प्रजातंत्र हत्या क्रांति की दस्तावेज

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प्रजातन्त्र समाजवाद थोथी व्यवस्थाएं,
स्व स्वस्थ कर ले।
हर एक संरचना टूट फूट फैली,
लक्ष्य एक जुड़ ले।।1।।

आधुनिक युग में प्रजातन्त्र व्यवस्था पर आकर समाज ठहर गया है। विश्व-समाज इससे आगे की सोच ही नहीं पा रहा है। यह प्रजातन्त्र का ही प्रभाव है कि विश्व समाज ने सोचना बन्द कर दिया है। प्रजातन्त्र का आधारभूत तत्त् व प्रजा है। जिसका सोचने से बहुत कम सबन्ध है। नया सोचना श्रेष्ठ मानव का काम है। प्रजातन्त्र श्रेष्ठ मानव का मताधिकार द्वारा सामान्यीकरण करता है, चिन्तन की हत्या करता है। प्रजातन्त्र की हत्या करना अर्थात नए चिन्तन को प्रोत्साहित करना है।।2।।

प्रजातन्त्र संविधान की एक पृष्ठ उद्देशिका आदमी आधारित है। उसमें स्व-तन्त्रता है, स्व-आधीनता है, स्व-समता, स्व-अस्ति है।

प्रजातन्त्र व्यवस्था में नागरिक प्रजा होकर राजशक्ति के प्रयोग में हाथ बटाता है। तभी प्रजा का, प्रजा के लिए, प्रजा द्वारा शासन होता है। प्रजा का, प्रजा द्वारा का सीधा अर्थ है छियासठ प्रतिशत भूखे, साठ प्रतिशत अशिक्षित, करीब बावन प्रतिशत बेघर का शासन। ऐसा शासन न तो सच सोच सकता है, न सच कह सकता है, न सच जी सकता है। एक भूखे व्यक्ति से यदि दो और दो कितने हुए यह पूछा जाए तो उसका उत्तर होगा चार रोटियां। प्रजातन्त्र के सारे सच रोटियों से ऊपर नहीं उठते। जहां रोटियों की समस्या हल हो चुकी है वहां प्रजातन्त्र के सच युद्ध-पिपासा में भटक जाते हैं। हर दृष्टि प्रजातन्त्र की हत्या आवश्यक है ताकि दुनियां झूठों से आजाद हो सके।।3।।

दशानन याने दस सिर वाला आदमी। प्रजानन (नेता) याने प्रजा के सिर वाला आदमी। दशानन प्रजानन से बेहतर था। दशानन के पास आदमी से दस गुना ताकत थी। प्रजानन के पास आम आदमी की तुलना में करोड़ गुना अधिक ताकत है। इसके कोट में लगे बटन दबाने से विश्व बीसियों बार तबाह हो सकता है। एक भी प्रजानन श्रेष्ठ नहीं है, योग्यतम नहीं है।

प्रजातन्त्रों में प्रजानन क्रमशः निम्नस्तर की ओर अग्रसर है। क्या कभी अंधा आंख वाले को मत दे सकता है? मुर्दा क्या जीवित के पक्ष में मत दे सकता है? विश्व को विनाश से बचाने के लिए प्रजातन्त्र की हत्या आवश्यक है।।4।।

मानव समाज के छः दुर्गुण हैं- 1. उलूक – बड़ा समुदाय बनाकर 2. छोटे समुदाय बनाकर शुशुलूक। 3. श्व – स्थिति परिवर्तन द्वारा। 4. कोक – विभक्त होकर। 5. शासनेच्छा सुपर्ण से प्रेरित होकर। 6. आदमी को सताने की इच्छा से गृध्र इन छः से या किसी से भी या कुछ से न्याय पर अभिघात करना। (ऋग्वेद 7/104/22) हाय रे प्रजातन्त्र! तेरा आधार ही ये छः दुर्गुण हैं।
(1) राजनीतिक दल बड़ा समुदाय बनाकर, (2) दबाव समूह छोटे दल बनाकर, (2) पदाधिकारी स्थिति परिवर्तन द्वारा-मन्त्री परिवर्तन द्वारा, (4) दल बदल कर, (5) कुर्सियों हेतु, (6) आम आदमी का ध्यान छोड़कर, इसमें न्याय का अभिघात होता है अतः प्रजातन्त्र की हत्या आवश्यक है।।5।।

प्रजातन्त्र स्वतन्त्र का हत्यारा है। स्वतन्त्र का सरल अर्थ है “आदमी का आदमी के साथ आदमी वत व्यवहार”। प्रजातन्त्र आदमी से टूटी व्यवस्था का नाम है। प्रजातन्त्र के सारे संविधानों का उद्देश्य व्यक्ति स्वतन्त्रता को काटते चले जाना है। प्रजा का नाम लेकर व्यक्ति की हत्या की घिनौनी साजिश का नाम प्रजातन्त्र है। संविधान पढ़ने से यही तथ्य उजागर होता है कि सारे संविधान में इसकी उद्देशिका की हत्या करने का प्रयास किया गया है। जो कटा नहीं है, जिसने टोपी नहीं पहनी है, जिसने रंगीन चश्मा नहीं लगाया है, जो स्व के आधार पर है ऐसे व्यक्ति को प्रजातन्त्र संविधान में कोई मान्यता नहीं है- अतः प्रजातन्त्र की हत्या आवश्यक है।।6।।

प्रजातन्त्र में शिक्षा व्यवस्था कई कई शीर्षासन कर रही है। (1) इसमें अयोग्यों को योग्यता का प्रमाण पत्र देने परीक्षाफल को ही नीचा कर दिया जाता है। (2) 95 प्रतिशत सभ्रान्त वर्ग की सन्तानें इस शिक्षा व्यवस्था में लाभ के पद प्राप्त करती हैं। (3) सभ्रान्त वर्ग के परिवार सदस्य दुहरे-तिहरे नौकरी पद हथिया लेते हैं। (4) पढ़े लिखों को पढ़ाने वाले ऊंचा वेतन पाते हैं। यथार्थ में एम.ए., बी.ए. की पढ़ाई के लिए महाविद्यालयों की कोई आवश्यकता ही नहीं है हर पढ़ना जानने वाला व्यक्ति ये विषय स्वयं ही समझ सकता है। प्राथमिक कक्षाओं को पढ़ाना इन कक्षाओ को पढ़ाने से कठिन है तथा इस अवस्था में पढ़ाई की ऊंची गुणवत्ता की आवश्यकता है। (5) मूल अंको का तिरस्कार करते हुए द्वितीयक परीक्षाओं द्वारा व्यवसायिक परीक्षाओं तथा क्षेत्रों में चयन व्यवस्था का घिनौना जाल फैला है। (6) भारत में ‘मैकाले’ शिक्षा व्यवस्था का अवैध बाप होने पर भी शिक्षा के वैध बाप से भी अधिक काबिल है। (7) एक ही वर्ष दो परीक्षाओं के देने पर रोक है। (8) आय का नियत प्रतिशत शुल्क लेकर सबको समान शिक्षा सुविधा के सिद्धान्त का इसमें पालन नहीं है। (9) एक शिष्य हजार परिवर्तनीय गुरु व्यवस्था है। (10) मानव निर्माण की योजना से रहित है। (11) सूचना परक है। (12) नारी-पुरुष को समान है। वास्तव में नारी पुरुष मूलतः भिन्न हैं। (13) इसमें एम.ए. परीक्षा आसान तथा आठवी, मैट्रिक कटिन है। (14) खेल जगत में शिक्षा जगत से अधिक, समृद्धि अधिक प्रसिद्धि है। (15) राजनैतिक जगत में भी शिक्षा जगत से अधिक प्रसिद्धि है। (16) इस व्यवस्था में परीक्षा लेने के सिवाय एक भी गुण नहीं है। (17) दिन प्रतिदिन बढ़ती ट्यूशनें इसके घोर निकम्मेपन का सशक्त प्रमाण हैं। (18) हाय रे प्रजातन्त्र व्यवस्था! देश के सर्वोच्च शासक-प्रजाननों को शिक्षा की कोई आवश्यकता नहीं है। इस व्यवस्था की हत्या होनी ही है।।7।।

सर्वोच्च न्यायाधीश पद योग्यताधारी मात्र पांच, आठ व्यक्ति होते हैं, अतः इस पद के उच्चाधिकार हैं। एक अर्दली पद के योग्यताधारी करीब करोड़ हैं। अतः इस पद के निम्नाधिकार हैं। अर्दली से भी निम्न है प्रधानमन्त्री आदि की पद योग्यता। इस पद योग्यताधारी करीब चालीस करोड़ हैं। इस पद के अधिकार सर्वोच्च हैं। अन्तिम सीमा तक का थोथापन है प्रजातन्त्र। अविलम्ब हत्या कर दो इसकी।।8।।

प्रजातन्त्र बीज ही विकृत हैं। इनसे अलगाव, घृणा, गालियां भ्रष्टाचार, आतंकवाद, प्रजाननवाद, अयोग्यता, क्षमताह्रास, मात्र के वृक्ष या फसलें उगती हैं।।9।।

दशानन एक गधा सिर था। प्रजानन (प्रजा वोटों से जीता व्यक्ति) लाखों गधा सिर है। एक दशानन घातक था। हजारों प्रजानन (एम.पी., एम.एल.ए.) घोर घातक हैं।।10।।

प्रजातन्त्र स्व से सर्वाधिक हटे या दूर प्रत्यय “प्रजा” पर आधारित व्यवस्था का नाम है। अतः यह सबसे नीची व्यवस्था है। इसमें अनुशासन जो स्व आधारित है पनप ही नहीं सकता।।11।।

सारी प्रजातन्त्र व्यवस्थाएं मिलकर एक भी पूर्ण सकारात्मक निर्णय ले नहीं सकीं हैं। विश्व शान्ति, अणु अस्त्रनिषेध, कश्मीर, पेलेस्टाइन, इज्राराइल आदि समस्याओं पर मात्र मानसिक दिवालिएपन के प्रतीक किसी तरह निर्णय ही लिए गए हैं।।12।।

प्रजातन्त्र व्यवस्था औसत निम्न व्यवस्था है। यह औसत निम्न (66 प्रतिशत अशिक्षा, 66 प्रतिशत भूख, 70 प्रतिशत बेघर) के समकक्ष चिन्तन से ऊंची नहीं हो सकती है।।13।।

सारे चुनावों में प्रजा का बहुमत वोट न देनेवालों का ही रहा है। सारे शासन अवैधानिक शासन रहे हैं। इतने वर्षों की भयानक अवैधानिकता उफ! कितना बड़ा बोझ?।।14।।

सारे धरती के निवासियों छै अरब वोट एक व्यक्ति को मिलने पर भी उस व्यक्ति की योग्यता एक मिलीमीटर का छै अरबवां अंश भी नहीं बढ़ती। पर उसे हजारों मीटर अधिकारों से लाद दिया जाता है। योग्यता एवं अधिकारों के घोर अपमान की व्यवस्था का नाम है प्रजातन्त्र।।15।।

प्रजातन्त्र संविधान प्रजातन्त्र संविधान के बाहर या आगे स्वस्थ सोचने करने का कोई प्रावधान नहीं रखता। अतः इसकी हत्या अवश्य ही होनी चाहिए।।16।।

रेडियो, दूरदर्शन, समाचार पत्र ये सारे प्रजाननों के चेहरे बड़े करके दिखाने वाले षड़यन्त्रकारी हैं। ये सब प्रजातन्त्र के भोंपू हैं। ये सब अन्धों के आंखों पर, बहरों के कानों पर भाषण सुनाते हैं, छापते हैं। ये राक्षस, ये मुखौटे प्रजातन्त्र की उपज हैं।।17।।

प्रजातन्त्र व्यवस्था में प्रजानन आदमी को गेंद बनाकर उससे खेलते हैं। कभी विपक्ष उसे किक् करता है कभी पक्ष उसे किक् करता है। दो तीन महीने मैच की तैयारियां होती है। एक दिन मैच होता है कभी पक्ष जीतता है। कभी विपक्ष जीतता है। जीतने वाला पांच वर्षों तक जीत समारोह मनाता रहता है। हारने वाला पांच वर्षों बाद! कभी यही स्थिति रहती है कभी बदल जाती है। कितनी घिनौनी व्यवस्था है! इसकी हत्या होगी ही।।18।।

धरोहर खोर है प्रजातन्त्र। मेरे गरीब पड़ोसी को दस पैसा देने के लिए मुझसे एक रुपया लेता है। इस दस पैसे (जो मेरे दिए रुपए का अंश है) के गरीब को देने का श्रेय भी मुझे नहीं मिलता वरन प्रजानन ले लेता है। हरामखोर है प्रजातन्त्र। धरोहर पाक होती है। कबीर ने ‘चादर धरोहर’ ज्यों की त्यों धर दी थी । जनता के मध्यम तथा धनिक वर्ग से लिया गया टैक्स धरोहर है निर्धन वर्ग की, समाज की। धरोहर खोर प्रजातन्त्र व्यवस्था इसका 85 प्रतिशत से अधिक टूरों, पासों, वेतनों, भत्तों में खा जाती है तथा निठल्लों की जमात पलती है। पन्द्रह प्रतिशत में भी काफी घूसखोरी भ्रष्टाचारी खा जाते हैं। यह विडम्बना है कि हमारे पड़ोस के निर्धनों के लिए राग आलापता प्रजातन्त्र धरोहर खोर होकर उनकी निर्धनता का रोना रोता दिन प्रतिदिन साहूकार होता चला जा रहा है। धरोहर खोर प्रजातन्त्र की हत्या करना आवश्यक है।।19।।

धरोहरखोर ही नहीं है प्रजातन्त्र, लाशखोर भी है। हर मर गया व्यक्ति, हर बीत गया व्यक्ति लाश होता है। इस प्रजातन्त्र में दल या समूह अपने हाथों में लाशें लेकर घूम रहे हैं-और उन लाशों को ही खा रहे हैं तथा उन्हें ही खाने का नाटक कर रहे हैं। सड़क पर लाश धर भीख मांगना कितना घिनौना काम है। और ये जो लोग सरे आम हाथों में लाशें उठाए-लाशों पर बड़े-बड़े बाजार सजाए भारत में प्रजा को अस्थियां बेच-बेच वोट खरीद रहे हैं क्या उन लाश-धर भिखमंगों से कम हैं? नहीं; कहीं अधिक हैं। इस घिनौने पन के बीज प्रजातन्त्र में ही हैं। प्रजातंत्र की हत्या आवश्म्भावी है।।20।।

प्रजातन्त्र विद्या पर रोक है, उन्नति पर रोक है। शिक्षा क्षेत्र में क्षमता होने पर भी, समय होने पर भी आदमी दो परीक्षाएं न दे सके तथा अधिक कमाने पर दंड़ भुगतान पड़े यह प्रजातन्त्र है।।21।।

डेढ़ घण्टे या एक घण्टे लम्बी धरती पर इतने देश, इतनी सीमाएं, पासपोर्ट, वीसा आदि-आदि प्रजातन्त्र की ही रोगी थूकें हैं। धरती संस्था के रास्ते की सबसे बड़ी रुकावट है प्रजातन्त्र।।22।।

प्रजातन्त्र व्यवस्था में संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था शान्ति के लिए युद्धक सेना रखती है, युद्धों की इजाजत देती है। इतना घटिया प्रजातन्त्र इसकी तत्काल हत्या आवश्यक है। शान्ति भी शान्तिकर हो सूत्र कहता है कि शान्ति के लिए युद्ध करते ही शान्ति भंग हो जाती हैं।।23।।

प्रजा पैदल को कुचल देती है। सुकरात को जहर, ब्रूनो को आग, एनेक्सगोरस को मृत्युदण्ड, गैलीलियो को जेल, दयानन्द को जहर, स्पिनोजा को एक लाठी भीड़ से दूर रहने का दण्ड आदि प्रजा ने ही दिया है। प्रजा आगे का सच नहीं सोच सकती। प्रजातन्त्र भी भविष्यान्ध है।।24।।

औसत व्यवस्था है प्रजातन्त्र, औसत से ऊपर उठने पर रोक है प्रजातन्त्र। औसत से श्रेष्ठ का अस्वीकार है प्रजातन्त्र। श्रेष्ठता भावना की भ्रूण हत्या है प्रजातन्त्र। इसमें ईसा, ब्रूनो, सुकरात, स्पिनोजा, दयानन्द आदि तो दूर सूर तुलसी मीरादि भी पैदा नहीं हो सकते।

प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र अपेक्षाकृत ठीक है पर मात्र प्रतिनिधि प्रजातन्त्र से ही ठीक है। प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र तथा इसके समान व्यवस्थाओं ने सुकरात को विष दिया था, ब्रूनो को जला दिया था, एनेक्सगोरस को चन्द्रमा को पत्थर कहने पर मृत्युदण्ड दिया था, स्पिनोजा जैसे भक्त चिन्तक से चार हाथ दूर (एक लाठी दूर) रहने का विधान दिया था, दयानंद को मरवाने के प्रयास किए थे – इसका पूरा इतिहास घोर काला है। अप्रत्यक्ष या प्रतिनिधि प्रजातन्त्र तो इससे भी गया बीता है वह महापुरुषों की, महानों की, उच्च चिन्तकों की भ्रूण हत्या कर देता है। एक चिन्तक को प्रजा के औसत स्तर तक काटने का संविधान थोथा है। चिन्तकों, वैज्ञानिकों, श्रेष्ठ पुरुषों की भ्रूण हत्या न हो इसलिए प्रजातन्त्र की हत्या करना अत्यावश्यक है।।25।।

प्रतिनिधि -सत्तात्मक प्रजातन्त्र की मूल व्यवस्था यह है कि जनता राजशक्ति का अधिकार जन-प्रतिनिधियों (प्रजाननों) को सौंप देती है तथा जनप्रतिनिधि -जनता की भावना लोक सभा में प्रस्तुत करते हैं। संचार या कम्युनिकेशन के सिद्धान्त का जरा सा भी ज्ञान रखने वाला व्यक्ति उपरोक्त प्रतिनिधित्व के थोथेपन को पहचान सकता है। दो व्यक्तियों में संचार सर्वाधिक होता है – इसके पश्चात तीन चारादि में क्रमशः संचार कम होता चला जाता है। अन्त में हजारों करोड़ों लोगों में वह करीब करीब शून्य हो जाता है। जनता-प्रतिनिधि मध्य संचार होता ही नहीं केवल प्रतिनिधि की धूर्तता शेष रहती है। प्रतिनिधि बनने पर यही धूर्तता अशेष हो जाती है और प्रजा मन्त्रमुग्ध हो जाती है। इन निम्नतम सम्बन्ध की हत्या के लिए प्रजातन्त्र की हत्या आवश्यक है।।26।।

राज्य प्रतिनिधि का जो स्वरूप प्रजातन्त्र में दिया है वह शासन के अर्थ से मेल नहीं खाता है। शासन का सम्बन्ध योग्यता से है। प्रजा – प्रतिनिधि एक औसत की उपज है -और औसत सब पर शासन के अयोग्य होता है। इसी शासन अयोग्यता के कारण विश्व मानवता कराह रही है। विश्व की करीब दो तिहाई जनता रोज भूखी सोती है। छै अरब मत मिलकर एक इन्टर पास को बी.ए. पढ़ाने की क्षमता नहीं दे सकते। लेकिन यह क्षमता वह चार वर्ष के अध्ययन द्वारा प्राप्त कर सकता है। मतों से किसी भी व्यक्ति की योग्यता एक मिली मीटर भी नहीं बढ़ती यह मताधिकार व्यवस्था या प्रजातन्त्र व्यवस्था के थोथेपन का सर्वाधिक सशक्त प्रमाण है। इसमें अयोग्य व्यक्ति योग्यों की सभाओें के सभापति होते हैं। अन्धे, बहरे आंखो पर कानों पर आंख वालों, कान वालों को भाषण देते हैं, और इन भाषणों की घनी काली चादर से दूरदर्शन, रेडियो, समाचारपत्र विश्व आकाश काला कर देते हैं। प्रजातन्त्र के सारे सूरज काले हैं अतः इसकी हत्या होनी ही है।।27।।

“मानव के सामूहिक हितों की रक्षा एवं अभिवृद्धि मात्र लोकतन्त्र से हो सकती है” यह प्रजातन्त्र के पक्ष में एक सशक्त समझा जाने वाला प्रमाण है। क्योंकि इसमें समस्त मनुष्यों का सहयोग होता है। बेशक समस्त राज्य मनुष्यों की इस शासन में भागीदारी होती है। परन्तु भागीदारी का स्तर आधी ऊंचाई का ही होता है। अतः आधे से ऊंचे लोगों के लिए यह शासन मुर्दा बोझ होता है, और इनके बिना अन्य आधे से कम ऊंचाई के हितों की रक्षा एवं अभिवृद्धि हो ही नहीं सकती अतः प्रजातन्त्र व्यवस्था सामूहिक हितों पर दुहरा घात है। मानव जाति के साथ एक भयानक धोखा है। इसकी हत्या अवश्यम्भावी है। तुम करोगे इसकी हत्या।28।।

एक भूखे व्यक्ति से यदि प्रश्न किया जाए कि दो धन दो कितना? वह उत्तर देगा चार रोटियां और उसका उत्तर सही है। जनता की इच्छा का प्रजातन्त्र के पक्ष में दिए गए प्रमाण का उपरोक्त उदाहरण पर्दाफाश करता है। भोजन, पानी, हवा, निवास की पूर्ति तक जनता की इच्छा इनकी पूर्ति ही है यह कोई भी समझ सकता है। प्रजाननों में इतनी भी समझ नहीं है। क्या प्रजातन्त्र ने जनता की इस इच्छा का आदर किया है? कभी भी नहीं। परमाणु अस्त्र, युद्ध, राकेट, अन्तरिक्ष टोहीयान, बड़े-बड़े विमान, खर्चीली संसदे, विश्व शान्ति के खर्चीले सम्मेलन, आदि क्या विश्व की दो तिहाई भूखी, दो तिहाई अशिक्षित जनता की इच्छा का आदर है? कदापि नहीं। इनके पक्ष में दी जाने वाली सारी दलीलें उतनी ही थोथी हैं जितना प्रजातन्त्र।।29।।

आज विश्व इतना संसाधन सम्पन्न, विज्ञान सम्पन्न है कि यदि निरर्थ योजनाएं और युद्ध विचार तथा देश सीमाएं त्याग दिए जाएं तो एक ही वर्ष में विश्व मानव की दो तिहाई भूख तथा दो तिहाई अशिक्षा का अन्त हो सकता है। सारे प्रजातन्त्रियों के लिए इतने से सच का अनुपालन असम्भव है। इसलिए प्रजातन्त्र की हत्या आवश्यक है।।30।।

“किसी तरह” सबसे घातक व्यवस्था का नाम है। ‘किसी तरह’ बनाया गया भोजन बेस्वाद होता है, ‘किसी तरह’ इंजीनियरींग द्वारा किए गए निर्माण पहले आघात ढह जाते हैं, ‘किसी तरह’ पाले गए बच्चे आवारा सड़कों को ही नाप सकते है, ‘किसी तरह’ चलाए जाने वाले कारखाने उत्पादकता ह्रास के रिकार्ड बनाते हैं ‘किसी तरह’ बनाई गई टीम सारे मैच हारती है, ‘किसी तरह’ एक भयानक राक्षस है। इसकी दाढ़ें हमेशा मानव जाति को चीथ डालती हैं। प्रजातन्त्र का मूल मन्त्र है ‘किसी तरह’। इसमें सारे निर्णय किसी तरह लिए जाते हैं। विश्व शान्ति की बातें पचासों वर्षों तक चलती रहती हैं। काश्मीर समस्या सदा जवान रहती है तथा वर्षों उसे ‘किसी तरह’ के खाद पानी से पाला जाता है ‘किसी तरह’ की थपकियों में स्टारवार की भयावह योजनाएं बनती हैं। इतिहास गवाह है प्रजातन्त्र ने एक भी आग बुझाई नहीं है। वरन बुझाने के बहाने और आग सुलगाई है। आग सुलगाना रोकने के लिए यह प्रजातन्त्र आग बुझानी ही है।।31।।

प्रजातन्त्र में हमेशा राजनीति चील हो जाती है, आदमी चूजा। राजनीति चील मताधिकार की चोंच से आदमी चूजा खा जाती है और इसे पचाकर पिछले रास्ते बेदम, बेरीढ, ‘कसी तरह’ की रक्त मज्जा से बने प्रजानन बीटों की तरह उगल देती है – प्रजातन्त्र व्यवस्था इन बीटों का सिंहासनों पर अधिकार के लबादे ओढ़ा कर बैठा देती है और इस तरह सच्चाई, मानवता, नैतिकता की हत्याओं का भयानक दौर चल निकलता है। व्यवस्था निम्न होती जाती है! इसलिए प्रजातन्त्र की हत्या नितान्त जरूरी है।।32।।

मानव के सामूहिक हितों से लड़ने में सारे विश्व के प्रजाननों का योगदान सबको मालूम है। लेकिन विश्व में कितने लोग डा.नार्मन वोरलौंग के, डा.स्वामीनाथन के नामों से परिचित हैं। इन दो व्यक्तियों ने जनता की भूख इच्छा का जितना आदर किया है वह विश्व के सारे प्रजाननों के योगदान से कहीं कहीं अधिक है। यह प्रजातन्त्र की घातक व्यवस्था है कि लुंज पुंज मानसिक अपरिपक्व, सुविधा भोगी प्रजाननों के नामों को दिन में सैकड़ों बार रेडियो, टी.वी. चीखते रहते हैं। लेकिन मानवता के साधक कठिन श्रम करने वाले, महान चिन्तक, सारी धरा के मानव की भूख का निदान (वास्तविक निदान) ढूंढ़ने वाले वैज्ञानिकों के नाम मात्र एकाध बार उद्घोषित होते हैं। विवेक पूर्ण व्यवस्था लागू करने के लिए प्रजातन्त्र की हत्या आवश्यक है।।33।।

आनन्दस्वरूप, न्यायकारी, दयालू, निर्विकार, अनुपम, पवित्र जो व्यक्ति होता है वह यह योग्यता हर पल साधना द्वारा प्राप्त करता है। डा. स्वामीनाथन तथा कई अन्य इस तरह के साधक हैं। ऐसे साधक तटस्थ होते हैं अतः बुद्धि की आत्मा से युक्त होते हैं। ऐसे साधक “ब्रह्म-प्रतिनिधि” होते हैं। ‘ब्रह्म-प्रतिनिधि’ प्रजा के दुःख-दर्द को बिलकुल ठीक ठीक समझ सकते हैं। शासन को ब्रह्म प्रतिनिधियों के हाथों में होना चाहिए। ब्रह्म प्रतिनिधि के विपरीत होते हैं “प्रजा-प्रतिनिधि”। प्रजातन्त्र का इतिहास गवाह है कि एक भी ब्रह्म प्रतिनिधि प्रजा द्वारा चुनकर सर्वोच्च प्रजानन नहीं बना है। प्रजा प्रतिनिधि प्रजानन है। दस प्रतिशत गधासिर होने वाला दशानन कितना घातक था। दो तिहाई- छियासठ प्रतिशत से भी ज्यादा गधासिर रखने वाले प्रजानन इस विश्व व्यवस्था को कितने घातक हैं यह सरल सी बात है।।34।।

‘प्रजा-प्रतिनिधि’ हजारों अश्व शक्ति वाले विमानों के पांवों वाले हैं, शाही प्रीति भोजों से छकने वाले हैं, दूरदर्शन के चकाचौंधी कैमरों से, कैमरों की फ्लैश गनों से चमकने वाले हैं, दक्ष कमांडो से घिरे हुए हैं, रातों रात एक दम प्रजानन बन जाने वाले हैं, बुलेटप्रुफ कारों वाले हैं, बारह हजारी चश्मों वाले हैं, मिन्ट कोटों वाले हैं, ये किसीं भी स्तर आदमी नहीं हैं। ये किसी भी स्तर ब्रह्म प्रतिनिधि हो ही नहीं सकते हैं। ये सब “प्रजा प्रतिनिधि” प्रजानन प्रजातन्त्र की ही उपज हैं। विश्व शासन को इनसे छुटकारा दिलाने के लिए प्रजातन्त्र की हत्या विश्व की प्रथम जरूरत है।।35।।

स्वतन्त्रता, समानता, न्याय, बन्धुता, समता, स्वस्थता, स्वाधीनता, स्वावलम्बन, स्वयं, स्वस्ति आदि के अधिकार “प्रजातन्त्र” की सीमा से परे हैं। इन समस्त अधिकारों या विचारों में ईकाई मानव की बात कही गई है। स्व-तन्त्र याने स्व-नियमन या स्वयं आधारित व्यवहार। इस आदर्श में कोई खोट नहीं है पर प्रजातन्त्र इस स्वतन्त्र की हत्या करता है। प्रजा में आम बात की तन्त्रता या शासन एक अत्यन्त घटिया प्रशासन है। प्रजा में आम बात के घटिया स्तर का प्रमाण प्रजा पर छोडी गई फिल्म व्यवस्था तथा साहित्य व्यवस्था की घोर गिरावट है। अत्यन्त घटिया शासन की हत्या आवश्यक है। स्व-तन्त्र में हर स्व अलग है। पर स्व का आधार इच्छा, प्रयत्न, आनन्द, द्वेष प्राप्ताशा सबमें समान हैं। स्वयं में इन समान आधारों को देखते दूसरे से सन्तुलित व्यवहार ही स्वतन्त्रता है जो प्रजातन्त्र में असम्भव है अतः प्रजातन्त्र हत्या करनी है।।36।।

समानता की भावना की भी प्रजातन्त्र में हत्या कर दी गई हैं। चीजों को यथावत जानना, उनका उपयोग करना ही सच्ची समानता है। दो विभिन्न वस्तुओं को तुलना में खड़ा करना तो उचित है पर उन्हें समान मान उन्हें समान कार्य-फल देने का प्रयास करना घोर मूर्खता है। इस मूर्खता का सृष्टि की अनुपम कृति मानव के सन्दर्भ में प्रजातन्त्र में अनुपालन, अनुपोषण हो रहा है। नारी-पुरुष या सम्पूर्ण प्राणी जगत में मादा-नर की भौतिक संरचना से लेकर आन्तरिक रचना अलग अलग है – इनके बदनों में प्रोटीन, लवण, जल आदि के अनुपात भी अलग अलग है। और अभागा प्रजातन्त्र इन्हें समान कार्य, समान प्रतियोगिता, समान-वेतन, समानाधिकार देता इनसे समानता का व्यवहार करता है। और उस प्रजातन्त्र को आधार मान लोग नारी शोषण हटाने की बात करते हैं। नारी शोषण के आधार प्रजातन्त्र की हत्या करनी ही है।।37।।

प्रजातन्त्र व्यवस्था में समझ नाम मात्र भी नहीं हैं। यह एक सपाट कथन हैं पर यह भी सच है। प्रजातन्त्र की पद-अधिकार व्यवस्था इसका प्रमाण है। न्याय व्यवस्था, प्रशासन व्यवस्था, विधायी व्यवस्था, हम लें… सर्वोच्च न्यायधीश, सर्वोच्च प्रशासक, सर्वाधिक अनुभव़शिक्षा परिपक्व व्यक्ति जो राष्ट्र में मात्र एक होते हैं बनाए जाते हैं। उन्हें सर्वाधिक अधिकार है। इसके पश्चात पद अधिकार क्रमशः योग्यता़अनुभव के आधार पर निम्न होते जाते हैं और दावेदारों की संख्या बढ़ती चली जाती हैं। सबसे नीचा पद चपरासी या भृत्य का है। योग्यता अनुभव न्यूनतर एवं संख्या अधिकतम। एक पद के काबिल करोड़ों में। इससे नीचा पद है अशिक्षा अनुभवशून्य का मजदूर या श्रमिक को उस पद पर अधिकार करीब करीब शून्य है। और हाय रे उलट खोपड़ी प्रजातन्त्र व्यवस्था! प्रधानमन्त्री, मन्त्री राष्ट्रपति पद योग्यता मजदूर योग्यता से भी निम्न भिखमंगा योग्यता और अधिकार सर्वोच्च न्यायधीश, सर्वोच्च प्रशासक से भी अधिक। इस व्यवस्था की फौरन हत्या के बिना विश्व कभी सुखी नहीं हो सकता। घोरतम अव्यवस्था प्रजातन्त्र से बेहतर है कि अव्यवस्था में आधार है ही नहीं कम से कम वह गलत आधार से तो बची हुई है।।38।।

आदमी वह प्राणी है जो घेरा हीन पैदा हुआ है। कुत्ते, बिल्लियां बनाते हैं घेरे। जानवर बनाते हैं घेरे। एक कुत्ता या बिल्ली आदि जब नई जगह जाते हैं तो एक दौड़ लगाते हैं प्रतिरोध रहित क्षेत्र में और उस घेरे को अपनी जगह मान लेते हैं। फिर कोई अपरिचित उसमें आ जाए तो गुर्राते हैं दांत किटकिटाते हैं। हाय रे मानव! तू प्रजातन्त्र में कुत्ता बिल्ली हो गया हैं। एक देश का घेरा; प्रांत, नगर का घेरा आदमी पार करले और प्रजातन्त्री पासपोर्ट, निवास प्रमाण पत्र गुर्राने लगें। छिः! कब तक मानव यह कुत्ता, बिल्ली व्यवस्था ढोएगा? इसे उतार फेंकना, इसकी हत्या करना मानव की पहली आवश्यकता है पहला दायित्व है।।39।।

जानवर बेहतर है कि जानवरों के लायक भी नहीं हैं प्रजातन्त्र व्यवस्था। यदि जानवरों में यह व्यवस्था लागू कर दी जाए और मधु मक्खियों, दीमकों, चींटियों पेंग्वीनो आदि अपने राजा और रानियां चुनने लग जाएं तो उनकी पूरी कौम ही नष्ट हो जाए। इन सब में योग्यता अनुरूप शरीर है, तथा योग्यतानुरूप पद है। हाय रे अभागे मानव! तू सच से मात्र भटका ही नहीं हैं वरन कितना अधिक झूठ पथ चल गया है। योग्यता की हत्या करके मानव जाति का अवमूल्यन कर रहा है- उठ जाग! प्रजातन्त्र की हत्या कर।।40।।

प्रजा चयनित प्रजानन की योग्यता सम्प्रदाय के ईमान की तरह है। सुना जाता है कि एक बार ईमान पर महाइमाम ने लोगों से प्रश्न किया- “यदि एक व्यक्ति अपने पिताजी की अनैतिकता से हत्या कर देता है फिर पिता की खोपड़ी दो करके उन खोपड़ी कटोरों से शराब पीता है। और मां के साथ बलात्कार संभोग करता है तो उसका ईमान गया कि नहीं?” लोगों ने कहा… “गया।” महाइमाम मुस्काराए और बोले “नहीं गया क्योकि कि अभी भी उसके लिए गुंजाईश है।” यही प्रश्न मैंने प्रजातन्त्र से किया उससे पूछा- “ऐसे व्यक्ति की प्रधान मन्त्री तथा अन्य पदों की योग्यता गई कि नहीं?” प्रजातन्त्र ने कहा “नहीं गई”। मानवों! वे कोई और नहीं हैं जो प्रजातन्त्र द्वारा अनैतिक नीच किए जा रहे हैं वे तुम….हो! तुम….ही हो। इससे पहले की प्रजातन्त्र पूरी कौमों को निम्नतम स्तर दे इसकी हत्या कर दो।।41।।

प्रजानन की कार्य क्षमता भी प्रजातन्त्र पर एक प्रश्न चिन्ह है। किए गए कार्य तथा दिए गए कार्य का प्रतिशत ही कार्य क्षमता है। हर प्रजानन को दिए गए कार्यों की तुलना में उसके द्वारा किए गए कार्यों की मात्रा अत्यन्त कम करीब दस प्रतिशत होती है- इसमें शक नहीं कि यह दस प्रतिशत कार्य एक आम आदमी के द्वारा किए कार्य से अधिक होता हैं। पर कार्य और क्षमता में अन्तर है। एक मजदूर जिसे मिट्टी खोदने का काम दिया गया है। उसकी कार्य क्षमता करीब डेढ़-सौ प्रतिशत है। मजदूर कार्य क्षमता क्षेत्र में प्रधानमन्त्री आदि से बेहतर है। राष्ट्र का निर्माण अधिक कार्य क्षमता पर कार्य करने से ही होता है। मजदूर राष्ट्रनिर्माता है, प्रजानन राष्ट्र-घातक है। यह प्रजातन्त्र व्यवस्था की उपज है अतः प्रजातन्त्र हत्या आवश्यक है।।42।।

प्रजातन्त्र का एक आधार दबाव समूह है। यह ही प्रजा अभिव्यक्ति का सशक्त साधन है। निहित स्वार्थों के लिए इकट्ठा होकर उनकी पूर्ति चाहते राज्य सत्ता से लाभ लेना ही दबाव समूह है। पंजाब, हरियाणा, आसाम दबाव समूह की उपजे हैं। प्रातों में पच्चीस तीस वर्ष पूर्व की गई तोड़-फोड़ दबाव समूह की उपज थी जो आज कई जगह घातक समस्या हो गई है। रोटी, नौकरी, व्यवसाय, चिकित्सा, वेतनवृद्धि, सुविधावृद्धि की छोटी छोटी सीमित स्वार्थ मांगो पर इन्कलाब जिन्दाबाद के नारे लगाते दबाव समूहों और कुर्सी पक्ष सोचती इन दबाव समूहों को ही ना कहती राजशक्ति -यही प्रजातन्त्र की उपजें हैं। ये सारे दबाव समूह अपवाद छोड़ भूख, अशिक्षा से ऊपर क्षेत्र के लोगों के षडयन्त्र के फल स्वरूप हैं। प्रजातन्त्र में इन दबाव समूहों की स्वीकृति ही नहीं है वरन इनकी स्वार्थ की, समूह भोगों की पूर्ति भी है। अतः इसकी हत्या आवश्यक है।।43।।

प्रजातन्त्र संविधान की उद्देशिका आदमी के स्व अधिकारों का समर्थन करती प्रतीत होती है, लेकिन सारा संविधान इन स्व अधिकारों पर किन्तु, परन्तु, लेकिन, आदि के दम-घोटू लबादे डाल उसकी भी हत्या करने का प्रयास करता है। इस उद्देशिका के साथ सारे संविधान में प्रजातन्त्र ने बलात्कार किया है। माया त्यागी के साथ व्यवस्था-स्थापकों के द्वारा उसके शरीर में डंडा डालने, उसके वक्ष नोचने, उसके कपड़े फाड़ने जैसा ही बलात्कार किया, फिर भी प्रजातन्त्र और ‘व्यवस्थापक न्याय’ चीख-चीख कर कह रहे हैं कि कानूनन यह बलात्कार नहीं है। इसलिए प्रजातन्त्र की हत्या आवश्यक हैं।।44।।

प्रजातन्त्र व्यवस्था ने श्रम विभाजन व्यवस्था को, योग्यता व्यवस्था को तो मटियामेट कर दिया है। इस व्यवस्था में मनोरंजन सबसे बड़ा व्यापार हो गया है। गांवो में नाचा व्यवस्था स्वैच्छिक दानाधारित है। नाचने गाने वाले आंखे कान, बदन ऐंचा-वैंछा करते हैं। प्रहसन आदि द्वारा समाज को उच्च भावों, संगठन की ओर प्रेरित करते हैं। पर प्रजातन्त्री प्रवाह तेरी वाह! फिल्मी नाचने गाने वाले, गांव के नाचने गाने वालों से कहीं कम आंखे कान बदन ऐंचा-वेंचा करते हैं। सतही अश्लीलता द्वारा समाज को नीचता, अपराध, शोर-शराबे, चीख-चिल्लाहट की और प्रेरित करते हैं। करीब करीब सारे घटिया सुविधा-भोगी और चरित्रहीन हैं। परन्तु लाखों, करोड़ों से खेलते हैं और सामाजिक इज्जत, राजनैतिक इज्जत लूटते हैं। प्रजातन्त्र में चमक दमक सब खा जाती हैं। अतः प्रजातन्त्र की हत्या आवश्यक है।

न केवल फिल्मी वरन खेल जगत की भी यही स्थिति है। बुक आफ विश्व रिकार्ड ने घटियापन के सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं। बल्ला घुमाने वाले, गेंद फेकने वाले, रैकेट खेलने वाले, ऐंची-फैंची हरकते करने वाले, तथा अयोग्य प्रजानन सारे विश्व में प्रजातन्त्र व्यवस्था में न्याय व्यवस्था प्रमुखों से प्रशासन व्यवस्था प्रमुखों, संयन्त्र विज्ञान व्यवस्था प्रमुखों से आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक क्षेत्रों में उच्च तथा सम्माननीय मान लिए गए हैं। अतः प्रजातन्त्र की हत्या आवश्यक है।।45।।

खेलकूद प्रतियोगिताओं में प्रजातन्त्र नहीं है। तभी वहां आधे पुरस्कार नारियों को आधे पुरुषों को मिलते हैं। प्रजातन्त्र ने समानता फैलाकर नारियों को (जो शारीरिक बनावट, रक्त संरचना, सम्पूर्ण संरचना में पुरुष-भिन्न है) समाज में पुरस्कार पद पाने से वंचित किया है। प्रजातन्त्र में नारियों का इतिहास में भयानकतम शोषण हो रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी संस्था को इतना सा सच नहीं समझता है।।46।।

दबाव समूह प्रजातन्त्र का आधार है। राजनैतिक दल इसकी आत्मा हैं। यह वास्तव में घिनौने स्वार्थों के लिए इकट्ठा होना है तथा तटस्थता (जो बुद्धि की आत्मा है) का हनन है। स्वार्थ का समूहित होना दिमाग का कपाट बन्द होना दबाव समूह तथा राजनैतिक दल हैं। प्रजातन्त्र के आधार तथा आत्मा कितने घटिया हैं।।47।।

प्रजातन्त्र में हर व्यक्ति पदयोग्यता के निम्नीकरण के कारण “कुर्सी-कश्यप” (कश्यप-आंख) होता है। कुर्सी-कश्यप होने के कारण वह “प्रजा-कश्यप” होता है। ब्रह्म कश्यप, ऋत कश्यप, नियम कश्यप, धर्म कश्यप, श्रेष्ठता कश्यप आदि व्यक्तियों में कुर्सी-कश्यप के कारण प्रजा-कश्यप व्यक्ति सबसे घटिया है। व्यक्ति को घटिया बनाने का साधन है प्रजातन्त्र।।48।।

मजारपूजू है प्रजातन्त्र। हर प्रधानमन्त्री, राष्ट्रपति, आदि मजारपूजन से अपना कार्य काल शुरु करता है। प्रजातन्त्र व्यवस्था शाही मजारें “भस्मान्तं शरीरम्” के बाद बनाती है। गांधी मजार, नेहरु मजार, इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी, संजय गांधी, चौधरी चरणसिंह मजार। मजारो की लम्बी कतार है प्रजातन्त्र। इन मजारों को बेशकीमती फूलों से घिनौने तरीके से सजाया जाता है। मजारपूजू बौने लोगों की हत्या करने के लिए प्रजातन्त्र की हत्या आवश्यक है।।49।।

कुनबा-वाद है प्रजातन्त्र। कितने कुनबे? नेहरु-कुनबावाद, इन्दिरा गांधी-कुनबावाद, राजीव-कुनबावाद, चौधरी चरणंिसंह-कुनबा वाद, शास्त्री जैसे व्यक्ति के पीछे से कुनबावाद लगा, रविशंकर शुक्ल-कुनबावाद, शेख अब्दुल्ला-कुनबावाद। कुनबावदियों के लिए एक शब्द है “कुलतार” ये सारे कुलतार “देशबोड़” हैं। देश को डुबाने से बचाने के लिए प्रजातन्त्र हत्या आवश्यक है।।50।।

सभ्रान्तवाद का नीचतम शिकंजा है प्रजातन्त्र। इसका प्रमाण है नेशनल टेलेंट कॉन्टेस्ट। जहां सभ्रान्त वर्ग के बटर, चीज, पनीर खाए, ऊंचे पूरे सुविधा सम्पन्न, स्कूल के अतिरिक्त मंहगी ट्यूशनें पाए राजकुमारों की गांव के टपरी छाप स्कूलों में पढ़े, चटनियों के साथ भात खाए, कहीं दाल-भात खाए, सिकुड़े चुचके बच्चों से प्रजातन्त्री प्रतियोगिता रखी जाती है। परिणाम डेढ़ प्रतिशत सभ्रान्तों के बच्चों का सारे प्रशासनिक प्रौद्योगिक पदों पर आधिपत्य। यह शिकंजा तोड़ने के लिए प्रजातन्त्र की हत्या अत्यावश्यक है।।51।।

ज्ञान साधन अपव्यय व्यवस्था है प्रजातन्त्र। दुहराव न प्रकाशित होना चाहिए, न प्रसारित। प्रकाशन प्रसारण मात्र नूतन का ही हो। प्रजातन्त्र व्यवस्था में राजनैतिक प्रोपेगेंडा हेतु प्रसारण, पुनः प्रसारण; प्रकाशन, पुनः प्रकाशन आदि में महान अपव्यय होता है तथा झूठों को अनेकबार दुहराने की प्रक्रिया से सत्य का हनन भी होता है। इस कारण भी प्रजातन्त्र हत्या आवश्यक हैं।।52।।

प्रजातन्त्र के सारे मुख्य संस्थापक चिन्तक घटिया जीवन जीने वाले थे। रूसो, मैकियाविली, हाब्स आदि सब कुंठित मस्तिष्क थे। इस कारण भी प्रजातन्त्र हत्या आवश्यक है।।53।।

दीर्घ कालीन प्रजातन्त्र व्यवस्थाएं विश्व युद्धों में प्रजातन्त्र की घटिया स्तर की जोड़ तोड़, घूर्तता, छल आदि की सहायता से ही विजय प्राप्त कर सकी थीं। आधुनिक युद्धों मे घटियापन ही विजयी होता है। इस घटिया पन की हत्या हेतु प्रजातन्त्र हत्या आवश्यक है।।54।।

प्रजातन्त्र यथास्थिति स्वीकार व्यवस्था है। यह प्रगति की जड़ उन्मूलन व्यवस्था है। एक उदाहरण है धर्म निरपेक्षता। इस व्यवस्था में हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, जैन, बौद्धादि जन्मते हैं। बालक जन्म नहीं लेते यह जन्मते ही विकृतिकरण है। जन्मते ही बच्चों के हृदय को विषप्याला बना देने वाली व्यवस्था को पोषक है प्रजातन्त्र, अतः इसकी हत्या आवश्यक है।।55।।

राजा व्यवस्था से कहीं बदतर है बदलते कई राजाओं की यह प्रजातन्त्र व्यवस्था। इस व्यवस्था में एक समय में जनता करीब तीन हजार राजाओं (एम.पी., एम.एल.ए.) का बोझ एक साथ उठाती है तथा इन राजाओं को पेंशन व्यवस्था भी करती है। लूट का एक सतत सिलसिला है प्रजातन्त्र, इसकी हत्या करो!।।56।।

उस दुकान का क्या होगा जिसमें एक ही नाप के जूते मिलते हों? प्रजातन्त्र वह व्यवस्था है जिसमें एक ही नाप के जूते मिलते हैं। परिणाम है अपवाद छोड़ सारे लोग नंगे पांव घूम रहे हैं। प्रजातन्त्रीय संविधान गवाह है कि यह अपवाद प्रजानन ही हैं। सारा प्रजातन्त्र प्रजानन के इर्द-गिर्द अधिकारों, सुविधाओं, रक्षाओ को बटोरने में ही खर्च हो जाता है। प्रजा तक कुछ नहीं पहुंचता। इसलिए प्रजातन्त्र की हत्या करना आवश्यक है।।57।।

कोई इतिहास इतना घिनौना नहीं था, इतना घटिया नहीं था जितना प्रजातन्त्र है। कोई तन्त्र इतना घटिया नहीं हैा कोई क्या बिना तन्त्र भी इतना घटिया नहीं है जितना प्रजातन्त्र है। प्रजातन्त्र इतिहास की घटियातम स्थिति है। प्रधानमन्त्री (प्रजानन-दशानन का घटियातम रूप) का खाना पहले जांचा जाता है, फिर कुत्ते, खरगोश को खिलाया जाता है, फिर उसे डाक्टर खाते हैं, फिर प्रधानमन्त्री जी उसका भोग लगाते हैं। जिस व्यवस्था में इतना अवमूल्यन हो कि प्राणदाता डाक्टर निरर्थ मरण सम्भावना से गुजारा जाय, जिस व्यवस्था में इतना अविश्वास हो, जिस व्यवस्था में इतना भय हो, जो व्यवस्था इतनी घटियातम हो और जिस व्यवस्था में प्रधानमन्त्री पदाधिकारी को भी यह सच न समझता हो; इस व्यवस्था अर्थात प्रजातन्त्र की तत्काल से फौरन हत्या कर देनी मानवता की सबसे सशक्त पुकार है।।58।।

खालओढू व्यवस्था है प्रजातन्त्र। इसमें प्रधानमन्त्री, राष्ट्रपति खालओढ़ू हैं, तो फिर आम आदमी की बिसात ही क्या? प्रजातन्त्र खाल ओढ़ाऊ मन्दिर गढ़ता हैं। एकड़ो फैले मन्दिर। इन मन्दिरों का नाम है मजार-मन्दिर। गान्धी मजार-मन्दिर, नेहरु मजार-मन्दिर, शास्त्री मजार-मन्दिर, इन्दिरा मजार-मन्दिर, राजीव मजार-मन्दिर। हे प्रजातन्त्री प्रधानमन्त्री, राष्ट्रपतियों! क्या तुमने अपना इन मजारों पर चौपाया हुआ स्वरूप देखा है? स्वयं को इनकी लाश की सड़ी खाल पहनते देखा है? नहीं देखा है? तो दूर-दर्शनी कैसेटों में देख लो! इन मजार-मन्दिरों पर तुम गांधी जी जय, नेहरु शास्त्री अािद की जय की सूखी कड़क खालें, चुभती खालें पहनते हो तो तुम्हारे उन्मुक्त मानस का दम नहीं घुटता? जरूर घुटता है। पर हाय रे घातक प्रजातन्त्र, दम घोटू प्रजातन्त्र! तूने ही इन प्रधान मन्त्रियों को चौपाया बना दिया है। इनकी नियति कोल्हू के बैल की है जो प्रजातन्त्र को पेरे जा रहा है और प्रजा का तेल निकला जा रहा है।

इन प्रजातन्त्र के मजार मन्दिरों से तो राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा, मुहम्मद के मन्दिर मजार अच्छे हैं जहां कम से कम राम कृष्ण, बुद्ध ईसा मुहम्मद के विचारों की खालें पहनाई जाती हैं इन विचारों पर चर्चा होती है। देख तमाशा देख मजार-पूजू विचार पूजू पर प्रतिबन्ध लगा रहा है। अन्धा काने को रास्ता दिखा रहा है। वाह रे प्रजातन्त्र! तू है कितना घटियापन का प्रतिमान।।।59।।

आदमी सत-चित है। “बुद्धियुक्त स्वतन्त्र चैतन्य” आदमी है। प्रजा एक औसतीकरण का नाम है। आदमियों के औसत का नाम प्रजा है जिस पर सारे प्रजातन्त्र का महल खड़ा हुआ है। इसी औसतीकरण के कारण यह बुद्धियुक्त स्वतन्त्र चैतन्यता पर लाख प्रयास लागू किया भी नहीं जा सकता है। अतः प्रजातन्त्र पूर्णतः बुद्धिहीन प्रत्यय है, मूर्खतापूर्ण प्रत्यय है। इसलिए प्रजातन्त्र की हत्या करनी आवश्यक है। बुद्धि मात्र एक एक होती है। “औसत सम बुद्धि” से उच्च बुद्धिअर्थ का घटिया हो जाना लाजिमी है।।60।।

प्रजातन्त्र न्याय शब्द की परिभाषा ही नहीं जानता। न्याय नैतिकता आधारित सर्व व्यापक अर्थात हर एक, हर स्तर, हर स्थान समान होता है, न्याय हमेशा उच्च स्तर है। घिनौना प्रजातन्त्र न्याय के स्तर गढ़ता है। इसमे न्याय उलटने की व्यवस्था है, अपील की व्यवस्था है, परिक्षेत्र या जुरिस्डिक्शन कम अधिक ऊंच-नीच दण्ड क्षेत्र आदि व्यवस्था है जो अपने आप में न्याय की हत्या व्यवस्था है। न्याय की हत्या व्यवस्था रोकने के लिए प्रजातन्त्र की हत्या करना आवश्यक है। न्याय अटल है यह छोटा सा नियम सारे प्रजातन्त्र को नहीं समझता है।।61।।

प्रजातन्त्र की न्याय व्यवस्था ‘अपराध’ आधारित है, पाप आधारित है, नकारात्मक आधारित है। यह व्यवस्था ही ऋण क्षेत्र में काम करती है। प्रजातन्त्र न्याय मछली पाप अपराध पानी में पलती मछली है। पूरा दण्डशास्त्र पाप उल्लंघनो की परिभाषाओं से भरा पाप पानी का खारा समुन्दर है। इसमें से न्याय को बाहर निकालते ही न्याय मछली मर जाती है। न्याय मछली को सटीक बनाने के लिए, उपयुक्त बनाने के लिए, खुली हवा में जीने देने के लिए प्रजातन्त्र की हत्या आवश्यक है।।62।।

लकवा सरकारें, अति गिरगिट सरकारें, प्रजातन्त्र में आम बात है। एक सत्य मत के स्थान पर “बहुमत सत्य” की घटिया व्यवस्था आधारित है प्रजातन्त्र। इसी का परिणाम है लकवा सरकारें। लकवा अधरंग-आधा अंग सुन्न को कहते हैं। उत्तरप्रदेश की छः माह बसपा, छः माह भाजपा अधरंग सरकार थी। इससे घटिया गिरगिट अति बदरंग, अति अधरंग सरकार केन्द्र की है। तेरह सिद्धान्ती, तेरह पर्टियां और तेरह पार्टियों का तथ्यामिश्र (फेक्टोरियल) तेरह (13ग12ग11ग10……ग2ग1) प्रकार का गिरगिट बदरंग चूं-चूं, चीं-चीं, कूं-कूं, कीं-कीं बदरंग सरकार। वाह रे प्रजातन्त्र! तू घटियातमपन का प्रतिमान। उफ! आह!! यह प्रजातन्त्र जो रेंगती जिन्दा(?) लाश है की हत्या करने का मुझे प्रयास करना पड़ रहा है। हा बहुमत! तू कब होगा एक सत्य मत?।।63।।

प्रजातन्त्र व्यवस्था में यह सहज सम्भव है कि मुख्यमन्त्री पद त्याग करते समय किसी आबड़ी, लाबड़ी, खाबड़ी, साबड़ी, चाबड़ी, घातड़ी या आबड़, लाबड़, खाबड़, साबड़, चाबड़, घातड़ मुख्यमन्त्री बना दे। यही हक प्रधानमन्त्री को भी है। साफ है प्रजातन्त्र ऐसी की तैसी व्यवस्था है। इसकी तत्काल हत्या आवश्यक है।।64।।

“येन-केन प्रकारेण” धर्म में आपात-धर्म के बाद की भी घटिया अवस्था है। विश्व प्रजातन्त्र जापान, इन्डोनेशिया, अफ्रिका, भारत, पाकिस्तानादि का गवाह है कि प्रजातन्त्र व्यवस्था में येन केन प्रकरण से भी घटिया “भष्टेन, अतिभष्टेन, पदलोभेन” अवस्था के रूप में क्रमशः पतित होता चला जाता है। भारत में यह वर्तमान (1994-चुनाव पश्चात स्थिति) अपनी चरमतम नग्न अवस्था में है। सारी पार्टियां अफीम, गांजा, ठर्रा, शराब, भांग तम्बाखू आदि-आदि घटिया हैं। तथा जनता घटिया में घटियातम का चुनाव आसानी से कर लेती है क्योंकि जनता का घटियातम हिस्सा जो अधिकतम है सर्वाधिक नशा सम्मोहित होता है। भाजपा का राष्ट्रीय एजेंडा अलग है और पार्टी एजेंडा अलग है। दोनों विरोधी भी हैं। यही स्थिति, अठारह शासन पार्टियों की है। “दो-पोंदिया” है प्रजातन्त्र। इस प्रजातन्त्र का मुख मलद्वार है। जिसका मुख भी होता है मलद्वार उसे कहते हैं दो पोंदिया। व्यवस्था को एकमत द्वार – एक वाक् बनाने के लिए भी प्र्रजातन्त्र की हत्या आवश्यक है।।65।।

आजाद हर कोई है सर्वोच्च विधायिका संसद में कि बोल सकता है निर्बाध घटियातम बिना समझ बोली वह प्रजातन्त्र सर्वोच्च है। गुण्डो, नीचों, घटियों की भड़ास नीचतम होगी। घटियातम से कम से कम विधायिका के सर्वोच्च मन्दिर में नीचतम बोलने का हक छीनने के लिए प्रजातन्त्र की हत्या करनी आवश्यक है।।66।।

वर्जित का वर्जन मर्यादा पालन है। वर्जित का अर्जन मनुष्य को खा जाने वाली है। मर्यादा का अर्थ है मरणशील को खा जानेवाली। मरणशील वह है जो मर्यादाहीन है। वाक् अपरा स्थल ब्रह्ममय है। अतः वाक् शुद्धि सबसे बड़ी मर्यादा है। वाक् शुद्धि मानव को अमरता प्रदान करती है। भारतीय संस्कृति में इसी सन्दर्भ में शब्द को, वाक् को, अक्षर को ब्रह्म कहा गया है और प्रजातन्त्र संसद इस वाक् को अन्तिम सीमा तक घटिया होने का सुरक्षित ही नहीं महासुरक्षित अधिकार देता है यह अधिकार नहीं महान अनधिकार है। जंगली लोगों में भी इतनी मर्यादाहीनता नहीं होती है। इसलिए भी प्रजातन्त्र की हत्या आवश्यक है।।67।।

प्रजानन समूह क्या पिस्ता, काजू, किशमिश, बादाम की पेशाब, लॅट्रिन करते हैं कि इन्हें किचन से भी ज्यादा साफ लॅट्रिन बाथरूम चाहिए? चार घण्टे के कहीं प्रवास पर इनके लिए ढाई लाख रुपये का लघुशौचालय बनता है। ऐसे प्रजानन जब गरीबी हटाने की बात कर भारतरत्न हो जाते हैं तो मानवता सोलह-सोलह आंसू रोती है। मानवता को सोलह-सोलह आंसू रोने से बचाने के लिए प्रजातन्त्र की हत्या करना आवश्यक है।।68।।

प्रजातन्त्र के भोंपुओं-समाचार पत्रों, रैलियों, रेडियों, दूरदर्शन आदि के कारण औसत प्रजा प्रजानन उन्मुखी हो जाती है। अतः सामान्य चरित्र गुणों से तटस्थ हो जाती है। परिणामतः व्यक्ति के सामजिक गुणों का तेजी से ह्रास और असामाजिक अवगुणों का तेजी से विकास होता है। इसलिए भी प्रजातन्त्र की हत्या आवश्यक है।।69।।

कुत्ता, बिल्ली स्तर से ऊंचा नहीं है प्रजातन्त्र। एक कुत्त्ाा जब नए स्थान जाता है तो वह उस क्षेत्र एक दौड़ लगाता है और जितना क्षेत्र बिना किसी अवरोध के दौड़ लेता है उस क्षेत्र पर अपना आधिपत्य मान लेता है। फिर उसके आधिपत्य क्षेत्र का कोई अतिक्रमण करता है तो वह भौंकता है, उस पर आक्रमण करता है। यही स्थिति बिल्ली के साथ भी होती है। प्रजातन्त्र भी देश सीमा से घिरी कुत्ता, बिल्ली व्यवस्था है। इन भौकों से विश्व प्रजातन्त्र राजनीति पटी पड़ी है। परमाणु-बम्ब, युद्धक विमान, प्रक्षेपास्त्र आदि ये भौंके ही तो हैं। इतना बृहत कुत्ता-बिल्लीपन! इसलिए प्रजातन्त्र की हत्या आवश्यक है।

कुत्ता, बिल्ली विश्वीय के साथ ही साथ कुत्ता बिल्ली राष्ट्रीय तथा स्थानीय व्यवस्था का नाम है, प्रजातन्त्र। कुत्ता बिल्ली अपने घेरे स्थान के अतिक्रमण पर भौकते हैं। प्रजातन्त्र व्यवस्था तो इससे भी घटिया है। इसमें राजनीति की टोपी पहने व्यक्ति दूसरे घेरे के अन्दर झांक ही भौंकने लगते हैं। भाजपा, कांग्रेस, सपा, जपा आदि आदि वे कुत्ते हैं जो अपने अपने घेरे घिरे भौंक रहे है एक दूसरे पर। इन्होने अपनी पार्टी नामी घेरे बना लिए हैं। और चुनाव के समय ये सारे कुत्ते एक साथ, एक दूसरे पर भौंकते हैं। पेपर, रेडियो, टीवी, पत्रिकाएं सब कुत्ता भौंक हो जाते हैं। इस कुत्ता-बिल्ली भौंक का स्वीकार है प्रजातन्त्र में इसलिए प्रजातन्त्र की हत्या आवश्यक है।।70।।

प्रजातन्त्र सिद्धान्तों में अस्थायी स्थायी की बड़ी घटिया व्यवस्था है। सिद्धान्त बनाने वाली व्यवस्था (विधायी व्यवस्था) अस्थायी है तथा सिद्धान्तों का पालन करके उन्हें लागू करने वाली व्यवस्था स्थायी है। इसके साथ विधायी व्यवस्था की चयनकर्ता व्यवस्था औसत मध्यम है। यह सब भयानक चूं-चूं का मुरब्बा है। परिणामतः सारी व्यवस्थाएं सिद्धान्तहीनता की अन्धी दौड़ दौड़ती रहती है और प्रजातन्त्र एक अन्धा भटकाव होता जाता है। इसलिए प्रजातन्त्र की हत्या आवश्यक है।।71।।

प्रजातन्त्र का नाम ही बिकाऊ व्यवस्था है। इस व्यवस्था में मानक ठहर ही नहीं सकते हैं। इस व्यवस्था में सर्वोपरि पैसा होता है। विचार-धारा ज्ञान की सर्वाधिक दुर्गति होती है। ज्ञान के संसाधनों (रेडियो, दूरदर्शन, समाचार पत्र, प्रकाशन व्यवस्था आदि) पर दुहरावों, बिकने-बिकाने की होड़ लगी रहती है। वस्त्र हिलाने, कूल्हें मटकाने, कमर उचकाने की दौड़ के सरताज, चेहरे ऐंचे-फैंचे ऊलजलूल बनाने उछलकूद मचाने की दौड़ के सरताज सबसे मंहगे बिकते हैं, और सबसे अधिक सस्तापन खरीदते हैं। इसमें विधायी व्यवस्था आरोप प्रत्यारोपों के विस्फोटो में उलझी रहती है। खुद के पैसों से खुद के कट आऊट लगवाए जाते हैं। अपने मुंह मियां मिट्ठू समारोह मनाए जाते हैं। सस्तापन मंहगे दामों बेचा जाता है कि सब कुछ आजाद है, उन्मुक्त है, खुलापन है। खुलापन इतना खुल जाता है कि व्यवस्था एक नंगा नाच, नंगा नकटा नाच हो जाती है। सारा देश हवालात हो जाता है (टैक्सों, भ्रष्टाचारों, नकारात्मक कानूनों, ध्वंस बिके कानूनों, रोकों की दीवारों से आम आदमी को जेल में घेर दिया जाता है और जेल देश से बेहतर हो जाती है। जहां भौतिक दीवारों भर की सीमा रहती है । अतः प्रजातन्त्र की हत्या आवश्यक है।।72।।

“थोथा चना बाजे घना, आत्माहना माने सना” है प्रजातन्त्र। सौ दिनों में गरीबी हटाने वाले बोफर्स कीचड़ से नहा हिरण्यस्विस बैंक डूब, हवाला डकार, भारतरत्न हो जाते हैं। भरी छतों, भरे पादानो, सीढ़ियों तक अटके-लटके लोगों के साथ, झटकों-धचको, में घनघनाती ठसाठस भरी उबड़-खाबड़ सड़कों दौड़ती बसों की लावारिस व्यवस्था में हेमा मालिनी की गालों जैसी सड़कों की घोषणा करता आत्महना जन पुनः मुख्यमंत्री मानसना हो जाता है। इसलिए प्रजातन्त्र की हत्या आवश्यक है।।73।।

प्रजातन्त्र व्यवस्था में संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था शान्ति के लिए युद्धक सेना रखती है। युद्धों की इजाजत देती है। इतना घटिया प्रजातन्त्र इसकी तत्काल हत्या आवश्यक है।।74।।

एक संस्कृत सूक्ति है पढ़े लिखे व्यक्ति- ज्ञानी को कुछ भी आसानी से समझाया जा सकता है, एक अनपढ़ को भी असानी से कुछ समझाया जा सकता है, पर अर्ध पढ़े लिखे एवं स्वयं को ज्ञानी समझने वाले को साक्षात ब्रह्मा भी सच नहीं समझा सकता। प्रजातन्त्र व्यवस्था में सारी की सारी राजनैतिक व्यवस्था अर्ध पढ़े-लिखे ही नहीं, उसमे भी कम पढ़े लिखे अधिकार सम्पन्न स्वयं को ज्ञानी समझने वालों के हाथ में रहती है। इन्हें सच ब्रह्मा भी नहीं समझा सकता इसलिए प्रजातन्त्र की हत्या करनी जरूरी है।।75।।

संस्कृत सूक्ति के तीन के अतिरिक्त एक चौथा वर्ग भी प्रजातन्त्र में पनपता है। यह वर्ग स्वतन्त्रता के नाम पर पनपता है। यह वर्ग है पढ़ा-लिखा अनपढ़ वर्ग या महाअन्धा वर्ग।

अकबर बीरबल की साधरण सी एक कथा है। अकबर ने बीरबल से पूछा शहर में कितने अन्धे हैं। बीरबल ने कहा एक सप्ताह बाद बताऊंगा। बीरबल शहर चौराहे पर खटिया बुनने में लग गया। एक मुनीम साथ था। लोग आते बीरबल से पूछते “बीरबल क्या कर रहे हो?” बीरबल उनका नाम अन्धों में लिखा लेता। अकबर वहां से निकला उसने भी पूछा “बीरबल क्या कर रहे हो?” बीरबल के मुनीम ने उसका भी नाम सूची में लिख लिया।

एक हफ्ते खटिया बुन जाने के बाद बीरबल ने सूची अकबर को दी। जिसमें अकबर का नाम पहला था। अकबर बोला -“मैं अन्धा?” बीरबल ने कहा -“आपने मुझे खटिया बुनते देखा फिर भी आपको पता नहीं चला कि मैं खटिया बुन रहा हूं अतः आप अन्धे हुए।”

आंख वाले अन्धों से अटा-पटा है प्रजातन्त्र। शराब, सिगरेट, बीड़ी खैनी, अराग-पराग के महान चमचमाते विज्ञापनों, पैपरों पर छोटे से शब्दों में लिखा है “स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।” और करीब शत-प्रतिशत लोग शराब, तम्बाखू अलग-अलग गणना करके मिला देने पर इनका प्रयोग कर रहे हैं। इक्के-दुक्के ही प्रज रह गए हैं। इस व्यवस्था में बाकी सारे प्रजा है। आंख वाले अन्धे हैं, पढ़े लिखे अनपढ़ हैं और इनकी सरकार प्रजातन्त्री जिसे नहीं दिखता उन विज्ञापनों का महाथोथा पन। वह अन्धों की भी अन्धी है, इसलिए भी प्रजातन्त्र की हत्या करनी आवश्यक है।।76।।

शेषन कर्तव्य निष्ठ ईमानदार चुनाव आयुक्त हैं। बड़ा बोल बाला है जनता में उनका। आर्थिक समानता भ्रष्ट है शेषन। भारतीय की आय है हजार रुपए प्रतिवर्ष या दो हजार रुपए प्रतिवर्ष। (यह संदिग्ध है), याने सौ रुपल्ली प्रतिमाह। एक औसत भारतीय, उर्फ प्रजा अगर पेट काट-काट कर भी पैसा बचाता है तो उम्र भर में दस रुपए प्रति माह के हिसाब से साठ वर्ष की औसत उम्र होने पर (पूरी उम्र पैदा होने से मरने तक) वह बचा पाएगा 7200 रुपए और कमा पाएगा 72000-80,000 रुपए। संविधान का पहला पृष्ठ उद्देश्यिका आर्थिक न्याय आर्थिक समानता की बात करता है मोटे-मोटे अक्षरों में। औसत प्रजा को समानता से चुनाव लड़ने का हक है। और शेषनीय चुनाव आयोग एक उम्मीद्वार को चुनाव खर्च करने के लिए साढ़े चार लाख रुपए की सीमा तक इजाजत देता है तथा इसे बढ़ाकर पन्द्रह लाख कर देने की सिफारीश करता है। उम्र के बारह चुनाव याने एक सौ अस्सी लाख रुपए का हक देता है। प्रजा के साथ विश्वासघात है प्रजातन्त्र इसलिए इसकी हत्या करना आवश्यक हैं।।77।।

पचास प्रतिशत ने मत नहीं दिए। बाकी पचास प्रतिशत में 31 प्रतिशत मत निर्दलीयों को मिले, 32 प्रतिशत कांग्रेस को, 22 प्रतिशत भाजपा को, 4 प्रतिशत रामो-वामो को। स्पष्ट है जनमत निर्दलीय के पक्ष में हैं पर पार्टीवादी स्थिति में प्रथम है भाजपा, द्वितीय कांग्रेस, तृतीय रामो-वामो, चतुर्थ निर्दलीय और सरकार आरंभिक बनी भाजपा की, सम्भावना है गिरने की, बनेगी रामो-वामो की। शत प्रतिशत ने मत नहीं दिया 4 प्रतिशत ने शासन किया। संविधान ने हक दिया राज्य है प्रजा का, प्रजा द्वारा, प्रजा के लिए। इससे घटिया स्वाद चूं चूं का मुरब्बा और कहां मिलेगा? इसलिए प्रजातन्त्र की हत्या करना आवश्यक है।।78।।

एक भूखा व्यक्ति मुंह चला रहा था। दूसरे ने पूछा “क्या कर रहा है?” पहला बोला “सोच रहा हूं सूखी रोटी खा रहा हूं” दूसरा बोला “अरे महा-मूर्ख सोचना है तो काजू पिस्ते की सोच, सूखी रोटी की क्यों सोचता है?” पहला बोला “मैं आदत खराब नहीं करना चाहता।” परिणाम- उम्र भर वह व्यक्ति काजू पिस्ते का दर्शन भी न कर पाया। प्रजातन्त्र जब सोचता भी है तो औसत जनता के स्तर की घटिया सोचता है जो श्रेष्ठ सोच तक ही नहीं पहुंचा वो श्रेष्ठ तक क्या पंहुचगा? इसलिए प्रजातन्त्र हत्या आवश्यक है।।79।।

प्रजातन्त्र तकनीकी अधिकतम (ऑप्टिमम्) की हत्या करता है। प्रजा को तकनीकी अधिकतम नहीं समझता है। वह मांग करती है इस्पात कारखाना इस शहर चाहिए। इस मांग में मन्त्री, प्रधान, सांसदो के क्षेत्र-स्वार्थ जुड़ते हैं। परिणाम यह होता हैं कि गलत समय, गलत जगह बच्चा गलत पैदा हो जाता है। जो उम्र भर कमजोर और अर्ध अपाहिज रहता है। भारतीय रेल व्यवस्था इसका सबसे बड़ा शिकार है। रेल व्यवस्था तकनीकी श्रेष्ठ या अधिकतम आधारित नहीं है, वरन् मूर्ख (तकनीकी दृष्टि से) राजनीतिज्ञों तथा जनता की मांग (तकनीकी मूर्ख) आधारित है। इसका परिणाम यह होता है कि सारा राष्ट्र तकनीकी दृष्टि से अक्षमता के स्तर की ओर ढकेल दिया जाता है। रेल व्यवस्था दुर्घटनाओं से भर जाती है। देश को अधिकतम के स्तर तक उठाने के लिए प्रजातन्त्र की हत्या आवश्यक है।।80।।

प्रजातन्त्र में कानून इतना घटिया अव्यवहारिक होता है कि नटवरलाल जैसे ठग को एक सो छत्तीस वर्ष की जेल (29 मुकद्दमों में) तथा 10 लाख 49 हजार एक सौ पचास रुपए के दण्ड न पटाने के ऐवज 25 साल की सजा अर्थात् कुल 161 वर्ष की जेल सजा कानून ने दी है। मिथिलेश कुमार श्रीवास्तव चौरासी वर्ष की उम्र में जेल से फरार हो गया अतः उसकी सजा और बढ़ेगी। वह मरीज है, और जिन्दा रखा जा रहा है। मूर्ख प्रजातन्त्र कानून को नहीं समझता कि वह नटवरलाल को एक सौ इकसठ वर्ष जिन्दा नहीं रख सकता है, जबकि वह उसे और सजा सुनाने तैयार है अतः प्रजातन्त्र की हत्या आवश्यक है।।81।।

अन्धा राजा अन्धी पार्टी प्रजातन्त्र :- प्रजातन्त्र पार्टीवाद का घटियापन इस तथ्य से सिद्ध है कि अध्यक्ष प्रधानमन्त्री पर आरोपों की न्यायिक जांच की मांग करना याने पार्टी अनुशासन भंग करने के कारण निष्कासन। इसका सरल अर्थ है वह पार्टी जिसका नेता प्रधानमन्त्री हो पूरी न्याय व्यवस्था को लात मार सकता है (मारता भी है)। लात मारो ऐसे अनुशासन बद्ध प्रजातन्त्र को!।।82।।

भारत को 1947 में आजादी मिली विभाजन घोटाला नेहरु ने किया प्रधानमन्त्री पद पाने। 1951 पाश्चात्य विद् सिरमौरों नें एक पृष्ठ छोड नकारात्मक ढांचा संविधान लागू किया और शुरु किया सिलसिला राष्ट्रभाषा-हत्या का, राष्ट्रशिक्षा-हत्या का, प्रांत-प्रांत-हत्या का, स्वस्थसमाज-दबाव-हत्या का, संस्कृति-हत्या का। 1955 जीप घोटाला- नेहरु का दाहिना हाथ मेनन 2000 में से 1845 जीपें खा गया। प्रजातन्त्री जांच समिति का सच टांय-टांय-फिस् हो गया। मेनन तथा ऐंटी निस्टाटेस कम्पनी ने प्रजातन्त्र को चूना लगाया। 1956 सिराजुद्दीन दलाल डायरी कांड हुआ ईंधन मन्त्री ने दलाली स्वीकारी। केशवदेव मालवीय ने केशवदेव की मालवीय होने के लिए हत्या की। सिराजुद्दीन को और ठेके दिए गए। 1957 मूंदड़ा शेयर कांड हुआ। 160 करोड़ घपला हुआ प्रसिद्ध टी.टी.के. वित्तमन्त्री, वित्तसचिव पटेल, दोषी पाए गए। सरकार टांय-टांय-कठमुल्ला बनी। टी.टी.के. रक्षा मन्त्री हो गए। 1960 में धर्मतेजा 13.53 करोड़ स्पष्टतः डकार गए 85 तक सरकार वसूल न सकी। सऋण तेजा मर गए। 1964 सरदार प्रताप सिंह कैरो संपत्ति बटोरने में अनियमितताओं के दोषी पाए गए। कैरो को आयोग से बड़ा कर दिया गया। कौल ने विधायी व्यवस्था की ढोल की पोल खोली। नेहरु की आंखे बिना खुले बन्द हो गईं। नेहरु संजय, राजीव के गांधी नामों के आगे नेहरु जोड़ सपूतमय होने की लालसा में मर गया। दुर्गादास ने उसकी साजिश की पोल खोली, पर इंदिरा साजिशतन प्रधानमन्त्री बन चुकी थीं। मिन्ट कोट कीड़ा लबादा के कीड़े मरे भी न थे, नागरवाला लकवाग्रस्त मुंह इंदिरा आवाज निकाल साठ लाख ले मर गया। 1975 एम. करुणानिधि ने आयोग के मतानुसार करोड़ो रुपए लाईसेंस काण्ड डकार लिए और बे सजा खूब मजे से रहे। 1980 पेट्रोलियम मन्त्री पी. सी. सेठी नौ करोड़ के आरोपी तेल कुंआ काण्ड में बने, स्तीफा दिया। फाइले गायब हुईं। 1982 अन्तुले सात ट्रस्टों के धन तुले कोर्ट न्याय असन्तुलित उतरे। हा प्रजातन्त्र! अनतुले रहे। “इत्ती सी बात” प्रजातन्त्र की थी आवाज। 1982 चुरहट लाटरी का चोरहाट लाट काण्ड हुआ जो आज तक काण्ड है, अर्जुन बेदाग है।

नेहरुई साजिश इन्दिराई बनी नेहरु संजय गांधी, राजीव गांधी के पीछे नेहरू तो न जोड़ सके पर प्रधानमन्त्री जरूर जोड़ गए उतराधिकार जाति अधिकार से बड़ा होता है। इन्दिराई साजिश संजय होते होते रह गया राजीव प्रधानमन्त्री बन गया। 1986 बोफोर्स तोप का 64 करोड़ का काला धुआं स्वीडन तक को काला कर गया। राजीव राजीव रहते मर गया। अमिताभ तथा अरुण त्याग पत्र दाग भर दागित रहे।

कहावत है “मेमने को ढूंढो; मेमने को ढूंढो।” किसी ने भी मेमना नहीं ढूढा, परिणामतः भेड़े गुमती रहीं। मेमना चोर प्रजानन महाचोर बनते नए-नए रूप धरते रहे। हजारों भेड़ों के झुंड से दो मेमने गुम गए। एक बूढ़ा समझदार बेटों से बोला “मेमने ढूंढो” बच्चे हंसे… “इतनी भेड़ों में दो मेमने गुम गए तो क्या हुआ? बूढ़ा पागल है।” कुछ दिन बाद पांच सात भेड़ें गुम गईं। बूढ़े ने कहां “मेमने को ढूढो।” बच्चे बोले- “चुप पागल! हजारो भेड़ों में पांच सात भेड़ें क्या होती हैं? तू चिल्ला रहा है मेमने ढूंढो।” कुछ दिवस बाद हजार भेड़े चोरी चली गई। बूढ़े ने कहा “मेमने ढूढों ।” लड़के बोले- यहां हजार भेड़े चली गईं और बुड्ढा मेमने ढूंढ रहा है, मूर्ख है।

मेमने नहीं ढूंढ़े। मूर्ख प्रजाननों (प्रधानमन्त्रियों की लम्बी कतार ने) आज चारा घोटाला, हवाला घोटाला, झारखण्ड घोटाला, चन्द्रास्वामी घोटाला, दवा घोटाला, यूरिया घोटाला… प्रजातन्त्र ही घोटाला होके रह गया है, सुखराम, जयललिता भेड़चोरी के रिकार्ड तोड़ रहे हैं। मेमने को ढूंढो-प्रजातन्त्र तक पहुंच जाओगे। प्रजातन्त्र सिर के बल खड़ी उलटी लटकी लाश है। इसके उत्पादन सड़न, बदबू, घुटन ही होनें हैं। घिन आती है प्रजातन्त्र लटकी लाश पे। सियार, कौए, गीदड़-लीदड़ खा रहे हैं इसे। प्रजातन्त्र हत्या जरूरी है, तत्काल जरूरी है।।83।।

अनुशासन ‘स्व’ आधारित प्रत्यय है। ‘प्रजा’ स्व से सर्वाधिक दूर हटे प्रत्यय का नाम है। ‘प्रज’ (योग्यता अनुभव मात्र आधारित महत्वित आदमी) अनुशासनबद्ध हो सकता है। प्रजतन्त्र में ही अनुशासन सम्भव है जो प्रतिजन स्व या प्रज आधारित है। प्रजा अनुशासन से सर्वाधिक दूर का प्रत्यय है। प्रजातन्त्र शब्द ही बकवास शब्द है। तन्त्र अनुशासन का नाम है। प्रजानन प्रजातन्त्र में प्रजा से भी बड़े दूर का प्रत्यय है। घटियातम योग्यताधारी तो घटियातम ही होना चाहिए। पर घटियातम योग्यतायुक्त पद बढियातम बना दिया जाता है कि उसमें प्रजा चयन जोड़ दिया गया है। प्रजा एक औसत ऊलजलूल परिभाषा रहित प्रत्यय है। उसका चयन अलनटप्पू (धोखे से कभी कदा) ही श्रेष्ठ हो सकता है। भीड़ अपने आप में एक घटिया प्रत्यय है। जिससे गड़रिया भी श्रेष्ठ होता है। प्रजा प्रत्यय भीड़ से भी घटिया होता है। निर्णय क्षमताहीन ही नहीं होता, वरन गलत निर्णयों से भरा पूरा होता है। यही कारण है कि प्रजा चयनित घटिया योग्यतामय पदाधारित व्यक्ति प्रजा से ही सर्वाधिक दूर संविधान के श्रेष्ठता तत्व प्रथम पृष्ठ की अक्षर अक्षर प्रत्यय हत्याएं बार बार करते प्रजा से सर्वाधिक दूर प्रज से सर्वाधिक से सर्वाधिक दूर होता शत प्रतिशत के करीब अनुशासन हीन होता है। उसमें अनुशासन पनपने की संभावनाएं ही न्यूनतम हैं। अतः प्रजातंत्र की अविलम्ब हत्या आवश्यक है।।84।।

आर्य समाज जैसी श्रेष्ठ वेद नियमाधारित संस्था घटियापन के नए आयाम रच रही है कि उसमें प्रजातंत्र चुनाव पद्धति हैं। प्रजातंत्र सारे श्रेष्ठ नियमों को चीथ डालता है इसलिए प्रजातंत्र की हत्या करना जरुरी है।।85।।

बे-भाव, बे-विचार, बे-रचनात्मक, पर-भाव, पर-विचार, पर-रचनात्मकता एक ठूंठ गला मात्र सुरीला होने के कारण थोड़ी सी धूर्तता अपना एकाधिकार जमा प्रजातंत्र में विश्व प्रसिद्ध हो जाता है। यहां शराब भजन गाती है, पैसा त्याग बोलता है, वेश्या सतीत्व बखानती है, बिकाऊ सबसे मंहगा बिकता है। इतने खुले प्रमाण होने पर भी प्रजातंत्र और पनपता है घटिया लोग घटियातम पंसद है प्रजातंत्र इसलिए प्रजातंत्र की हत्या आवश्यक है।।86।।

हाय रे प्रजातंत्र! इस व्यवस्था में शब्दों की भी हत्या करने की सर्वाधिक छूट रहती है। स्वतंत्र शब्द के हर पार्टी के लिए अलग अर्थ होते हैं तथा वे मान्य भी होते हैं। इसी प्रकार जनहित शब्द के अर्थ संजय दत्त हित से नरसिंहराव हित तक बदलते रहते हैं। धर्म शब्द के अर्थ तो सैकड़ो होते हैं और सभी मान्य होते हैं। पूरा गधा पचीसी- गधी षोडसी होता है, प्रजातंत्र, इसलिए भी प्रजातंत्र की हत्या करना आवश्यक है। इसे नहीं समझता कि स्वतंत्र तथा जनहित का अनेकार्थ होना अज्ञान है।।87।।

भुने चने तथा उबले अंडे जैसा है हर वह विचार जो भारतीय संस्कृति धरती पर आयातित किया जाता है इसे खाया तो जा सकता है पर इससे भविष्य नहीं उगाया जा सकता है। इसे उगाने का प्रयास करने में सिवाय सड़न और बदबू के कुछ नहीं मिल सकता। प्रजातंत्र भी इस देश में मात्र सड़न और बदबू के कुछ भी नहीं दे रहा है काश हमने इसे खा लिया होता और इससे भारतीय धरती पर भविष्य उगाने की कोशिश न की होती।।88।।

शास्त्र द्वारा ही ब्रह्म निरुपित होता है। “न ईक्षण” से “अशब्द” होता है। ईक्षण से शब्द होता है। शास्त्र को अशास्त्र कर देने से स्वरूपतः न ईक्षण होता है जिसमें कई गुना ज्यादा विक्षेप होता है। ऋत प्रकृति में फैले शाश्वत नियमों का नाम है। ये श्रुति में है, वेदों में है। जो श्रुत+ धा की श्रवण परम्परा से सुव्यवास्थित रक्षित रहे। शास्त्र योनित्वात् नियम के अनुरूप वेद ब्रह्म है। सारे बहुत, उच्चकोटि के साधक योगी इससे सहमत हैं यह एक पूर्ण व्यवस्था है यह तथा इतिहास सिद्ध है। अल्पज्ञ असाधकों के अमान्य भाष्य प्रमाण हैं- अशास्त्र बड़ी खतरनाक स्थिति है।

एक व्यक्ति मुंह चला रहा था। दूसरे ने पूछा “क्या कर रहा है?” वह कहता है- “सोच रहा हूं सूखी रोटी खा रहा हूं”। दूसरा हंसा बोला- “हे मूर्ख जब सोचना ही है तो पिस्ते काजू बादाम की सोच” सोच। “शास्त्रयोनित्वात्”- शास्त्र बीज सूत्र एवं शाश्वत ही होने चाहिए। सूखी रोटी की सोचने वाला व्यक्ति अपनी भूख चाय की उबली बची पत्तियों या केले के छिलके या कचरे से ही मिटा पाएगा। यदि तुम्हारा लक्ष्य आसमान है तो पर्वत चोटी पहुंच ही जाओगे।

अभिव्यक्ति स्वतंत्रता सबसे खतरनाक तथ्य है। कहावत है कानून में सुई की नोक से ऊंट निकाला जा सकता है, यदि कानून में सुई के बराबर छेद हो तो “शास्त्रयोनित्वात्” मर जाता है। संविधान संशोधन प्रमाण है, संविधान के छिद्रित होने के अशास्त्र होने का। हा मूर्ख भारत, मूर्ख भारत के संविधान निर्माता! तुम्हारे पास तो शास्त्र थे पर सूखी रोटी खाने वाले तुमनें अशास्त्र संविधान चुना, प्रजातंत्र चुना। पहला पृष्ठ अपवाद (वह भी पूरा अपवाद नहीं) छोड़ सारा संविधान किन्तु परन्तु की महा-पोलों से भरा पड़ा है इनमे से ऊंट तो ऊंट क्या सारे कालिख राष्ट्र निकल गए हैं निकल रहे हैं। हे अभागों अब तो प्रजातंत्र की हत्या करो।।89।।

वेश्याओ को विशेषाधिकार दो, हिजड़ो के लिए सीट रिर्जव करो, अपाहिजों को नौकरी दो, जेलों में सुधार करो! हे मूर्खों सोचो तो क्या तुमने सारे स्वस्थो, सुशिक्षितो सभ्यों, ईमानदारों को सामान्य-अधिकार दे दिए हैं जो इनकी चिन्ताओं में डूबे चले जा रहे हो? पहले उन घरेलू काम करती ईमानदार श्रम देवियों बाईयों की चिन्ता करो, उन श्रम देवो, श्रम देवियों की चिन्ता करो अधिकार दिलाओ जिनकी कार्य क्षमता, ईमानदारी, मेहनत मंत्रियों प्रधानमंत्रियों से ज्यादा है। मानसिक अपाहिज है प्रजातंत्र का ढांचा ही। इसलिए भी प्रजातंत्र की हत्या करना आवश्यक हैं।।90।।

नासमझ हैं प्रजातंत्र की न्याय व्यवस्था। सुशिक्षित अशिक्षित, ज्ञानी, न ज्ञानयुक्त, अज्ञानी, मजबूर द्वारा किए अपराध को एक ही श्रेणी में रखती है तथा सुशिक्षित ज्ञानी द्वारा जानबूझकर किए उसी अपराध के लिए उसे अन्यों से उच्च श्रेणी की जेल देती है। उलट खोपड़ी व्यवस्था हैं प्रजातंत्र। करुणा, कानून, कतल सिद्धांत इसे नहीं समझता है। भूखा गर रोटी चुराता है तो न्याय का तकाजा करुणा उसके लिए रोटी व्यवस्था करना है। सामान्य आदमी से अगर अपराध धोखे से हो जाता है तो उसके लिए “कानून” न्याय का तकाजा है। तथा जो सुशिक्षित जानबूझकर कानून का उल्लंघन करता है उसके लिए मौत या कठोरतम दंड न्याय का तकाजा है गैर कानूनी को इनाम प्रजातंत्र का आम सच है जो हर आदमी भोग रहा है अतः प्रजातंत्र की हत्या आवश्यक है।।91।।

एक व्यक्ति पाठ कर रहा था “स्त्री गनेसाय नमाय”। एक पंडित ने उससे पूछा- “तुम गलत पाठ क्यों करते हो सही तो श्री गणेशाय नमः है”। वह बोला “तुम्हारा क्या जाता है? मेरे गुरुजी ने बताया है”। पंडित ने कहा- “चलो तुम्हारे गुरुजी से पूछते हैं”। दोनो गुरुजी के पास गए। वहां वे पांच समूहों को पढ़ा रहे थे। पंडित ने कहा यह आपका शिष्य “स्त्री गनेसाय नमाय” पाठ करता है। गुरुजी ने उलट कर पूछा- “श्री गणेशाय नमः को तुम कितनी तरह पढ़ सकते हो” पंडित बोला- “बस एक ही तरह” गुरुजी बोले- “मूर्ख! तुम शास्त्रीय सम्प्रदाय के हो। मैं इसी का पाठ शिष्यों को पांच तरीके से सिखाता हूं- श्री गणेशाय नमाय, स्त्री गनेसाय नमाय, श्री गनेसान नमान, शिरी गनेसो नमो, स्त्री गनेसाय सहाय और देखो मेरे पास इतने शिष्य पढ़ने आते हैं। तुम्हारे पास तो कोई नहीं आता है। तुम मुझसे जलते हो।” पंडित चला गया कि आंख बंद कर लेने वाले को भगवान भी सूरज नहीं दिखा सकता है।

एक कहावत है “हंसी भी क्या चीज है, मूर्खता जिसका बीज है” इस कहावत का जन्म तथा सार्थकता इसी से हुआ है कि “प्रजातंत्र भी क्या चीज है, मूर्खता जिसका बीज है”। शिक्षा की, विचार की, स्वतंत्रता की ‘स्त्री गनेसाय’ व्यवस्था प्रजातंत्र की सर्वोच्च देन है जो प्रसिद्ध है। अतः प्रजातंत्र की तत्काल हत्या आवश्यक है।।92।।

संसद राज्य की विधायिका सभा, नगर पार्षद सभा (पालिका), प्रजातन्त्र के सर्वोच्च मन्दिर हैं। इन मन्दिरों में आए दिन सरे आम, खुले आम, खुले व्यवहार, कुछ न मिलने पर कुर्सी टेबलों को हथियार बना लड़ाइयां लड़ी जाती हैं, गार्डों द्वारा प्रजातंत्र के पुजारियों को जबरन बाहर फैंका जाता है, पूजाएं सतत स्थगित की जाती हैं, माइक तोड़े जाते हैं, अध्यक्ष की कुर्सी पर कब्जा किया जाता है, औरतों की साडियां फाड़ी जाती हैं, गालियां बकी जाती हैं। यह घृणाओं, निहित स्वार्थ (सांसदों, विधायकों, पार्षदों की बढ़ती सुविधाएं प्रमाण हैं), झगड़ों, फसादों, गुंडा-गर्दी और मुफ्तखोरों के अड्डे हैं। यहां अलालों को श्रम उत्प्रेरित करने के स्थान पर सस्ता अनाज पैसा बांटने की योजनाएं बनती है, एक समाज तोड़ने की (अल्पसंख्यादि सहारा ले) सरे आम साजिशों को वैधानिकता का जामा पहनाया जाता है। छोटी सकरी टोपियों में अपने घुटन भरे, कुंठा भरे सिर मिलकर, झगड़कर नई नई घुटनों, कुंठाओ के कानून गढ़ते हैं। और यह सब विचार स्वतंत्रता के नाम पर राष्ट्र को घुट्टी में पिलाया जाता है। भोंपू पेपरों, रेडियो, दूरदर्शनों द्वारा राष्ट्र उसे पीता है, जीता है और घटिया से घटियातर से घटियातम गति करता चला जाता है।

इस प्रजातंत्र से तो छोटा सा धर्म का मंदिर ही नहीं, छोटा सा धर्म साम्प्रदायिक मजार या हनुमान रूप में रखा पत्थर, या मरियम का बना क्रास, या गोल रूप लिया शिव, या जड़ मूर्ती मंदिर, हर स्थिति बेहतर हैं। जहां आज भी सारी राजनीतिक स्थितियों, कार्यों द्वारा भटकाए जाने पर भी गलत व्यवस्था रोपने पर भी संसद, विधान सभा, पालिका सभा जैसे निहित स्वार्थ अनैतिक आचरण, घटिया चर्चाएं, अपात्रों को सुपात्र ठहराने आदि आदि नहीं है। वे साम्प्रदायिक मंदिर बेशक धर्म के निकृष्टतम रूप हैं, घटियातम रूप हैं पर अपने घटियातम रूप में भी इनकी पुस्तकें आचार व्यवहार प्रजातंत्री मंदिरों के व्यवहार आचारों से बेहतर हैं। और घटियातम प्रजातंत्र इन पर घटिया होने का आरोप लगाता है।

उठो जागो! प्रजातंत्रीय मंदिर व्यवस्था को समूल जला दो तत्काल जला दो। हर व्यवस्था इससे बेहतर, उत्तम ही होगी।।93।।

भूषणभूत सम्यकीकरण संस्कार है जो संस्कृति के सतत नियमबद्ध पालन से उपजता बनता है। दुःभूषणभूत विकृतीकरण प्रजातंत्र है, जिसका मूलाधार नियम-अनियम, अविवेक है। इसमें अपने बाप की अति अनैतिकतापूर्वक हत्या करके उसके सिर टुकड़ों को प्याला बनाकर उसमें तीव्रतम शराब भरकर पीने के पश्चात अपनी मां के साथ बलपूर्वक छलपूर्व संभोग कर्ता के लिए भी राष्ट्रपति प्रधानमंत्री चुनाव लड़ने की योग्यता है। प्रजातन्त्री राष्ट्रपति पद प्रधानमंत्री पद घटियातम योग्यता पद है। जिसमें सर्वोच्च ही है घटियातम उसकी हत्या करो अविलम्ब।।94।।

प्रजा टुकड़ा नहीं हो सकती। प्रजातंत्र में सारी व्यवस्था टुकड़ा टुकड़ा ही होती है। यह प्रजातंत्र का नहीं वरन व्यवस्था का ही गुण है। व्यवस्था टुकड़ा टुकड़ा ही होगी। अतः प्रजातंत्र और व्यवस्था साथ साथ नहीं चल सकते हैं। व्यवस्था करते ही प्रजातंत्र की हत्या हो जाती है। प्रजतंत्र में ही सटीक व्यवस्था हो सकती है जहां प्रतिजन योग्यता अनुभवाधारित सटीक पद पर है।।95।।

प्रजा टुकड़ा नहीं हो सकती। प्रजातंत्र में ‘कार’ प्रजा के लिए नहीं है, वायुयान प्रजा के लिए नहीं है, स्कूटर भी प्रजा के लिए नहीं है। ये सब खंड-प्रजा के लिए है। जब कि 46 प्रतिशत खंड-प्रजा गरीबी की रेखा के नीचे है प्रजातंत्र में वायुयान व्यवस्था, कार स्कूटर टी.व्ही. व्यवस्था महा प्रजाखंड की हत्यारिणी है तथा इसका सरकार जोर शोर से प्रचलन करती हैं। अतः प्रजातंत्र की हत्या करती है और प्रजातंत्र की पैरवी भी करती है। अतः प्रजातंत्र की हर स्थिति हत्या जरूरी है।।96।।

प्रधानमंत्री की तनख्वा, सुविधाओ, भत्तों से उनकी सुरक्षा व्यवस्था पर कहीं ज्यादा खर्चा है। प्रजातंत्र की स्वतंत्रता कितनी कितनी गुलाम व्यवस्था है, अपाहिज लुंज पुंज व्यवस्था है। इसकी तत्काल हत्या समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है।।97।।

परा, पश्यंती, मध्यमा, वैखरी, अभिव्यक्ता वाक् के विभिन्न स्तर हैं। सबसे छिछला स्तर है अभिव्यक्ता। स्तर के अनुरूप आदमी होते हैं। गहनतम आदमी परा स्तरीय होता है तथा उसके पांचो वाणी स्तर एक ही भाव होते हैं। सुकरात, हकीकत राय, दयानन्द, कुमारिल, भगतसिंह, बिस्मिल, आजाद, शंकराचार्य आदि ने अपने वाक् स्तर से गिरना पंसद नहीं किया। कांट, गैलीलियो, हाब्सादि राज भय से वाक् स्तर से गिर गए। वर्तमान प्रशासन में पदेषणा के कारण वाक् स्तर से लोग जगह-जगह गिरते हैं, परन्तु प्रजातंत्र में तो प्रजाननों का भी कोई वाक् स्तर नहीं होता। प्रजानन अभिव्यक्ता स्तर के भी नहीं होते। रातों-रात, दिन-दिन, पल-पल ये वाक् स्तर से गिर जाते हैं। दल बदल के पतनित वाक् स्तर पतनों से प्रजातंत्र का पूरा का इतिहास स्याह है। इस घटियातम वाक् स्तर गिरावट की हत्या करने के लिए प्रजातंत्र की हत्या आवश्यक है।

विश्वनाथ प्रताप सिंह, अटल बहारी वाजपेयी जैसे कवि व्यापक दृष्टि वाक् स्तरीय व्यक्ति भी जद भाजपा के स्तर के घटिया वाक् तक सहजतः गिर के बड़बड़ करने लगते हैं। वाक् पतन प्रजातंत्र का मूल आधार है। इसकी हत्या इसलिए भी आवश्यक है कि अटल बिहारी वाजपेयी, विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे व्यक्तियों का वाक् स्तर कायम रखा जा सके।

वाक् स्तर से बटे आदमियों में, अभिव्यक्ता स्तर का व्यक्ति हर किसी से चेहरा बदल बात करता है। वह शत प्रतिशत छिछला होता है। बैखरी स्तर का व्यक्ति बीस प्रतिशत लोग मात्र से सत्य कहता है। अस्सी प्रतिशत से बकवास करता है। मध्यमा स्तर चालीस प्रतिशत सत्य साठ प्रतिशत झूठ होता है। पश्यंती स्तर का व्यक्ति साठ प्रतिशत सत्य तथा चालीस प्रतिशत असत्य। परा स्तर व्यक्ति अस्सी प्रतिशत सत्य बीस प्रतिशत झूठ होता है। अपरा स्तर व्यक्ति शत प्रतिशत सत्य होता है।।98।।

“न जन्म कुछ न मुत्यु कुछ बस इतनी सी बात है।

किसी की आंख खुल गई किसी को नींद आ गई।”

इतना सा सच नहीं समझता प्रजातंत्र को तभी तो करोड़ो रुपए की सुरक्षा प्राप्त व्यक्ति प्रजातंत्र संविधान को मान्य है तथा भिखारियों को सड़क पर प्लेटफार्म पर, ट्रेन डब्बों में भूखे बिना रक्षा की स्थिति मर जाने का हक है। इसे यह भी नहीं समझता कि किसी भी प्रधानमंत्री राष्ट्रपति के मर जाने से चाहे गद्दी पर या ना गद्दी पर देश को कौड़ी भर का फर्क नहीं पड़ता है, जो यह उनके मरने पर राष्ट्रशोक राष्ट्रक्रन्दन की व्यवस्था करता है। जिस प्रजातंत्र को यह भी नहीं समझता कि भूख से एक देश नागरिक का भरी सड़क दम तोड़ देना ज्यादा करुण घटना है या करोड़ों रुपयों की शेर कमांडों व्यवस्था ग्रस्त, खा पी मुटकाए कायर चूहे देश नागरिक का फूलों की स्वागतीय व्यवस्था या गुदगुदे बिस्तरादि में दम तोड़ देना ज्यादा करुणा घटना है उस प्रजातंत्र की तत्काल हत्या आवश्यक है।।99।।

“संगच्छध्वं सं वदध्वम्” एक महान मिलन योजना है। सहयोग सद्भाव का आदर्श प्रारूप है। इस आदर्श प्रारूप की प्रस्थापना प्रजातंत्र में दल स्वीकार, अल्प बहु स्वीकार, व्यक्ति स्वतंत्रता स्वीकार, विचार स्वीकार, घटिया बढ़िया समान स्वीकार के कारण सर्वथा अंसभव है। इसलिए प्रजातंत्र की हत्या आवश्यक है।।100।।

मुंहफट् व्यवस्था है प्रजातंत्र और सबसे महत मुंहफट् है संसद या विधान सभा। जिसे सबसे ज्यादा कठोर सुसंगत नियमबद्ध होना चाहिए वह सबसे घटिया मुंहफट्ता को स्वतंत्र है। मुंहफट्ता नहीं हाथ पैर, जूता, माईक, गाली, गलौच, साड़ी खींच, कुर्ता फाड़ मानसफट्ता तक उन्मुक्त है। छिः! ऐसी छिछली व्यवस्था का व्यवहार रूप सहजतः स्वीकार है जिसमें उस प्रजातंत्र की तत्काल से फौरन हत्या आवश्यक है।।101।।

स्वतंत्रता शब्द का अर्थ भी नहीं मालूम है संसार के सारे प्रजातंत्रों को। सहृदयम्, समनस्वम्, अविद्वेषम्, सद्यजात गाय बछड़े मध्य वात्सल्यवत आपस नेह परिवार को आजादी (स्वतंत्रता नहीं) शब्द के द्वारा अधिकार बम्ब से टुकड़े टुकड़े उड़ा देने वाली परिवार छिटका व्यवस्था का नाम है प्रजातंत्र। बच्चों बीवी पति माता पिता के लिए एक सम सौम्य सहज सरल आदर्श बंधी वात्सल्यमय त्यागमयी व्यवस्था के स्थान पर हर एक की घटिया-बढ़िया असली-नकली, ऊंची-नीची, उबड़-खाबड़ व्यवस्था का स्वीकार है प्रजातंत्र इसलिए इसकी हत्या करना आवश्यक है।।102।।

प्रजातंत्र व्यवस्था में किसी शहर एक उच्च विचार व्यक्ति हजारों कविताएं लिखता कवि सहजता से अपनी 160 पृष्ठ की एक पुस्तक जो सामान्य से उच्च है न छपवा सकता है न बंटवा सकता है, जिससे कि समाज श्रेष्ठ हो। पर इसी व्यवस्था प्रति दिवस एक नहीं कई कई प्रजाननों के भोंदू भोंपू बकवास भरे दुहरते तिहरते अनेकरते, छिछले वक्तव्यों भरे 160 पृष्ठ के पेपर उन्मुक्त सहजतः छपते हैं, बेरोक-टोक छपते हैं, और दो-दो-ढाई रुपए बिकते हैं। उन पर रेडियो, दूरदर्शनों टिप्पणियां होती हैं। इस घटिया व्यवस्था को समूल नष्ट करना आवश्यक है। छपन माप का आदर्श जहां पैसा है या प्रजातंत्री आजादी है या घटियापन अग्रसर होना है कि देश की अधिसंख्य जनता घटिया है ही उस व्यवस्था का नाम है प्रजातंत्र। इसलिए प्रजातंत्र की हत्या आवश्यक है।।103।।

प्रजातंत्र का सबसे बड़ा तर्क है सत्ता सौपने का। हर तंत्र सत्ता सौंपना आवश्यक है। राजातंत्र में राजा को ईश्वर सत्ता सौपता है माना जाता था। वहां एक सत्ता सौपता था। एक-तंत्र में या तानाशाही में तानाशाह सत्ता छीनता है। प्रजातंत्र में माना जाता है कि प्रजा सत्ता स्वेच्छया सौंपती है। यह प्रजातंत्र का सबसे बड़ा तर्क है। वास्तव में यह सबसे घटिया तर्क है। क्योंकि (1) संसार का हर व्यक्ति भिन्न अद्वितीय है, अतः कोई व्यक्ति दूसरे को स्व-सत्ता अंश भी सटीक नहीं सौंप सकता है। पिता अपने पुत्र को एक रुपए मात्र के साथ अपनी सटीक सत्ता रुपए के व्यय के संबंध में पुत्र को नहीं सौप सकता है। पिता पुत्र में सत्तात्मक पीढ़ी अंतर रहेगा ही। (2) कोई भी व्यक्ति अनेक सत्ताओं को ले नहीं सकता। जैसे सत्ता कोई दे नहीं सकता वैसे ही सत्ता ले भी नहीं सकता (3) एक व्यक्ति एक नदी में दो बार स्नान नहीं कर सकता व्यक्ति, सत्ता समाज संदर्भ में हर पल परिवर्तनीय है अतः सत्ता सौंपना कोई अर्थ ही नहीं रखता है। (4) माता पर पूर्णाश्रित शिशु अबोध भी सत्ता मां पर स्थानांतरित नहीं करता (5) सत्तांश संदर्भ विशेष में भी दुर्लभतः एक नहीं होते हैं। (6) महापुरुषों का इतिहास गवाह है (पाश्चात्य में अधिक स्पष्टतः) कि श्रेष्ठ को भी सत्ता जनसमूह, न्यायसमूह ने नहीं सौपी बल्कि श्रेष्ठ सत्तांश नष्ट करने का प्रयास किया। (7) सत्ता मात्र एक अवस्था में सौपी जाती है जब सत्ता का भान नहीं होता है वह शराबी की नशा अवस्था! तब इसलिए सौपी जाती है क्योंकि वह रहती ही नहीं है। (8) इतिहास गवाह है किसी प्रजातंत्र में सत्ता हस्तांतरण नहीं हुआ है। (9) पार्टीवादी दबाव समूहवादी व्यवस्था में तो समाज सत्ता हस्तातरण और अधिक असंभव है। (10) सत्ता हस्तंातरण की मत, पार्टी, चिन्ह प्रतीक, प्रणाली इसे असंभव बना देती है। (11) सत्ता हस्तांतरण एक चुनावी उन्माद सच है जो कालातंर में नष्ट हो जाता है। (12) सत्ता स्थानांतरण प्रजातन्त्र का मूल है जो वास्तव में सबसे कमजोर आधार हीन है इसीलिए प्रजातन्त्र मात्र बेजान ठूंठ है जो कभी पल्लावित नहीं हो सकता है। (13) यू.पी. में जनता से मायावती, मायावती से कल्याणसिंह आदि का घिनौना सत्ता स्थानांतरण अगर प्रजा से सत्ता हस्तांतरण कहा जाता है तो प्रजातन्त्र की हत्या ही बेहतर विकल्प है। (14) केन्द्र में भी भाजपा से अटल बिहारी से देवेगौड़ा से गुजराल से पूर्व मतदान में टुकड़े टुकड़े सत्ता ‘प्रजासत्ता’ का घिनौना मजाक है। (15) हर प्रांत कर्नाटक, तमिलनाडू, आंध्रप्रदेश, बिहार, हरियाणा, पंजाब, हर राष्ट्र ब्रिटेन, जापान, पाकिस्तान, बंगला देश में यू.पी. के समान ही सत्ता के पैबंद इधर-उधर थिगाड़ियोंवत चिपक इसे घिनौना रूप, देते हैं।

(16) विश्व के सारे संविधान आयोगों, मन्त्रियों, मंडलों, समूहों, पार्टीयों में खिचड़ी खिचड़ी सत्ता बांट करते हैं जिससे सारी सत्ता बेचारी का तो कचूमर ही निकल जाता है वह गलियों में आवारा भटकती पगली नग्न नारी हो जाती है जो नियम वस्त्र देने पर सारे वस्त्र फाड़ प्रजातन्त्र राजपथ पर नंगा नाच करती है। इसके बाद पुनः चुनाव का नग्न नकटा नाच जो पार्टियां (स्त्रीलिंग) प्रजातन्त्र के दबाव में नाचती है वह कोई समझदार आदमी देख तो क्या सुनते भी शर्म से पानी पानी हो जाता है।।104।।

सत्ता सौंपने का आधार प्रेम तथा श्रद्धा होता है। प्रेम एक व्यक्ति दो व्यक्तियों से या दो व्यक्ति एक व्यक्ति से सत्ता सौप रूप में नहीं कर सकते। प्रेम में एक व्यक्ति एक को ही सत्ता सौप सकता है। प्रजा सत्ता सौपना श्रद्धा आधार पर हो सकता है। श्रद्धा आधार श़़़़ृत तथा ऋत नियम उच्चता होती है। प्रजातन्त्र औसत व्यवस्था होने के कारण श्रृत तथा ऋत उच्चता आधारित हो ही नहीं सकती है अतः इसमें संपूर्ण जन श्रद्धा असम्भव है। सम्पूर्ण जन श्रद्धा प्रजतन्त्र में ही सम्भव है। अतः प्रजातन्त्र व्यवस्था में सत्ता कभी जनता से नेता तक हस्तांतरित होती ही नहीं और जितनी कुछ होती है वह अंश कुर्सीधारी व्यवस्था के होने के कारण अति हीन अंश होने के कारण महत्वहीन होती है। प्रजतन्त्र में व्यवस्था योग्यता अनुभव के पुख्ता आधारों पर होने के कारण शृत तथा ऋत नियमों पर आधारित होती है अतः श्रद्धा आधारित होती है और न केवल एक की या अंश की वरन सर्व की श्रद्धा आधारित होती है अतः स्वतः संपूर्ण सत्ता हस्तातरण होता है।।105।।

प्रजातन्त्र में जिसे सत्ता हस्तांतरित करने की बात कही गई है उसे सत्ता समझ ही नहीं होती है। उसके लिए सत्ता बंदर के हाथ मुहर जैसी होती है। जिस प्रकार एक बंदर के राजा बन जाने पर वह पेड़ पत्ते शाखा दीवारें सभी पर अनगिनत मुहरें नकलवत लगाता चला जाता है उसी प्रकार प्रजातन्त्र में ऊलजलूल तरीकों से मुहर का उपयोग होता है और अंधी मुहरबाजी में अंधे ही लेखक, साहित्यकार, चित्रकार, कलाकार आदि अभिस्वीकृत होते हैं। मैं भारत के श्रेष्ठ स्वीकृत साहित्यकारों को जानता हूं, उनसे चर्चा की है; उसके दम खम के आधार पर ही यह बात कर रहा हूं। भिलाई नगर के सर्व श्रेष्ठ स्वीकृत साहित्यकारों को “शामिल बाजा” जैसी श्रेष्ठ एवं सूक्ष्म कहानी कौड़ी भर समझ न आने तथा अन्य चर्चादि से बंदर हाथमुहर बात स्थानीय स्तर पर भी सही है। प्रजातन्त्र में सत्ता हस्तांतरण दोहरा अंधा विक्षेप है। इसके विपरीत प्रजतन्त्र में सत्ता हस्तांतरण विवेक पूर्वक है क्योंकि जिसे सत्ता दी जाती है वह ‘सत्ता’ का अर्थ अनर्थ शत प्रतिशत समझता है।।106।।

सत्ता सम संकल्पना प्रजातन्त्र की महानतम मूर्खतापूर्ण संकल्पना है। वास्तव में विश्व में कहीं भी कभी भी पूरे इतिहास दो व्यक्ति कभी भी सम नहीं हुए हैं। ‘सत्ता सम’ भावना पूरे विश्व में इतिहास को काला करती रही है। ‘सत्ता सम’ विकृति के कारण दयानंद को जहर, सुकरात को जहर, गैलीलियो का जेल, हाब्स कांट को अप्रकाशन तथा राजभय, एनेक्सगोरस को मृत्युदंड, ब्रूनो को आग में जलाना, स्पिनोजा से एक लाठी दूर रहने का उसे दंड मिला। ये सम सत्ता नहीं थे। स्कूल कालेज शिक्षण व्यवस्था जो शुद्ध है इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि व्यक्ति सत्ता सम नहीं होता है। प्रजातन्त्र में ‘सत्ता सम’ द्वारा सारे श्रेष्ठों की वास्तव में तथा सिद्धांत रूप में भी हत्या कर दी जाती है कर दी जा रही है।

प्रजा की बात से हटकर एक परिवार में भी प्रजातन्त्र के कारण : मां = बांप = बेटा = बेटी = बहू = पति = नौकर की सत्ता समता की घोर नासमझी है और यह नासमझी थमी नहीं है। यह सत्ता समता आगे बच्चा = कुत्ता = बिल्ली तक फैल रही है। प्रजातन्त्र को स्त्री, पुरुष, लड़का, लड़की, रिश्ते नातों की समझ नहीं हैं इनकी सत्ता विभिन्नता की समझ नहीं है। इसलिए भी प्रजातन्त्र की हत्या तथा प्रजतन्त्र की स्थापना आवश्यक है।।107।।

प्र्रजातन्त्र में मंहगी चुनाव व्यवस्था सस्ते नेता को चुनने के लिए प्रयोग की जाती है। जबकि अनेकानेक नेता से बढ़िया व्यक्तित्व समाज में सहजतः उपलब्ध रहते हैं। औसतीकरण की घटिया प्रक्रिया का आधार प्रजातन्त्र में होने के कारण बढ़िया व्यक्ति इससे कतराते हैं तथा इसमें भागीदारी नहीं देते हैं।।108।।

चुनावों के समय नतीजे आने तक सारा देश निठल्लों अनुत्पादकों की भरमार हो जाता है। इससे देश क्षमता ह्रास होता है।।109।।

“तेन प्रोक्तेन” “तेन कथ्येन” का विस्तार तथा आधार होता है। तेन कथ्येन के आधार के बिना ‘तेन प्रोक्तेन’ बिना पांव हेाता है। मात्र ‘तेन प्रोक्तेन’ पानी पर पड़ी लकीर होता है। प्रजातन्त्र में विचार अभिव्यक्ति आजादी के कारण “तेन प्रोक्तेन” के आधार पर ‘तेन प्रोक्तेन’ भर होता है जो हवा पर पड़ी लकीर होता है। वर्तमान, भारतीय चुनावो में पूरे कांग्रेस वक्तव्य वे तेन प्रोक्तेन थे तथा भाजपा आदि के वक्तव्य ‘तेन प्रोक्तेन’ पर ‘तेन प्रोक्तन’ थे। तेन कथ्येन के अभाव में राष्ट्र घनघोर अन्धकार से आत्महना सफर तय करते हैं।

सारे धर्मों के जीवित रहने का कारण ‘तेन कथ्येन’ है। सम्प्रदाय में ‘तेन कथ्येन’ का स्तर कम होता है पर सम्प्रदाय आधार भी ‘तेन कथ्येन’ होता है। ‘तेन कथ्येन’ के अभाव में अमला एवं कमला नाम की शिशुबालिकाएं भेड़ियों द्वारा उठाई जाकर उन में पलकर भेड़िया मात्र ही बन सकीं थीं। भेड़िया वर्ग में ‘तेन प्रोक्तेन’ एक सम घटिया स्तर पर दुहरता तिहरता है पर प्रजातन्त्र में तेन प्रोक्तेन निर्णय क्षमता के कारण और और घटिया होता चला जाता है (विश्व प्रजातन्त्र इतिहास इसका सबसे बड़ा प्रमाण है गांधी से लेकर सोनिया तक तथा लोकमान्य तिलक से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक तेन प्रोक्तेन ने घटियापन के ही मापदंड गढ़े हैं) प्रजातन्त्र की हत्या के द्वारा ही इस घटिया की और घटिया गति को समाप्त किया जा सकता है।।110।।

‘उत्तर आधुनिकता’ प्रजातन्त्र का श्ूान्य है। प्रजातन्त्र का दूसरा नाम ‘सूचना’ तन्त्र है जिसमें विज्ञापन तन्त्र प्रमुख भाग है। किसी भी सीरियल, धारावाहिक, फिल्म, विज्ञानवार्ता के चरम बिन्दु पर जब मस्तिष्क तरल रहता है आ कूदता है- दुपट्टा विहीन, अर्ध बिकनित, एक चड्डित विश्व सुन्दरी का सनसनाता अश्लीलतम रूप और उपभोग सामान। अवचेतन में भरे जाने वाले ये “उपभोग” कथ्य, कवि गोष्ठी, मंच, साहित्य मंच, अभियंता चर्चा, वकील चर्चा, हंसीं मजाक का विषय बनते-बनते सारा जन मानस खोखला कर देते हैं। इस प्रजातन्त्र के शून्य से बचने के लिए प्रजातन्त्र की हत्या करना आवश्यक है।।111।।

गीता का “सर्वनाश” विषयक प्रसिद्ध सिद्धांत है आदमी विषयों (उपभोगों) का ध्यान करता है संग की इच्छा होती है, संग से काम पैदा होता है काम से क्रोध पैदा होता है, क्रोध से सम्मोह, सम्मोह से स्मृतिभ्रंश और स्मृतिभ्रंश से सर्वनाश। प्रजातन्त्र में सारी राजनीति “कुर्सी उपभोग” के ध्यान से सर्वनाश सफर, शिक्षा व्यवस्था ‘पद उपभोग’ के ध्यान से सर्वनाश सफर, पदाधारी हिरण्यमय कार, टी.वी., मकान, काकटेल आदि उपभोग सर्वनाश सफर की ओर गति करते सर्वनाश को प्राप्त होते हैं। एक मानव का यह सर्वनाश सफर बड़ा द्रुत होता है पर जाति का देश का क्रमशः होता है और पता लगते लगते न लौट सकने वाले बिन्दु तक पहुंच चुका होता है। सर्वनाश रोकने प्रजातन्त्र की हत्या आवश्यक है।।112।।

“प्रजा” शब्द “भारत प्रजा” “अमेरिकन प्रजा” “ब्रिटिश प्रजा” से “प्रांत प्रजा” “नगर प्रजा” के अर्थों में प्रयुक्त होता है तथा इसी सन्दर्भ में सारे प्रजातन्त्र निर्णय लिए जाते हैं। न्याय दर्शन के अनुसार यह “जाति” न्याय च्युति है। सारा प्रजातन्त्र ही अन्याय है अतः इसकी हत्या करना आवश्यक है।।113।।

सबसे बड़ी गप सच है प्रजातन्त्र। यहां सबसे बड़ा मजाक भी सचसाप (बिलकुल सच) हो जाता है। चौधरी चरणसिंह के जमाने में एक जोक सुना था कि वह एक बड़ी कांग्रसी मीटींग में आया जोर से हाथ हिला बोला मोतीलाल नेहरु की जय, जवाहर नेहरु की जय, इंदिरा गांधी की जय, कांग्रेसाध्यक्ष ने सोचा चौधरी जी कांग्रेसी हो गए हैं, उसका स्वागत किया। तब चौधरी चरणसिंह ने कहा आगे -राजीव गांधी की जय, संजय गांधी की जय, उनके बेटों बेटियों की जय (तब राजीव संजय बहुत छोटे थे)।

और हाय रे अभागा प्रजातन्त्र कालांतर में संजय गांधी की जय, मेनका गांधी की जय, राजीव गांधी की जय! जय नहीं महाजय हुई। संजय चल बसा। राजीव भारत रत्न हुए। प्रधानमन्त्री हुए…..श…….ही…….द हुए। सोनिया कांग्रेस कप्तान हुईं……. कांग्रेसाध्यक्ष हैं… और सोनिया जय….. राहुल जय….. प्रियंका जय….. वढेरा जय ये जय घोष जारी हैं। वढेरा गर्भ-शिशु जयघोष शुरु हो गए हैं और इस प्रजातन्त्र में जहां सरे आम वंश जाति के आधार असमानता गुनाह है वहां वढेरा-गर्म शिशु जन्म पूर्व ही हर आम भारतीय से बेहतर है, और किसी को भी सच नहीं समझता है। संविधान का पहला पृष्ठ आंसुओं के खारे समुन्दर से भीग भीग पूरा का पूरा गल गया है प्रजातन्त्र हजारों-लाखों पेपर, रेडियो, दूरदर्शन महाजिन्दा है कौन कौन साथ देगा मेरा! वध करेगा प्रजातन्त्र का?।।114।।

संविधान ही जिसका सम नहीं; प्रांत, नगर, क्षेत्र की जाति की सारी काल्पनिक सीमाओं के आधारों निर्णय लेता देता लागू करता है वह प्रजातन्त्र ही महाधोखा है। आत्महना प्रजातन्त्र क्या किसी एक को भी आत्मसम्मान दे सकेगा? असम्भव है यह।।115।।

संसदीय शासन पद्धति का सिद्धान्त व्यक्तिगत सत्ता को नकार कर सभी विधायी शक्तियां बहुमत के निर्णय के अधीन कर देना है अर्थात यह शक्ति व्यक्ति के स्थान पर गुमनाम मस्तिष्कों की संख्यात्मक गणना को दी जाती है। ऐसा करने से कुलीनता के सिद्धान्त का हनन होता है जो प्रकृति का एक मौलिक और शाश्वत सिद्धान्त है।।116।।

हमारी गिरावट की एक और पहचान है कि सत्ताधारी व्यक्तियों की निजी योग्यता जितनी घटती है राजनेताओं की संख्या और ख्याति उतनी ही बढ़ती है। स्पष्ट है राजनेता को व्यक्तिगत रूप से संसदीय बहुमत पर जितना अधिक निर्भर रहना पड़ेगा उसकी मौलिक प्रतिभा और कार्य करने की क्षमता उतनी कम होती जाएगी।।117।।

जिस व्यवस्था सर्वोच्चपदधारी प्रधानमन्त्री तथा राष्ट्रपति (यदि धोखे से वे विद्वान, हो जाएं तो) के सच भी लुंज पुंज आपहिज रोगी लिजलिजे हो जाते हैं, उस व्यवस्था का नाम है प्रजातन्त्र। उन सचों पर भी थूकने का हक है सबको। ओर विपक्षी पार्टियों का देश में और सबसे अधिक संसद में इन सचों पर निर्बाध थूकने का हक है प्रजातन्त्र। मुझे स्मरण है इंदिरा गांधी ने मरण के एक वर्ष पूर्व तक भारत देश की एक उदात्त-व्यापक श्रेष्ठ तस्वीर रखी थी-उस पर भी थूका ही था कांग्रेसी होकर। और आज अटल के उदात्त सचों पर विपक्षी थूक रहे हैं। और जब भाजपाई होते हैं तो अटल स्वयं भी सत्यटल हो उस पर थूकने लगते हैं। सच की बड़ी ही दयनीय अवस्था है प्रजातन्त्र में। कौन कौन साथ दे मेरा? साथ दे सच का?? करेगा वध इसका???।।118।।

प्रजातन्त्र व्यवस्था पूंजी आधारित व्यवस्था है। एक कहावत हैं -कुत्ते का दिमाग दुम में होता है, गधे का खुर में होता है, औरत का घुटने में होता है, गंवार का तलवे में होता है और बनिए का धन में होता है अर्थात शरीर के बाहर होता है। दिमाग का शरीर से बाहर होना बड़ी खतरनाक बड़ी घातक व्यवस्था है और यही व्यवस्था प्रजातन्त्र का आधार है। ए.सी.प्रथम, वायुयान, ए.सी.स्लीपर द्वितीय, पंच तारा होटल सुविधा, चुनाव महत्ता प्रजातन्त्र में सभी का आधार धन है। धन क्रिकेट जैसे वाहियात टेनिस जैसे वाहियात खेलों को खो, कबड्डी जैसे सुसंगत सामाजिक, यौगिक (योग सने) खेलों से बढिया कर देता है। वैज्ञानिक दृष्टि से टेनिस की तुलना में, गिल्ली डंडा जैसा खेल ज्यादा वैज्ञानिक, यौगिक, स्वास्थ्यकर, एकाग्रता सिद्ध, चपलता दायक है। गिल्ली डंडा खेल में स्वास्थ, ध्यान एकाग्रता दृष्टि से टेनिस तथा किक्रेट खेलों के मिश्र रूप से भी ज्यादा उत्तमता है। अस्तु…

वित्त से मनुष्य हमेशा अतृप्त रहता है ज्ञान तथा कौशल से मनुष्य परितृप्त होता है। वित्त का मूल्य आपेक्षिक है। तनजानिया के दारे सलाम शहर में डालर रुपए पास होने पर भी पहले दिन में भरे बाजार कौड़ी भर खाद्य नहीं खा सका था। मस्तिष्क प्रयोग तथा सामाजिकता से एक भारतीय अंश परिचित के यहां सुखाद्य खा सका था।

प्रजातन्त्र का आधार वित्त ही घटिया है परिणाम व्यवस्था बाह्य पतनशील घटिया है। इसे विद्या कौशलाधारित करना ही होगा।

विनय पाठक द्वि विषय डी.लिट की योग्यता के घटिया से घटिया चरण अमिताभ बच्चन या गोविंदा या अक्षय छू भी नहीं सकता और प्रजातन्त्र वित्त व्यवस्था में विनय पाठक का व्यवस्था को भान भी नहीं है और घटियातमों (जो ऐचे मैचे पन ऊलजलूल को बिके हैं) को व्यवस्था, पेपरों ने सिर पर उठा रखा है। जिस प्रजातन्त्र में ऐसा हो सकता है ‘थू’ है उस व्यवस्था पर! इसे तत्काल नष्ट करना जरूरी है।।119।।

एक चपरासी साहब से बोला- “साहब एक स्टूल भी नहीं है कि बैठ सकूं”। ए.डी.ई. साहब ने रोना शुरु किया- “मेरे कमरे में आने वालों के लिए कुर्सियां नहीं हैं”। ए.डी.ई.साहब ने डी.ई. साहब से कहा- “साब मेरे कमरे में आनेवालों के लिए कुर्सियां नहीं हैं”। डी.ई. नें रोना शुरु किया- “मुझे कूलर नहीं मिला है”। डी.ई. ने एस.ई. साहब से कूलर शिकायत की। उसने रोना शुरु किया- “मेरे कमरे फोन नहीं है”। एस.ई. साहब ने सी.ई. से शिकायत की- “मेरे कमरे फोन नहीं है”। डिप्टी सी.ई. ने रोना शुरु किया- “मेरे कमरे ए.सी. नहीं है”। डिप्टी सी.ई.नें सी.ई. से फोन शिकायत की.. उसने रोना शुरु किया- “मेरे पास टायपिस्ट नहीं है”… और मन्त्री नें प्रधानमन्त्री से कहा- “मेरे पास बुलेटप्रुफ कार नहीं है”। प्रधानमन्त्री रोया- “मुझे हवाई जहाज नहीं मिलता”। प्रधानमन्त्री ने राष्ट्रपति से शिकायत की तो राष्ट्रपति भी रोया- मैं मोहर सील से ज्यादा कुछ कहां हूं? निर्-अधिकार हूं”।

मैं आम आदमी हूं। सब मेरे कानों में रोना थूक रहे हैं। मैं भी रो रहा हूं यही प्रजातन्त्र है।।120।।

द्वि मलद्वार व्यक्ति को कहते है दो पोंदिया। शत सहस्र मलद्वार पार्टियों को कहते हैं शत सहस्र पोंदिया। जब व्यक्ति का मुख भी हो जाता है मलद्वार तब उसे कहते हैं दो पोंदिया। प्रजातन्त्र में ग्राम्य चुनाव में पार्टी तथा व्यक्ति नीतियां अलग अलग होती हैं और कई कई पार्टीयां होती हैं। और पार्टीयों के हर स्थल अलग अलग गठबंधन होते हैं। इन गठबंधनो की फिर अलग अलग नीतियां होती हैं। अतः सारी पार्टीवादी प्रजा के मुख बेमेल मलद्वार हो जाते हैं। देश बदबू से भर जाता है। कांग्रेस, भाजपा, जपा, सपा, वामपंथी आदि इस संदर्भ में एक ही थैली के सड़े गले हैं, उफ् ये चट्टे बट्टे भी नहीं रह गए हैं।

शारीरिक मल से वैचारिक मल, वाक् मल ज्यादा बदबूदार होता है। मेरा देश ही बदबू न हो जाए कल, आओ मेरे साथ लो संकल्प कि प्रजातन्त्र ही न देखे कल!।।121।।

प्रजातन्त्र व्यवस्था हड़ताल व्यवस्था का नाम है। हड़बड़ में काम बंद का नाम है हड़ताल। नर्स हड़ताल, डाक्टर हड़ताल, इन्जीनियर हड़ताल, डिप्लोमा इन्जीनियर हड़ताल, विपक्षी नेता समूह तो सदायी हड़ताल व्यवस्था का ही पालन करता रहता है, व्यापारी हड़ताल, ट्रक हड़ताल, रेल्वे हड़ताल-आदि आदि। हड़ताल है ही नाम मूर्खता का। हड़ताल शिकंजा प्रजातन्त्र पर भयानकतम स्वार्थ संकीर्णता शिकंजा है। संगच्छध्वं संवदध्वम् होना था जिन समूहों को शान्ति और स्थैर्य के लिए वे समूह प्रजातन्त्र की औसतीकरण व्यवस्था के कारण कुगछध्वं कुवदध्वम् हो कर कुसंरकार से कुअपेक्षाएं करते हैं। देश बर्बाद दोनों करते हैं।

जिन देशों में चालीस चालीस प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे हों -डाक्टर, नर्स, इन्जीनियर, रेल कर्मचारी, व्यापारी जो आय संसाधन की दृष्टि से सुविधा सम्पन्न दशमलव छै प्रतिशत में आते हों, और और मांगते हों हड़ताल पर जाते हों, करुणा कानून और कतल की न्याय व्यवस्था में उन्हें कत्ल कर देना चाहिए क्योंकि यह राष्ट्र द्रोह है पर व्यवस्था प्रजातन्त्र की उनके प्रति रिस्पांसिव्ह होकर उन्हें क्रमशः आधे प्रतिशत सुविधा सम्पन्नों में तथा चालीस प्रतिशत गरीबी रेखा के नीचे वालों को और नीचे ढकेलती है।

मोटी ताजी लिपिस्टीक सजी सुवस्त्रित सुफॅशनित नर्सें, इनसे भी सुसज्जित एअर होस्टेजेस् उर्फ उड़न परियां, एक औसत भारतीय से तिगुने मोटे चौड़े सांसद सदस्य, एम. एल.ए., सर्वसुविधाभोगी डाक्टर, भ्रष्टता-समृद्ध रेल्वे कर्मचारी आदि आदि जब वेतन वृद्धि की बात करते हैं और दुबली सुकड़ी हड्डी बाइयों, कांखते-खांसते रिक्शावालों, रोजकमाते खाते हड्डिया मजदूरों उनके नाली निकट धूल खेलते मरियल बच्चों, नंगे घूमते गांव के बच्चों, पोला में नंदिया बैला न खरीद सकने वाले बच्चों, आठ आने एक रुपये का खिलौना न खरीद सकने वाले बच्चों, होटलों में भयावह शोषण शिकार होते बच्चों, रेलवे स्टेशन चार आने कप कमीशन पर अठारह घंटे चाय बेचते बच्चों, सिनेमा घरों में पापकॉर्न बेचते बच्चों, कचरा बीनती बाइयों, आदि के बुझे जीवन और रौदते हैं तो मानवता करोड़ आंसू रोती है।

भारत में तीन दशमलव दो करोड़ आदमी जो सरकारी नौकरियों में हैं कहीं भी आम आदमी नहीं हैं। लेकिन ये आम-आदमी आम-आदमी करके पिछले पचास वर्षों से हड़ताल, वेतन बढ़ाओ, चिल्ला रहे हैं तथा जिसका वेतन जितना ज्यादा है वह उतने ही जोर से चिल्ला रहा है। जोर से चिल्लाने वालों की आवाज सरकार भी खूब कान लगाकर सुनती है, आम आदमी की सारी खामोश “भिन-भिन” जो करीब निन्यानबे करोड़ आवाज है को डूबो कर रख देती है। इन हड़ताल आवाजों को डूबो देने के लिए प्रजातन्त्र की हत्या आवश्यक है।।122।।

विधायी निठल्लीकरण, घटियाकरण, तथा व्यवस्था औसतीकरण, ऊलजलूल से घटिया आजादी करण, महा बकवासीकरण प्रजातन्त्र को उपरोक्त सच कभी न समझेगा इसलिए प्रजातन्त्र की हत्या करना आतशाक है।।123।।

प्रजातन्त्र घटते घटते व्यक्ति तक विभाजित हो जाए यह असम्भव है यह भी असम्भव है कि प्रजातन्त्र बढ़ते बढ़ते वसुधा कुटुम्ब हो जाए। प्रजातन्त्र त्रिशंकु व्यवस्था है। जिसमें प्रांत, देश, राजनैतिक पार्टियां, संस्थाएं और टुकड़े टुकड़े होते चले जाएंगे। दीवारें बढ़ती चली जाएंगी। नए कभी छोटे कभी बड़े निहित स्वार्थाधारित (प्रजा का प्रजातन्त्र में जुटना निहित स्वार्थाधारित ही होता है) आहाते दम घोंट जेलें, चहारदिवारियां ही बनती रहेंगी और मानव इनमें पार्टीवादी चिल्लऽ पों मचाता रहेगा) (छत्तीसगढ़ राज्य आते ही जनवादी प्रगतिशीलादि आदि घिनौनी स्वार्थ भरी चिल्लऽ पों मचा रहे हैं कि बंदर बांट में भागीदार हो सकें)।।124।।

प्रजातन्त्र का आधार है शक्ति प्रतिशक्ति केन्द्र। शक्ति प्रतिशक्ति केन्द्रों में संघर्ष प्रजातन्त्र का आधार है। शक्ति संघर्षों में प्रतियोगात्मक संघर्ष की मात्रा यथार्थतः क्रमशः कम होती चली जाती है और शक्ति प्रतिशक्ति के संघर्ष के कारण सत्ता क्रमशः कमजोर पड़ती जाती है। किसी भी शक्तिशाली राष्ट्र को कमजोर करना है तो उसे प्रजातन्त्र दे दो। आरम्भ में ही धनाधिक्य या धनलूट या अति छोटे राष्ट्रों को छोड़कर विश्व में मात्र एक ही राष्ट्र मलेशिया शायद प्रजातन्त्र के द्वारा पहले से समृद्ध हुआ है। व्यवहार रूप में भी प्रजातन्त्र की चंहुदिशी असफलता सिद्ध है अतः इसकी हत्या आवश्यक है।

प्रजतन्त्र व्यवस्था में राष्ट्र में शक्ति केन्द्रों में संघर्ष उठा पटक की संभावना ही समाप्त कर दी गई है। योग्यता तथा अनुभव की श्रेष्ठता पर आधारित होने के कारण यहां स्वस्थ प्रतिद्वंद्विता है। शक्ति की उत्तरोतर वृद्धि का नाम है प्रजतन्त्र।।125।।

प्रजातन्त्र के विषय में एक सशक्त तर्क है कि सरकारें प्रजा के प्रति, शक्ति केन्द्रों के प्रति अनुक्रियात्मक (त्मेचवदेपअम) होती है। बेशक यह सच है कि प्रजातन्त्र में सरकारे प्रजा के प्रति शक्ति केन्द्रों के प्रति अनुक्रियात्मक होती है पर इसमें दुहरा विक्षेप होता है। सरकार कुर्सी कायमता के स्वार्थ को मद्देनजर रखकर अनुक्रियात्मक होती है तथा औसतीकरण तथा निहित स्वार्थता आधार लिए औसत से घटिया प्रजा दबाव समूह के प्रति अनुक्रियात्मक होती है। यह द्वि विक्षेप किसी भी स्थिति प्रजातन्त्र में हटाया नहीं जा सकता अतः प्रजातन्त्र की हत्या आवश्यक है।।126।।

उत्पादकता, गुणवत्ता, नवीनीकरण या उन्मेषीकरण ये वे तीन आधार हैं जो किसी भी संस्थान की उन्नति के लिए आवश्यक हैं। प्रजातन्त्र की विधायी व्यवस्था जो पच्चीस प्रतिशत होते हुए भी पचहत्तर प्रतिशत महत्वपूर्ण है अ) मूलतः उत्पादकता, ब) गुणवता, स) उन्मेषीकरण आधारित नहीं है। और इन प्रत्ययों पर आधरित हो भी नहीं सकती है क्योंकि यह (1) औसत आधारित, (2) किन्तु परन्तु लेकिन आधारित, (3) अल्पमत-बहुमत सरकार आधारित अर्थात जोड़ तोड़ स्थायित्व आधारित (गुणवत्ता आधारित नहीं) (4) चुनावाधारित अर्थात सर्वोच्च पर सर्वाधिक सामान्य योग्यताधारित है। न केवल सरकार वरन सरकार निर्मित आयोग, समितियां, दबाव समूह आदि जो निर्णयों को प्रभावित करते हैं उत्पादन गुणवत्ता, उन्मेषीकरण के प्रत्ययों से परिचित नहीं होते हैं अतः पूरी व्यवस्था में इन तीनों प्रत्ययों का बुरी तरह ह्रास होता है तथा राष्ट्र पतन की ओर अग्रसर होता जाता है।

इसके विपरीत प्रजतन्त्र व्यवस्था का आधार ही उम्र, अनुभव, योग्यता है जिसमें उत्पादकता, गुणवत्ता तथा उन्मेषीकरण का सीधा सत्य स्वीकार-आधार है अतः राष्ट्र का हर व्यक्ति अपनी जगह स्वतन्त्रता के आधार से न्यायोचित पर स्वतन्त्रता का समादर करता है और राष्ट्र उन्नति की ओर ही अग्रसर होता चला जाता है।।127।।

घटिया स्वीकार ही घटिया होने का बीज सूत्र है। सूचना ज्ञान से घटिया होती है तथा हमेशा घटिया ही रहेगी। ज्ञान परिष्कृति है सूचना रूढ़ि है। भारतीय महान संस्कृति में एक भी विचारक, एक भी चिन्तक, एक भी दर्शनकार, एक भी कवि ने अपने बारे में कोई सूचना नहीं छोड़ी है यथा जन्म तिथि, काल विवराणदि पर उनका ज्ञान सर्व विदित ही नहीं सर्व प्रसिद्ध है। इस संस्कृति में व्यक्ति महान ज्ञान से युजित एक छोटा सा पुछल्ला होता था और व्यक्ति ज्ञान भी महान उदात् विश्व कुटुम्ब, धरा अंतरिक्षयान वेद ज्ञानाधारित था। इस महान सांस्कृतिक स्वतः प्रजतन्त्र व्यवस्था के विपरीत पूरा प्रजातन्त्र संविधान प्रथम पृष्ठ उद्देशिका तथा कतिपय नीति निर्देश तत्वों को छोड़ तथा इने गिने अधिकार प्रावधानों को छोड़ ठेठ सूचनात्मक है। प्रजातन्त्र व्यवस्था में भी तिथीकरण सूचनाकरण इतिहासीकरण की घोर प्रवृत्तियां यत्र तत्र सर्वत्र फैली हैं तथा फैलती जा रही हैं। एक सौ साठ पृष्ठों के प्रतिदिवस छपते सैकड़ों हजारो पेपर बड़ी मुश्किल से चार प्रतिशत ज्ञानात्मक होते हैं और इन चार प्रतिशत में भी शाश्वत ऋत शृत ज्ञानात्मकता करीब चार प्रतिशत होती है। इतनी घटिया शाश्वत से जुड़ी प्रजातन्त्र व्यवस्था से श्रेष्ठता की उम्मीद कोई महानतम मूर्ख ही कर सकता है। जो व्यवस्था पेपरों की है वही दूरदर्शन, रेडियों, फिल्मों, राजनैतिक भाषणों की भी है। ऐसी व्यवस्था से श्रेष्ठतम फल की आकांक्षा कोई महानतम मूर्ख ही कर सकता है और ऐसे महानतम मूर्ख और महानतम धूर्त कई हैं दुनियां में जो प्रजातन्त्र राग गा स्वयं प्रजानन बन प्रजा को चूस चूस, विश्व को आयुध दौड़ भटका, चका-चौंधी उपभोगवाद छितरा, विश्व की आधी जनता को भूख, बीमारी, पेयजल हीन दीन अवस्था ढ़केल चुके हैं। इन मूर्खों धूर्तों की हत्या करने के लिए प्रजातन्त्र की हत्या करनी आवश्यक है।।128।।

जिस व्यवस्था आदमी जी नहीं सकता टैक्सों, कानूनों, प्रजाननों, चुनावों, उपभोगों, विज्ञापनों, प्रदर्शनों, हड़तालों, नारों, जुलूसों, भोपुओं के शोर शराबे धूल झंझाड़ भरे अंघड़ों में और निरर्थ अंघड़ों में है उस व्यवस्था का नाम है प्रजातन्त्र। आदमी पार्टियों, एम.एल.ए., एम.पी., मन्त्री, नेताओं, छुट-भैयों, कानून, करों, उपकरों के अंघड़ों में एक छोटा सा हवा उड़ता तिनका बौना बना दिया गया है जिस व्यवस्था में वह व्यवस्था है प्रजातन्त्र। आदमी के पास इस व्यवस्था इतनी शक्ति भी नहीं बची है कि वह चीख सके “हाय प्रजातन्त्र” चीख सके।

उच्च पदासीनों की औसत जिन्दगी जीने की गाथा बड़ी करुण है इस व्यवस्था में। औसतः कलेक्टर, कमिश्नर, मिनिस्टर, प्रबंध निदेशक, अधिशासी निदेशक… मैं गवाह, खुदा गवाह, वे गवाह शराब रिलैक्सिंग जिन्दगी जी रहे प्रजातन्त्र के व्यवस्था अंघड़ों द्वारा बौने होने के बाद इस मूर्ख त्रिलोकीनाथ क्षत्रिय ने इन बौनो-छौनों अंघड़ों पिटों से उम्मीद की कि ये “सातंसा” लागू कर देश की उन्नति करेगें, देश को विश्व श्रेष्ठ बनाएंगे। मेरी सारी दौड़ निरर्थ रही। ये तो चीख भी नहीं सकते। ‘हाय प्रजातन्त्र’! ये तो प्रजातन्त्र अंघड़ की धूल हैं जो आम आदमी की आंखों में भी भरी है। आदमी को “स्वतन्त्र वजूद”- आदमी बनाने के लिए प्रजातन्त्र की हत्या आवश्यक है।।129।।

दबाव समूह राजनैतिक दल व्यवस्था प्रजातन्त्र की आत्मा है। दबाव समूह अर्थात निहित स्वार्थपूर्ति के लिए शासन की टांग खींचना। विपक्षी दल तथा पक्ष के विपक्षी (विरोधी) गुट अपने अपने तरीके से शासन की टांग खींचते रहते हैं। कभी कभी भूमिका बदल जाती है और शासन पलट जाने पर दूसरे दल टांगखेंचू की भूमिका अदा करने लग जाते हैं।

संसद केकड़ों से भरी टोकरी है। जहां इराले निराले टांगखेंचू केकड़े एकदूजे के ऊपर चढ़ते टांग खींचते रहते हैं। टांगखेंचू संसद विधानसभा व्यवस्था की हत्या करने के लिए प्रजातन्त्र हत्या कीजिए।।130।।

मूर्ख को संस्कृत में ज्ञानलवदुर्विदग्ध कहते हैं। अंश जानकर स्वयं को गहन कठिन निपुण माननेवाले का नाम ज्ञानलव दुर्विदग्ध है। सूचना विस्फोट के मूर्ख प्रजातन्त्र में टी.व्ही., इंटरनेट आदि से अंश सूचना प्राप्त व्यक्ति अपने आप को ज्ञानी मान लेता ज्ञानलवदुर्विदग्धम् होता है।

भर्तृहरी कहते हैं अज्ञानी को सरलतापूर्वक समझाया जा सकता है। ज्ञानी को और भी सरलतापूर्वक समझाया जा सकता है। पर ‘ज्ञानलवदुर्विदग्ध’ को साक्षात ब्रह्मा भी सच नहीं समझा सकते। ऐसे प्रजातन्त्र की हत्या करो तत्काल।।131।।

प्रजातन्त्र में आम लोगों के आम मतों से जीता आम व्यक्ति जो ज्ञानलवदुर्विदग्ध होता है। सांसद, मन्त्री, प्रधानमन्त्री रूप में आप्त (सच वचन) मान लिया जाता है तो वह ‘दुर्विदग्धं ज्ञानलव’ भाषा बोलता है। और करेला नीम चढ़ा ऊपर से काढा पका या पीतल पानी चढ़ा या गिलट गहने बना हो जाता है। ऐसा व्यक्ति अतिज्ञानलवदुर्विदग्ध होता है। यह प्रजातन्त्र की निश्चित परिणति है।

प्रजातन्त्र में किसी भी व्यक्ति को सच समझाना असम्भव होता है। मन्त्री, प्रधानमन्त्री को तो सर्वथा असम्भव धरा पर सच पनपाने के लिए प्रजातन्त्र हत्या आवश्यक है।।132।।

घटिया की बढ़िया से निरपेक्षता है प्रजातन्त्र। हर दर्शन पुस्तक संविधान से बेहतर है। गीता, पिट्टक, उपनिषद, वेद, श्रौत स्मृति ग्रंथ संविधान से बेहतर हैं। और तो और कबीर नानक रचनाएं संविधान से बेहतर हैं कि ये श्रेष्ठ पंहुच व्यक्तियों के द्वारा गढ़ी गई हैं, उतारी गई हैं। और प्रजातन्त्र संविधान है धर्म-निरपेक्ष। स्पष्ट है बढ़िया निरपेक्ष घटिया सापेक्ष है प्रजातन्त्र। वेद, गीता, दर्शनों, पिट्टकों, उपनिषदों, स्मृतियों, श्रौतों की कसम है तुम्हें प्रजातत्र की हत्या करो। बढ़िया की प्रस्थापना करो। प्रजतंत्र है बढ़िया।।133।।

राजनीति एक छोटा सा टुकड़ा है जीवन का। अनुशासनबद्ध जीवन लक्ष्य है सुख तथा आनन्द। प्रजातन्त्र शब्द प्रजा शब्द डालकर हर व्यक्ति में प्रत्यारोपित निरर्थ प्रत्यारोपित कर दी जाती है राजनीति जो धर्म से कहीं कहीं घटिया कमतर है। बेसरोकार ढेरों से सरोकार निरर्थ रखने लगता है आदमी तथा समय, ज्ञान, बुद्धि को बर्बादी के कगार पर ले आता है। ऐसे में घटिया सोचों के जोरदार विस्फोट होने लगते है समाज में। गिनीज बुक आफ रिकार्ड जैसी वाहियात (अति कम अंश हयात) चीजो का जन्म होता है। एनिना बाइस वर्षीया तन्वी, गौरा, सुगढ़ी, मॉडल जर्मनी की फुटबाल टीम के साथ जुड़, उसकी विजय पर क्रमशः विवस्त्र होने की सोचने लगती है। दो असन्दर्भित, अलग अलग क्षेत्रों को जोड़ा जाने लगता है। इससे राज तो सशक्त होता है पर ‘नीति’ का कचूमर निकल जाता हैं। और कालांतर में राज का भी कचूमर निकल जाता है। और प्रजतन्त्र व्यवस्था में राजनीति के राज + नीति दोनों को स्वस्थ सशक्त तथा प्रजा को भी स्वस्थ तथा सशक्त करना स्व गठित है। इसलिए प्रजातन्त्र की हत्या तथा प्रजतन्त्र की स्थापना हर व्यक्ति का दायित्व हैं।।134।।

उस घाट का नाम है “निगमबोध स्मशान” जहां एक उच्च सुसज्जित चबूतरा बना हुआ है। जो मृत्यु पश्चात ऊंचे लोगों के ऊपर जाने का रास्ता है। यहां लाश जलने से शायद मृत्यु पश्चात भी नेताओं को- अभव्यों को अभव्य-पद ही प्राप्त होता है। इस पूरे निगम घाट क्षेत्र में यह चबूतरा सबसे ऊंचा है इसीलिए सबसे ऊंचे लोगों के जलने के लिए यह आरक्षित किया गया है। अभी मन्त्र और रूढ़ियां इस चबूतरे के लिए अलग नहीं हुई हैं कल कोई सिरफिरा राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री चमचा इनमें भी अलगाव डाल सकता है।

निगम कहते हैं वेद को वेद गहन गुहा में आत्म परमात्म साक्षात्कार दौरान प्राप्त होते हैं। “निगमबोध” अतिआत्म और आत्म मिलन अहसास की अनुभूति का नाम है, जहां परम समत्व है, चरम एकत्व है। प्रजातन्त्र तेरा नाम दरारें तूने इतने गहन, इतने उच्च नाम भी दरारे डाल दी हैं।

श्मशान घाट अधिकारी के इस चबूतरे पर जलने वालों के बारे में कथन हैं कि “जो भी थोडा वजन रखता है इस चबूतरे पर जलता है”। और क्यों न जले अभव्य (अति महत्वपूर्ण व्यक्ति) खाते-पीते घरों के जो होते हैं, अतः उनकी लाश वजनी होती है। मैंने देखा है इन लाशों को चार नहीं छै-आठ कन्धों की जरूरत पड़ती है। अन्त्य क्रिया समझदार लोग पहले ही कह देते हैं- “अरे भाई! आदमी खाते-पीते घर का था जरा मोटे बांस की अर्थी बनाना।”

“ऊंचे जलो ऊंचे मृत्युलोक जाओ”- नया मुहावरा प्रजातन्त्र-युग का! फिल्मी सितारे, एम.पी., एम.एल.ए., महत भारी व्यापारी तथा इनके सगे सम्बन्धी वजनी लोग ऊंचे लोग हैं। जिनकी लाशें ऊंचे चबूतरे जलाई जाती हैं। इस चबूतरे पर केवल अभव्यों के लिए- ओनली फॉर व्ही.आय.पी. बोर्ड स्वघोषित अभव्य लाश जो वाल्मीकी बस्ती के एक महापुरुष की थी के जलाते समय भीड़ ने उखाड़ फेंका था। एक और बार एक जज की माता की लाश सौभाग्य से यहां जल सकी थी। वह इसलिए कि शिकायत पर लाश हटाने पुलिस जब दल बल सहित पहुंची तो लकड़ी सेज में आग लग चुकी थी। श्मशान घाट पुरोहित श्री शिवशंकर को चेतावनी के साथ ये निर्देश दिए गए हैं कि निगमबोध चबूतरे पर भविष्य में नॉन व्ही.आय.पी. मुर्दा न जलने पाए।

प्रजातन्त्र में जातिवाद गुनाह है। अभव्यवाद या व्ही.आय.पी.वाद जिन्दाबाद है। मेरी शिकायत है प्रजातन्त्र से यह अन्याय है प्रजातन्त्र का कि आम आदमी और अभव्य के मध्य जीवितावस्था दो सौ लाख रुपए सुरक्षा व्यवस्था की दीवार है, पर लाशावस्था में मात्र ऊंचे श्मशान भर का अन्तर है। ये अन्तर और बड़ा करने के लिए संविधान में पच्चासिवां संशोधन होना चाहिए।।135।।

एक कुत्ता गली में बहुत ज्यादा निरर्थ भौंक रहा था। दूसरे कुत्ते ने उससे कहा-गली को संसद समझ लिया है क्या? जिस संसद में कुत्तेवत भौंकने की, कौओंवत कांव-कांव करने की, सियारवत हुआ-हुआ करने की, भेड़वत बें-बें करने की, बंदरवत उछल-कूद करने की खुली छूट हो तथा लोग भी यही करें, उस व्यवस्था को तो एक पल भी धरा पर नहीं रहना चाहिए।

व्यक्तिगत जीवन में यीशू या अल्लाह या नानक या ओंकार या महावीर या बुद्ध जीने वाले लोगों को प्रजातन्त्री संविधान नौकरी, नागरिकता, राजनीति, सामाजिकता में धर्म-निरपेक्ष या धर्म-तटस्थ समझता है। महामूर्ख है प्रजातन्त्र! जिसे मूलतः नीला, हरा, लाल, पीला रंग सफेद नजर आता है इसलिए भी प्रजातन्त्र की हत्या करनी आवश्यक है।।136।।

वार्ड में एक पार्टी का पार्षद, दूसरी पार्टी का नगरपालिका शासन, तीसरी पार्टी का एम.एल.ए., चौथी पार्टी का प्रान्तीय प्रशासन, पांचवी पार्टी का सांसद, छठी पार्टी का केन्द्र राज्य और नागरिक ने वोट भी नहीं दिया। यह प्रजातन्त्र संभावना सिद्धान्त का कचूमर निकाल देती है, कीमा बना देती है। खुदा बचाए ऐसे प्रजातन्त्र से।।137।।

गिरती सरकारों से, साझा सरकारों से, बार-बार चुनावों से परेशान है भारत-प्रजातन्त्र। बेअक्ल प्रजातन्त्र निर्दलियों को चुन उनकी पांच साल सरकार क्यों नहीं बना लेता? बनाए भी कैसे? सारे समाचार-पत्र, सारे संवाददाता, दागित, छापित पशुओें की भीड़ है। जड़ प्रजातन्त्र नें आदमी को दागित पशु कर दिया है। इसलिए आदमी को आदमी करने प्रजातन्त्र की हत्या आवश्यक है। निर्दलीय जो आदमी है प्रजातन्त्री पार्टी दागित पशुओं के सामने हर चुनाव पानी भरते हैं। पशु-पसन्द है प्रजातन्त्र, इसे आदमियत की पहचान ही नहीं हैं।।138।।

अमृत, दूध, पानी, कीचड़, जहर को समान कहने की धर्म-निरपेक्षता का नाम है प्रजातन्त्र। ऐसा समान मिश्रण आदमी के खाने योग्य ही नहीं है। आदमी मारने की व्यवस्था है प्रजातन्त्र। अरे आदमियों इसकी हत्या करो न!।।139।।

बहुमत का मजाक है प्रजातन्त्र। पूरे विश्व में करीब साठ प्रतिशत लोग मत देते हैं। इसके पच्चीस प्रतिशत पानेवाली पार्टी जीत जाती है। जीतने वाली पार्टी के पचास प्रतिशत लोग जीतते हैं। इनकी शासन व्यवस्था होती है। इस सरकार के निर्णय सब पर लागू माने जाते हैं। यह सरकार 7.5 प्रतिशत जीते क्षेत्र लोगों की भर होती है। फिर भी तुर्रा यह कि प्रजातन्त्र बहुमत शासन है। बहुमत का मजाक है प्रजातन्त्र।।140।।

वेद-वाक्य है “दादुर” (मेंढक) वत भाषणकर्ता हों तो राष्ट्र नष्ट हो जाता है। प्रजातन्त्र में टर्राहट की स्वतन्त्रता है। हर कोई टर्रा सकता है। कुछ भी टर्रा सकता है। परिणामतः प्रजातन्त्री राष्ट्र नष्टता की ओर अग्रसर है। प्रजातन्त्र हत्या कर इस नष्टता को बचाएं।।141।।

प्रजातन्त्र व्यवस्था अपने आप में लचर पचर है। राष्ट्रीय स्तर पर मेनन जीप काण्ड लचर पचर, हवाला लचर पचर, बोफोर्स लचर पचर, चारा घोटाला लचर पचर नमूने स्पष्ट हैं।

क्या प्रजतन्त्र द्वारा इस लचर पचर का इलाज किया जा सकता है? अमेरिकी प्रजातन्त्र में मोनिका लेवेन्स्की लचर पचर थी। प्रजतन्त्र “आपस शाश्वत न्याय” आधारित होने के कारण लचर पचर नहीं है। अतः प्रजातन्त्र को प्रजतन्त्र द्वारा विस्थापित करना ही होगा।

यह प्रजातन्त्री मूर्ख कानूनों की ही मानवताहीन देनें हैं कि गरीबों के प्रति, सड़क आहतों के प्रति, घर कार्य करती बाइयों के प्रति, झोपड़पट्टी-वासियों के प्रति (अपनी जमीन पर मानवता के नाते अगर किसी को किसी ने रहने दिया सरकार जो मूर्खतम है ने उसकी जमीन ही छीन लेगी और उसे दे देगी) निर्धनों के प्रति लोगों में मानवता भावना समाप्त हो गई है। “उपकार” की जगह घिनौनी “कर” “मुफ्त बांट” “स्वार्थ बांट” “कुर्सी स्वार्थ बांट” व्यवस्था का नाम है प्रजातन्त्र। मानव मानव संबन्धों को तोड़ने की व्यवस्था है प्रजातन्त्र। अतः इसकी हत्या करना आवश्यक है। प्रजतन्त्र व्यवस्था प्रतिशत (सम) कर सम सुविधा व्यवस्था का नाम है अतः मानवता वादी है, न्यायवादी है।।142।।

प्रजातन्त्र भयानक औसतीकरण है। औसतीकरण सूत्र उलट देता है। बढियाकरण नहीं घटिया कारण ही करता है। कभी जीवन उक्ति माता पिता बच्चों को बताते थे।

पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब।
खेलोगे कूदोगे बनोगे खराब।

प्रजातन्त्र ने वास्तव में उक्ति उलट दी है-

खेलोगे कूदोगे बनोगे नवाब।
पढ़ोगे लिखोगे बनोगे खराब।

खेल कूद नवाब कपिल, गावस्कर, अजहर, सचिन, कौड़ी कौड़ी दिमाग कितने बड़े नवाब और पढ़े-लिखों का कोई नहीं जानता रिकार्ड।

सारे विद्यासागर, विद्यापति, सूर, मीरा, तुलसी, नानक छान रहे हैं खाक। कपिल, गावस्कर, सचिन बनें हैं खूब नवाब। प्रजातन्त्र ज्ञान का है खाना खराब।

फिल्म जगत को वेश्या जगत माना जाता था गुणवत्ताहीनता के कारण मूल्यहीनता के कारण। आज उसकी गुणवत्ताहीनता मूल्यहीनता बढ़ी है। औसतीकरण के घटियाकरण नियम के कारण आज कोई भी समाचार दूरदर्शन के फिल्मों के वेश्या जगत गणिका जगत के बिना चल ही नहीं सकता है। गणिका जगत जिसमे नायक भी गणिका भूमिका निभाने लगे हैं मानित सरमानित हैं जिस व्यवस्था में। और प्रकाशित, उजारित, प्रतिष्ठित हैं तथा रहेगें भी उस व्यवस्था का नाम है प्रजातन्त्र। अतः इसकी हत्या आवश्यक है।

औसतीकरण के घटियाकरण से मानवता को बचाने के लिए प्रजातन्त्र की हत्या करना आवश्यक है।।143।।

माधुरी दीक्षित पर हुसैन फिदा।
माधुरी दीक्षित ने हुसैन लिया भुना।।
यह भी है प्रजातन्त्र व्यवस्था।।144।।

निरर्थ कष्टदायक खांचो, फार्मों, कागजों, दस्तावेजों, स्टाम्प पेपरों, रिकार्डों का पुलिंदा है प्रजातन्त्र। यह सारा का सारा ढांचा आदमी पर अविश्वास की उपज है। इस सारे के सारे ढांचे ने आदमी को ईमानदार नहीं बेइमान ही किया है। प्रजातन्त्री न्याय प्रक्रिया तो इतनी चूं-चमर है कि कल किसी के खाली घर सरे आम कोई आदमी गुंडागर्दी करके घुस जाए तो आम आदमी क्या पढ़ा लिखा समझदार आदमी भी उसे खाली नहीं करा सकता न वह घर वापस पा सकता है। मेरे सुपेला खरीदे घर के साथ ऐसा हो चुका है। खांचो फार्मों के कारण प्रजातन्त्री आदमी झूठों का पुलिंदा बना दिया गया है। अपरा वाक् को कागजे वाक् करता है प्रजातन्त्र। अपरा वाक् है विश्वास, कागजे वाक् है अविश्वास। अविश्वास आस्था पर टिका है प्रजातन्त्र। कागजे वाक् का विरोधाभासी किन्तु-परन्तु पुलिन्दा है प्रजातन्त्र। इसलिए इसकी हत्या जरूरी है। प्रजतन्त्र में आधार सत्य है अपरा वाक् “आत्मवत”। कागजे वाक् इस “आत्मवत” का है सहायक।।145।।

गीता, कुरान, बाईबिल की कसम खाने के सच आधारित न्याय व्यवस्था चाहे किसी ने इन्हें पढ़ा भी न हो लचर प्रजातन्त्र की उपज है। परिणामतः लोग रोज मरते हैं कि बाईबिल, कुरान तो पहले ही मुर्दा ग्रन्थ हैं, गीता भी सीमित है। गीता युद्ध, मारने, मरने का आत्मज्ञान है। जीवन युद्ध मरना मारना नहीं वरन यहीं मोक्ष जीना है। मूर्ख प्रजातन्त्र व्यवस्था धर्म निरपेक्षता को संविधान की आत्मा रखती है और इसकी न्याय व्यवस्था में बाईबिल, कुरान, गीता की कसम आधार बनी हुई है। ऐसी लागू मूर्खताओं की हत्या के लिए प्रजातन्त्र की हत्या करना आवश्यक है।।146।।

मताधिकार से उम्र न्याय नहीं हो सकता, उपाधि न्याय नहीं हो सकता, शिक्षा न्याय नहीं हो सकता। इससे शिक्षा घटाई नहीं जा सकती, बढ़ाई नहीं जा सकती। स्व अर्जित उपाधि घटाई बढ़ाई नहीं जा सकती। अतः यह व्यवस्था ही अन्याय व्यवस्था है। क्यों कि इसमें विधायी व्यवस्था में इन सारे पद के मूल अधिकार न्यायों का सरासर उल्लंघन है। इसलिए इसकी हत्या आवश्यक है, ध्यान रहे तीव्र कांटोंवाले विचार गुलाब सबसे कोमल तथा अधिक खुशबूदार होते हैं।।147।।

अधिकारी व्यवस्था का ठेठ कर्तव्य विहीन पुलिंदा है प्रजातन्त्र। कर्तव्यहीन अधिकारी पुलिंदा एक शब्द में छुट्टे सांड को कहते हैं। छुट्टे सांडों का नंगानाच है प्रजातन्त्र। बुलेटप्रुफ कारों, हवाई जहाजों, ए.सी.प्रथम बत्तियों, हाईपॉवर ब्रेकों, सेफ डिस्टेंसों, हजारों टेलीफोनो, बड़े बड़े बंगलों, ए.सी. बंदरबाटों के पैरो से जनता को और सबसे ज्यादा प्रतिजन को रौंदते सांडों का नंगानाच है प्रजातन्त्र। इसलिए इसकी हत्या करना जरूरी है। मैने इन सांडों तथा उनके अनाधिकृत चमचों उपसांडों के साथ कई-कई बार घुटते घुटते ए.सी.प्रथम ए.सी. में सफर किया है। और बाइबिल की भाषा में इन “सुअरों” के द्वारा विचार-मोती रौंदे जाते देखें हैं। यही नहीं इन्हीं सुअरों को कुविचार कीचड़ जो मेरे परिचितों ने इन्हें बार बार परोसा भी खाते देखा है। और ये सारे कर्तव्यहीन मौज मस्त हैं। इन सबकी हत्या का पथ है कर्तव्यहीन अधिकार पुलिंदा जला देना। आओ प्रजातन्त्र जलाएं; नव प्रभात प्रजतन्त्र लाएं।।148।।

विज्ञान कहता है चीख-चीख कर कहता है प्रजातन्त्र की विचार स्वतन्त्रता महा घातक पातक, नाशक व्यवस्था है। विचार का विज्ञान मिल्टन, हाब्स, मैकियाविली, रूसो, मार्सीलोवा दा पादुआ, अब्राहम लिंकन आदि आदि को नहीं मालूम था। इसीलिए उन्होंने मूर्खतापूर्ण प्रजातन्त्र की स्थापना हेतु अपने विचार दिए।।149।।

शत ट्रिलियन कोषिकांए तन की इनमे से पन्द्रह ट्रिलियन मस्तिष्क की, और संवेदन तन्तुओं से जो संख्या में सहस्त्र ट्रिलियन आयनों से यह मानव संचार व्यवस्था बनी है। इसके साथ हर कोषिका की झिल्ली में तस्तरी नुमा आणविक संग्राहक लगे हैं सैकड़ों हजारों की संख्या में, जो कोषिका की डी.एन.ए. व्यवस्था से युजित है। यह भौतिक सत्य है कि शुभ विचार संवेदनतंतुओं के मध्य से गुजर कर आणविक व्यवस्था द्वारा कोषिका संवर्धन, विभाजन निष्कासन द्विगुणन करता है कार्य में शान्तन, व्यवस्थापन, संयमन उत्पन्न करता है। इसी प्रकार अशुभ विचार या नकारात्मक विचार संवेदनतन्तुओ से गुजर कर मूल डी.एन.ए. में अशांतन, अव्यवस्थाकरण, आवेगन, उत्पन्न करता है। इक्कीस मिनट तक के समय की सकरात्मक या नकरात्मक सोच डी.एन.ए. पर स्थायी रूप से अंकित होकर कालांतर के कार्यों को प्रभावित करती रहती है। स्पष्ट है विज्ञान “नकरात्मक सोच” की हत्या करना चाहता है।

प्रजातन्त्री समाचारपत्र, दूरदर्शन, रेडियो, संसद, विधान सभाएं, आदि सब नकरात्मक सोचों के महासागर हैं। ये जीन स्तर मानव को घिनौने रूप से विकृत करते चले जा रहे हैं। यही कारण है कि प्रजातन्त्री मानव विश्व का सबसे घटिया मानव है। घटियापन के महासागरों से सृष्टि को बचाने के लिए “विचार स्वतन्त्रता” के घातक-पातक नाशक को “शुभ विचार स्वतन्त्रता मात्र” में बदलना होगा। इसके लिए प्रजातन्त्र की हत्या एवं प्रजतन्त्र की स्थापना आवश्यक है। तभी जीन स्तरीय बीमार, रोगी, अस्वस्थ जनों की भरमार को रोका जा सकता है।।150।।

एकपल स्थिति निर्णय से वर्षाधिक्य स्थिति निर्णय की हत्या की योजना है प्रजातन्त्र! इसलिए किसी भी मायावती या मायापति की माया से कोई भी सरकार कभी भी गिर सकती है, बन सकती है, बन गिर सकती है। प्रजातन्त्र एक हास्य व्यवस्था है, मसखरी व्यवस्था है। इसकी हत्या अत्यावश्यक है।।151।।

तटस्थता न्यायदृष्टि जो न्याय दर्शन से मिलती है की ही हत्या है प्रजातन्त्र। न्याय श्रेष्ठतम संकल्पना है। प्रजा औसततम संकल्पना है। इन दोनों में कोई भी कहीं भी मेल नहीं है। प्रजातन्त्र भयानक बेमेल है। इसमें हरपल न्याय की हत्या ही हत्या है। इसमें और तो और वचन भंगों की भरमार है। एक आम आदमी अपने जीवन में प्रजातन्त्र जितना घटिया न्याय, उसकी जितनी घटिया वचन भंगता एक पल भी नहीं जीता, न जी सकता है। हरेक ‘प्रज’ प्रजातन्त्र से श्रेष्ठ है। अतः प्रजातन्त्र की इसी क्षण हत्या आवश्यक है।।152।।

हजार करोड़ बी.ए. मिलकर एम.ए. की कक्षा को नहीं पढ़ा सकते। एक पी.एच.डी. पढ़ा सकता है। वाह रे प्रजातन्त्र! यहां तो कई कई बार नॉन मॅट्रिक गण या प्रधानमन्त्री या मुख्यमन्त्री या शिक्षामन्त्री डी.लिट शिक्षानीतियां तय करते हैं। शाश्वत शिक्षा यथार्थ विज्ञान का कचूमर है प्रजातन्त्र, अब तो इसका कचूमर निकालो!।।153।।

नैतिकता व्यक्तिगत तथा सामाजिक प्रत्यय या अवधारणा है। यह व्यक्तिगत अधिक है। हर व्यक्ति अपनी नैतिकता के लिए स्वयं जिम्मेवार है। और यह जिम्मेवारी आत्मबल से आती है। नैतिकता के लिए जिम्मेवारी न लेना प्रजातन्त्र में आम है। क्योंकि प्रजातन्त्र में नैतिकता सामाजिकता से जोड़ दी जाती है। कितना दुःखद तथ्य है हरिशंकर परसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, खुशवंतसिंह जैसे लोग अपने आप को ब्रह्मचारी के स्थान पर अविवाहित कहने में और वह भी भारत जैसे देश में गौरवान्वित समझते हों तथा स्व सम्बन्धों के नाम उजागर करते डरते हों तो इसे नैतिकता की जिम्मेवारी का दीवाला नहीं तो और क्या कहा जाएगा? ऐसा नैतिकता दोगलापन प्रजातन्त्र में ही मिल सकता है। इसलिए प्रजातन्त्र को प्रजतन्त्र से पीटना ही होगा(?) क्या अटल, परसाई, खुशवंतसिंह अपने परिवार के सदस्यों को ऐसे रिश्तों की इजाजत दे सकते हैं? क्या सामाजिकता के रूप में ऐसे रिश्ते स्वीकारे जा सकते हैं? नहीं! इसलिए प्रजातन्त्र की हत्या आवश्यक है।।154।।

प्रजातन्त्र सरताज है अमेरिका, प्रजातन्त्र रखवाला है अमेरिका, वर्तमान में प्रजातन्त्र पिता है अमेरिका। जरा वहां की नैतिकता का जायजा लिया जाए-

मेनचेस्टर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर केरी कूपर मनोविज्ञानी सत्ता और प्रेम (ठेठ वासना) के सम्बन्ध में कहते हैं कि “ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यदि कोई पुरुष सत्ता में है तो उसकी ओर महिला का आकर्षित होना सहज प्रवृत्ति है। वहीं पुरुष सत्ता पाते ही इतना ऊर्जावान हो जाता है कि वह इसका प्रदर्शन अनेक तरह से करता है। जैसा कि अमेरिका में सामने आता रहा है।”

प्रोफेसर केरी कूपर को गीता का ‘ग’ या धर्म का पहला अक्षर ‘ध’ भी अगर मालूम होता या हो जाए तो वे मनोविज्ञान में नवजात शिशु हो जाएंगे। नैतिकता व्यक्तिगत प्रत्यय है। व्यक्ति पतन या नैतिकता उल्लंघन उर्फ अनैतिकता या मर्यादा उल्लंघन खा जाती है जो उल्लंघनकर्ता को का सत्य यह है कि इसका आरम्भ विषय ध्यान से होता है, जो व्यक्ति करता है। फिर संग की इच्छा होती है। संग से काम की इच्छा होती है। काम से क्रोध होता है। क्रोध से सम्मोह होता है। सम्मोह से स्मृति भ्रंश होता है। स्मृतिभ्रंश से बुद्धिनाश तथा बुद्धिनाश से सर्वनाश होता है।

बुद्धिनाश अवस्था का यथार्थ है वर्तमान अमेरिका राष्ट्रपति बिल क्लिंटन का घर। तथा उसकी प्रेमिका मोनिका लेवेंस्किी का मानस। बिल क्लिंटन (एक बिल में एक टन क्लिष्ट वृत्तियां) हो गए फिसलन और मोनिका लेवेंस्की लव-अक्सी फिर ध्यायतो विषयान से, संग से, कामेच्छा, क्रोध, सम्मोह, स्मृतिभ्रंश भोगते ये आ पहुंचे हैं बुद्धिनाशावस्था तक। जॉर्ज वॉशिंग्टन के मेरी गिब्सन के साथ, थॉमस जेफरसन के वैधानिक पत्नी अतिरिक्त उनकी श्यामला नौकरानी तथा उससे उत्पन्न सन्तानों के साथ, वुड विल्सन का विवाहित महिला मेरी हल्बर्ट के साथ, वॉरेन हार्डिंग का उनसे तीस वर्ष छोटी नॉन ब्रिटेन के साथ तथा पूर्व जीवन के मित्र की पत्नी के साथ, फ्रेंकलिन रुजवेल्ट अपनी सचिव मिस्सी लेहैंड तथा नॉर्वे की राजकुमारी मार्ता के साथ, डिक्ट आइजन हावर अपने ड्राइवर केय समर्सवाद, जॉन एफ.केनेडी (वासना सरताज) मर्लिन मनरो, एन्जी डिकिन्स श्लेज, जूडिथ एक्सनर कॅम्पबेलतथा दो सचिव महिलाओं के साथ ध्यायतो विषयान से क्रमशः सारे खेल खेले। ये सारे प्रजानन थे, प्रजातन्त्र उपज थे तभी तो दशानन से कहीं कहीं घिनौने थे। इनकी तुलना में महापूजनीय है दशानन जिसने सीता से मात्र ध्यायतो विषयान तक का ही संबंध रखा था तथा उसे पवित्र रखा था। क्या इतने राष्ट्रपतियों के से अवैध संबंधों को समाज में सरे आम किया जा सकता है तो समस्या उठ खड़ी होगी कि कौन किसकी मां और कौन किसका बाप? हा प्रजातन्त्र! हा प्रजाननवाद! मैं तेरी हत्या कर रहा।

बुद्धिनाशावस्था का वर्णन भी आवश्यक है। बिल क्लिंटन बुद्धिनाश प्रमाण- 1. अदालत को गुमराह करना, उसमें अस्तव्यस्त व्यवहार, 2. झूठा शपथपत्र, 3. अदालत में झूठ, 4. अदालत में मजबूरन सच, 5. प्रेमिका मोनिका लेवेंस्की विडम्बना, 6. पत्नी हिलेरी रोधाम क्लिंटन विडम्बना। पत्नी हिलेरी रोधाम क्लिंटन बुद्धिनाश प्रमाण- 1. लेवेंस्किी को “नन्ही कुतिया” गाली, 2. लेवेंस्किी को “नन्ही वेश्या” गाली, 3. मैं तो चाहती हूं लेवेंस्किी का गला घोट दूं कहना, 4. बिल क्लिंटन से उन्होंने कहा- “तुम महामूर्ख हो तुमने अपने हवस के कारण अब तक के सारे किए कराए पर पानी फेर दिया, तुम इतिहास में ऐसे राष्ट्रपति के रूप में याद किए जाओगे जो अपनी पैण्ट की जिप नहीं लगाकर रख सकता था।”, 5. हिलेरी बिल की बहुचर्चित कामुकता की अभ्यस्त थी पर उसने कहा बिल ने अब तक का सबसे खराब काम किया है कि उसने 11 वें कमांडेट का उल्लंघन कर दिया है जिसमें वर्णित है कि दाऊ शाल नॉट गॉट (तुम पकड़े नहीं जाओगे), 6. हिलेरी द्वारा मोनिका को बदनाम करने के लिए प्रायवेट जासूसों से काम लेना, 7. वह समझती थी कि बिल की वासनात्मक खर मस्तियों में वह दम नहीं रह गया लेकिन मोनिका इतनी युवा है, 8. उसने कहा बिल को मोनिका में कौनसी खूबी नजर आई जो वह उस पर मर मिटा। मोनिका लेवेंस्की का बुद्धिनाश- 1. लेवेंस्की ने कम से कम ग्यारह लोगों को अपने प्रेम के बारे में बता दिया था, 2. क्लिंटन को उसने बता दिया था कि उनके प्यार के बारे में कोई नहीं जानता, 3. उसके प्यार का उद्देश्य अच्छी स्थायी नौकरी था, 4. वह क्लिंटन की धर्मपत्नी बनना चाहती थी, 5. उसने कइयों के सामने अपनी कामक्रीडाओं का विवरण दिया, 6. वीर्यदाग पैंट सम्हालकर रखना, 7. मोनिका ने हिलेरी को “ठंडी वेश्या” कहा, 8. उसने कहा कि वासनापूर्ति के लिए बिल को दूसरी औरतों की तरफ ढकेलने के लिए स्वयं हिलेरी ही दोषी है, 9. मोनिका ने हिलेरी को कहलवाया कि “अगर तुम इतनी ठंडी कुतिया न होती तो बिल मेरी बाहों में शरण न लेता”, 10. उसने कहा कि बिल के साथ मेरे संबंधों के लिए ठंडी हिलेरी ही जिम्मेवार है, 11. उसने कहा बिल तो बस एक स्वस्थ पुरुष है जिसे एक महिला की आवश्यकता होती है।

इसके सिवाय बिल क्लिंटन ने मोनिका से कहा कि हिलेरी के साथ उसका विवाह नीरस है। उसने उसके (हिलेरी के) कथित अतिक्रमणों के लिए दिल से माफ नहीं किया है तथा बिल क्लिंटन नें हिलेरी द्वारा दूसरी डेट पर भेंट दी पुस्तक “लीग्स ऑफ ग्रास” वॉल्ट व्हिटमॅन रचित भेंट में मोनिका लेवेंस्किी को दे दी।

यह सब का सब बचकाना जानवरी बुद्धिनाश है जो प्रजातन्त्र की उपज है। और वाह प्रजातन्त्र! आह प्रजातन्त्र!! ओह प्रजातन्त्र!!! बिल क्लिंटन नें कहा मैं अधिक नैतिक शक्ति से नेतृत्व कर सकता हूं। और अमेरिकी प्रजातन्त्र में बिल के मित्रों, सरकारी अफसरों, अधिकारियों नें उन्हें बचाने के लिए नए सिरे से प्रयास शुरु कर दिए हैं। हा सर्वनाश! तू बुद्धिनाश से कितना दूर है। हे भारतवासियों भारत को अमेरिका बनाने से पहले ही प्रजातन्त्र की हत्या कर दो।।155।।

और वाह प्रजातन्त्र तू अभी तक निर्णय अनिर्णय में फंसा है। नैतिकता अनैतिकता पर प्रजा का मत पचास पचास, चालीस साठ ढूंढ़ रहा है। और किसी भी राष्ट्र के किसी भी नेता नें विश्व के किसी भी कोने में बिल क्लिंटन पर मोनिका लेवेंस्की पर एक टिप्पणी भी नहीं की? क्या सारे के सारे…..? उफ प्रजातन्त्र…. इतना घटिया! अब खुद मर जा न!।।156।।

और भी हाय हाय प्रजातन्त्र! संयुक्त राष्ट्र में सारे प्रजातन्त्र प्रमुख इकट्ठे हुए थे। संयुक्त राष्ट्र संघ की दूसरे दिन की सभा थी जिसमें बिल क्लिंटन का भाषण था तथा ठीक उसी समय अमेरिका में सी.एन.ए. तथा अमेरिका चैनल पर लेवेंस्की सेक्सकाण्ड पर बिल क्लिंटन की गवाही का प्रसारण किया जा रहा था। विश्व नेता सब देख रहे थे और बिल क्लिंटन जब भाषण देने के लिए उठे तो सारे प्रजातन्त्र अध्यक्षों नें जोरदार तालियां बजाकर उनका स्वागत किया।।157।।

भयानक शोषण किया है जिन्होंने उन क्रूर अपवाद राष्ट्रों को छोड़कर हर राष्ट्र का विश्व का प्रजातन्त्र रोटी, कपड़ा, मकान से छोटा है। मूर्ख हैं सारे के सारे विश्व प्रजातन्त्र अस्थायी उपयोगित राजभवनों, संसद भवनों, विज्ञान भवनों, आलीशान मन्दिरों, गिरजों, मठों पर इतने इतने अपव्ययों को सहन करते हैं। प्रजाननों, सांसदों, मन्त्रियों, विधानसभा सदस्यों को इतनी महंगी व्यवस्था पालते प्रजातन्त्र को रोटी, कपड़ा, मकान से और छोटा करते जाते हैं वो भी प्रजातन्त्र का नाम ले ले कर तथा अनुमोदन ले ले कर इसलिए प्रजातन्त्र की हत्या आवश्यक है।।158।।

दया, परोपकार, सन्तोष की मूलभूत धर्म भावनाएं अपनाए बिना कोई विधा रोटी, कपड़ा, मकान समस्या पूर्ण रूप से हल नहीं कर सकती है। प्रजातन्त्र वह मूर्ख व्यवस्था है जो अंधी दौड़ की अंधी छूट देकर दया, परोपकार, सन्तोष की मूल भावनाओं के बिना सबके लिए रोटी, कपड़ा, मकान समस्या सुलझाना चाहती है। अतः इसकी हत्या करना आवश्यक है।।159।।

जिस सभा में अधर्म से धर्म, असत्य से सत्य सब सभासदों के देखते देखते मारा जाता है उस सभा में सब मृतक समान हैं। बहुमत आधारित व्यवस्था में यह आम बात है तथा प्रजातन्त्र संविधान में उद्देशिका पृष्ठ का धर्म अन्य धाराओं द्वारा सरासर मारा जाता है और सबके सामने मारा जाता है। अतः प्रजा मृतक समान है। जो प्रजातन्त्र प्रजा को मृतक समान कर देता है उसकी हत्या करना आवश्यक है।।160।।

निन्दा, स्तुति, मान, अपमान, दण्ड से सब अधिकांशतः व्यक्तिगत आधार पर होते हैं। प्रजातन्त्र में सामाजिक आधारों पर ही नहीं वरन प्रजामत आधारों पर या पद आधारों पर इन्हें छोड़ दिया जाता है। यह मानवता के प्रति गुनाह है अतः प्रजातन्त्र की हत्या होनी ही चाहिए।।161।।

प्रजातन्त्र में न्याय मापदण्ड भी भीड़ हो जाता है। बिल क्लिंटन नें- 1) अदालत में झूठी कसम खाई, 2) विवाहित होते रखेल रखी, 3) रखेल को मुकदमा वापसी हेतु सात लाख डॉलर देना प्रस्तावित किया, 4) कार्यालय में ही व्यभिचार कार्यघंटों में किया। और सब मानकर प्रजा की शरणागत हो गए। प्रजा गंगा उनके पाप धोने चली है। प्रजातन्त्र की प्रजा गंगा इतनी मैली है कि हर पापी उससे पवित्र है। “प्रजा-गंगा” सलमानादि के स्पष्ट कानून उल्लंघन पर उनके पक्ष में नारे लगाता है। प्रजातन्त्र उन सबको जेल नहीं भेजता। प्रजागंगा संजय दत्त द्वारा सरे आम ए.के. के प्रयोग पर उसके पिता समेत उसके पक्ष लिखित तथा समूहित वक्तव्य देती प्रदर्शन करती है। प्रजातन्त्र उन्हें कुछ नहीं करता। घोटाले कर्ता प्रजा मत पा पा जीतते हैं। प्रजातन्त्र सर से पांव तक घटिया ही घटिया है कि सारा देश अपराधियों की जेल है। आजादी की कसम है तुम्हें प्रजातन्त्र हत्या करके जेल आजाद करो खुद को भी, मुझे भी!।।162।।

व्यक्ति मद जनता है दशानन। प्रजा मत जनता है प्रजानन।।162।।

रावण तन्त्र कहीं बेहतर है प्रजातन्त्र से। रावण तन्त्र की हत्या की राम ने।।322।।

प्रजातन्त्रा की हत्या तुम करो।।163।।

प्रज हो तुम! प्रति जन हो तुम! स्व हो तुम।।164।।

प्रजतन्त्र गढ़ो। प्रतिजन तन्त्र गढ़ो! स्व-तन्त्र गढ़ो।।165।।

तुम नहीं, न हो सकते प्रजा। तुम नहीं, न हो सकते जन। तुम नहीं, हो सकते लोक।।166।।

प्रजातन्त्र, जनतन्त्र, लोकतन्त्र दमघोंटू जहर भरे लबादे हैं तुम्हारा दम घोंट रहे! इन्हें उतारो! जला दो सदा के लिए।।167।।

स्व से समविधान लिखो कि हर प्रज भी स्व है।।168।।

प्रजा से कुछ भी प्रारम्भ नहीं हो सकता। प्रजानन कोटि गुना विकृत दशानन है। क्या तुम्हें नहीं दिखते कमाण्डो, हवाई सफर, भोज, महल रहते गोल-मटोल, थुलथुल, चिकने-चुपड़े…सांसद, मन्त्री, प्रधान, याने प्रजानन?।।169।।

प्रजातन्त्र की हत्या करते ही प्रजाननों की हत्या हो जाएगी।।170।।

प्रजातन्त्र का विकल्प है प्रति-जन-तन्त्र या प्रज-तन्त्र या स्व-तन्त्र।।171।।

न्याय पालिका व्यवस्था प्रजतन्त्रा आधारित है, प्रशासन व्यवस्था प्रजतन्त्र आधारित है, स्कूल कालेजों की शिक्षा-आकलन व्यवस्था प्रजतन्त्र आधारित है। ये व्यवस्थाएं प्रजतन्त्र नहीं हैं पर प्रजातन्त्र से बेहतर हैं।।172।।

दीमक व्यवस्था, मधुमक्खी व्यवस्था, चींटी व्यवस्था आदि सहज प्रजतन्त्र व्यवस्था हैं। इनमें विवेक समाविष्टि प्रजतन्त्र व्यवस्था होगी।।173।।

प्रजातन्त्र शासन का विकृत तम रूप है। क्योंकि प्रजा से सर्वाधिक हटकर है।।174।।

इतिहास प्रजातन्त्र ने नहीं प्रजतन्त्र ने लिखा है। ब्रूनो, गैलीलियो, स्पिनोजा ये सभी प्रज थे। गांधी, दयानन्द, मीरा भी प्रज थे। ये उन्नत प्रज थे। ये प्रजा के मतों के आधार पर श्रेष्ठ नहीं थे। श्रेष्ठता के कारण इन्हें मत मिले।।175।।

स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय

पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)

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