“संगच्छध्वं-सम्वदध्वम्”
धर्मयुक्त नेक रहें, मन्त्र एक।
निज विरोध तजें, सम अन्तःकरण हों।। टेक।।
हविष्य समान हो, हृदय तुल्य हो।
मानस समान हो, उदार हो।
ममता साकार हो, ममता साकार हो।। 1।।
प्रस्थापित व्रत आचरण हो।
सम विचार हो, सम ज्ञान हो।
समान लक्ष्य अभिमन्त्रित हों,
समान लक्ष्य अभिमन्त्रित हों।। 2।।
चेष्टा समान हो, निश्चय हो समान।
एक अर्थ जानें, एक बात मानें।। 3।।
मिलकर एक रहें, प्राप्ति समान हो।
विषमता नष्ट हो, समता हो।
उत्तम निवास हो सबका, ममता साकार हो।। 4।।