पाठ : (३०) सप्तमी विभक्ति (४)

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संस्कृतं वद आधुनिको भव।
वेदान् पठ वैज्ञानिको भव।।

पाठ : (३०) सप्तमी विभक्ति (४)

(सति- सप्तमी :- जिस क्रिया से अन्य क्रिया बताई जा रही हो, तब उस पूर्ववाली क्रिया में तथा उस क्रिया के कर्ता व कर्म में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग होता है।)

मयि भक्षितेऽतिथयः आगमन् = मेरे द्वारा भोजन कर लेने पर अतिथि आए।
उत्तीर्णे बाले पिता पर्यटनार्थमनैषीत् = बालक के उत्तीर्ण हो जाने पर पिता उसे घुमाने ले गया।
हूयमानेषु गतो रामो हुतेषु आगतः = हवन के चलते हुए गया राम हवन के समाप्त होने पर वापस आया।
उदिते सवितरि जुहोति = सूर्योदय होने पर हवन करता है।
अस्तमिते सवितरि ग्रामिणाः अश्नन्ति = सूर्यास्त के समय गांव के लोग भोजन करते हैं।
मार्जितेषु भाण्डेषु पात्रेषु वा सेविका प्रोञ्छनमकरोत् = बरतन साफ करने के बाद नौकरानी ने पौंछा लगाया।
उदरे पूरिते सति आत्मन् भृशं विकुर्वते = पेट भर जाने पर आत्मन् खूब मस्ती करता है।
स्वयं मृते सति स्वर्गो दृश्यते = खुद मरने पर ही स्वर्ग देखा जाता है।
चलिते पथि लक्ष्यं प्राप्यते = मार्ग पर चलने से ही लक्ष्य प्राप्त किया जाता है।
सति ज्ञाने मुक्तिर्नान्यथा = ज्ञान के होने पर ही मुक्ति होती है, और किसी प्रकार से नहीं।
सति क्लेशे कर्माणि बन्धकारणानि, क्लेशाभावे मोक्षसाधनानि = क्लेश के होने पर ही कर्म बांधनेवाले होते हैं, क्लेश का अभाव हो जाने पर कर्म मोक्ष का साधन बन जाते हैं।
सति शरीरे प्रियाप्रिययोरपहतिर्नास्ति = जब तक शरीर है (संसार में) प्रिय-अप्रिय (सुख-दुःख) बने ही रहेंगे।
पुरुषार्थे कृतेऽपि काले (एव) फलं प्राप्नोति = पुरुषार्थ करने पर भी समय आने पर ही फल मिलता है।
सति विभवे न जीर्णमलवद्वासाः स्यात् = धन होते हुए मनुष्य पुराने व मैले कपड़े न पहने।
नरेशे जीवलोकोऽयं निमीलति निमीलति = राजा के नष्ट हो जाने पर राज्य भी नष्ट हो जाता है।
विकारहेतौ सति विक्रियन्ते येषां न चेतांसि त एव धीराः = विकार के कारणों के उपस्थित होने पर भी जिनके चित्त विकृत नहीं होते वे ही धीर हैं।
यस्मिन्जीवति जीवन्ति बहवः सोऽत्र जीवन्तु = जिसके जीवित रहने पर बहुतों को जीवन मिलता है, वह इस लोक में दीर्घायु होवे।
काकः कृष्णः पिकः कृष्णः को भेदः पिककाकयोः।
वसन्तकाले सम्प्राप्ते काकः काकः पिकः पिकः।। = प्रश्न :- दिखने में कौआ और कोयल दोनों काले वर्ण के हैं, फिर दोनों में फर्क क्या है ? उत्तर :- वसन्त ऋतु आने पर (कोयल की कूक से सिद्ध हो जाता है कि) कौआ कौआ है और कोयल कोयल है अर्थात् व्यक्ति की पहचान बाह्य रूप से नहीं अपितु गुणों से होती है।
जानीयात् प्रेषणे भृत्यान् बान्धवान् व्यसनाऽऽगमे।
मित्रं चाऽऽपत्तिकालेषु भार्यां च विभवक्षये।। = कार्य में नियुक्त करने पर नौकरों की, दुःख आने पर बान्धवों की, विपत्ति काल में मित्रों की और धन नष्ट होने पर स्त्री की परीक्षा होती है।
आतुरे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रुसंकटे।
राजद्वारे स्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः।। = रोगी होने पर, दुःखी होने पर, अकाल पड़ने पर शत्रु से संकट उपस्थित होने पर, किसी मुकदमे आदि में फंस जाने पर गवाह एवं सहायक के रूप में राजसभा में और मरने पर जो स्मशान में भी साथ देता है, वही सच्चा बन्धु है।
अस्ति पुत्रो वशे यस्य भृत्यो भार्या तथैव च।
अभावे सति सन्तोषः स्वर्गस्थोऽसौ महीतले।। = जिसका पुत्र, सेवक और पत्नी वश में है, धन का अभाव होने पर भी जो सन्तुष्ट है वह मनुष्य भूतल पर भी स्वर्ग में रहता है।
उद्योगे नास्ति दारिद्र्यं जपतो नास्ति पातकम्।
मौने च कलहो नास्ति नास्ति जागरिते भयम्।। = पुरुषार्थी के पास दरिद्रता नहीं फटकती, जप करनेवाले के पास पाप नहीं रहता, मौन रहने पर लड़ाई-झगड़ा नहीं होता और जागनेवाले को भय नहीं होता।
लालयेत् पञ्चवर्षाणि दशवर्षाणि ताडयेत्।
प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत्।। = पांच वर्ष की आयु तक पुत्र का प्यार दुलार करना चाहिए, तत्पश्चात दस वर्ष तक (हठ, दुराग्रह करने पर) ताड़ना करनी चाहिए। और सोलहवां वर्ष आरम्भ होते ही पुत्र के साथ मित्र जैसा व्यवहार करना चाहिए।
उपसर्गेऽन्यचक्रे च दुर्भिक्षे भयावहे।
असाधुजनसम्पर्के यः पलायेत् स जीवति।। = बाढ, महामारी आदि उपद्रव उठने पर, आक्रमण होने पर, भयंकर दुर्भिक्ष में और दुष्टों का संग होने पर जो भागता है वही जीवित रहता है।
यावत्स्वस्थो ह्ययं देहो यावन्मृत्युश्च दूरतः।
तावदात्महितं कुर्यात् प्राणान्ते किं करिष्यति।। = जब तक शरीर निरोग है और मृत्यु दूर है, तब तक आत्मकल्याण का उपाय कर लेना चाहिए। क्योंकि मृत्यु हो जाने पर कोई कुछ नहीं कर सकता।
यावत्स्वस्थमिदं शरीरमरुजं यावज्जरा दूरतो, यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः।
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान्, सन्दीप्ते भवने तु कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः।। = जब तक शरीर स्वस्थ और रोग रहित है, जब तक बुढापा दूर है, जब तक सभी इन्द्रियों में भरपूर शक्ति है, जब तक प्राणशक्ति क्षीण नहीं हुई है तब तक बुद्धिमान् को चाहिए कि अपने आत्मकल्याण के लिए महान् प्रयत्न करे। अन्यथा घर में आग लग जाने पर कुंआ खेदने से क्या लाभ ?
अनभ्यासे विषं शास्त्रमजीर्णे भोजनं विषम्।
दरिद्रस्य विषं गोष्ठी वृद्धस्य तरुणी विषम्।। = अभ्यास (आवृत्ति) के बिना शास्त्र विष है, अर्थात् अर्थों की संगति लगाना समझाना कठिन है, अपच में भोजन विषतुल्य है, दरिद्र के लिए सभा विषसमान है अर्थात् सभा में कंगले को कोई नहीं पूछता और बूढे के लिए युवती विष समान है।
असम्भवं हेममृगस्य जन्म तथाऽपि रामो लुलुभे मृगाय।
प्रायः समापन्न विपत्तिकाले धियोऽपि पुंसां मलिनी भवन्ति।। = सोने के हिरण का जन्म असम्भव है, फिर भी श्रीराम स्वर्णमृग में लुब्ध हो गए। अतः निश्चय होता है कि विपत्ति आने के समय मनुष्य मलिनबुद्धि अर्थात् विचारशून्य हो जाता है।
कालः पचति भूतानि कालः संहरते प्रजाः।
कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः।। = काल सब प्राणियों को पकाता है, काल ही सब प्रजा को नष्ट करता है। सब के सो जाने पर भी काल जागता रहता है। सचमुच काल बड़ा बलवान है, काल को कोई लांघ नहीं सकता।
तुष्यन्ति भोजने विप्रा मयुरा घनगर्जिते।
साधवः परसम्पत्तौ खलः परविपत्तिषु।। = ब्राह्मण भरपेट भोजन मिलने पर, मोर बादलों के गरजने पर, सज्जन दूसरों के सम्पन्न होने पर और दुष्ट अन्यों की विपत्ति में प्रसन्न होते हैं।
आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः।
स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः।। = आहार (इन्द्रियों के विषय) के शुद्ध हो जाने पर अन्तःकरण की मलिनता दूर हो जाती है। अन्तःकरण के शुद्ध होने पर आत्मस्वरूप की स्थिर स्मृति प्राप्त होती है। आत्मस्वरूप के सतत स्मरण से (अविद्यारूपी) सब गांठे खुल जाती हैं।
अजीर्णे भेषजं वारि जीर्णे वारि बलप्रदम्।
भोजने चामृतं वारि भोजनान्ते विषप्रदम्।। = अपच में पानी पीना औषध के समान है, भोजन पचने पर पीना बलदायक है, भोजन के मध्य जल का सेवन अमृत के समान है और भोजन के अन्त में पानी पीना विषतुल्य हानिकारक है।
एकवृक्षसमारूढा नाना वर्णाः विहङ्गमाः।
प्रभाते दिक्षु दशसु का तत्र परिदेवना।। = अनेक रंग व रूपोंवाले पक्षी सायंकाल होने पर एक वृक्ष पर आकर बैठ जाते हैं और प्रातःकाल होने पर समस्त दसों दिशाओं में उड़ जाते हैं। (ऐसे ही बन्धु-बान्धव एक परिवार में मिलते हैं और बिछुड़ जाते हैं) इस विषय में शोक यानी रोना-धोना कैसा ?
सम्पत्सु महतां चित्तं भवत्युत्पलकोमलम्।
आपत्सु च महाशैलशिलासंघातकर्कशम्।। = समृद्धि में महापुरुषों का चित्त नीलकमल के समान कोमल हो जाता है परन्तु आपत्ति में वह महापर्वत के पत्थरों के समान कठोर हो जाता है।
राज्ञि धर्मिणि धर्मिष्ठाः पापे पापाः समे समाः।
राजानमनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजाः।। = राजा के धार्मिक होने पर प्रजा भी धर्मपरायण, राजा के पापी होने पर प्रजा भी पापी तथा राजा के उदासीन होने पर प्रजा भी उदासीन होती है। प्रजा राजा का अनुसरण करती है अर्थात् जैसा राजा हुआ करता है प्रजा भी वैसे ही हो जाती है।
देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि।
यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः।। = देह के अभिमान का नाश और परमात्म-निष्ठ हो जाने पर जहां-जहां मन जाता है वहीं-वहीं समाधि समझनी चाहिए।
यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो गच्छति मातरम्।
तथा यच्च कृतं कर्म कर्त्तारमनुगच्छति।। = हजारों गायों में भी बछड़ा अपनी मां के पास पहुंच जाता है, वैसे ही असंख्य जीवों के होने पर भी किया हुआ कर्म कर्ता तक पहुंच ही जाता है।
वहेदमित्रं स्कन्धेन यावत्कालस्य पर्ययः।
ततः प्रत्यागते काले भिन्द्यात् घटमिवाश्मनि।। = जब तक समय अपने अनुकूल न हो तब तक शत्रु को अपने कन्धे पर ढोना चाहिए अर्थात् उसका आदर-सत्कार करना चाहिए। परन्तु जब समय अपने अनुकूल आ जाए तो उसे उसी प्रकार नष्ट कर दे जैसे घड़े को पत्थर पर पटककर फोड़ डालते हैं।
रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं, भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पङ्कजश्रीः।
इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे, हा हन्त हन्त नलिनीं गज उज्जहार।। = सायंकाल प्रेम के बन्धन में फंसकर मुंदी हुई कमलिनी के भीतर बैठा हुआ एक भौंरा इस प्रकार सोच रहा था- रात बीत जाएगी, सुन्दर प्रभात होगा, सूर्योदय होगा और कमल खिल उठेगा, तब मैं यहां से मुक्त हो जाऊंगा। किन्तु दुःख है कि भौंरा इस प्रकार चिन्तन कर ही रहा था कि एक हाथी ने उस कमल को उखाड़कर फैंक दिया।
यस्मिन्रुष्टे भयं नास्ति तुष्टे नैव धनागमः।
निग्रहोऽनुग्रहो नास्ति स रुष्टः किं करिष्यति।। = जिसके क्रोधित होने पर कोई भय नहीं है और प्रसन्न होने पर धन-प्राप्ति की कोई आशा भी नहीं है, जो न दण्ड दे सकता है और कृपा ही कर सकता है, ऐसा व्यक्ति रुष्ट होता है तो क्या बिगाड़ लेगा ?
न निर्मितः केन न दृष्टपूर्वः, न श्रूयते हेममयः कुरङ्गः।
तथाऽपि तृष्णा रघुनन्दनस्य, विनाशकाले विपरीतबुद्धिः।। = स्वर्णमृग की रचना न तो पहले किसी ने की, न किसी ने स्वर्णमृग देखा, और न कभी उसके सम्बन्ध में सुना गया। फिर भी श्रीराम स्वर्णमृग को पकड़ने के लिए आतुर हो गए। ऐसा लगता है कि विनाशकाल आने पर मनुष्य की बुद्धि उलटी हो जाती है।
कृते प्रतिकृतं कुर्याद् हिंसने प्रतिहिंसनम्।
तत्र दोषो न पतति दुष्टे दुष्टं समाचरेत्।। = उपकारी के प्रति उपकार और हिंसक के प्रति हिंसा का व्यवहार करना चाहिए, ऐसा करने से कोई दोष नहीं लगता। क्योंकि दुष्ट के साथ दुष्टता का व्यवहार उचित होता है अर्थात् वह इसी भाषा को समझता है।
अध्रुवे हि शरीरे यो न करोति तपोऽर्जनम्।
स पश्चात्तप्यते मूढो मृते गत्वाऽऽत्मगतिम्।। = यह शरीर क्षणभङ्गुर है। जो मनुष्य इसे पाकर तप का अनुष्ठान नहीं करता वह मूर्ख मरने के पश्चात् जब कर्मफल मिलता है, तब दुःखी होता है।
वयसः परिणामेऽपि यः खलः खल एव सः।
सुपक्वमपि माधुर्यं नोपयातीन्द्रवारुणम्।। = जैसे अत्यन्त पक जाने पर भी इन्द्रायण के फल में मिठास नहीं आती, वह कड़वा ही बना रहता है ठीक वैसे ही वयोवृद्ध हो जाने पर भी जो दुष्ट है वह दुष्ट ही बना रहता है।
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।। = चित्त के प्रसन्न होने पर समस्त दुःखों का अभाव हो जाता है और इस प्रसन्न चित्तवाले की बुद्धि निश्चय से शीघ्र ही स्थिर हो जाती है।
खल्वाटो दिवसेश्वरस्य किरणैः सन्तापिते मस्तके, वाञ्छन्देशमनातपं विधिवशात्तालस्य मूलं गतः।
तत्राप्यस्य महाफलेन पतता भग्नं सशब्दं शिरः, प्रायो गच्छति यत्र दैवहतकस्तत्रैवयान्त्यापदः।। = सिर पर पड़नेवाली सूर्य की किरणों से सन्तप्त एक गंजा छायास्थान खोजता हुआ भाग्यवश ताड़ के पेड़ के नीचे जा पहुंचा। जहां एक बहुत बड़ा फल धड़ाम से उसके सिर पर गिर पड़ा जिससे उसका सिर फट गया। भाग्यहीन मनुष्य जहां भी पहुंच जाता है विपत्तियां वहीं उसका पीछा करती हैं।
दैवेन प्रभुणा स्वयं जगति यद्यस्य प्रमाणीकृतम्, तत्तस्योपनमेन्मनागपि महान्नैवाश्रयः कारणम्।
सर्वाऽऽशापरिपूरके जलधरे वर्षत्यपि प्रत्यहं, सूक्ष्मा एव पतन्ति चातकमुखे द्वित्राः पयोबिन्दवः।। = सर्वशक्तिमान परमात्मा ने (कर्मानुसार) सब का भाग्य जैसा निर्धारित किया है, वह उसे अवश्य मिलेगा। इसके लिए किसी को भी सिफारिश की थोड़ी सी भी आवश्यकता नहीं है। उदाहरण के लिए चातक को देखिए- प्रतिदिन चारों दिशाओं को भर देनेवाली घनघोर वर्षा के बीच मुंह खोलकर बैठे रहने पर भी उसके मुख में वर्षा की छोटी-छोटी दो-चार बूंदे ही पड़ पाती हैं।
छिन्नोऽपि रोहति तरुः क्षीणोऽप्युपचीयते पुनश्चन्द्रः।
इति विमृशन्तः सन्तः सन्तप्यते न दुःखेषु।। = कट जाने पर भी समय पाकर वृक्ष फिर से पल्लवित हो बढ़ता है, क्षीण होने पर भी चन्द्रमा पुनः बढ़ता है। इस प्रकार का विचार करनवाले सज्जन पुरुष विपत्ति आने पर दुःखी नहीं होते।

प्रबुद्ध पाठकों से निवेदन है कृपया त्रुटियों से अवगत कराते नए सुझाव अवश्य दें.. ‘‘आर्यवीर’’

अनुवादिका : आचार्या शीतल आर्या (पोकार) (आर्यवन आर्ष कन्या गुरुकुल, आर्यवन न्यास, रोजड, गुजरात, आर्यावर्त्त)
टंकन प्रस्तुति : ब्रह्मचारी अरुणकुमार ‘‘आर्यवीर’’ (आर्ष शोध संस्थान, अलियाबाद, तेलंगाणा, आर्यावर्त्त)

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