संस्कृतं वद आधुनिको भव।
वेदान् पठ वैज्ञानिको भव।।
पाठ: (36) कृदन्त (3) निष्ठा प्रत्यय
(क्त प्रत्यय कर्तृवाच्य विशेषणरूप प्रयोग)
बाला महाविद्यालयं गता = बालिका कॉलेज गई।
महाविद्यालयं गतां बालिकां माता सप्ताहात् प्रतीक्षते, साऽधुनापि न प्रत्यावर्तिता = कॉलेज गई हुई बालिका की मां हप्तेभर से प्रतीक्षा कर रही है, वह अभी भी लौटकर नहीं आई।
रामः दुष्टोऽस्ति = राम दुष्ट है।
दुष्टं रामं पिता तस्य दुष्टतायै ताड़यति = दुष्ट राम को पिता उसकी दुष्टता के कारण से पीट रहा है।
महामार्यां नैके जनाः मृताः = महामारी में कई लोग मर गए।
महामार्यां मृतेभ्यः जनेभ्यः सर्वकारः कालोचितं क्रियाकलापमकार्षीत् = महामारी में मरे हुए लोगों के लिए सरकार ने यथोचित कदम उठाए।
विभीषिका प्रथिताऽस्ति यत् आंग्लभाषयैव जनः शिष्ट इति = हौवा फैला हुआ है कि अंग्रेजी से ही व्यक्ति शिष्ट बन सकता है।
प्रथितायाः विभीषिकायाः दूरिकरणमस्माकं कर्त्तव्यमस्ति = फैले हुए हौवे को दूर करना हमारा कर्त्तव्य है।
विद्वान् गृहमागतः = विद्वान् घर आ गया।
गृहमागतो विद्वान् एवाऽतिथिः कथ्यते = घर पर आया हुआ विद्वान् ही अतिथि कहलाता है।
आत्मदर्शी रात्रौ दशवादने सुप्तः = आत्मतदर्शी रात दस बजे सो गया।
सुप्तः आत्मदर्शी निद्रायां द्विचक्रिकामचीचलत् = सोए हुए आत्मदर्शी ने नींद में साईकिल चलाई।
वटुः जटिलात् भृशं भीतः = बच्चा जटाधारी से खेब डरा।
दिने जटिलात् भीतो वटुः रात्रौ विष्टरे एव मूत्रितः = दिन में जटाधारी से डरे हुए बच्चे ने रात को बिस्तर में ही मूत्रत्याग किया।
दुष्टानामत्याचारात् सर्वे हिन्दवः कश्मीरात् पलायिताः = दुष्टों के अत्याचार के कारण सभी हिन्दू कश्मीर से भाग गए।
पलायितानां हिन्दूनां सर्वा सम्पत्तिः दुष्टैः स्वायत्तीकृताः = भाग खड़े हुए हिन्दुओं की सारी सम्पत्ति दुष्टों ने जप्त कर ली।
माता पुत्रं उपशिष्टा = मां ने बच्चे को आलिंगन किया।
उपश्लिष्टां मातरं पुत्र स्वीयया बालचेष्टया प्रीणयति = आलिंगन की हुई मां को बच्चा अपनी बालचेष्टा से तृप्त कर रहा है।
उद्याने कश्चित् कीटः बालिकायाः वस्त्रमुपश्लिष्टः = बगीचे में कोई कीड़ा बालिका के कपड़ों में चिपक गया।
वस्त्रमुपश्लिष्टात् कीटात् भीता बाला रोदिति = कपड़े में चिपके हुए कीड़े से डरी हुई बालिका रो रही है।
सृष्ट्यादौ वृक्षवनस्पतिपशुपक्षिणं मनुष्या अनुजाताः = सृष्टि के आदि में वृक्ष-वनस्पति-पशु-पक्षियों के पश्चात मनुष्य उत्पन्न हुए।
वृक्षादीन् अनुजाता मनुष्या अपि अमैथुनिकयैवोत्पन्नाः = वृक्षादियों के पश्चात् उत्पन्न होनेवाले मनुष्य भी अमैथुनी प्रक्रिया से ही पैदा हुए।
क्षेत्रे धान्यमुत्पन्नम् = खेत में धान पैदा हुआ।
उत्पन्नेन नूतनेन धान्येन नवसस्येष्टि कृता = उत्पन्न नए धान्य से नवसस्येष्टि याग किया।
पतङ्गोड्डयनार्थं बालश्छदिरारूढः = पतंग उडाने के लिए बालक छत पर चढ़ा।
छदिरारूढो बालोऽनवधानतया नीचैरपतत् = छत पर चढ़ा हुआ बच्चा असावधानी के कारण नीचे गिरा।
ह्यः रात्रौ श्वमण्डलं भृशं बुक्कितम् = कल रात कुत्ते खूब भौंके।
बुक्कितेन श्वमण्डलेन सर्वेषां निद्रा विकारिता = भौंकते कुत्ते ने सबकी नीन्द खराब कर दी।
महत्यामपि घनावल्यां देवो न वृष्टः = बहुत सारे काले बादलों के होने पर भी बारिश नहीं हुई।
अवृष्टे देवे सर्वे व्यापाराः निष्क्रियप्रायाः स´्जाताः = वर्षा के अभाव में सभी व्यापारों में मन्दी छा गई।
प्रदूषणकारणाद् अद्यत्वे घर्मः प्रवृद्धः = प्रदूषण के कारण आज-कल गर्मी बढ़ गई है।
प्रवृद्धेन घर्मेण जना अत्यन्तं त्रस्ताः सन्ति = बढी हुई गर्मी के कारण लोग अत्यन्त त्रस्त हैं।
पुरा काले ऋषय ईश्वरमुपासिताः = प्राचीनकाल में ऋषियों ने ईश्वर की उपासना की।
सः तान् उपासितान् ऋषीन् कृतकृत्यानकरोत् = उसने उन उपासना किए हुए ऋषियों को कृतकृत्य कर दिया।
कुक्कुराणामनुधावनात् भीतो बालोऽपि धावितः = कुत्तों के पीछे पड़ने से डरा हुआ बच्चा भी भागा।
अतिरभसेन धावितो बालः पाषाणेनाऽऽहत = हड़बड़ी से भागते बच्चे को पत्थर के कारण ठेस लग गई।
मासद्वयानन्तरं पितरौ दृष्ट्वा छात्रावासे बालिका प्रकोष्ठात् धावित्वा आगता = होस्टल में दो महिने बाद माता-पिता को देखकर बालिका कमरे से दौड़कर आई।
धावित्वा आगतायाः बालिकायाः प्रसन्नतां दृष्ट्वा पितरौ आर्द्राक्षौ स´्जातौ = दौड़कर आई हुई बच्ची की प्रसन्नता को देखकर माता-पिता की आंखे गीली हुईं।
वायुना शोधितानि वस्त्राणि उड्डितानि = हवा के कारण सुखाए हुए कपड़े उड़ गए।
उड्डितानि तानि वस्त्राणि इतस्ततः भूमौ पतितानि = उड़े हुए वे कपड़े जहां-तहां भूमि पर गिर गए।
रात्रौ वृष्टिना पद्यायां शायिताः अनिकेताः जनाः क्लिन्नाः = रात वर्षा के कारण फुटपाथ पर सोए हुए बेघर लोग भीग गए।
तेषु क्लिन्नेषु जनेषु केचन तारवायुना मृताः = उन भीगे हुओं में से कुछ लोग सनसनाती हवा के कारण मर गए।
तारजाले संलग्नं वस्त्रम् उत्पटितम् = तार की जाली में उलझा हुआ कपड़ा फट गया।
पश्चात् तदुत्पटितं वस्त्रं मात्रा सूचिकया स्यूतम् = बाद में वह फटा हुआ कपड़ा मां ने सुई द्वारा सिल दिया।
हस्तात् स्रस्तं काचपात्रं त्रुटितम् = हाथ से गिरा हुआ काचपात्र टूट गया।
त्रुटितस्य काचपात्रस्य लघुना शकलेन मम पादः विद्धः = टूटे हुए कांचपात्र के छोटे टुकड़े से मेरा पैर घायल हुआ।
अग्निना सर्वं गृहं ज्वलितम् = आग से पूरा घर जल गया।
ज्वलितं गृहं पातयित्वा तत्रैव नूतनम् निर्मितम् = जले हुए घर को गिरा कर वहीं पर नया घर बना दिया।
निर्धनं पुरुषं वेश्या प्रजा भग्नं नृपं त्यजेत्।
खगा वीतफलं वृक्षं भुक्त्वा चाऽभ्यागता गृहम्।। = वेश्या निर्धन मनुष्य को, प्रजा पराजित राजा को, पक्षी फलरहित पेड़ को और अतिथि भोजन करके घर को छोड़ देते हैं।
रूपयौवनसम्पन्नाः विशालकुलसम्भवाः।
विद्याहीनाः न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः।। = रूप और यौवन से सम्पन्न तथा ऊंचे कुल में जन्म लेने पर भी विद्याहीन मनुष्य ऐसे ही सुशोभित नहीं होता जैसे ढाक के गन्धरहित फूल।
किं तया क्रियते धेन्वा या न दोग्ध्री न च गुर्विणी।
कोऽर्थः पुत्रेण जातेन यो न विद्वान् न भक्तिमान्।। = उस गाय से क्या लाभ जो न दूध देती हो न गर्भ धारण करती हो ? उसी प्रकार उस पुत्र से क्या लाभ है जो न तो विद्वान है न हि ईश्वरभक्त ?
संसारतापदग्धानां त्रयो विश्रान्तिहेतवः।
अपत्यं च कलत्रं च सतां संगतिरेव च।। = संसार के त्रिविध तापों से तप्त हुए मनुष्यों के लिए शान्ति प्राप्ति के तीन ही साधन हैं- पुत्र, पत्नी और सज्जनों की संगति।
एकोदरसमुद्भूता एक नक्षत्रजातकाः।
न भवन्ति समाः शीले यथा बदरकण्टकाः।। = एक ही माता-पिता और एक ही नक्षत्र में जन्मे हुएसब बालक गुण-कर्म-स्वभाव में समान नहीं होते, जैसे बेर और उसके कांटे समान नहीं होते।
वृद्धकाले मृता भार्या बन्धुहस्ते गतं धनम्।
भोजनं च पराधीनं तिस्रः पुंसां विडम्बना।। = वृद्धावस्था में पत्नी का देहान्त हो जाना, स्वधन का भाई-बन्धुओं के हाथ में चले जाना और भोजन के लिए दूसरों को मुंह ताकना ये तीनों बातें मनुष्यों के लिए मृत्यु के समान दुःख देनेवाली हैं।
दूतो न स´्चरति खे न चलेच्च वार्ता, पूर्वं न जल्पितमिदं न च सङ्गमोऽस्ति।
व्योम्नि स्थितं रविशशिग्रहणं प्रशस्तं, जानाति यो द्विजवरः स कथं न विद्वान्।। = आकाश में कोई दूत नहीं जा सकता, न वहां किसी से कोई वार्तालाप हो सकता, न पहले से किसी ने कुछ बता ही रखा है और नहि वहां किसी से मिलना हो सकता, फिर भी जो ब्राह्मणश्रेष्ठ आकाश में स्थित सूर्य और चन्द्रमा के ग्रहण को जान लेता है वह विद्वान् क्यों नहीं है ?
अहिं नृपं च शार्दूलं किटिं च बालकं तथा।
परश्वानं च मूर्खं च सप्त सुप्तान् न बोधयेत्।। = सांप, राजा, बाघ, सूअर, बालक, दूसरे का कुत्ता और मूर्ख इन सात सोए हुओं को नहीं जगाना चाहिए।
यस्मिन्रुष्टे भयं नास्ति तुष्टे नैव धनाऽऽगमः।
निग्रहोऽनुग्रहो नास्ति स रुष्टः किं करिष्यति।। = जिसके क्रुद्ध होने पर कोई भय नहीं है और प्रसन्न होने पर धनप्राप्ति की कोई आशा नहीं है, जो न दण्ड दे सकता है और न हि कृपा कर सकता है, वह रूठ कर भी क्या बिगाड़ेगा ?
एकवृक्षसमारूढा नाना वर्णाः विहङ्गमाः।
प्रभाते दिक्षु दशसु का तत्र परिदेवना।। = अनेक रंग और रूपोंवाले पक्षी सायंकाल एक वृक्ष पर आकर बैठते हैं और प्रातःकाल दसों दिशाओं में उड़ जाते हैं ऐसे ही बन्धु-बान्धव एक परिवार में मिलते हैं और बिछुड़ जाते हैं, इस विषय में शोक, रोना-धोना क्या ?
पतितः पशुरपि कूपे निःसर्त्तुं चरणचालनं कुरुते।
धिक् त्वां चित्त भवाब्धेरिच्छामपि नो बिभर्षि निःसर्त्तुम्।। = कंुए में गिरा हुआ पशु भी उसमें से निकलने के लिए हाथ-पैर चलाकर यत्न करता है, रे मन तुझे धिक्कार है ! तू तो भवसागर से निकलने की इच्छा भी नहीं करता।
बन्धाय विषयाऽऽसक्तं मुक्त्यै निर्विषयं मनः।
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।। = मनुष्य के बन्ध और मोक्ष का कारण मन ही है। विषयों में फंसा हुआ मन बन्धन का कारण होता है और विषय-वासनाओं से शून्य मन मनुष्य के मोक्ष का कारण होता है।
अप्रियवचनदरिद्रैः प्रवचनाढ्यैः स्वदारपरितुष्टैः।
परपरिवादनिवृत्तैः क्वचित्क्वचिन्मण्डिता वसुधा।। = अप्रिय और कठोर वचन बोलने में दरिद्र, प्रिय और मधुर वचनों के धनी, अपनी पत्नी से ही सदा सन्तुष्ट रहनेवाले और दूसरों की निन्दा से विमुख सज्जनों द्वारा ये धरती किसी-किसी स्थान पर ही अलंकृत है, सर्वत्र नहीं, अर्थात् ऐसे महापुरुष संसार में विरले ही होते हैं।
यमाजीवन्ति पुरुषं सर्वभूतानि स´्जय।
पक्वं द्रुममिवाऽऽसाद्य तस्य जीवितमर्थवत्।। = हे संजय पके हुए फलोंवाले वृक्ष के समान जिस मनुष्य का सहारा लेकर सभी प्राणी अपना जीवनयापन करते हैं, उसी का जीवन सफल है।
प्रदानं प्रच्छन्नं गृहमुपगते सम्भ्रमविधिः, प्रियं कृत्वा मौनं सदसि कथनं चाप्युकृतेः।
अनुत्सेको लक्ष्म्यां निरभिभवसाराः परकथाः, सतां केनोद्दिष्टं विषममसिधाराव्रतमिदम्।। = गुप् रूप से दान देना, घर पर आए हुए का तत्परता से सत्कार करना, किसी का प्रिय कार्य करके चुप रहना और दूसरे के द्वारा अपना कार्य किए जाने पर उसका सभा में बखान करनार, धन-सम्पत्ति होने पर अभिमान न करना और दूसरों की चर्चा के प्रसंग में उनके लिए अपमानजनक वचन न कहना, तलवार की धार पर चलने के समान इन कठोर व्रतों को करने का सत्पुरुषों को किसने आदेश दिया है ?
न स्वे सुखे वै कुरुते प्रहर्षं नान्यस्य दुःखे भवति प्रहृष्टः।
दत्त्वा न पश्चात्कुरुतेऽनुतापं स कथ्यते सत्पुरुषार्यशीलः।। = जो अपने सुख में प्रसन्न नहीं होता और अन्यों के दुःख में हर्षित नहीं होता, जो किसी को कुछ देकर बाद में पछताता नहीं, वही सत्पुरुष आर्य चरित्रवाला कहलाता है।
अपां समीपे नियतो नैत्यकं विधिमास्थितः।
सावित्रीमप्यधीयीत गत्वाऽरण्यं समाहितः।। = मनुष्य प्रतिदिन वन में जाकर, नदी सरोवर आदि के तट पर बैठकर, दैनिक नित्य कर्त्तव्य प्राणायामादि करके गायत्री मन्त्र का अर्थचिन्तनपूर्वक जप करे।
आचम्य प्रयतो नित्यमुभे सन्ध्ये समाहितः।
शुचौ देशे जप´्जप्यमुपासीत यथाविधिः।। = मनुष्य प्रतिदिन दोनों सन्ध्याबेलाओं में शुद्ध स्थान पर बैठकर, आचमन करे, एकाग्र होकर, विधिपूर्वक ओम् का जप करता हुआ ईश्वरोपासना करे।
उत्थायाऽऽवश्यकं कृत्वा कृतशौचः समाहितः।
पूर्वां सन्ध्यां जपंस्तिष्ठेत् स्वकाले चाऽपरां चिरम्।। = मनुष्य प्रातः उठकर आवश्यक कार्य करके स्नानादि से शुद्ध होकर एकाग्रचित्त से बैठे। प्रातःकाल की सन्ध्याबेला में स्थिरतापूर्वक जप करे और सायंकालीन सन्ध्याबेला में भी चिरकाल तक जप करे।
अरावप्युचितं कार्यमातिथ्यं गृहमागते।
छेत्तुः पार्श्वगतां छायां नोपसंहरते दु्रमः।। = घर पर आए हुए शत्रु का भी यथोचित अतिथि-सत्कार करना चाहिए। वृक्ष को देखो वह अपनी फैली हुई छाया को अपने ही को आटनेवाले के ऊपर से भी नहीं हटाता।
दुःखात्तेषु प्रमत्तेषु नास्तिकेष्वलसेषु च।
न श्रीर्वसत्यदान्तेषु ये चोत्साहविवर्जिताः।। = दुःख से परेशान, प्रमादी तथा नशाखोर, नास्तिक, आलसी, मन आदि को वश में न रखनेवाले और उत्साहहीन मनुष्य के पास लक्ष्मी निवास नहीं करती है।
तानीन्द्रिण्यविकलानि तदेव नाम, सा बुद्धिरप्रतिहता वचनं तदेव।
अर्थोष्मणा विरहितः पुरुषः स एव, त्वन्यः क्षणेन भवतीति विचित्रमेतत्।। = वही सामर्थ्ययुक्त इन्द्रियां हैं और नाम भी वही है, वही अबाध चिन्तनवाली बुद्धि है, और वचन भी वही है, तथा धनरूपी ऊष्णता से रहित पुरुष भी वही है। किन्तु धन चले जाने के कारण क्षणभर में सबकुछ बदला हुआ लगता है, यह कितने आश्चर्य की बात है ?
स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्याद् दान्तो मैत्रः समाहितः।
दाता नित्यमनादाता सर्वभूतानुकम्पकः।। = (वानप्रस्थी) सदा स्वाध्याय में लगा रहे। तथा वह मनादि को दमन करनेवाला, सबसे मित्रभाव रखनेवाला, एकाग्र, दान देनेवाला, कभी न लेनेवाला और सब प्रणियों पर दया रखनेवाला बने।
अनग्निरनिकेतः स्याद् ग्राममन्नार्थमाश्रयेत्।
उपेक्षकोऽसंकुसुको मुनिर्भाव समाहितः।। = (संन्यासी) स्वभोजनादि हेतु अग्नि अर्थात् चूल्हे आदि का बखेडा न करे। स्वयं हेतु कोई भवन नहीं बनावे, भोजन हेतु ही ग्रामादि का आश्रय लेवे, सामान्य सांसारिक व्यवहारों को उपेक्षा की दृष्टि से देखे, चंचलमति न बने, मननशील बने और ब्रह्मभाव में लीन रहे।
दूषितोऽपि चरेद् धर्मं यत्र तत्राऽऽश्रमे रतः।
समः सर्वेषु भूतेषु न लिङ्गं धर्मकारणम्।। = लोगों द्वारा दोषारोपण किए जाने पर भी सब आश्रमों में धर्मोपदेश करता हुआ अपने संन्यासधर्म का पालन करता रहे और सब प्राणियों पर समभाव रखे। इस प्रकार अपने आश्रम के नियम का पालन करते हुए यह ध्यान रखे कि दण्ड कमण्डलु गेरुए वस्त्र आदि चिह्न ही संन्यास धर्म का आधार नहीं हैं।
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः।। = सब काम पुरुषार्थ से ही सिद्ध होते हैं, केवल मनोरथ से नहीं। जैसे सोए हुए सिंह के मुख में हिरण अपने आप प्रविष्ट नहीं हो जाता।
दक्षः श्रियमधिगच्छति पथ्याशीः कल्यतां सुखमरोगी।
उद्युक्तो विद्यान्तं धर्मार्थयशांसि च विनीतः।। = निपुण व्यक्ति सम्पत्ति को प्राप्त कर लेता है, पथ्य (हितकारक तथा मात्रा में) भोजन करनेवाला स्वास्थ्य को, निरोग सुख को, तत्पर पूर्ण विद्या को और विनम्र मनुष्य धर्म अर्थ तथा कीर्ति को प्राप्त कर लेता है।
द्रष्ट्राविरहितः सर्पो मदहीनो यथा गजः।
सर्वेषां जायते वश्यो दुर्गहीनस्तथा नृपः।। = जिस प्रकार दांत रहित सांप और मद रहित हाथी सबके वश में हो जाते हैं वैसे ही दुर्ग रहित राजा सबके वश में हो जाता है।
अर्धार्धाद् योजनशतादामिषं वीक्षते खगः।
सोऽपि पार्श्वस्थितं दैवाद् बन्धनं न च पश्यति।। = जो पक्षी पचास-पचास योजन दूर से भी अपनी भोग्य वस्तु को देख लेता है, वही पक्षी दुर्भाग्यवशात् पास में स्थित बन्धन को नहीं देख पाता।
न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्तेऽपि न विश्वसेद्।
विश्वासाद् भयमुत्पन्नं मूलान्यपि निकृन्तति।। = विश्वास के अयोग्य पुरुष का कभी विश्वास न करे तथाविश्वस्त आदमी का भी अधिक विश्वास न करे, क्योंकि विश्वास के द्वारा उत्पन्न भय जड़ों को भी काट देता है, अर्थात् सर्वथा नष्ट कर देता है।
किं तेन जातु जातेन मातुर्यौवनहारिणा।
आरोहति न यः स्वस्य वंशस्याग्रे ध्वजो यथा।। = माता की युवावस्था हरण करनेवाले उस पुत्र के जन्म से क्या लाभ ?जो अपने वंश (कुल) में वंश (बांस) के अग्रिम भाग में स्थित पताका के समान नहीं फहरता।
अश्वः शस्त्रं शास्त्रं वीणा वाणी नरश्च नारी च।
पुरुषविशेषं प्राप्ता भवन्त्ययोग्याश्च योग्याश्च।। = घोड़ा, शस्त्र, शास्त्र, वीणा, वाणी, नर और नारी ये पुरुष विशेष को प्राप्त होकर योग्य अथवा अयोग्य हो जाया करते हैं।
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।। = जो जन्मा है उसकी मत्यु निश्चित है और जो मर चुका है उसका जन्म निश्चित है। इस लिए इस अपरिहार्य न टाले जाने योग्य बात के लिए तुझे शोक करना उचित नहीं है।
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयाऽपहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिःसमाधौ न विधीयते।। = भोग और ऐश्वर्यों में डूबे हुए तथा भोग और ऐश्वर्यों की बातों में ही जिसका चित्त खोया हुआ है, ऐसे लोगों की बुद्धि समाधि में स्थिर नहीं होती।
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्।। = मनीषी ज्ञानयोग (समाधि-ज्ञान से युक्त होकर) कर्म से प्राप्त होनेवाले फलों को त्यागकर, जन्म के बन्धन से मुक्त होकर दुःख से रहित स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं।
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुतिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।। = अगर तू युद्ध में मारा गया तो स्वर्ग को प्राप्त करेगा और जीत गया तो पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इसलिए हे कुन्तिपुत्र तू युद्ध के लिए निश्चय करके उठ खड़ा हो !
प्रबुद्ध पाठकों से निवेदन है कृपया त्रुटियों से अवगत कराते नए सुझाव अवश्य दें.. ”आर्यवीर“
अनुवादिका: आचार्या शीतल आर्या (पोकार) (आर्ष शोध संस्थान, कन्या गुरुकुल अलियाबाद, तेलंगाणा, आर्यावर्त्त)
टंकन प्रस्तुति: ब्रह्मचारी अरुणकुमार ”आर्यवीर“ (आर्यवीर प्रकाशन, मुम्बई, महाराष्ट्र, आर्यावर्त्त)