पाठ : (२३) षष्ठी विभक्ति (२) + ष्टुत्व सन्धिः

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संस्कृतं वद आधुनिको भव।
वेदान् पठ वैज्ञानिको भव।।

पाठ : (२३) षष्ठी विभक्ति (२) + ष्टुत्व सन्धिः

(बहुतों में एक को छांटने में जिसमें से छांटा जाए उसमें षष्ठी तथा सप्तमी दोनों का प्रयोग देखा जाता है।)

व्याकरणअध्येतृणां व्याकरणाध्येतृषु दयानन्दः पटुः अस्ति = व्याकरण पढ़नेवालों में दयानन्द चतुर/कुशल है।
कविषु कवीनां वा कालिदासः श्रेष्ठोऽस्ति = कवियों में कालिदास श्रेष्ठ है।
गवां गोषु वा देशि-गौ श्रेष्ठतमा भवति = गायों में देशी गाय सर्वोत्तम होती है।
पशुनां पशुषु वा सिंहः शूरो भवति = पशुओं में शेर शूर होता है।
मृगानां मृगेषु वा चित्रकः वेगेन धावति = जंगली पशुओं में चीता तेजी से दौड़ता है।
वयसां वयस्सु हंसः दूरम् उड्डयति = पक्षियों में हंस लम्बी उड़ान भरता है।
पेयानां पेयेषु वा दुग्धं सम्पूर्णाहार इति कथ्यते = पेय पदार्थों में दूध को सम्पूर्णाहार कहा जाता है।
जीवेषु जीवानां वा मानवः श्रेष्ठः = प्राणियों में मनुष्य श्रेष्ठ है।
मानवानां मानवेषु वा पण्डिताः श्रेष्ठाः = मानवों में पण्डित श्रेष्ठ है।
वृक्षानां वृक्षेषु वा चन्दनं शीतलं वर्तते = वृक्षों में चन्दन शीतल होता है।
वस्त्रेषु वस्त्राणां वा कार्पासं वस्त्रं स्वास्थ्यप्रदं भवति = कपड़ों में सूती कपड़ा स्वास्थ्यप्रद होता है।
धातूनां धातुषु वा सुवर्णस्य महिमा अधिकोऽस्ति = धातुओं में सोने का महत्व अधिक है।
सैनिकानां सैनिकेषु वा पञ्च सैनिकाः अद्य वीरगतिं प्राप्नुवन् = सैनिकों में आज पांच सैनिक शहीद हो गए।
राजनीतिज्ञानां राजनीतिज्ञेषु वा कृष्णोऽन्यतमः = राजनीतिज्ञों में कृष्ण जैसा कोई नहीं है।
पुरुषेषु पुरुषाणां वा राम एव मर्यादापुरुषोत्तमो बभूव = पुरुषों में श्रीराम ही मर्यादापुरुषोत्तम हुए।
देशेषु देशाणां वा भारत एव जगद्गुरु-नाम्ना लब्धख्यातिकोऽस्ति = देशों में केवल भारत ही जगद्गुरु नाम से प्रसिद्ध है।
भाषाणां भाषासु वा संस्कृतस्य साहित्यं विशालं वर्तते = सकल भाषाओं में संस्कृत भाषा का साहित्य विशाल है।
ऋतुनां ऋतुषु वा शरदृतुर्जीवग्राही वर्तते वसन्तर्तु च स्वास्थ्यदायी = ऋतुओं में शरद्-ऋतु जानलेवा होती है जबकि वसन्त-ऋतु स्वास्थ्यदायी।
भोजनानां भोजनेषु वा उष्णिका शीतर्तौ स्वद्यते = व्यंजनों में गरमागरम लप्सी ठंड में खूब स्वादिष्ट लगती है।
धर्मार्थकाममोक्षाणां यस्यैकोऽपि न विद्यते।
जन्म-जन्मनि मर्त्येषु मरणं तस्य केवलम्।। = जिस मानव ने अपने जीवन में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में से एक भी नहीं प्राप्त किया, उसे इस मृत्यु लोक में बार-बार जन्म लेने और मृत्युदुःख भोगने का ही विकल्प बचता है।
धर्मार्थकाममोक्षाणां यस्यैकोऽपि न विद्यते।
अजागलस्तनस्येव तस्य जन्म निरर्थकम्।। = जिसके जीवन में धर्म अर्थ काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में से एक भी नहीं है उसका जन्म ऐसे ही निष्फल है जैसे बकरी के गले का स्तन (जो न दूध देता है और ना हि गले की शोभा बढ़ाता है)।
नराणां नापितो धूर्तः पक्षिणां चैव वायसः।
चतुष्पदां शृगालस्तु स्त्रीणां धूर्ता च मालिनी।। = पुरुषों में नाई, पक्षियों में कौआ, चौपायों में सियार और महिलाओं में मालिन ये सब चालाक (धूर्त) होते हैं।
पक्षिणां काकश्चाण्डालः पशूनां चैव कुक्कुरः।
मुनीनां कोपी चाण्डालः सर्वेषां चैव निन्दकः।। = पक्षियों कौआ, पुशुओं में कुत्ता, मुनियों में क्रोधी तथा सबकी निन्दा करनेवाला मनुष्यों में चाण्डाल माना जाता है।
सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं परं स्मृतम्।
योऽर्थे शुचिर्हि स शुचिर्न मृद्वारि शुचिः शुचिः।। = समस्त पवित्रताओं में धन की पवित्रता सर्वश्रेष्ठ मानी गई है। जो धन के मामले में सर्वथा पवित्र है वास्तव में वही व्यक्ति पवित्र है। जो केवल मिट्टी-जलादि से (अर्थात् शरीर स्थानादि की सफाई से) पवित्र है वह वास्तव में पवित्र नहीं है।
मनः शौचं कर्मशौचं कुलशौचं च भारत।
शरीरशौचं वाक्शौचं शौचं पञ्चविधं समृतम्।। = पांच प्रकार की शुद्धियां कही गई हैं यथा मन की शुद्धि, कर्मशुद्धि, कुल की शुद्धि, शरीरशुद्धि और वाणी की शुद्धि।
पञ्चस्वेतेषु शौचेषु हृदि शौचं विशिष्यते।
हृदयस्य तु शौचेन स्वर्गं गच्छन्ति मानवा।। = इन पांचों शुद्धियों (मनशुद्धि, कर्मशुद्धि, कुलशुद्धि, शरीरशुद्धि और वाक्शुद्धि) में हृदय अर्थात् मनशुद्धि सर्वश्रेष्ठ है। क्योंकि मन की पवित्रता से ही मानव उत्तम सुखों को प्राप्त होता है।
सर्वौषधीनाममृता प्रधाना सर्वेषु सौख्येष्वशनं प्रधानम्।
सर्वेन्द्रियाणां नयनं प्रधानं सर्वेषु गात्रेषु शिरः प्रधानम्।। = सब ओषधियों में गिलोय, समस्त सुखों में भोजनसुख, सकल इन्द्रियों में आंख और शरीर के समस्त अंगों में सिर सर्वश्रेष्ठ होता है।
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः।। = हजारों मनुष्यों में से कोई एक योग की सिद्धि के लिए यत्न करता है और प्रयत्न करनेवाले सिद्धों में कोई एकाद ही मुझे (ईश्वर को) यथार्थ रूप से जान पाता है।
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः।। = उन सब में (चार प्रकार के भक्तों में) ज्ञानी भक्त जो नित्य ब्रह्म के साथ लगा हुआ है, अनन्य भक्तिवाला है, वह सबसे श्रेष्ठ है। क्योंकि मैं (ईश्वर) इस प्रकार के ज्ञानी भक्त को अत्यन्त प्रिय हूं और वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।
शतेषु जायते शूरः सहस्रेषु च पण्डितः।
वक्ता दशसहस्रेषु दाता भवति वा न वा।। = सैकड़ों में एकाध शूर-वीर उत्पन्न होता है, हजारों में एकाध पण्डित तथा दस हजारों में एकाद वक्ता किन्तु दाता तो कोई कोई ही होता है।
यद् बलानां बलं श्रेष्ठं तत् प्रज्ञाबलमुच्यते = बुद्धिबल को समस्त बलों में श्रेष्ठ बल कहा जाता है।
आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी।। = आदित्यों में मैं विष्णु हूं, ज्योतियों में दमकता हुआ सूर्य हूं, मरुद्गणों में मरीचि हूं और नक्षत्रों में चन्द्रमा हूं।
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।। = वेदों में सामवेद हूं, देवों में इन्द्र हूं, इन्द्रियों में मन मैं हूं और प्राणियों में चेतना मैं हूं।
रुद्राणां शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्।। = रुद्रों में शंकर हूं मैं, यक्ष और राक्षसों में कुबेर हूं मैं, वसुओं में मैं अग्नि हूं तथा पर्वतों में मैं मेरू हूं।
पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः।। = हे पार्थ पुरोहितों में मुख्य बृहस्पति मुझे समझ, सेनानायकों में कार्त्तिकेय मैं हूं और जलाशयों में समुद्र मैं हूं।
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः।। = महर्षियों में भृगु मैं हूं, वाणी में ओंकार मैं हूं, यज्ञों में जप-यज्ञ मैं हूं, स्थावरों में हिमालय मैं हूं।
अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः।। = सकल वृक्षों में पीपल हूं मैं, देवर्षियों में नारद हूं मैं, गन्धर्वों में चित्ररथ मैं हूं तथा सिद्धों में कपिलमुनि हूं मैं।

ष्टुत्व सन्धिः

{(ष्टुना ष्टुः) सकार या तवर्ग (त्, थ्, द्, ध्, न्) से पहले या बाद में षकार या टवर्ग (ट्, ठ्, ड्, ढ्, ण्) कोई भी हो तो सकार और तवर्ग को क्रमशः षकार और टवर्ग हो जाता है। (अर्थात् ‘स्’ को ‘ष्’, ‘त्’ को ‘ट्’, ‘थ्’ को ‘ठ्’, ‘द्’ को ‘ड्’, ‘ध्’ को ‘ढ्’ और ‘न्’ को ‘ण्’ हो जाता है।)}

ष्/टवर्ग + स्/तवर्ग अथवा स्/तवर्ग + ष्/टवर्ग है तो स् = ष् तथा तवर्ग = टवर्ग।

रामस् + षष्ठः = रामष् + षष्ठः = रामष्षष्ठः।
दुष् + तः = दुष् + टः = दुष्टः।
उद् + डयते = उड् + डयते = उड्डयते।
बालस् + टीकते = बालष् + टीकते = बालष्टीकते।
विष् + नुः = विष् + णुः = विष्णुः।

सकृत् + टंकयतु = सकृट्टंकयतु।
सकृट्टंकयतु कुडुपं प्रिये ! = प्यारी ! एक बार बटन टांक दे (सिल दे)।
उद् + डयते = उड्डयते।
उच्चैरुड्डयते हंसो विहायसि = आकाश में हंस ऊंचाई पर उड़ता है।
ढुण्ढनाद् + ढुण्ढिः = ढुण्ढनाड्ढुण्ढिः।
ढुण्ढनाड्ढुण्ढिरपि प्राप्नोति = ढूंढने पर ढुण्ढि (गणेश) भी मिलता है। (ढुण्ढनाड्ढुण्ढिः काशकृत्स्न-धातुपाठात् प्राप्तः।)
बालस् + टीकते = बालष्टीेकते।
बालष्टीकते वारं वारम् = बच्चा बार बार खेलता है।
असकृद् + ढोलति = असकृड्ढोलति।
ढोल्ला ढोलमसकृड्ढोलति = ढोली ढोल बार बार बजाता है।
छात्रान् + ठालिनी = छात्राण्ठालिनी।
पुरा गुरुकुले छात्राण्ठालिनीं धारयन्ति स्म = प्राचीन काल में गुरुकुल में विद्यार्थियों को मेखला पहनाते थे।

प्रबुद्ध पाठकों से निवेदन है कृपया त्रुटियों से अवगत कराते नए सुझाव अवश्य दें.. ‘‘आर्यवीर’’

अनुवादिका : आचार्या शीतल आर्या (पोकार) (आर्यवन आर्ष कन्या गुरुकुल, आर्यवन न्यास, रोजड, गुजरात, आर्यावर्त्त)
टंकन प्रस्तुति : ब्रह्मचारी अरुणकुमार ‘‘आर्यवीर’’ (आर्ष शोध संस्थान, अलियाबाद, तेलंगाणा, आर्यावर्त्त)

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