पाठ : (२४) षष्ठी विभक्ति (३) + जश्त्व सन्धिः

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संस्कृतं वद आधुनिको भव।
वेदान् पठ वैज्ञानिको भव।।

पाठ : (२४) षष्ठी विभक्ति (३) + जश्त्व सन्धिः
(कर्त्तादि कारकों को कहने की इच्छा न हो तब उन कारकों में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग होता है।)

सीता अशोकवाटिकायामुपविश्य रामस्य स्मरति = सीता अशोकवाटिका में बैठकर राम को याद कर रही है।
छात्रावासे वसन् वटुः मातुः स्मरति = छात्रावास में रहता हुआ बच्चा मां को याद कर रहा है।
विटपे स्थितः कोकिलः वसन्तस्य स्मरति = शाखा पर बैठी कोयल वसन्त ऋतु को याद कर रही है।
कच्चिद् भर्त्तुः स्मरसि सुभगे ? = हे सौभाग्यवती ! पति को याद कर रही हो क्या..?
विधुरः विधुरे काले दयितायाः मृतायाः भृशं स्मरति स्म = विधुर कठिन समय में अपनी मृत पत्नी को खूब याद करता था।
हे प्रभो ! दयस्व मे विषमस्थितस्य = विपत्तियों में फंसे हुए मुझ पर हे प्रभो ! दया कीजिए।
दयालुः दीनानां दयते = दयालु ईश्वर दीनों पर दया करता है।
दयेरन् आतङ्किनः प्रजायाः = आतंकवादी लोगों पर दया करें।
दयै सदाऽहं मदाश्रितानाम् = मुझ पर आश्रितों की मैं सदा रक्षा करूं।
ईश्वराः निर्धनेभ्यो रङ्कवानां दयाञ्चक्रे = समृद्ध/सम्पन्न लोगों ने गरीबों को कम्बल दिए।
अद्यत्वे नरेन्द्रमोदी भारतस्य ईष्टे = आजकल नरेन्द्र मोदी भारत पर शासन कर रहे हैं।
रामः अयोध्यायाः र्ईशाञ्चक्रे = राम ने अयोध्या पर शासन किया।
इन्द्रो दिव इन्द्र इशे पृथिव्याः = इन्द्र द्युलोक का स्वामी है, ईन्द्र पृथ्वीलोक का स्वामी है।
ईशिरे भुवनस्य प्रचेतसो विश्वस्य स्थातुर्जगतश्च मन्तवः = उत्कृष्ट ज्ञानवाले मननशील ज्ञानी लोग स्थावर व जंगमस्वरूप सम्पूर्ण जगत का शासन करते हैं।
इन्द्रो विश्वस्य राजति = इन्द्र सबको प्रकाशित करता है।
ईशानः लोकानां लोकपालः = लोकों का पालन करनेवाला ईश्वर सभी लोक-लोकान्तरों का स्वामी है।
ईशे द्विपदानां चतुष्पदानां = दो पैरवाले तथा चार पैरवाले समस्त प्रणियों पर मैं (ईश्वर) शासन करता हूं।
मल्लः घृतस्य नाथते = पहलवान घी की इच्छा करता है।
रुग्णः औषधस्य नाथते = रोगी दवाई चाहता है।
नाथेऽहं संस्कृतस्य समृद्धेः = मैं संस्कृत की समृद्धि चाहती/चाहता हूं।
नाथेरन् विश्वे विश्वविकासस्य = सभी विश्व के विकास को चाहें।
उज्जासतां दुष्टानां रक्षकभटाः उज्जासयन्ति = हत्यारे दुष्टों को पुलिस मार रही है।
सर्वकारः एतस्याऽऽतङ्किनः निप्रहन्यात् = सरकार को इस आतंकवादी की हत्या कर देनी चाहिए।
स्वदुर्गुणानां निहन्तु = अपने दुर्गुणों को मार भगाओ।
प्राहन् ऋषिः सर्वदोषानाम् = ऋषि ने सारे दोष नष्ट कर दिए।
शरणगतानां न उन्नाटयेत् कदाचित् = शरणागतों को कभी भी न मारे।
पुरा सङ्ग्रामे निरस्त्रकानां नोन्नाटयन्ति स्म = प्रचीनकालीन युद्ध में निहत्थे पर वार नहीं करते थे।
यः निरपराधानां क्राथयति तस्य परमेश्वरः क्राथयति = जो बेकसूरोंको मारता है, उसे ईश्वर मारता है।
आतङ्किप्रहारे नैकेषां निर्दोषानाम् अक्राथयत् = आतंकवादी हमले में कई सारे निर्दोष मार दिए गए।
बर्बराणां पिंष्यात् = बर्बरों को पीस दो।
गोघातकानां पिण्ढि = गाय व पृथ्वी के हत्यारों को पीस दो।
भ्रूणहनोऽपिनट् = भ्रूणहत्यारे को पीस दिया।
एषः समवायः प्रतिवर्षं सहस्रकोटिरुप्यकाणां व्यवहरति = इस कंपनी का हजार करोड़ रुपयों का वार्र्षिक लेन-देन है।
एषः आपणिकः लक्षाणां पणते = यह दुकानदार लाखों रुपयों की लेन-देन करता है।
प्रतिराष्ट्रं शासकाः अब्जानां शङ्कूनां रुप्यकाणां विकासाय दीव्यन्ति = प्रत्येक राष्ट्र की सरकारें अरबों-खरबों रुपए विकास के लिए लगाती हैं।
कितवाः दीपावल्यां सहस्राणां दीव्यन्ति = जुआरी दीपावली पर हजारों का जुआ खेलते हैं।
युधिष्ठिरः द्युतक्रीडायां निजपरिवारस्य दिदेव = युधिष्ठिर ने जुए में अपने परिवार को दांव पर लगा दिया।
एधः उदकस्य उपस्कुरुते = इन्धन की लकड़ियां शीतल जल को गरम करती हैं।
अग्निहोत्रं परिसरस्य उपस्कुरुते = अग्निहोत्र परिसर के वायुमण्डल को बदल देता है।
सूपस्य संस्कारो वातावरणस्योपास्करोत् = दाल के तड़के ने हवा में सुगन्धि फैला दी।
सज्जनानां सङ्गतिः खलहृदयस्योपस्कर्त्तुं शक्नोति = सज्जनों की संगति दुष्टों का हृदयपरिवर्तन कर सकती है।
फेनिलं हरिद्रावर्णस्योपस्कुरुते = साबुन हल्दी के रंग को बदल देता है।
क्रोधो मनस उपस्कुरुते = गुस्सा मन को विकृत कर देता है।
रोगिणः रुजन्ति रोगाः = बीमारियां बीमारों को सता रही हैं।
व्यायामक्षुण्णगात्रस्य आमयाः न आमयन्ति = व्यायाम से थकाए हुए शरीरवाले को रोग तंग नहीं करते।
जीर्णभोजिनः व्याधयो न व्यथन्ते = पहला भोजन पच जाने पर खानेवाले को रोग नहीं सताते।
मानसिकरोगाः कृपणस्य रुजन्ति = कंजूस को मानसिक रोग सताते हैं।
सा लक्ष्मीरुपकुरुते यया परेषाम् = वह लक्ष्मी है, जिससे दूसरों का उपकार करता है।

(कभी कभी चतुर्थी के अर्थ में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग देखा जाता है।)

तृणं ब्रह्मविदः स्वर्गस्तृणं शूरस्य जीवितम्।
जिताऽक्षस्य तृणं नारी निःस्पृहस्य तृणं जगत्।। = ब्रह्मज्ञानी के लिए स्वर्ग, शूरवीर के लिए जीवन, जितेन्द्रिय के लिए स्त्री और निर्लोभी के लिए संसार तिनके के समान तुच्छ है।
को हि भारः समर्थानां किं दूरं व्यवसायिनाम्।
को विदेशः सविद्यानां कः परः प्रियवादिनाम्।। = शक्तिशालियों के लिए कौनसा कार्य कठिन है,व्यापारियों के लिए कौन सा स्थान दूर है, विद्वानों के लिए कौन देश विदेश है और मधुर बोलनेवालों के लिए कौन पराया है..? अर्थात् कोई नहीं।
दरिद्रान् भर कौन्तेय मा प्रयच्छेश्वरे धनम्।
व्याधितस्यौषधं पथ्यं नीरुजस्य किमौषधेः।। = हे युधिष्ठिर ! निर्धनों का पालन करो, धनिकों को दान न दो। रोगी के लिए दवा लाभकारी होती है, निरोगी को दवाई से क्या प्रयोजन।
खलानां कण्टकानां च द्विविधैव प्रतिक्रिया।
उपानान्मुखभङगं वा दूरतो वा विसर्जनम्।। = दुष्ट व कांटे के लिए दो ही प्रकार की प्रतिक्रिया है, या तो जूते से इनका मुंह कुचल दो या तो दूर से ही इन्हें त्याग दो।
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।। = जिसका आहार-विहार नियमित हो, जिसके कर्म नियमित हों, जिसका सोना-जागना नियमित हो ऐसे व्यक्ति द्वारा किया योग उसके दुःखों का हरनेवाला होता है।

(अर्थे, कृते तथा हेतु शब्दों के साथ षष्ठी विभक्ति का प्रयोग होता है।)

त्यजेदेकं कुलस्याऽर्थे ग्रामस्याऽर्थे कुलं त्यजेत्।
ग्रामं जनपदस्याऽर्थे आत्माऽर्थे पृथिवीं त्यजेत्।। = मनुष्य को चाहिए कि कुल की रक्षार्थ एक व्यक्ति को त्याग दे, गांव की उन्नति के लिए कुल का त्याग करे, जिले की उन्नति के लिए गांव को छोड़ दे और और अपने आत्मा की उन्नति के लिए सारे धरतीवासियों के मोह को त्याग दे।
मूर्खः स उच्यते यो हिरण्यस्यार्थे कृते वा अलीकं वदति = वह मूर्ख कहाता है जो सोने (धन) के लिए झूठ बोलता है।
विद्यायाः कृते सुखं त्यजेत् = विद्या के लिए सुख को छोड़ देना चाहिए।
मन्दभाग्योऽर्थस्यार्थे स्वदेशं जहाति = भाग्यहीन व्यक्ति धन के लिए अपना देश छोड़ देता है।
अध्ययनस्य हेतोः गुरुकुले वसामि = अध्ययन के लिए गुरुकुल में रहता हूं।
धर्मस्य हेतोः स्वप्राणानुदसृजत् श्रद्धानन्दः = धर्म के लिए श्रद्धानन्द ने प्राणों का त्याग किया।
जीवनस्य कृते भोजनमस्ति न तु भोजनस्य कृते जीवनम् = जीने के लिए खाना चाहिए न कि खाने के लिए जीना।
न जातु कामान्न भयान्न लोभाद् धर्मं जह्याज्जीवितस्यापि हेतोः। = व्यक्ति काम, लोभ, भय के वशीभूत होकर तथा जान बचाने के लिए भी धर्म का परित्याग न करे।

जश्त्व सन्धिः

{झलां झशोऽन्ते। झलों (वर्ग के प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ वर्ण तथा हकार) को जश् (वर्ग का तृतीय वर्ण) होता है यदि झल् पद के अन्त में हो तो।}
अर्थात् यदि पदान्त में-
क्, ख्, ग्, घ् होगा तो उसे ग् हो जाता है।
च्, छ्, ज्, झ् होगा तो उसे ज् हो जाता है।्
ट्, ठ्, ड्, ढ् होगा तो उसे ड् हो जाता है।
त्, थ्, द्, ध्, होगा तो उसे द् हो जाता है।
प्, फ, ब्, भ्, होगा तो उसे ब् हो जाता है।
ह्, होगा तो उसे द् हो जाता है।

यथा जगत् + ईशः = जगद् + र्ईशः = जगदीशः।
चित् + आनन्दः = चिद् + आनन्दः = चिदानन्दः।
वाक् + ईशः = वाग् + ईशः = वागीशः।

षट् + दर्शनानि = षड्दर्शनानि।
वैदिकवाङ्मये षड्दर्शनानि सन्ति = वैदिक साहित्य में छै दर्शन हैं।
तत् + एजति = तदेजति; तत् + दूरे = तद्दूरे; तत् + उ = तदु।
तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके = वह (र्ईश्वर) चलता है, नहीं चलता है, वह दूर है, वह निश्चय से समीप है।
विनयात् + याति = विनयाद्याति; पात्रत्वात् + धनम् = पात्रत्वाद्धनम्; धनात् + धर्मम् = धनाद्धर्मम्।
विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम्।
पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम्।। = विद्या से मानव में विनम्रता आती है, विनम्रता से योग्यता प्राप्त होती है, योग्यता से धन मिलता है, धन से धर्म कमाया जाता है और धर्म से सुख मिलता है।
ककुभ् + दिक् + उच्यते = ककुब् दिगुच्यते।
ककुब् दिगुच्यते संस्कृते = संस्कृत में ककुभ् दिशा को कहते हैं।
समिध् + इति = समिदिति।
समिधा समिदित्यपि कथ्यते = समिधा को समिध् भी कहते हैं।
समिध् + आधानाम् = समिदाधानम्।
अग्निहोत्रे समिदाधानं कर्म क्रियते = हवन में समिदाधान क्रिया की जाती है।
अप् + भक्षी = अब्भक्षी।
अब्भक्षी बालोऽयं किमपि न भुङ्क्ते = यह बालक केवल पानी पीता है और कुछ भी नहीं खाता।
उपानह् + विक्रेता = उपानद्विक्रेता।
उपानद्विक्रेता महार्घ्याः उपानहाः विक्रीणीते = जूते बेचनेवाला बहुत मंहगे जूते बेचता है।

प्रबुद्ध पाठकों से निवेदन है कृपया त्रुटियों से अवगत कराते नए सुझाव अवश्य दें.. ‘‘आर्यवीर’’

अनुवादिका : आचार्या शीतल आर्या (पोकार) (आर्यवन आर्ष कन्या गुरुकुल, आर्यवन न्यास, रोजड, गुजरात, आर्यावर्त्त)
टंकन प्रस्तुति : ब्रह्मचारी अरुणकुमार ‘‘आर्यवीर’’ (आर्ष शोध संस्थान, अलियाबाद, तेलंगाणा, आर्यावर्त्त)

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