दयानन्द के वीर बाँके सिपाही,
हलचल मचाने चले ऽऽ तूफान लाने चले।।
आलस की निद्रा में जो सो रहे हैं।
भाग्य की रेखा को जो रो रहे हैं।
अवसर को जो व्यर्थ में खो रहे हैं।।
उनको जगाने चले, तूफान…।। 1।।
अविद्या व अन्याय और दीनता को।
नफरत के भावों को और हीनता को।
असमानता को पाखण्डता को।।
जग से हटाने चले, तूफान…।। 2।।
गड़ गड़ गरजती हुई बदलियों में।
चम चम चमकती हुई बिजलियों में।
प्रलय सा मचाती हुई गोलियों में।।
होली मनाने चले, तूफान…।। 3।।
वेदों की ज्योति के परवाने बन कर।
बिस्मिल भगतसिंह से दीवाने बनकर।
आजाद रोशन से मस्ताने बनकर।।
खुद को मिटाने चले, तूफान…।। 4।।
स्वाधीनता की ले जिम्मेदारी।
माता की रक्षा प्रतिज्ञा हमारी।
माता के मन्दिर के हम हैं पुजारी।।
शीश माँ को चढ़ाने चले, तूफान..।। 5।।