पाठ: (41) कृदन्त (9) शतृ प्रत्यय

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संस्कृतं वद आधुनिको भव।
वेदान् पठ वैज्ञानिको भव।।

पाठ: (41) कृदन्त (9) शतृ प्रत्यय

(जब नाम शब्दों के विशेषण के रूप में वर्तमानकाल तथा भविष्यकाल में विद्यमान परस्मैपद संज्ञक धातु का प्रयोग किया जाता है, तब उस धातु से शतृ प्रत्यय का प्रयोग होता है। शतृ प्रत्ययान्त क्रिया शब्द के रूप पुल्लिंग में ‘पठत्’ के समान, óीलिंग में ‘नदी’ के समान तथा नपुंसकलिंग में ‘जगत्’ के समान चलेंगे।)

पाठं पठते बालकाय माता नारंगरसं यच्छति = पाठ पढ़ते हुए बालक को मां मोसमी का रस दे रही है।
ग्रामम् आगच्छन्तं शकटं पथ्येव व्यकरोत् = गांव आती हुई बैलगाड़ी रास्ते में ही बिगड़ गई।
प्राङ्गणे क्रीडन्तस्य किशोरस्य पादे कण्टकोऽविध्यत् = आंगन में खेलते हुए बच्चे के पैर में कांटा चुभ गया।
कुण्डलिनीं खादन्तं बालकं भिक्षुकः कुण्डलिनीमयाचीत् = जिलेबी खाते हुए बच्चे से भिखारी ने जिलेबी मांगी।
सन्तानिकामपसारयन्ती माता दुग्धं पिबन्तीं मार्जारमद्राक्षीत् = मलाई निकालती हुई मां ने दूध पीती हुई बिल्ली देखी।
परीक्षायाः सज्जां कुर्वत्या मालया बहूनि पुस्तकानि पठितानि = परीक्षा की तैयारी करती हुई माला के द्वारा बहुत पुस्तकें पढ़ी गईं।
प्रवणे विलुण्ठन्ती वृद्धा चीत्कारमकार्षीत् = ढलान पर लुढकती हुई बुढिया चिल्लाई।
क्रीडनकेन क्रीडतः आत्मदर्शिनः क्रीडनकं ब्रह्मदर्शी अनैषीत् = खिलौने से खेलते हुए आत्मदर्शी का खिलौना ब्रह्मदर्शी ले गया।
रुदते आत्मदर्शिने च ग्लुकोविटा-गुल्लिकां ददाति = रोते हुए आत्मदर्शी को ग्लुकोविटा-टॉफी दे रही है।
गुल्लिकां खादन् आत्मदर्शी मोदते = टॉफी खाता आत्मदर्शी खुश हो रहा है।
अनुधावतः कुक्कुरात् पान्थो बिभेति = पीछे पड़े हुए कुत्ते से राहगीर डर रहा है।
बुक्कति कुक्कुरे भीतः पथिकः पाषाणं क्षिपति = भौंकते हुए कुत्ते पर पथिक पत्थर फैंकता है।
जल्पन्तं तत्त्वदर्शिनं दृष्ट्वा देयाऽऽदेय-लेखां कुर्वन् पिता तं पठितुमवोचत् = बात करते हुए तत्त्वदर्शी को देखकर हिसाब करते हुए पिता ने उसे पढ़ने के लिए कहा।
वृक्षे निवसन्तः खगाः प्रातरुड्डीय सायं पुनः प्रत्यागच्छन्ति = पेड़ पर रहते हुए पक्षी सुबह उड़कर शाम को फिर आ जाते हैं।
स्वपन् शिशुः किमपि स्मरन् हसति = सोया हुआ बच्चा कुछ याद करके हंस रहा है।
खादन् न जल्पेयुः = खाते हुए बात न करें।
वसन्तीह रमा भृशं कलहायते स्म = यहां रहती हुई रमा खूब झगड़े करती थी।
दीव्यन् कितवः सर्वं पराजयत = जुआ खेलता हुआ जुआरी सब कुछ हार गया।
पादपान् सि´्चन्ती उद्यानपालिका पुष्पं चिन्वन्तीं कन्यामपश्यत् = पौधों को पानी पिलाती हुई मालिन ने फूल तोड़ती हुई बच्ची को देखा।
सीमां रक्षतः सैनिकान् वन्दामहै = सरहद की रक्षा करते हुए सैनिकों को हम वन्दन करते हैं।
मद्यपं जहता मद्यपेन बहूनि कष्टानि अनुभूतानि = शराब छोड़ते हुए शराबी ने बहुत कष्ट अनुभव किया।
दूरं त्यक्तोऽपि भषकः जिघ्रन् पुनरपि ग्रामं प्रत्यावर्त्तत = दूर छोड़ दिया गया कुत्ता फिर सूंघता हुआ गांव में आ गया।
वर्षन्ती मेघमाला मनः आह्लादते = बरसते हुए बादल मन को आह्लादित करते हैं।
शीकरं हस्तेन गृह्णत्या बालिकायाः बाल्यं कियत् मनोरममस्ति = फुहार को हाथ से पकड़ती हुई बच्ची का बचपना कितना मनोरम है।
वानप्रस्थिनः आश्रमे तपन्तः सुखेन जीवन्ति अन्ये तु अतीतानि दिनानि स्मरन्तः कालं यापयन्ति = वानप्रस्थी आश्रम में तपस्या करते हुए सुख से जीते हैें, और अन्य लोग बीते दिनों को याद करते समय बिताते हैं।
परिव्राजकः परिव्रजन् सर्वान् धर्ममुपदिशेत् = संन्यासी सर्वत्र विचरण करता हुआ सबको धर्म का उपदेश करे।
स्वाश्रमं निर्मिमियन् संन्यासी स्वधर्मात् प्रवच्यते = अपना आश्रम बनाता हुआ संन्यासी अपने धर्म से गिर जाता है।
परछिद्रान्वेषी स्वछिद्राणि पश्यन्नपि न पश्यति = दूसरों के दोष देखने का आदि व्यक्ति अपने दोषों को देखते हुए भी नहीं देखता।
प्रत्यहं आत्मनिरीक्षणं कुर्वन् मनुष्य उन्नतिं लभते = प्रतिदिन आत्मनिरीक्षण करनेवाला ऊँचाईयों को छूता है।
दानं ददन् गृहस्थी स्वर्गमाप्नोति = दान देता हुआ गृहस्थी उत्तम सुखों को प्राप्त करता है।

जीवन्तं मतवन्मन्ये देहिनं धर्मवर्जितं।
मृतो धर्मेण संयुक्तो दीर्घजीवी न संशयः।। = मैं धर्मरहित मनुष्य को मरे हुए के समान समझता हूं। इस में कोई सन्देह नहीं कि धार्मिक मनुष्य मरने के बाद भी जीवित रहता है, क्योंकि उसकी कीर्ति अमर रहती है।

सुशीघ्रपमि धावन्तं विधानमनुधावति।
शेते सह शयानेन येन येन यथाकृतम्।।
उपतिष्ठति तिष्ठन्तं गच्छन्तमनु गच्छति।
करोति कुर्वतः कर्म च्छायेवानुविधीयते।। = जिस-जिस मनुष्य ने जैसा-जैसा कर्म किया है, वह उसके पीछे लगा रहता है। यदि कर्मकर्त्ता शीघ्रतापूर्वक दौड़ता है तो वह कर्म भी उतने ही वेग से उसके पीछे भागता है। जब वह सोता है तो उसका भाग्य भी उसके साथ सो जाता है। जब वह खड़ा होता है तो उसका भाग्य भी उसके पास ही खड़ा होता है। और जब मनुष्य चलता है तो उसका किया हुआ कर्म भी उसके पीछे-पीछे चलने लगता है। इतना ही नहीं, कोई भी कार्य करते हुए कर्म संस्कार उसका पीछा नहीं छोड़ता, अपितु सदा छाया के समान उसके पीछे लगा रहता है।

यदिच्छसि वशीकर्त्तुं जगदेकेन कर्मणा।
परापवादसस्येभ्यो गां चरन्तीं निवारय।। = हे मनुष्य यदि तू एक ही कर्म के द्वारा संसार को अपने वश में करना चाहता है तो दूसरों की निन्दा करने में लगी हुई अपनी वाणी को वश में कर अर्थात् किसी की निन्दा मत कर।

छिन्नोपि रोहति तरुः क्षीणोप्युपचीयते पुनश्चन्द्रः।
इति विमृशन्तः सन्तः सन्तप्यन्ते न दुःखेषु।। = कट जाने पर भी वृक्ष फिर समय पाकर अंकुरित हो जाता है। क्षीण होने पर भी चन्द्रमा पुनः बढ़ता है। इसी प्रकार विचारशील सज्जन विपत्ति पड़ने पर दुःखी नहीं होते।

खल्वाटो दिवसेश्वरस्य किरणैः सन्तापिते मस्तके,
वा´्छन्देशमनातपं विधिवशात्तालस्य मूलं गतः।
तत्राप्यस्य महाफलेन पतता भग्नं सशब्दं शिरः,
प्रायो गच्छति यत्र दैवहतकस्तप्तैव यान्त्यापदः।। = सिर पर पड़नेवाली सूर्यकिरणों से सन्तप्त होकर कोई गंजा व्यक्ति छाया खोजता हुआ भाग्यवश ताड़ के वृक्ष के नीचे जा पहुंचा। वहां पर एक बहुत बड़ा फल धडाम् से उसके सिर पर गिर पड़ा और उसका सिर फट गया। प्रायः भाग्यहीन मनुष्य जहां भी जाता है विपत्तियां उसके पीछे वहीं पहुंच जाती हैं।

गुणवदगुणवद्वा कुर्वता कार्यमादौ, परिणतिरवधार्या यत्नतः पण्डितेन।
अतिरभसकृतानां कर्मणा मा विपत्तेर्भवति हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः।। =

प्रबुद्ध पाठकों से निवेदन है कृपया त्रुटियों से अवगत कराते नए सुझाव अवश्य दें.. ”आर्यवीर“

अनुवादिका: आचार्या शीतल आर्या (पोकार) (आर्ष शोध संस्थान, कन्या गुरुकुल अलियाबाद, तेलंगाणा, आर्यावर्त्त)
टंकन प्रस्तुति: ब्रह्मचारी अरुणकुमार ”आर्यवीर“ (आर्यवीर प्रकाशन, मुम्बई, महाराष्ट्र, आर्यावर्त्त)

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