ना मैं यश चाहूं…

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“ब्रह्म-भाव”
(तर्ज :- ना मैं धन चाहूं, ना रतन चाहूं)

ना मैं यश चाहूं, ना मैं वित्त चाहूं, ना मैं मद चाहूं।
स्वयं में ब्रह्म का भाव भर जाए, मैं तो ओऽम् गाऊं।। टेक।।

वेद से टूटा ज्ञान से छूटा, धर्म का बूटा अधर्म ने लूटा।
अब तो लौट आऊं, फिर मैं ब्रह्म पाऊं, स्वयं में….।। 1।।

चल पडा जीवन नव उच्चता पाई, साधना सांस ब्रह्म भर लाई।
झूमता गाऊं, आनन्द हो जाऊं, स्वयं में ब्रह्म का….।। 2।।

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