पुलिन बिहारी दास

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24 जनवरी ढाका अनुशीलन समिति के संस्थापक क्रांतिकारी पुलिन बिहारी दास का जन्मदिवस है जिनका जन्म 24 जनवरी 1877 में बंगाल में शरीयतपुर जिले के फरीदपुर में लोनसिंह गाँव में उन नाबा कुमार दास के पुत्र के रूप में हुआ था, जो मदारीपुर के उपखंड न्यायालय में वकील थे। 1894 में फरीदपुर जिला स्कूल से पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने ढाका कालेज में प्रवेश लिया और विद्यार्थी रहते हुए ही प्रयोगशाला सहायक और प्रदर्शक का दायित्व भी संभालने लगे। बचपन से ही उन्हें लाठी चलाने का जबरदस्त शौक था और कोलकाता के प्रसिद्द सरला देवी अखाड़ा की सफलता से प्रेरित होकर उन्होंने भी 1903 में तिक्तुली में अपना अखाड़ा शुरू किया था।

सितम्बर 1906 में उस जमाने के जाने माने नेता बिपिन चन्द्र पाल और प्रमाथा नाथ मित्र ने नव निर्मित पूर्वी बंगाल और आसाम राज्यों का दौरा किया और उन युवाओं से आगे आने का आव्हान किया जो देश के लिए सर्वस्व समर्पण करने को तैयार हों। इस आव्हान के जवाब में आगे आये युवाओं में से एक थे पुलिन, जिन्हें ढाका में अनुशीलन समिति का काम खडा करने का गुरुतर उत्तरदायित्व सौंपा गया। पुलिन ने इस काम को बखूबी निभाया और अक्टूबर 1906 में ही 80 युवाओं के साथ ढाका अनुशीलन समिति को खड़ा कर दिया। अपने शानदार संगठन कौशल के दम पर उन्होंने शीघ्र ही पूरे राज्य में समिति की 500 शाखाओं को खड़ा कर दिया। पुलिन ने ढाका में नेशनल स्कूल की भी स्थापना की जिसका उद्देश्य क्रांतिकारी बल का निर्माण करना था और जिसमें विद्यार्थियों को अस्त्र-शस्त्र का प्रशिक्षण दिया जाता था।

अपने पहली बड़ी कार्यवाही में पुलिन ने ढाका के कुख्यात पूर्व कलेक्टर कोप्लेस्टन एलेन को मारने का प्लान बनाया और 23 दिसंबर 1907 को उसे गोलुन्दो रेलवे स्टेशन पर गोली मारी गयी पर दुर्भाग्यवश वह बच गया। इस घटना के कुछ दिनों बाद ही प्रशासन की शह पर लगभग 400 मुसलमानों की भीड़ ने हिन्दू विरोधी नारे लगाते हुए पुलिन के घर पर हमला कर दिया, जिसका उन्होंने अपने कुछ एक साथियों के सहयोग से मुंहतोड़ जवाब दिया। 1908 के प्रारम्भ में पुलिन ने ढाका के नवाबगंज पुलिस स्टेशन के अंतर्गत एक ज़मीदार के यहाँ दिन दहाड़े डकैती डाली और इस पैसे का उपयोग हथियार खरीदने में किया गया। कुछ समय बाद वे अपने कुछेक साथियों के साथ गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें मोंटगोमरी जेल में रखा गया।

1910 में जेल से छूटने के बाद उन्होंने फिर से क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम देना शुरू कर दिया। जुलाई 1910 में उन्हें 46 साथियों सहित राजद्रोह के आरोप में फिर से गिरफ्तार कर लिया गया, जिसे ढाका षड़यंत्र केस कहा जाता है। उम्र कैद की सजा मिलने के बाद उन्हें अंडमान की सेल्युलर जेल भेज दिया गया, जहाँ उन्हें हेमचन्द्र दास, बारीन्द्र कुमार घोष और वीर सावरकर जैसे क्रातिवीरों का साथ मिला। प्रथम विश्व युद्ध के बाद उनके कारावास की अवधि घटा दी गयी और उन्हें 1918 में रिहा कर दिया गया पर 1919 तक घर में नजरबन्द रखा गया, जिसके बाद उन्हें पूरी तरह से किया गया।

एक बार फिर से उन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियों को करने की कोशिश की पर संगठन पर प्रतिबन्ध, साथियों के तितिर-बितिर हो जाने के कारण सफल ना हो सके। अनेकों क्रांतिकारियों द्वारा गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन को सहयोग करने और उनका नेतृत्व स्वीकार करने के बाबजूद पुलिन ने अपने सिद्धांतो से समझौता करने से इनकार कर दिया और गाँधी जी के नेतृत्व को कभी नहीं माना। क्रांतिकारी विचारों को आगे बढाने के लिए उन्होंने 1920 में भारत सेवक संघ की स्थापना की और हक कथा और स्वराज नामक पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू किया जिसमें गाँधी जी के अहिंसात्मक आन्दोलन की कटु आलोचना की जाती थी।

कुछ एक साथियों से मतभेदों के चलते उन्होंने अनुशीलन समिति से दूरी बना ली, भारत सेवक संघ को समाप्त कर दिया और 1922 में सक्रिय राजनीति से दूर हो गए। 1928 में उन्होंने कोलकाता में बंगीय व्यायाम समिति का गठन किया जहाँ लोगों को शारीरिक प्रशिक्षण दिया जाता था। बाद में उन्होंने विवाह किया और उनके 3 पुत्र और 2 पुत्रियाँ हुए, जिनमें से दूसरे पुत्र सुरेन्द्र उनके द्वारा स्थापित समिति को 2005 तक चलाते रहे। 17 अगस्त 1949 को इस क्रान्तिधर्मा की मृत्यु हो गयी। शत शत नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि।

~ लेखक : विशाल अग्रवाल
~ चित्र : माधुरी

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