मानों युद्ध करते प्रतीत होते हैं। उद्देश्यिका संविधान की आत्मा है और यह आत्मा चंू चंू का मुरब्बा है। इस पर धाराओं के और, किन्तु, परन्तु, लेकिन और नकारात्मक कानून अर्थात प्रजातन्त्र जहर काढे़ पकी नीम की पत्तियों समान कड़ुआ, हानीकर और बद्स्वाद है। राष्ट्र व्यवस्था करने के लिए औसत लोग व्यवस्थापक मन्त्री आदि; प्रधान, राष्ट्रपति आदि चुन सकते हैं। यह सरासर मूर्खतापूर्ण व्यवस्था है। क्या दस बी.ए. पास मिलकर एम.ए. योग्यताधारी पद हेतु उम्मीदवार चुन सकते हैं? दस बी.ए. का योग्यता योग एक बी.ए. ही होता है। हजार बी.ए. की योग्यता का योग एक बी.ए. ही होता है। मताधिकार व्यवस्था औसतः हजारों करोड़ों अर्धशिक्षितों का योग अर्धशिक्षित ही रहता है। गधों के योग से बुद्धिमत्ता समझ की मूर्खतम व्यवस्था है प्रजातन्त्र। जिसमें योग्यता का मापन गधों का योग होता है। गधों के योग से गधापन स्तर वही का वही एक गधे के बराबर होता है। कभी कभी तो दस गधे = दस गधापन भी हो जाते हैं। ऐसी स्थिति को सांसद कहते हैं जिसमें हर कोई एक दूसरे को गधा सिद्ध करता रहता है।
चालीस करोड़ बी.ए. औसतन मिलकर एक एम.ए. को नहीं चुन सकते हैं पर प्रजातन्त्र में चालीस करोड़ औसतन गधे प्रधानमन्त्री, अन्य मन्त्री, सांसद, मुख्यमन्त्री, एम.पी., एम.एल.ए. राज्य के मन्त्री आदि चुन लिया करते हैं। हाय प्रजातन्त्र तेरा नाम गारत!
प्रजातन्त्र में समाचार पत्रों के भोंपू तीन लोगों की पोंऽपंूऽ के ढोल बजाते हैं। एक आंख ऐंची फैंची कर आनतान टांग फेंक फिल्मी हीरो तथा हीरोइनों की। दूसरा ऊलजलूल बक, बस कुर्सियां तक व पकड़, औसत तक घिसे-पिसे नेता। तथा तीसरे बल्ला घुमांऊ, गेंद फेंकू औसतीकरण घिसे-घिसे खिलाड़ी। ये तीनों धन की महाकाय वासना से भरे भरे हैं। प्रजातन्त्री हीरो हैं प्रधानमन्त्री, मन्त्री, सांसद आदि, फिल्मी नायक या नायिकाएं, तथा क्रिकेटी या टेनिसी। इन तीनों का प्रजातन्त्री मानसिक स्तर औसती घिसा-पिटा पैसे भरा होता है। ये नचिकेता से घटिया होते हैं। इन्हें ”न वित्तेन तर्पणीयो मनः“- ‘मन कभी वित्त से सन्तुष्ट नहीं हो सकता’ सिद्धान्त न कभी समझ आता है न आ सकता है। क्योंकि इनमें इसे समझने की मूल क्षमता ही नहीं होती। परिणामतः ये सारे के सारे पैसा युक्त होते हैं। मोटी भाषा में वित्तेषणा के भयानक पागलखाने में भटकते भ्रष्ट होते हैं। ये इतनें भ्रष्ट होते हैं कि राष्ट्र मानस घात करते भी नहीं चूकते हैं। इनके द्वारा राष्ट्र भयंकर भयंकर मानसघात भोगता है और संभ्रान्त वर्ग के प्रभाव सिद्धान्त के अनुसार क्रमशः और और भ्रष्ट होता चला जाता है।
प्रजातन्त्र एक सतही व्यवस्था है। भेड़कूद व्यवस्था है। भेडों के रेवड़ में बांस डंडे दरवाजे का ऊपरी डंडा निकालकर दो तीन भेड़ें अगर बाहर हो जाएं तो नीचे का डंडा निकाल देने पर भी बिना डंडे कूदती रहती हैं। डंडाकूद प्रजा है प्रजातन्त्र। डंडा कुदाऊ है मीडिया- समाचारपत्र, रेडियो, टी.व्ही. आदि। और सारी प्रजा भेड़कूद हो जाती है। भेड़कूद व्यवस्था में कोई भी जयजयकार पा जाता है। गधा भी गला जयजयकार पा जाता है। राजीव गांधी, लता, शाहरुख आदि सब भेड़कूद प्रसिद्धि हैं। गला प्रसिद्धि भयानक भेड़कूद प्रसिद्धि है। विश्व इतिहास इतना विकृत कभी भी न था जितना प्रजातन्त्र में है। सुकरात, कुमारिल, बुद्ध, सूर, मीरा, महावीर, तुलसी, कबीर, दयानन्द आदि सब के सब अपने अपने विचार, अपने अपने गले के कारण प्रसिद्ध थे, आदर के पात्र थे। वाह रे वाह! प्रजातन्त्र में बिचारी लता का गला जो कचरे से धर्म तक अपने से गुजर जाने देता है विश्वप्रसिद्ध हो गया। भेड़कूद प्रसिद्धि की सिरमौर है लता। शाहरुख किसी और के विचारों का चलता फिरता मुखौटा भर है। ”पदेन“ के अतिरिक्त राजीव गांधी का कौड़ी अस्तित्व नहीं था।
प्रजातन्त्र पैसों और सुविधाओं की अंधी दौड़ का नाम है। खेल दुनियां (क्रिकेट, टेनिस) पैसों की कार्यावस्था (पैसों के कारण काम) है। फिल्मी दुनियां पैसों तथा पुत्र-पुत्रियों की कार्यावस्था है। तथा नेता दुनियां पैसे पुत्र एवं कुर्सी की कार्यावस्था है। तीनों अवस्थाओं से बुरी तरह उत्पादकता का ह्रास होता है। तीनों सर्वाधिक निठल्ली बेकार की रचनात्मकताहीन ही नहीं अरचनात्मक विधाएं प्रजातन्त्र के कारण हैं। ये मर्यादाहीन व्यवस्थाएं हैं।
प्रजतन्त्र की परिभाषा है प्रजा का, प्रजा के लिए, श्रेष्ठों द्वारा। प्रजा का इसलिए कि निर्णयों में प्रजा की स्पष्ट भागीदारी रहती है। प्रजा के लिए इसलिए कि प्रजा प्रज होती है। तथा श्रेष्ठों द्वारा इसलिए कि श्रेष्ठ प्रजामतों का वैज्ञानिक निष्कर्ष निकाल कार्यव्यवहार नीति निर्धारित करते हैं। इसमें पच्चीस पचहत्तर सिद्धान्त तथा तितली चित्र का समुचित प्रयोग उन्नयन के लिए कर दशरूपकम् योजना जनहित हेतु तय करते हैं। इससे स्वकार्यावस्था का उद्भव होता है। प्रारूप विवरण इस प्रकार है-
वर्तमान विधायी व्यवस्था तत्काल समाप्त कर दी जाएगी।
प्रजतन्त्र व्यवस्था लागू की जाएगी। हर व्यक्ति का शिक्षा एवं अनुभव के आधार पर अंकायन स्तरीकरण किया जाएगा। अंकायन स्तरीकृत सूची प्रकाशित की जाएगी।
प्रान्त सीमाएं नष्ट कर दी जाएंगी। भारत ‘क’, भारत ‘ख’, भारत ‘ग’ आदि विभाजन समान क्षेत्रफलानुसार भारत के नक्षे पर ग्राफ रखकर किए जाएंगे।
पांचसौ सर्वोच्च शिक्षा अनुभवांक प्राप्त व्यक्ति महीने में दो दिन संसद भवन में बैठेंगे।
ये सभी पांच सौ मात्र आम नागरिकवत होंगे। इन्हें कोई विशिष्ट सुविधाएं नहीं होंगी।
हर मुद्दे पर आम जनता से ”राय“ सर्वेक्षण विधियों द्वारा इकट्ठी की जाएगी। यह लाजिमी होगा।
संसद इस राय का सकारात्मक तथा नकारात्मक पच्चीस-पचहत्तर विभाजन करेगी। वह पच्चीस प्रतिशत राएं अलग चुन लेगी जो पचहत्तर प्रतिशत महत्वपूर्ण होंगी। तथा वे पचहत्तर प्रतिशत राएं अलग कर देंगी जो पच्चीस प्रतिशत महत्वपूर्ण होंगी।
महत्ता का आधार ”संविधान की आत्मा“ होगी।
संविधान की आत्मा यह होगी- ”भारत एक संप्रभुत्वपूर्ण सांस्कृतिक दार्शनिक राष्ट्र है। मैं भारत का नागरिक हर नागरिक के साथआत्मवत व्यवहार करूंगा। अपने व्यवहार में सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय का पालन करूंगा। सर्वहित भावना के अनुरूप कार्य करूंगा। ऋत, शृत, सत्य, भौतिक, नैतिक अर्हताओं का पालन करूंगा।
संविधान आत्मा के विरुद्ध कोई भी कानून या प्रावधान या व्यवहार रद्द माना जाएगा।
संविधान आत्मा को और सकारात्मक किया जा सकता है पर उसमें किन्तु परन्तु नहीं होगा।
देश में न्याय व्यवस्था तथा प्रशासन व्यवस्था वर्तमान विधायी व्यवस्था के आधिपत्य से रहित अस्थाई तौर पर वर्तमान शिक्षा, अनुभव तथा उम्र के आधार
पर ही होगी
शिक्षा व्यवस्था तत्काल भारतीय सांस्कृतिक अस्मिता के समन्वित वैज्ञानिक विधि आधारित कर दी जाएगी।
हर नागरिक मात्र भारतीय ही होगा। उस पर धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा के मुलम्मे के अनुसार कोई कानून वैध नहीं होगा।
भारत ‘क’, भारत ‘ख’ आदि के मध्य कोई प्रशासनिक, संवैधानिक न्यायपालिका अन्तर नहीं होगा।
यात्रा, यात्राभत्ता व्यवस्था, बाह्य स्थानीय सेमिनार व्यवस्थाएं वर्तमान की दूरसंचार की सशक्त विधा प्रसार के कारण तत्काल समाप्त की जा रही है। इसका कोई भी अपवाद नहीं होगा।
हर भारतीय नागरिक पर मात्र एक कर लगेगा और वह व्यक्ति की सकल आय का प्रतिशत होगा।
शिक्षा व्यवस्था निःशुल्क, आवासीय होगी। हर अभिभावक से इस हेतु आय का निश्चित प्रतिशत समान शुल्क लिया जाएगा।
बारहवीं पश्चात कला निकाय की शिक्षा मात्र पत्राचार द्वारा होगी। विज्ञान शिक्षा मात्र योग्यतानुसार आय का निश्चित प्रतिशत शुल्क देकर की जा सकेगी।
व्यवस्था में विद्या को सर्वाधिक महत्ता होगी।
न्याय व्यवस्था का मूल आधार ”आत्मवत व्यवहार“ होगा। जिसका उल्लंघन हर स्थिति में अपराध होगा।
विज्ञान यह सिद्ध कर चुका है कि शुभ विचार का टंकन जिनेटिक कोड पर होकर व्यक्ति नियोजित, संयत, आयोजनमय, अनुशासनबद्ध, सद्व्यवहार करते हैं। अतः हर लेखक, प्रकाशक, आयोजक, प्रयोजक, उद्घोषक, निर्देशक, नायक, नायिका, वक्ता, नेता आदि आदि की व्यक्तिगत जिम्मेदारी होगी कि वह शुभ ही शुभ का लेखन, प्रकाशन, प्रसारण, फिल्मांकन कथन आदि करे। यह भी विज्ञानसिद्ध है कि अशुभ विचार का टंकन जिनेटिक कोड पर होकर व्यक्ति अनियोजित, असंयत, आयोजनरहित, अनुशासनहीन, दुर्व्यवहार करते हैं। अतः अशुभ का लेखन, प्रकाशन, प्रसारण, फिल्मांकन कथन आदि अपराध होगा। शुभ अशुभ की कसौटि संविधान की आत्मा होगी।
शिक्षा व्यवस्था की रीढ़ अ) शाश्वत नैतिक मान्यताएं, ब) शाश्वत वैज्ञानिक मान्यताएं, स) सत्य मान्यताएं होंगी। ऋत, शृत, सत्य के इर्द गिर्द ही कक्षा एक से अन्त तक शिक्षा का आधार ढांचा कोर्स होगा। कथ्येन आधा बीज सूत्रों पर प्रोक्तेन विस्तार आधारित होगा। ”सांस्कृतिक सामाजिक तकनीक“- ‘सांसात’ आधारित होना शिक्षा के लिए लाजिमी होगा।
शिक्षा का आधारकार्य सर्वांगणीय व्यक्तित्व विकास होगा। व्यवसाय तो स्वतः सिद्ध होगा।
चुनाव नहीं होंगे, राजनैकि दल नहीं होंगे।
व्यवस्था ”स्वश्रमावस्था“ की होगी। व्यक्ति श्रम के आनन्द के कारण कार्य करेगा। स्पष्ट है श्रम लालच के आधारों पर नहीं कराया जाएगा।
जब तक भारत का हर नागरिक गरीबी की रेखा से ऊंचा नहीं उठता तब तक गरीबी की रेखा से ऊंचे उठे व्यक्तियों द्वारा और सुविधाओं, वेतनवृद्धि की मांग अपराध गिनी जाएगी। संसद प्रतिनिधि सत्यज्ञ कहे जाएंगे। वे मात्र साठ वर्ष तक कार्यरत रहेंगे। संसद स्वतः परिवर्तनशील होगी।
सत्यज्ञ आम कर्मचारी जैसा ही काम करेंगे। आम नागरिक जैसा ही रहेंगे। माह में मात्र दो दिवस विधायी निर्णय लेंगे।
सत्यज्ञों का दायित्व होगा कि जन सर्वेक्षण का सकारात्मक नकारात्मक तितली चित्र बनाएं। ये चित्र मीडिया द्वारा प्रसारित किए जाएंगे और नीति आधार होंगे।
लोकहित कार्य दल अपने अपने क्षेत्र तय कर सकते हैं। इनमें साहित्यिक संस्थाएं, विज्ञान संस्थाएं, कला संस्थाएं, तकनीकी संस्थाएं, धार्मिक संस्थाएं, सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाएं, आदि भी सम्मिलित होंगी। इनका जन सर्वेक्षण हेतु उपयोग भी होगा।
बीज सूत्र शिक्षा के तेन कथ्येन 1) अणोरणीयान महतो महीयान- विज्ञान हेतु, 2) ऋत्विज- मौसम विज्ञान, उम्र संधियों हेतु, 3) शृत्विजम्- विभिन्न सम्प्रदाय धर्मों हेतु, 4) शान्ति- पर्यावरण हेतु, 5) स्वस्थ, स्वस्ति, स्वयं- स्वास्थ्य हेतु, 6) आयुर्यज्ञेन कल्पताम्- चिकित्सा शाó हेतु, 7) स्व थम्- अनुशासन, कानून हेतु, 8) शान्ति ओषधयः – अनाज हेतु, 9) योग- मानसिक चिकित्सा हेतु, 10) पुरोहितम्- शिक्षा व्यवस्था हेतु, 11) नृचक्षस- युद्ध, नेतृत्व कला हेतु, 12) अनिमिषन्त- सामान्य नेतृत्व हेतु, 13) अफजलुल इमानि- नीतिशाó के लिए, 14) ”एक सब के लिए-सब एक के लिए“- समाजशाó के लिए आदि आदि बीजसूत्र धर्मों, मजहबों के आधार पुस्तकों से चुनें जाएंगे।
सारे भारत में एक ही व्यवस्था लागू की जाएगी, दुहरी तिहरी व्यवस्थाएं समाप्त मानी जाएंगी।
शिक्षा के अतिरिक्त सारी उपाधियां, सम्मान जो मानद हैं समाप्त मानी जाएंगी।
व्यक्तिगत या जातिगत या सम्प्रदायगत नगरों, गलियों, क्षेत्रों, भवनों की नामकरण व्यवस्था तत्काल रद्द की जाती है। सारे नाम भाववाचक गुण शब्द या शृत, ऋत, सत्य भावानुरूप होंगे। यथा समिष्टि भवन, यजन भवन, आर्यन मार्ग, श्रद्धा भवन, उदय नगर, उद्योग नगर आदि आदि।
विज्ञान पद्धति में निहित है विषयवस्तु में नहीं। सारा संस्कृत साहित्य वैज्ञानिक पद्धति से लिखित है। इसी प्रकार वैज्ञानिक खांचे वैज्ञानिक पद्धति से की गई है। सरकार द्वारा मात्र ऐसे साहित्य सूचना भंडार आदि मात्र का मान्यीकरण किया जाएगा।
कानून सकारात्मक होगा। यथा- करो दूसरे के साथ मात्र वह व्यवहार जिसकी उस स्थिति में दूसरे से अपेक्षा रखते हैं। अपने अधिकारक्षेत्र की वस्तुओं को
निर्बाध प्रयोग करो। इससे कानून पैरों के बल खड़ा हो सकेगा।
न्याय के क्षेत्र को अधिकार क्षेत्र (जुरिस्डिक्शन) व्यवस्था हर कार्य प्रशासन क्षेत्र पर लागू की जाएगी।
व्यवस्था का आधारतत्व ”स्व“ होगा। इसलिए स्वतन्त्र, स्वस्थ, स्वस्ति, स्वयं, स्वावलंबन, स्व थम आदि महत्वपूर्ण अनुशासन व्यवस्थाओं को विशेष महत्ता
दी जाएगी।
व्यवस्था का नाम प्रजतन्त्र होगा।
नारी पुरुष समान नहीं समकक्ष होंगे।
नारी पुरुष दायित्व शारीरिक, मानसिक आदि विभिन्नताओं के अनुरूप होंगे। इसका दायित्व विभाजन खेलकूद प्रतियोगितावत होगा।
ये प्रजतन्त्र की ओर इंगन ढांचा है। इसके द्वारा धीरे धीरे प्रजातन्त्र विस्थापित किया जा सकता है।
स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)