न्याय के दो भाग होते हैं- एक विधायी दूसरा कार्यकारी या न्यायालयी। इन दोनों मे सामंजस्य होना आवश्यक है। सिद्धान्ततः न्यायालयी भाग उच्च कोटि की शैक्षणिक, पद, उम्र, अनुभव, योग्यता आधारित होना चाहिए। प्रजातन्त्र में यह है भी। सिद्धान्ततः विधायी न्यायव्यवस्था क्योंकि न्यायालयी से भी उच्चस्तरीय है इसलिए इसमें और भी अधिक उच्चस्तरीय योग्यता, अनुभव-दक्षता चाहिए। प्रजातन्त्र में यह नहीं है। इस क्षेत्र प्रजातन्त्र महा-बेताल-बेताल भूत-प्रेत-नृत्यव्यवस्था है। इसके व्यावहारिक उदाहरण हैं अपराधी प्रवृत्ति के प्रजानन याने नेता-उपनेता। इनकी संसद तथा विधानसभाओं में संख्या पच्चीस प्रतिशत है।
करीब पच्चीस प्रतिशत नेता न्यायव्यवस्था द्वारा अपराधी ठहराए जाने पर भी प्रजा द्वारा या लोक द्वारा विधायी न्यायव्यवस्था के लिए एक बार नहीं पांच-पांच बार चुन लिए जाते हैं। न्यायव्यवस्था का दुहरा कचूमर निकल जाता है प्रजातन्त्र में
यह महादोष प्रजातन्त्र हत्या द्वारा ही ठीक हो सकता है प्रजतन्त्र या योग्यता-अनुभवतन्त्र ही समस्या निदान है।
स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)