“धर्म-मेघ प्रबन्धन”

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अधर्म या पाप या मानव हीनता या दोष या त्रुटि का लेशमात्र भी रह न जाने के बाद शत प्रतिशत धर्म या अपापविद्ध, मानकपूर्ण या निर्दोष या गुण-पूर्त अवस्था का नाम धर्म मेघ है। आज विश्व के सारे प्रबन्धन गुरुओं का लक्ष्य है इस अवस्था को प्राप्त करना। सारे मानव इसलिए बने हैं कि कार्य में, उत्पादन में, उत्पाद में, विक्रय में, वितरण में धर्म मेघ अवस्था प्राप्त की जा सके। ”धर्म मेघ“गुणवता की सर्वोत्तम अवस्था का नाम है। सर्वायतन परिशुद्व होना धर्म मेघ अवस्था है।

आधुनिक प्रबन्धन गुरु धर्म मेघ या उच्च गुणवत्ता की प्राप्ति के लिये निम्नलिखित तत्वों को केन्द्रिय आधार देते हैं। डब्ल्यू एडवर्ड डेंमिंग-सांख्यिकी प्रक्रिया को, जोसेफ एम. जुरान -लक्ष्य के गुणात्मक स्वरूप को, फिलिप बी. क्रासबाई- मानक अनुरूपता को, शिंगेयो शिंगो- शून्यत्रुटि को, व्ही. फैजनवोम- उन्नयन योजना को तथा इशिकावा- अस्सीबीस सिद्धान्त को केन्द्रीय आधार मानते हैं। विश्व धर्म मेघ, प्रबन्धन के ये बीज हैं। वैदिक संस्कृति में लक्ष्य से युजन को योग कहते हैं। योग लक्ष्य पाने के लिये कुछ बाधाएं या विघ्न हैं, जो चित्त को भटका देते हैं। इन्हें हटाना या पार करना मानव का दायित्व है। ये विघ्न गुणवत्ता के पथ में बाध है। योगदर्शन सूत्र 4/27 से 29 में ”धर्म-मेघ“प्राप्ति का विवरण है। यह विवरण विश्लेषण करने से आधुनिक युग से उच्चस्तर के त्रुटि निराकरण एवं गुणवत्ता धारण भावों को देता है। ”तत् छिद्रेषु प्रत्ययान्तराणि संस्कारेभ्यः“लक्ष्य में निमग्नता के अंतराल में पूर्व संस्कारों से अन्य का ज्ञान होता है। धर्ममेघता के लिए अ) लक्ष्य निमग्नता, ब) लक्ष्य के अंतराल, स) पूर्व संस्कार कार्य, द) अन्य उपकार्यों का क्रमशः ज्ञान आवश्यक है। उपकार्यों, पूर्वकार्यों के दोषों को दूर करने की भावना में लक्ष्य के मध्य जो अंतराल है या रूकावटे हैं, उन्हें दूर करने से लक्ष्य निकटता प्राप्ति होती है। ”हानमेषां क्लेशवदुक्तम्“क्लेशों के समान कार्यों उपकार्यों से दोषों का निराकरण होकर लक्ष्य सिद्धि होती है। ‘हानोपाय’लक्ष्यानन्द गति का नाम है जो हान लक्ष्य आनन्द का नाम है। क्लेश महान त्रुटि कारक है। अविद्या इनकी आत्मा है। अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश अविद्या के विस्तार हैं। नित्य-अनित्य, पवित्र-अपवित्र, सुख-दुःख तथा आत्म-अनात्म की नासमझी अविद्या है। इन्द्रियों से अनुभूत विषय से संयुक्त होकर विषय लिप्त हो सोचना अस्मिता है। मात्र सुख लिप्त सोचना द्वेष है। शाश्वत नियम विरुद्ध मान्यताएं अभिनिवेष है। मैं नहीं मरुंगा, परिवर्तन नहीं होगा आदि सोचना अभिनिवेश है। पठन, चिंतन, मनन, कर्मन तथा साधना समवेत के एकीकरण बाद अर्थात ध्यान से पंचक्लेशों का नाश होता है। पंचक्लेश ही विश्व की समस्त त्रुटियों के मूल कारण हैं। इसके भी पार उच्च कोटि का ज्ञान प्रसंख्यान है। तन, स्थूलभूत, सूक्ष्मभूत, मन, बुद्धि, धी, चित स्व, अहम्, आत्म, पुरुष आदि स्तरों का स्पष्ट ज्ञान तथा इनके अंतरसम्बन्धों का सही ज्ञान प्रसंख्यान है। इससे पार सिद्धि तटस्थ भाव है, जहां विवेक ख्याती है। विवेक ख्याती से धर्म मेघ अवस्था है। इस अवस्था को ध्यान में रख के जो शून्य त्रुटि व्यवस्था लागू की जाती है, वह धर्ममेघ, प्रबन्धन कहलाती है।

स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय

पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)

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