संस्कृतं वद आधुनिको भव।
वेदान् पठ वैज्ञानिको भव।।
पाठ: (35) कृदन्त (2) निष्ठा प्रत्यय
(क्त प्रत्यय कर्त्तृवाच्य- अकर्मक धातुएं तथा श्लिष्, शीङ्, स्था, आस्, वस्, जन्, रुह्, ज§, इन धातुओं से क्त प्रत्यय कर्त्तृवाच्य में भी होता है।)
क्त प्रत्यय कर्त्तृवाच्य क्रियारूप प्रयोग:-
आचार्यमहोदयः ऑस्ट्रेलियादेशम् अगच्छत् = आचार्य जी ऑस्ट्रेलिया गए।
आचार्यमहोदयः ऑस्ट्रेलियादेशम् गतः = आचार्य जी ऑस्ट्रेलिया गए।
ह्यः अहं मशकजालं विनैवाऽस्वाप्सम्/सुप्तः सुप्ता वा = कल मैं मच्छरदानी के बिना ही सो गया/गई।
पितृभ्यां वियुक्तः स बालः रात्रौ पद्यायामेवाऽशयिष्ट शयितो वा = माता-पिता से बिछुड़ा हुआ वह बच्चा रात पादचारी सड़क पर ही सोया।
महदाश्चर्यं यत् मार्जारकुक्कुटौ सह अशायाताम् शयितौ वा = बड़ा ही आश्चर्य है कि बिल्ली और कुत्ता साथ-साथ सोए।
निषद्यायामप्राप्तायां स्थानाभावाच्च यात्रिणः रेलयाने शौचालयसमीपमपि अस्वाप्सुः सुप्ताः वा = सीट न मिलने पर तथा स्थानाभाव के कारण ट्रेन में यात्री शौचालय के पास भी सो गए।
अवकाशे बालकाः वैदिकसंस्कृतेः ज्ञानार्थं शिविरमयुः याताः वा = छुट्टियों में बच्चे वैदिक संस्कृति को जानने हेतु शिविर में गए।
शिविरात् पुनः पित्रा सह सप्तदिनेषु गृहमागमन् आगताः वा = सात दिन के बाद फिर शिविर से पिता के साथ घर आए।
संसारात् विरक्तः परिव्राजको गृहाद् अव्राजीत् व्रजितो वा = संसार से विरक्त हुआ संन्यासी घर से चला गया।
गृहस्वामितः त्रस्तो भाटकी इतः इतः तत्रोषितः = गृहस्वामी/मकान मालिक से परेशान किराएदार यहां से चला गया, वहां जाकर बस गया।
माता वत्सम् उपाश्लिक्षत् उपश्लिष्टा वा = माता ने बच्चे का आलिंगन किया।
निर्यासमोदके भुक्ते निर्यासः दत्तः उपाश्लिषत् उपश्लिष्टो वा = गोंद के लड्डू खाने से गोंद दांतों में चिपक गया।
आयसपिण्डः अयस्कान्तमुपाश्लिषत् उपश्लिष्टो वा = लोहे का गोला चुम्बक से चिपक गया।
पुत्रेण पलायिता माता पुत्रीम् उपाशयिष्ट उपशयिता वा = बेटे के द्वारा भगा दिए जाने पर मां बेटी के पास रही।
विद्यार्थं छात्रः गुरुकुलम् उपाशेत उपाशयितो वा = विद्याप्राप्ति के लिए विद्यार्थी गुरुकुल में रहा।
गुरुणा आहूतोऽन्तेवासी गुरुम् उपास्थात् उपस्थितो वा = गुरु के द्वारा बुलाए जाने पर शिष्य गुरु के समीप उपस्थित हुआ।
साक्षात्काराय साक्षात्कारिणः कार्यालयम् उपातिष्ठन् उपस्थिताः वा = साक्षात्कार (इंटरव्यू) के आवेदक कार्यालय में उपस्थित हुए।
प्रातः उत्थाय स्नात्वाऽहम् ईश्वरम् उपासिषि उपासिता वा = सुबह उठकर नहा-धोकर मैंने ईश्वरोपासना की।
चायपायी चायम् उपास्त उपासितो वा घस्मरश्च घृतमोदकम् = चाय के व्यसनी ने चाय की उपासना की और खाऊराम ने घी के लड्डुओं की।
गृहाद् बहिः कृतौ पितरौ वृद्धाश्रमम् अन्ववात्ताम् अनूषितौ वा = घर से निकाले गए मां-बाप वृद्धाश्रम में रहे।
कोटिपतिः सर्ववेदसमिष्ट्वा आश्रमम् अन्ववात्सीत् अनूषितो वा = करोड़पति सकल धन दान करके आश्रम में रहा।
दौर्भाग्यात् धनार्जनाय विदेशम् अन्ववसत् अनूषितो वा = दुर्भाग्य के कारण धन कमाने के लिए विदेश में रहा।
वत्सः वत्साम् अन्वजायत अनुजातो वा = बछड़ी के बाद बछड़ा पैदा हुआ।
यतः वत्सां वत्सा अन्वजनिष्ट अनुजाता वा तस्मात् पत्या पत्नी ताडिता = क्योंकि कन्या के बाद पुनः कन्या पैदा हुई इसलिए पति ने पत्नी को पीट दिया।
वल्लरी वृक्षम् आरोहत् आरूढा वा = बेल पेड़ पर चढ़ गई।
पतंगोत्पतनाय बालः छदिरारुक्षत् आरूढो वा = पतंग उड़ाने के लिए बच्चा छत पर चढ़ा
जनाः उत्कोचग्राहिणम् अन्वजीर्यत् अनुजीर्णाः वा = लोगों ने घूसखोर को पीट-पीट कर अधमरा कर दिया।
ग्रामिणाः व्यभिचारिणम् अन्वजारित् अन्वजीर्णाः वा = ग्रामवासियों ने व्यभिचारी की खूइ पिटाई की।
कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा।
नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण।। = सुख ही सुख अथवा दुःख ही दुःख सदा किसे रहता है ? मनुष्य की अवस्था पहिए के अरों की भांति नीचे और ऊपर आती-जाती रहती है।
असन्तुष्टा द्विजा नष्टाः सन्तुष्टाश्च महीभृतः।
सलज्जा गणिका नष्टा निर्लज्जाश्च कुलाङ्नाः।। = असन्तोषी ब्राह्मण, सन्तोषी राजा, लज्जा करनेवाली वेश्याएं और लज्जाहीन कुलीन स्त्रियां ये सब नष्ट हो जाते हैं।
अकृष्टफलमूलेन वनवासरतः सदा।
कुरुतेऽहरहः श्राद्धमृषिर्विप्रः स उच्यते।। = जो बिना जोती हुई भूमि से उत्पन्न फल-मूल खाता है, जो सदा वनवास में ही अनुराग रखता है और प्रतिदिन श्राद्ध (सत्य को धारण करना) करता है, ऐसा ब्राह्मण ऋषि कहाता है।
हस्तौ दानविवर्जितौ श्रुतिपुटौ सारस्वतद्रोहिणौ,
नेत्रे साधुविलोकनेन रहिते पादौ न तीर्थं गतौ।
अन्यायाऽर्जितवित्तपूर्णमुदरं गर्वेण तुंगं शिरौ,
रे रे जम्बुक मु´्च मु´्च सहसा नीचं सुनिन्द्यं वपुः।। = जिसने हाथों से दान नहीं दिया, कान जिसके विद्याद्वेषी हैं, नेत्र जिसके सज्जन-साधुओं के दर्शन रहित हैं, जिसके पैरों ने तीर्थयात्रा नहीं की, उदर अन्यायोपार्जित धन से भरा हुआ है, अभिमान के कारण जिसका सिर ऊंचा उठा हुआ है, ऐसे सियाररूपी हे दुष्ट मनुष्य ! तू ऐसे नीच और निन्दनीय शरीर को जितना शीघ्र हो सके छोड़ दे। अर्थात् गुणरहित जीवन से तो मृत्यु ही भली।
द्राक्षा म्लानमुखी जाता शर्करा चाश्मतां गता।
सुभाषितसस्याग्रे सुधा भीता दिवं गता।। = सुभाषित रस के आगे अंगूरों का मुख मुर्झा गया, मिश्री पत्थर सी हो गई और अमृत भयभीत होकर स्वर्ग में चला गया।।
यदि सत्सङ्निरतो भविष्यसि भविष्यसि।
अथ दुर्जनसंसर्गे पतिष्यति पतिष्यति।। = यदि सत्संगी बनोगे तो निश्चय ही उन्नत हो जाओगे और यदि कुसंग में पड़ गए तो निश्चय ही पतित हो जाओगे।
प्राप्ता जरा यौवनमप्यतीतं बुधा यतध्वं परमार्थ सिद्धये।
आयुर्गतप्रायमिदं यतोऽसौ विश्रम्य विश्रम्य न याति कालः।। = बुढापा आ गया है, यौवन बीत गया है। हे बुद्धिमान लोगों ! आध्यात्मिक उन्नति के लिए शीघ्र प्रयत्न करो। यह आयु लगभग समसप्त होने वाली है। स्मरण रखना यह काल विश्राम करता हुआ नहीं चलता।
अतृणे पतितो वह्निः स्वयमेवोपशाम्यति।
अक्षमावान् परं दोषैरात्मानं चैव योजयेत्।। = बिना घासवाली भूमि पर गिरी हुई अग्नि स्वयं ही शान्त हो जाती है, जबकि क्षमारहित मनुष्य दूसरे तथा अपने आपको भी अनेकों दोषों से युक्त कर देता है।
नोदकक्लिन्नगात्रस्तु स्नात इत्यभिधीयते।
स स्नातो यो दमस्नातः स बाह्याभ्यन्तरः शुचि।। = जल से भीगे हुए शरीरवाला नहाया हुआ नहीं कहाता, अपितु नहाया हुआ वह है, जो दम (मन के नियन्त्रण) रूपी जल में नहाया हुआ है। वस्तुतः वही बाहर और भीतर से शुद्ध है।
यः सर्वत्राऽनभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाऽशुभम्।
नाऽभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।। = जिसका कहीं भी किसी से भी किसी भी प्रकार का लगाव नहीं है और जो शुभ को प्राप्त कर प्रसन्न नहीं होता तथा अशुभ को पाकर उससे द्वेष नहीं करता उसकी बुद्धि स्थिर है।
यदा संहरते चाऽयं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।। = जैसे (संकट आने पर) कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है, वैसे ही जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को विषयों से भली भांति समेट लेता है उसी की बुद्धि स्थिर है।
न पण्डितः क्रुध्यति नाभिपद्यते न चापि संसीदति न प्रहृष्यति।
न चार्थकृच्छ्रव्यसनेषु शोचते स्थितः प्रकृत्या हिमवानिवाऽचलः।। = पण्डित मनुष्य न क्रोध करता है और न अभिमान ही करता है, न अति दुःखी होता है और न अति प्रसन्न होता है। आर्थिक कठिनाइयों और आपत्तियों में शोक नहीं करता तथा स्वभाव से ही हिमालय के समान अचल और शान्त होता है।
निवृत्ता भागेच्छा पुरुषबहुमानो विगलितः, समानाः स्वर्याताः सपदि सुहृदो जीवितसमाः।
शनैर्यष्ट्युत्थानं घनतिमिररुद्धे च नयने, अहो दुष्टः कायस्तदपि मरणापायचकितः।। = भोगों की इच्छा दूर हो गई है, पुरुषों में जो मान-सम्मान था वह भी कम हो गया है और अपने प्राणों के समान प्रिय समवयस्क मित्रजन भी शीघ्र ही क्रमशः स्वर्गवासी हो गए हैं। अब धीरे-धीरे लकड़ी के सहारे उठा जाता है और नेत्र गहरे अंधेरे से बन्द हो गए हैं, अहो ! यह दुष्ट शरीर (जीवन) तब भी मत्यु और संसार के विषय में चकित है।
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्तास्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः।
कालो न यातो वयमेव यातास्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः।। = हमारे द्वारा भोग नहीं भोगे गए अपितु हम ही भोगों के द्वारा भोग लिए गए। हमने तप नहीं तपा अपितु हम ही सन्तप्त हो गए। समय नहीं बीता अपितु हम ही बीत गए और तृष्णा बूढ़ी नहीं हुई वरन् हम ही बूढ़े हो गए।
मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च।
तवाऽनन्तानि यातानि कस्तेषां कस्य वा भवान्।। = हजारों माता-पिता और सैकड़ों पुत्र और पत्नियां इस प्रकार तेरे अनन्त सगे और सम्बन्धी हो चुके। उनका कौन हुआ और किसके तुम हो ?
दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्तदपि न मु´्चत्याशावायुः।। = दिन-रात, सायं-प्रातः, शिशिर-वसन्त आदि बार-बार आए और गए। इस प्रकार काल क्रीडा कर रहा है तथा आयु बीतती जा रही है, तो भी आशा रूपी वायु पिण्ड अर्थात् शरीर नहीं छोड़ रही है। अर्थात् शरीर में आशाएं ज्यों कि त्यों विद्यमान हैं।
यावद्वित्तोपार्जनसक्तस्तावन्निजपरिवारो रक्तः।
पश्चाद् धावति जर्जर देहे वार्तां पृच्छति कोऽपि न गेहे।। = जब तक मनुष्य धन कमाने में लगा रहता है तब तक उसका परिवार उससे प्रेम करता है। किन्तु जब बुढ़ापे में शरीर जीर्ण हो जाता है, तो घर में उसकी कोई बात भी नहीं पूछता है।
अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं, दशनविहीनं जातं तुण्डम्।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मु´्चत्याशापिण्डम्।। = शरीर गल गया है, सिर के बाल पक गए हैं और मुख दांतों से रहित हो गया है, इस अवस्था से युक्त बूढ़ा मनुष्य लकड़ी लेकर चलता है फिर भी जीने की बलवती लालसा उसका पीछा नहीं छोड़ती।
सर्वाः सम्पत्तयस्तस्य सन्तुष्टं यस्य मानसम्।
उपानद्गूढपादस्य ननु चर्मावृतेव भूः।। = समस्त ऐश्वर्य उसी के हैं जिसका कि मन सन्तुष्ट है। पांव में जूते पहने हुए मनुष्य के लिए तो मानो सारी भूमि ही चर्म से ढकी हुई है।
वयमिह परितुष्टा वल्कलैस्त्व´्च लक्ष्म्याः सम इह परितोषो निर्विशेषो विशेषः।
स तु भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः।। = हे ऐश्वर्यमत्त मनुष्य ! हम तपस्वी वृक्ष की छालों के वस्त्रों से सन्तुष्ट हैं और तुम धन-सम्पत्ति से। हम दोनों का सन्तोष तो एक समान ही है, उसमें कोई अन्तर नहीं है। दरिद्र तो वह होता है जिसकी तृष्णा बहुत बड़ी हुआ करती है। मन के सन्तुष्ट हो जाने पर तो क्या धनी क्या निर्धन, सब एक समान हैं।
सत्ये तपसि शौर्ये च यस्य न प्रथितं यशः।
विद्यायामर्थलाभे वा मातुरुच्चार एव सः।। = सत्य में तप में पराक्रम में विद्या में अथवा धनप्राप्ति में जिसका यश नहीं फैला, वह मनुष्य न होकर मानो अपनी माता के शरीर का मैल है।
अथ ये सहिता वृक्षाः यङ्घशः सुप्रतिष्ठिताः।
ते हि शीघ्रतमान् वातान् सहतेऽन्योऽन्यसंश्रयात्।। = जो वृक्ष एक साथ समूह में अच्छे प्रकार स्थिर होते हैं, वे एक दूसरे के सहारे से अतितीव्र झंझावातों को भी सह लेते हैं।
एतावज्जन्मसाफल्यं यदनायतवृत्तिता।
ये पराधीनतां यातास्ते वै जीवन्ति के मृताः।। = इसी में जन्म की सफलता है कि मनुष्य अपनी प्रवृत्तियों को पराधीन न होने दे, जो पराधीनता को प्राप्त हो गए हैं वे भी यदि जीवित कहलाते हैं, तो मरे हुए कौन कहलाएंगे ?
द्वाविमौ पुरुषव्याघ्रौ सूर्यमण्डलभेदिनौ।
परिव्राड् योगयुक्तश्च रणे चाभिऽमुखोहतः।। = हे पुरुषश्रेष्ठ दो ही प्रकार के मनुष्य इस सूर्यमण्डल को भेदकर उत्तम लोक को प्राप्त करनेवाले हैं। प्रथम है योगसाधक संन्यासी और दूसरा युद्ध में वीरगति को प्राप्त योद्धा।
यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता साप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः।
अस्मत्कृते च परितुष्यति काचिदन्या धिक् तां च तं च मदनं इमां च मां च।। = मैं अपने चित्त में दिन-रात जिसकी स्मृति संजोए रहता हूं, वह बाला मुझसे प्रेम न करते किसी अन्य पुरुष पर मुग्ध है। वह पुरुष किसी अन्य स्त्री में आसक्त है और इस पुरुष की अभिलषित स्त्री मुझे चाहती है। धिक्कार है उस बाला को, उस पुरुष को, उस पुरुष की अभिलषित स्त्री को, मुझे और इस कामदेव को (जिसने यह सारा कुचक्र चलाया है)।
आज्ञा कीर्त्तिः पालनं ब्राह्मणानां दानं भोगो मित्रसंरक्षणं च।
येषामेते षड्गुणा न प्रवृत्ताः कोऽर्थस्तेषां पार्थिवोपाश्रयेण।। = जिन राजाओं में शासन करने की योग्यता, यश विस्तार की इच्छा, प्रजापालन में दक्षता, सुपात्रों को दान देना, ऐश्वर्य का उपयोग करना और मित्रों के सुख-दुःख का ध्यान रखना; ये छः गुण न हों उनकी शरण में रहना व्यर्थ है।
यदा कि´्चिज्ज्ञोऽहं द्विपइव मदान्धः समभवम्, तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः।
यदा कि´चित्कि´्चिद् बुधजन सकाशादवगतम्, तदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः।। = जब मैं अल्पज्ञ था मदोन्मत्त हाथी की भांति घमण्ड में अन्धा हो गया था और यह समझता था कि मैं सब-कुछ जानता हूं। परन्तु जब बुद्धिमानों के संसर्ग से कुछ-कुछ ज्ञान हुआ तब पता चला कि मैं तो मूर्ख हूं। उस समय मेरा अभिमान ज्वर की भांति उतर गया।
प्रबुद्ध पाठकों से निवेदन है कृपया त्रुटियों से अवगत कराते नए सुझाव अवश्य दें.. ”आर्यवीर“
अनुवादिका: आचार्या शीतल आर्या (पोकार) (आर्ष शोध संस्थान, कन्या गुरुकुल अलियाबाद, तेलंगाणा, आर्यावर्त्त)
टंकन प्रस्तुति: ब्रह्मचारी अरुणकुमार ”आर्यवीर“ (आर्यवीर प्रकाशन, मुम्बई, महाराष्ट्र, आर्यावर्त्त)